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काकोरी काण्ड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर युद्ध छेड़ने की खतरनाक मंशा से हथियार खरीदने के लिये ब्रिटिश सरकार का ही खजाना लूट लेने की एक ऐतिहासिक घटना थी जो 9 अगस्त 1925 को घटी। इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल काम में लाये गये थे। इन पिस्तौलों की विशेषता यह थी कि इनमें बट के पीछे लकड़ी का बना एक और कुन्दा लगाकर रायफल की तरह उपयोग किया जा सकता था। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के केवल दस सदस्यों ने इस पूरी घटना को अंजाम दिया था।
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क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आजादी के आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था की जरूरत के मद्देनजर शाहजहाँपुर में हुई बैठक के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी थी। इस योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी "आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन" को चेन खींच कर रोका और क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खाँ, पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से समूची ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया। बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड सुनायी गयी। इस मुकदमें में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी तक का दण्ड दिया गया था।
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हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ की ओर से प्रकाशित इश्तहार और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुँचे दल के दोनों नेता- शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह इश्तहार अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच0आर0ए0 के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया।
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दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद 'बिस्मिल' के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो वह आवश्यकता और भी अधिक बढ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने 7 मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं तो परन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका।
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इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अत्यधिक कष्ट हुआ। आखिरकार उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल न डालेंगे।
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8 अगस्त को राम प्रसाद 'बिस्मिल' के घर पर हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी और अगले ही दिन 9 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर शहर के रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग, जिनमें शाहजहाँपुर से बिस्मिल के अतिरिक्त अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल, बंगाल से राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी तथा केशव चक्रवर्ती, बनारस से चन्द्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवं औरैया से अकेले मुकुन्दी लाल शामिल थे; 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए।
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इन क्रान्तिकारियों के पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी आटोमेटिक रायफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों ये माउजर आज की ए0के0-47 रायफल की तरह चर्चित हुआ करते थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए।
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मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रैगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के ��ुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और सी0आई0डी0 इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।
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खुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने पूरी छानबीन और तहकीकात करके बरतानिया सरकार को जैसे ही इस बात की पुष्टि की कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है, पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के साथ इश्तिहार सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बिस्मिल के साझीदार बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने इस डकैती का सारा भेद प्राप्त कर लिया। पुलिस को उससे यह भी पता चल गया कि 9 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर से राम प्रसाद 'बिस्मिल' की पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पूरी पुष्टि हो गई कि राम प्रसाद 'बिस्मिल', जो हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के लीडर थे, उस दिन शहर में नहीं थे तो 26 सितम्बर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से 40 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।
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इस ऐतिहासिक मामले में 40 व्यक्तियों को भारत भर से गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तारी के स्थान के साथ उनके नाम इस प्रकार हैं:
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फरार क्रान्तिकारियों में से दो को पुलिस ने बाद में गिरफ़्तार किया था। उनके नाम व स्थान निम्न हैं:
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उपरोक्त 40 व्यक्तियों में से तीन लोग शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में, योगेशचन्द्र चटर्जी हावडा में तथा राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी दक्षिणेश्वर बम विस्फोट मामले में कलकत्ता से पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे और दो लोग अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को तब गिरफ्तार किया गया जब मुख्य काकोरी षड्यन्त्र केस का फैसला हो चुका था। इन दोनों पर ���लग से पूरक मुकदमा दायर किया गया।
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काकोरी-काण्ड में केवल 10 लोग ही वास्तविक रूप से शामिल हुए थे, पुलिस की ओर से उन सभी को भी इस केस में नामजद किया गया। इन 10 लोगों में से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती, अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो उस समय तक पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर सरकार बनाम राम प्रसाद बिस्मिल व अन्य के नाम से ऐतिहासिक मुकदमा चला और उन्हें 5 वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा हुई। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच0 आर0 ए0 का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से 16 को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्टेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी और केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के पक्के सबूत व गवाह एकत्र कर लिये थे ताकि बाद में यदि अभियुक्तों की तरफ से कोई अपील भी की जाये तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाये।
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लखनऊ जेल में काकोरी षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे। केस चल रहा था इसी दौरान बसन्त पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन हम सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे। उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल' से कहा- "पण्डित जी! कल के लिये कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।" अगले दिन कविता तैयार थी;
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मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
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इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला।
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मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
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अमर शहीद भगत सिंह जिन दिनों लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इस गीत में ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं:
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इसी रंग में बिस्मिल जी ने "वन्दे-मातरम्" बोला,यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला;इसी रंग को हम मस्तों ने, हम मस्तों ने;दूर फिरंगी को करने को, को करने को;लहू में अपने घोला।
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मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
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माय! रँग दे बसन्ती चोला....हो माय! रँग दे बसन्ती चोला....मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
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राम प्रसाद 'बिस्��िल' बिस्मिल अज़ीमाबादी की यह गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी। जितनी रचना यहाँ दी जा रही है वे लोग उतनी ही गाते थे।
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सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,देखना है जोर कितना बाजुए-क़ातिल में है !वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ !हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है !खीँच कर लाई है हमको क़त्ल होने की उम्म्मीद,आशिकों का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल में है !ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार,अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है !अब न अगले बल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,सिर्फ मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है !
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पाँच फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ को दिल्ली और शचीन्द्र नाथ बख्शी को भागलपुर से पुलिस ने उस समय गिरफ्तार किया जब काकोरी-काण्ड के मुख्य मुकदमे का फैसला सुनाया जा चुका था। स्पेशल जज जे0 आर0 डब्लू0 बैनेट की अदालत में काकोरी षद्यन्त्र का पूरक मुकदमा दर्ज हुआ और 13 जुलाई 1927 को इन दोनों पर भी सरकार के विरुद्ध साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी।
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सेशन जज के फैसले के खिलाफ 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के0सी0 दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया।
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बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा - "मिस्टर रामप्रसाड ! फ्रॉम भिच यून��वर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री ऑफ ला ?" इस पर बिस्मिल ने हँस कर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था - "एक्सक्यूज मी सर ! ए किंग मेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री।"
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काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया। फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी: "मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।" उनके कहने का मतलब स्पष्ठ था कि मुलाजिम वे नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरें अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। ऐसे हाजिरजबाब थे बिस्मिल!
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बिस्मिल द्वारा की गयी सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गयी। मुल्ला जी ने सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने में आनाकानी की। अतएव अदालत ने बिस्मिल की 18 जुलाई 1927 को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद उन्होंने 76 पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिसे देखकर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। अन्ततोगत्वा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। यह भी अदालत और सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला की मिली भगत से किया गया। क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लडने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती।
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22 अगस्त 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आई0पी0सी0 की दफा 121 व 120 के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा 302 व 396 के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में 5+5 कुल 10 वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के ��नुसार फाँसी का हुक्म हुआ। शचीन्द्रनाथ सान्याल, जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे जिसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। उनके छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना जुर्म कबूल करते हुए कोर्ट की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने अपील नहीं की और दोनों को 5-5 वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ कोर्ट में अपील करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजायें 10-10 वर्ष से बढ़ाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी 7 वर्ष से बढ़ाकर 10 वर्ष कर दी गयी। रामकृष्ण खत्री को भी 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा बरकरार रही।खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को 5 वर्ष से घटाकर 4 वर्ष कर दिया गया। इस काण्ड में सबसे कम सजा रामनाथ पाण्डेय को हुई। मन्मथनाथ गुप्त, जिनकी गोली से मुसाफिर मारा गया, की सजा बढ़ाकर 14 वर्ष कर दी गयी। एक अन्य अभियुक्त राम दुलारे त्रिवेदी को इस मुकदमें में पाँच वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गयी।
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अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर दावानल की तरह समूचे हिन्दुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के चारो मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर हुआ करते थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया कि इन चारो की सजाये-मौत माफ कर दी जाये परन्तु उसने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। सेण्ट्रल कौन्सिल के 78 सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला जाकर हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल दिया जिस पर प्रमुख रूप से पं0 मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एन0 सी0 केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने अपने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।
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इसके बाद मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर वायसराय से दोबार��� मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दे दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः उच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया।
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अन्ततः बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस0 एल0 पोलक के पास भिजवाये किन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर यही दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार राम प्रसाद 'बिस्मिल' बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में बरतानिया सरकार को हिन्दुस्तान में हुकूमत करना असम्भव हो जायेगा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।
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रिलैप्स अमरीकी रैपर एमिनेम की छठी स्टूडियो एल्बम है, जो 15 मई 2009 को इंटरस्कोप रिकार्ड्स पर रिलीज़ की गयी। अपनी नींद की गोलियों की लत और लेखकों से विवाद के कारण, पांच साल तक रिकॉर्डिंग से दूर रहने के बाद, यह एन्कोर के बाद मूल रचना पर आधारित उसकी पहली एल्बम है। एलबम के लिए 2007 से 2009 के दौरान कई रिकॉर्डिंग स्टूडियो में रिकॉर्डिंग सत्र हुए और मुख्य रूप से डॉ॰ ड्रे, मार्क बेट्सन, और एमिनेम ने निर्माण संभाला. सैद्धांतिक रूप से, रिलैप्स उसके ड्रग पुनर्वास की समाप्ति, एक काल्पनिक पतन के बाद रैपिंग तथा उसके स्लिम शैडी पहलू से संबंधित है।
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अपने पहले सप्ताह में ही 6,08,000 प्रतियां बेच कर एल्बम ने यू.एस. बिलबोर्ड 200 चार्ट पर पहले स्थान से शुरुआत की. 2009 की एक सबसे प्रत्याशित एलबम रिलीज़ के रूप में, अंततः संयुक्त राज्य अमेरिका में इसकी 19 लाख से अधिक प्रतियां बिकीं और नतीजतन इसके तीन एकल गानों ने चार्ट में सफलता हासिल की. रिलीज़ के दौरान, रिलैप्स को आमतौर पर अधिकतर संगीत आलोचकों से मिश्रित समीक्षाएं मिलीं, उनकी ये प्रतिक्रियाएं अधिकतर एमिनेम के गीत लेखन और विषयों के आधार पर विभाजित थीं। इसके फलस्वरूप 52 वें ग्रेमी पुरस्कारों के दौरान उसे सर्वश्रेष्ठ रैप एल्बम के लिए ग्रेमी पुरस्कार मिला.
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2005 के बाद से ही, एमिनेम अपने संगीत से नाता तोड़ कर हिप हॉप निर्माता बन कर अन्य रिकॉर्ड कार्यों को करने का इच्छुक था, विशेषकर उन कलाकारों के लिए, जो उसके अपने लेबल शैडी रिकॉर्ड्स के लिए साइन किये गये थे। हालांकि, एमिनेम का बुरा दौर तब शुरू हुआ जब 2005 की गर्मियों में थकान और अपनी नींद की गोलियों की लत के कारण यूरोपीयन लेग ऑफ़ द एंगर मैनेजमेंट टूर रद्द करना पड़ा. इसके अगले वर्ष, अपनी पूर्व पत्नी किम्बर्ली स्कॉट से उनका पुर्नविवाह केवल 11 हफ़्तों तक रहा जिसके पश्चात् उनका दोबारा तलाक हो गया, जबकि बाद में उसके करीबी दोस्त और सहयोगी रैपर डिशॉन "प्रूफ" होल्टन की डेट्रॉयट के एक नाईट क्लब के बाहर तकरार के दौरान गोली मार कर हत्या कर दी गयी। इस से निराश हो कर, एमिनेम नशीली दवाओं का आदी बन गया और तेज़ी से खुद में सिमटता चला गया। जून 2009 में XXL के लिए एक साक्षात्कार में, एमिनेम ने स्वयं पर प्रूफ की मौत के प्रभाव के बारे में बताते हुए कहा :
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मई 2007 से ही एमिनेम द्वारा आगामी एल्बम पर ध्यान लगाने की खबरें 50 सेंट और स्टेट कुओ, जो शैडी रिकॉर्ड के क्रमशः वर्तमान और पूर्व सदस्य थे, द्वारा दी जा रहीं थीं। इसके अतिरिक्त, रैपर बिज़ार - हिप हॉप समूह-D12 के सदस्य - ने बताया कि समूह की तीसरी स्टूडियो एल्बम को रोका गया था क्योंकि इंटरस्कोप रिकॉर्ड्स पहले एमिनेम की एल्बम रिलीज़ करना चाहते थे। वर्ष के अंत तक, शैडी रिकॉर्ड से जुड़े अतिरिक्त संगीतकारों, जिनमे द अलकेमिस्ट, बिशप लेमोन्ट, काशिस और ओबी ट्राइस शामिल थे, ने विभिन्न मौकों पर पुष्टि की कि रैपर नई एल्बम पर जी जान से जुटा हुआ था। 12 सितम्बर 2007 को रेडियो स्टेशन WQHT हॉट 97 पर एक चर्चा में एमिनेम ने कहा कि वह लिम्बो में था और वह निकट भविष्य में कोई भी नई सामग्री रिलीज़ करने के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकता था। इसके बाद रैपर ने विस्तार से बताया कि वह लगातार रिकार्डिंग स्टूडियो में काम कर रहा था और निजी मुद्दों के निपटने से खुश था। तथापि, दिसंबर 2007 में, एमिनेम को मेथाडोन की अधिक मात्रा में खुराक लेने के कारण अस्पताल में भर्ती कि0या गया था। 2008 के शुरू में, अपनी लत से बाहर आने के लिए उसने ट्वेल्व स्टेप प्रोग्राम शुरू किया और उसके अनुसार, 20 अप्रैल 2008 से उसने नशा करना छोड़ दिया है।
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2005 में रैपर द्वारा अपनी नींद की गोलियों की लत का इलाज़ कराने के दो साल बाद, रिलैप्स की रिकॉर्डिंग के शुरूआती चरणों के दौरान, रिकॉर्ड निर्माता और और बास ब्रदर्स के लंबे समय से डेट्रॉइट सहयोगी जेफ़ बास ने एमिनेम के साथ 25 गानों पर काम किया। प्रूफ की मौत के कारण, एमिनेम एक अवधि तक कुछ भी नया नहीं लिख सका, क्योंकि उसने महसूस किया कि उसके द्वारा लिखी गयी हर चीज़ रिकॉर्डिंग के लायक नहीं थी। इस से बचने के लिए बास ने ऐसी निर्माण शैली को चुनने का फैसला किया जिसके अनुसार कलाकार को कहानी लिखने की बजाय अपने सर के ऊपर से गुजरने वाले गीत के लिए रैप करना था। इसके बाद एमिनेम मुक्त रूप से या टोकने से पहले एक समय में एक लाइन गाता था और उसके बाद दूसरी लाइन गाता था। इसी समय, एमिनेम के गीत अधिकारों के सुपरवाईज़र, जोएल मार्टिन के अनुसार, रैपर ने ध्यान दिए बिना अतिरिक्त गीतों का संग्रह करना शुरू किया, जैसा कि अक्सर वह दूसरे कलाकारों की संगीत परियोजनाओं को ध्यान में रख कर बनाई गयी चीज़ों के साथ उन्हें रिकॉर्ड कर के या उनका निर्माण कर के करता था, किन्तु अंत में उन्हीं गीतों को चुनता था जिन्हें वह वास्तव में पसंद करता था। एमिनेम द्वारा निर्मित "ब्यूटीफुल", रिलैप्स का इकलौता ऐसा गाना था जिसे उन सालों में रिकॉर्ड किया गया, जब वह शांत नहीं था।
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2007 में एमिनेम ने फर्नडेल, मिशिगन, में एफिजी स्टूडियो खरीदा तथा 54 साउंड रिकार्डिंग स्टूडियो की अपनी पूर्व निर्माण टीम से अपने कार्य संबंध ख़त्म कर दिए जिसमे बॉस ब्रदर्स भी शामिल थे। इसके पश्चात् उसने निर्माता डॉ॰ ड्रे के साथ रिकॉर्डिंग जारी रखी, जिन्होनें सितंबर 2007 में कहा कि उनका इरादा खुद को दो महीने तक रिलैप्स के निर्माण के लिए समर्पित करने का था। डॉ॰ ड्रे के साथ काम करते हुए एमिनेम को निर्माण की प्रक्रिया की बजाय, जो कि ज्यादातर ड्रे द्वारा संभाली जाती थी, गाने लिखने की प्रक्रिया पर ध्यान देने का मौका मिला. अपने मिलजुल कर काम करने के लम्बे इतिहास तथा संगीतमय "आपसी समझ", जिसे केवल वह तथा डॉ॰ ड्रे ही समझते थे, के कारण रैपर ने विशाल निर्माण के लिए डॉ॰ ड्रे के चुनाव को सही साबित कर दिया. इससे रैपर को डॉ॰ ड्रे के संग्रह से धुनें चुनने का अवसर मिला, जिससे उसे अलग अलग प्रकारों की तालों के अनुसार अभ्यास करने के लिए चुनौती मिली. इसके एक वर्ष तक एल्बम का निर्माण एफिजी स्टूडियो में हुआ, क्योंकि इसके बाद रिकॉर्डिंग सत्रों को सितंबर 2008 में ओरलेंडो, फ्लोरिडा में स्थानांतरित कर दिया गया। तब तक, एमिनेम ने गीत लेखन को फिर से ऐसी गति पर करना शुरू कर दिया था जिसके कारण अक्सर उसे लिखने की बजाय रिकॉर्डिंग में अधिक समय लगता था। अपनी नयी रचनात्मक गति का कारण उसने संयम बताते हुए स्वीकार किया कि उसका मस्तिष्क उन बाधाओं से मुक्त हो गया था जिन्होंने पिछले वर्षों के दौरान नशीली दवाओं के दुरुपयोग के कारण उसे कुंद कर दिया था। गीत लिखने की प्रक्रिया की शुरुआत में डॉ॰ ड्रे अपनी कई धुनों की सीडी एमिनेम को देते थे, जिन्हें वह स्टूडियो में एक अलग कमरे में सुनता था तथा अपनी पसंद तथा स्वयं को सर्वाधिक प्रेरित करने वाली धुनों को चुनता था। इसके बाद रैपर वाद्य के हिसाब से गीत लिखता था, जबकि डॉ॰ ड्रे व उनका स्टाफ नये संगीत के निर्माण करना जारी रखता था। जब एक बार जब वह महसूस करता था कि वह काफी गीतों के लिए लिख चुका है, तो वह एक पूरा दिन अपने गानों को उस सीमा तक रिकॉर्ड करता रहता था कि आने वाले दिनों में उसकी आवाज़ बैठ जाती थी। उस बिंदु पर, ���ैपर फिर से नये गानों के लिए गीत लिखना शुरू कर देता था। प्रक्रिया छह महीने तक जारी रही और एमिनेम को अपनी दूसरी एल्बम रिलैप्स 2 के लिए काफी सामग्री भी मिल गयी।
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इस रिकॉर्डिंग अवधि के दौरान, रिलैप्स के लिए बने कई गाने इंटरनेट पर लीक हो गये, जिसमे "क्रेक अ बोटल" का एक अधूरा संस्करण भी शामिल था। इसके बाद जनवरी 2009 में डॉ॰ ड्रे तथा 50 सेंट के अतिरिक्त स्वरों के साथ गाना ख़त्म हुआ। लीक होने के बावजूद, ब्रिटिश समाचारपत्र द इंडीपेंडेंट के अनुसार, एल्बम को गुप्त रूप से पूरा किया जा रहा था। यहां तक कि इंटरस्कोप के बहुराष्ट्रीय मालिक पोलीडोर रिकॉर्ड्स के अनुसार, उस समय एल्बम की कोई जानकारी नहीं थी। 23 अप्रैल को, एमिनेम ने बताया की केवल उसके तथा डॉ॰ ड्रे के पास रिलैप्स की अंतिम प्रति थी, जबकि उसके मेनेजर पॉल रोज़नबर्ग ने बताया कि अवैध बिक्री से बचने के लिए रिलीज़ करने की तिथि से एक महीने पहले तक म्यूज़िक कम्पनी के पास एमिनेम के रिकॉर्ड लेबल तक नहीं थे।
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XXL के लिए एक साक्षात्कार में, एमिनेम ने रिलैप्स की अवधारणा के पीछे अपने नशा पुर्नवास की समाप्ति का हवाला दिया और इसके बाद इस तरह से रैप किया मानो वह नशे में हो, साथ ही साथ उसके काल्पनिक "क्रेज़ी" स्लिम शैडी पहलू की भी वापसी हुई. साक्षात्कारकर्ता डाटवॉन थॉमस के अनुसार, एमिनेम को एल्बम के लिए प्रेरणा उसकी बीती ज़िन्दगी के नशीली दवाओं के मुद्दों के साथ टेलीविज़न शो तथा अपराध व सीरियल किलर से युक्त वृत्तचित्रों से मिली, चूंकि रैपर "सीरियल किलर और उनकी मानसिकता" के प्रति आकर्षित था। मई 2009 में, द न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए गये एक साक्षात्कार में एमिनेम ने सीरियल किलर के बारे में अपने दृष्टिकोण पर चर्चा करते हुए कहा :
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रिलैप्स की शुरुआत एक छोटे नाटक "डॉ॰ वेस्ट" से होती है, जिसमे अभिनेता डोमिनिक वेस्ट एक ऐसे ड्रग काउंसलर के रूप में आवाज़ देते हैं जिनकी विश्वसनीयता कम होने के कारण एमिनेम पुनः नशीली दवाओं का सेवन करने के साथ, एक बार फिर अपने स्लिम शैडी मैडमैन स्वरूप में पहुँच जाता है। इस छोटे नाटक के बाद "3 a.m." की शुरुआत होती है जहाँ एमिनेम खुद को देर रात में क्रमवार हत्यों की झड़ी लगाने वाले एक अवसादग्रस्त सीरियल किलर के रूप में पेश करता है। जब "3 a.m." को एल्बम की रिलीज से पहले एकल रूप में जारी किया गया, तो एमिनेम ने पाया कि गीत उस चीज़ को नजदी��ी से प्रतिबिम्बित करता है जो उसके अनुसार पूरे एल्बम का नकारात्मक पहलू था। "माय मॉम" में रैपर अपनी नशे की प्रवृत्तियों के विषय में अपनी माँ को बताता है और इस तरह उसे पता चलता है कि वह भी उसकी तरह नशे का आदि हो गया है। एमिनेम अपनी पारिवारिक कहानियों को "इन्सेन" में जारी रखता है, जिसमे वह खुद को एक शोषण के शिकार बच्चे के रूप में देखता है। एमिनेम के अनुसार, "इन्सेन" का लक्ष्य एक ऐसा गीत बनाना था जिससे श्रोताओं को घृणा हो और "उन्हें उल्टी आ जाए", साथ ही बताया कि उन्हें यह विचार गाने की पहली लाइन के बारे में सोचते हुए आया . उसकी तथाकथित पूर्व प्रेमिका मारिया कैरे को उसके वर्तमान पति निक केनन के साथ "बैगपाइप्स फ्रॉम बगदाद" में निशाना बनाया गया है, जिसमे एमिनेम एक पुंगी लूप के ऊपर रैप करता है। "हैलो" के बाद, जिसमे एमिनेम खुद को कई वर्षों तक "मानसिक रूप से" अनुपस्थित रहने के बाद दोबारा वापसी करता है, रैपर ने अपनी हिंसक कल्पनाओं को "सेम साँग एंड डांस" में ज़ारी रखा, जहाँ वह लिंडसे लोहान और ब्रिटनी स्पीयर्स का अपहरण करता है तथा हत्या कर देता है। "सेम साँग एंड डांस" की उत्तेजित धुन एमिनेम को उस डांस ट्रेक की याद दिलाती है, जिसने उसे कुछ ऐसा लिखने के लिए प्रेरित किया जिसे सुन कर "महिलाएं बोल सुने बिना डांस करने लगती हैं और वास्तव में नहीं जान पातीं कि वे किस बकवास गाने के लिए डांस कर रहीं हैं". एल्बम के नौंवें गाने, "वी मेड यू" में एमिनेम कई प्रसिद्ध हस्तियों की नक़ल करता है और एक "पॉप स्टार सीरियल किलर" की भूमिका निभाता है। एमिनेम ने पाया कि उसकी विभिन्न "प्रसिद्ध हस्तियों पर चोट" व्यक्तिगत कारणों से नहीं थी, अपितु अपनी लेखन प्रक्रिया के दौरान तुकबंदी के लिए "एकदम से दिमाग में आये हुए नामों को उठा" लिया गया था। "मेडिसिन बॉल" में एमिनेम मृतक अभिनेता क्रिस्टोफर रीव की नक़ल तथा उनके जैसा अभिनय करता है, ताकि उसके दर्शक "इस पर हंसें और इसके फ़ौरन बाद उन्हें अपनी हंसी लगभग बुरी लगे." अगला गाना स्टे वाइड अवेक है जिसमे काफी भयानक मारधाड़ है। एमिनेम महिलाओं पर हमला करने और उनके साथ बलात्कार के बारे में रैप करता है। डॉ॰ ड्रे ने भी "ओल्ड टाइम्स सेक में एक मेहमान भूमिका निभाई है, एक युगल गीत जिसे एमिनेम एक "मजेदार, किन्तु पुराने समय की याद दिलाने वाले" गीत के रूप में वर्णित करता है, जिसमे वह तथा डॉ�� ड्रे एक दूसरे के बाद रैपिंग करते हैं। इस गाने के बाद "मस्ट बी गांजा" आता है जिसमे एमिनेम मानता है कि रिकॉर्डिंग स्टूडियो में काम करना उसके लिए एक नशीली दवा और लत की तरह है।"
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"मि. मैथर्स" नामक छोटे नाटक के बाद, जिसमे एमिनेम एक अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है, "देजा वू" 2007 में उसकी ओवरडोज़ और संगीत से दूरी के बाद उसकी नशे पर निर्भरता के विषय में बताता है। गाने में एमिनेम यह भी बताता है कि इसने किस प्रकार उसके पिछले पांच सालों में प्रभावित किया है, जिसमे एक दौर ऐसा भी आया जब उसकी बेटी अपने पिता के व्यवहार से डरने लगती है। "ब्यूटीफुल", एक कहानी है जिसकी प्रेरणा रॉक थेरेपी के "रीचिंग आउट" से ली गयी है, भी उसी समय को दर्शाती है जब एमिनेम को यह विश्वास हो चला था कि वह "पतन के गर्त" तक पहुँच गया था और अपने भविष्य की अंतिम आशा को खो चुका था। एमिनेम को लगा कि स्वयं को याद दिलाने के लिए "ब्यूटीफुल" के साथ साथ "एनीबॉडी हू इज़ इन अ डार्क प्लेस देट यू केन गेट आउट ऑफ़ इट" को एल्बम में शामिल करना महत्त्वपूर्ण होगा. "क्रैक अ बोटल", जिसमे डॉ॰ ड्रे और 50 सेंट ने मिल कर काम किया है, के बाद रिलैप्स की समाप्ति "अंडरग्राउंड" से होती है। एल्बम के अंतिम गाने में एमिनेम ने अपने कुख्यात होने के बाद अपने संगीत और गीतों के सार और पंचलाइनों को "द हिप हॉप शॉप टाइम्स" की यादों के द्वारा दोबारा ढूँढने की चेष्टा की है और इसीलिए उसने अपने गाने की अश्लील सामग्री के बारे में परवाह नहीं की. एल्बम की समाप्ति केन केरिफ की वापसी के साथ होती है, एक बिंदास समलैंगिक चरित्र, जो एन्कोर से पहले एमिनेम की हर एल्बम में दिखाया गया था।
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2007 में, शैडी रिकार्डस के रैपर काशिस ने इस का शीर्षक किंग मैथर्स के नाम से बताते हुए एल्बम के विषय में चर्चा करते हुए कहा कि यह उस वर्ष रिलीज़ हो जायेगी. बहरहाल, एमिनेम के प्रचारक डेनिस डेनेही ने इसका खंडन करते हुए कहा कि "2007 में कोई एल्बम रिलीज़ नहीं की जानी थी" और बताया कि अगस्त 2007 तक इसका कोई निश्चित शीर्षक भी नहीं था। इसके एक साल बाद कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया गया, जिसके बाद 15 सितम्बर 2008 को, एमिनेम की आत्मकथा "द वे आई एम् " के प्रकाशन के जश्न के मौके पर शेड 45 द्वारा आयोजित एक समारोह में, रैपर ने रिलैप्स के नाम से एक स्टूडियो एल्बम को रिलीज़ करने की अपनी योजना की पुष्टि की. पार्टी के दौरान, उसन��� दर्शकों के सामने "आई'एम् हेविंग अ रिलैप्स" नामक गीत का अंश भी गाया.
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एल्बम को जारी करने की तिथि के संबंध, रॉलिंग स्टोन ने अक्टूबर 2008 के लेख में लिखा कि वर्जिन मेगास्टोन ने 27 नवम्बर 2008 को रिलैप्स के वितरण की योजना बनाई थी, जो कि संयोग से संयुक्त राज्य अमेरिका में थैंक्सगिविंग डे था। 27 अक्टूबर को इंटरस्कोप के एक प्रवक्ता ने बताया कि अभी तक कोई आधिकारिक तिथि तय नहीं की गयी थी और किसी भी वेबसाईट द्वारा पोस्ट की गयीं रिलीज़ की तिथियाँ निराधार थीं। 16 नवम्बर 2008 को टोटल रिक्वेस्ट लाइव के समापन के दौरान फोन पर बातचीत करते हुए एमिनेम ने दृढ़तापूर्वक कहा कि रिलैप्स 2009 की पहली तिमाही में, सही तौर पर कहें तो साल के पहले दो महीनों में कभी भी, रिलीज़ की जाएगी, तथा बताया कि वह एल्बम के लिए गानों का चयन कर रहा था।
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दो महीने पहले लीक होने के बावजूद, "क्रैक अ बोटल" और प्रोमोशनल सिंगल को आख़िरकार 2 फ़रवरी 2009 में वैधानिक भुगतान के बाद डिजिटल डाउनलोड के लिए जारी किया गया, तथा यू.एस. बिलबोर्ड हॉट 100 में पहले स्थान पर भी पहुँच गया, जबकि एमिनेम के मैनेज़र पॉल रोज़नबर्ग के अनुसार गाने के लिए म्यूजिक वीडियो का निर्माण तथा निर्देशन सिंड्रोम द्वारा किया गया और मई से ले कर जून के शुरू में कई भागों में इसे जारी किया गया। रिलीज़ के समय कई विरोधाभासी ख़बरों में गाने को रिलैप्स में शामिल किये जाने पर विवाद हुआ। प्रारंभिक भ्रम के बावजूद, अंततः यूनिवर्सल म्यूज़िक ग्रुप ने एक प्रेस विज्ञप्ति में आख़िरकार इस गाने को एल्बम में शामिल किए जाने की पुष्टि की. 5 मार्च के बाद, इसी तरह के प्रेस बयानों के जरिये यूनिवर्सल ने रिलैप्स की क्षेत्रीय रिलीज की तारीख सार्वजनिक की. जल्द ही एल्बम 15 मई 2009 को इटली और नीदरलैंड में मिलनी थी, जबकि अधिकांश यूरोपीय देशों और ब्राज़ील में यह 18 मई तथा इसके एक दिन बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी बेचीं जानी थी। इसके अतिरिक्त, रिकॉर्ड लेबल पर एमिनेम की दूसरी एल्बम, रिलैप्स 2 की भी घोषणा की गयी जो साल के अंत तक रिलीज़ की जानी थी। एमिनेम ने बताया कि उसने तथा डॉ॰ ड्रे ने काफी मात्रा में संगीत रिकॉर्ड कर रखा था और दोनों एलबम को रिलीज़ करने के पश्चात् श्रोता सभी गाने सुन सकते थे।
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क्रैक अ बोटल को रिलीज़ करने के पश्चात्, "वी मेड यू" का म्यूज़िक विडियो 7 अप्रैल को प्रसारित कि���ा गया और इसके एक सप्ताह बाद 13 अप्रैल को यह खरीदने के लिए उपलब्ध हो गया। वीडियो को जोसेफ काहन द्वारा निर्देशित किया गया था और इसका प्रीमियर एमटीवी के कई चैनलों के साथ एमटीवी की वेबसाइट पर भी किया गया। 28 अप्रैल को, एल्बम के तीसरे एकल गीत, "3 a.m." को एक बार फिर से भुगतान के पश्चात् संगीत डाउनलोड के लिए रिलीज़ किया। "3 a.m." का म्यूज़िक विडियो सिंड्रोम द्वारा निर्देशित था और डेट्रॉयट में फिल्माया गया था। कई दिनों तक वीडियो के ट्रेलर ऑनलाइन दिखने के बाद, इसका प्रीमियर 2 मई को सिनेमैक्स पर हुआ। एलबम की रिलीज से पहले "ओल्ड टाइम्स सेक" और "ब्यूटीफुल" के रूप में दो और एकल वितरित किये गये थे जिन्हें iTunes स्टोर पर क्रमशः 5 मई और 12 मई को बिक्री के लिए भेजा गया। एल्बम के प्रीमियम संस्करण की खरीद पर "माय डार्लिंग" और "केयरफुल व्हाट यू विश फॉर" उपलब्ध थे।
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इससे पहले 4 अप्रैल 2009 में, 2009 NCAA अंतिम चार, की कवरेज के दौरान CBS पर एमिनेम को एक भाग में दिखाया गया जहाँ उसने "लव लैटर टू डेट्रॉयट" के कुछ शब्द गाये. बाद में उसी दिन रैपर ने हिप हॉप ग्रुप रन - DMC टू द रॉक और रोल हॉल ऑफ फेम के बारे में भी बताया. द डेट्रायट न्यूज़ के एडम ग्राहम ने इसे रिलैप्स के लिए "पहले से सोचे गये प्रचार का एक हिस्सा" बताया. 31 मई को रैपर ने 2009 MTV मूवी अवार्ड्स के दौरान लाइव प्रदर्शन किया, जबकि जून 2009 में वह हिप हॉप मैगजीन वाइब तथा XXL के संस्करणों के मुखपृष्ठ पर दिखाई दिया, जिसमे दूसरी में उसे रिलैप्स का प्रचार करने के लिए एमिनेम और मार्वेल कॉमिक्स के बीच हुए एक समझौते के तहत दिखाया गया था, जिसके अनुसार यदि मार्वल उसे तथा द पनिशर को लेकर कोई संस्करण बनाता है तो उसे कानून को हाथ में लेने वाले मार्वेल के मुख्य किरदार द पनिशर के रूप में पोज़ देना था। 19 मई 2009 को एल्बम के साथ एक iPhone गेम जारी की गयी।
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नेवर से नेवर टूर पर समूह के साथी सदस्यों रॉयस दा 5'9" के साथ स्विफ्टी व कुनिवा को रिलैप्स के बारे में लाइव साक्षात्कार तथा बातचीत करने के लिए किस 100FM द्वारा रोक दिया गया। रॉयस ने कहा कि एलबम खेल को बदल कर रख देगी और मजाक में कहा कि एमिनेम द्वारा अपनी एल्बम को उतारने के बाद उसे स्वयं की एल्बम को तीन साल तक पीछे धकेलना पड़ सकता है। कुनिवा ने कहा कि D12 ने रिलैप्स के लिए कई गाने रिकॉर्ड किये किन्तु उसे यकीन नहीं था कि इनसे एल्बम बनेगी अथवा नहीं। इसके बाद स्विफ्ट�� ने पुष्टि की कि वास्तव में 2009 में एमिनेम दो एल्बम उतारने जा रहा था, रिलैप्स के बाद रिलैप्स 2 . रिलैप्स को 21 दिसंबर,2009 को सात बोनस गानों के साथ दोबारा रिलैप्स:रिफिल के रूप में जारी किया गया, जिसमे एकल "फॉरएवर" और "टेकिंग माय बॉल" सहित पांच पुराने बिना रिलीज़ किये गये गाने शामिल थे। इसके फिर से रिलीज पर, एमिनेम ने कहा "मैं मूल रूप से बनाई गयी योजना से इतर प्रशंसकों के लिए इस वर्ष और अधिक सामग्री वितरित करना चाहता हूँ. आशा है कि द रिफिल के ये गाने प्रशंसकों को तब तक बांध कर रखेंगे जब तक कि अगले साल तक हमारी रीलैप्स 2 नहीं आती".
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रिलैप्स एल्बम का कवर सबसे पहले 21 अप्रैल 2009 को एमिनेम के ट्विटर अकाउंट के माध्यम से प्रकाशित किया गया था। इसमें रैपर के सिर को दवा की हजारों गोलियों द्वारा ढके हुए दिखाया गया है। कवर पर एक स्टीकर दवा के पर्चे के लेबल की तरह है, जिसमे एमिनेम रोगी है और डॉ॰ ड्रे चिकित्सक हैं। एमटीवी न्यूज़ के गिल कौफ्मैन ने कवर को रैपर के संघर्ष तथा नशीली दवाओं की लत से जोड़ कर वर्णित करते हुए कहा, कि इस कला में एमिनेम द्वारा अपने निजी मुद्दों को प्रदर्शित करने की आदत का ही प्रदर्शन है। एल्बम बुकलेट और बैक कवर में दवाइयों के पर्चों के डिज़ाइन थे। बुकलेट के पीछे प्रूफ को श्रद्धांजली अर्पित की गयी है, जहाँ एमिनेम बताता है कि वह संयमित है तथा उसने उसके लिए गाना लिखने का प्रयास किया, लेकिन कोई भी इतना अच्छा नहीं था इसलिए वह पूरी एल्बम उसे समर्पित करता है। सीडी खुद को एक दवा की बोतल पर ढक्कन के रूप में प्रदर्शित करती है जिसमे स्लेटी रंग पर बड़े बड़े लाल अक्षरों में लिखा हुआ है "पुश डाउन एंड टर्न".
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2009 की एक सबसे प्रत्याशित एल्बम के रूप मॅ, रिलैप्स साल की सर्वाधिक बिकने वाली हिप हॉप एल्बम भी थी। अपनी रिलीज़ के समय, रिलीज के पहले हफ्ते में अपनी 6,08,000 प्रतियां बेच कर एल्बम ने यू.एस. बिलबोर्ड 200 चार्ट पर प्रथम स्थान से शुरुआत की। यू.एस. के अतिरिक्त, अन्य कई देशों में भी रिलैप्स अपने पहले हफ्ते में प्रथम स्थान पर पहुँचने में सफल रही जिनमे ऑस्ट्रेलिया, फ़्रांस, नोर्वे, डेनमार्क और न्यूज़ीलैंड शामिल थे, जबकि इसके अलावा इसने कई देशों में चोटी के पांच गानों में जगह बनाई, जिनमे जर्मनी, इटली, फिनलैंड, स्पेन, बेल्जियम, नीदरलैंड, ऑस्ट्रिया, स्विट्जरलैंड और स्वीडन शामिल थे। अपने दूसरे हफ्त��� में एल्बम दूसरे स्थान पर टिकी रही तथा 2,11,000 प्रतियों सहित कुल 8,19,000 प्रतियां बेच कर साल की पांचवी बेस्ट सैलर बन गई। तीसरे सप्ताह में 1,41,000 प्रतियां और बेचने के बाद, अमेरिका में केवल तीन हफ़्तों में 9,62,000 प्रतियां बेच कर रिलैप्स दूसरे स्थान पर पहुँच गयी, चौथे सप्ताह में तीसरे स्थान पर गिरते हुए रिलैप्स ने 87,000 प्रतियां बेच कर अपनी कुल बिक्री को 10,49,000 प्रतियों तक पहुंचा दिया। अगले हफ्ते, रिलैप्स चौथे स्थान पर खिसक गयी और 72000 प्रतियां बेचीं गयीं। अपने छठे सप्ताह में, रिलैप्स 47,000 प्रतियां बेच कर पांचवें स्थान पर थी जिससे इसकी अमेरिका में कुल बिक्री 11,69,000 पर पहुँच गयी। अपने सातवें सप्ताह में नौंवे स्थान पर पहुँचने के साथ रिलैप्स ने 39,000 प्रतियों की बिक्री के साथ कुल यू.एस. बिक्री को 12,07,000 पर पहुंचा दिया। अपने आठवें सप्ताह में 34,000 प्रतियां और बेच कर अपनी कुल यू.एस. बिक्री को 12,41,000 तक पहुंचा कर रिलैप्स नौंवें स्थान पर बनी रही। यह 2009 की बेस्ट सैलर रैप एल्बम बन गयी। एल्बम की संयुक्त राज्य अमेरिका में 18,91,000 से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं।
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अपनी रिलीज़ के समय, मेटाक्रिटिक के 59/100 के कुल अंकों के आधार पर एल्बम को आम तौर पर आलोचकों से मिश्रित समीक्षाएं प्राप्त हुईं. "प्रभावशाली ढंग से केन्द्रित तथा अच्छा काम" कहने के बावज़ूद, लॉस एंजिल्स टाइम्स के लेखक एन पॉवेर्स ने इसे सामान्यतः मिश्रित समीक्षा दी और पाया कि इसका संगीत "उत्कृष्ट नहीं था", यह कहते हुए कि "एमिनेम अपने संगीत को नयी श्रेणी में पहुंचा सकता था। उसके द्वारा प्रस्तुत किया गया अभी भी शक्तिशाली है, लेकिन संकीर्ण ढंग से फिल्माया गया है". NME ' के लुईस पैटिसन ने रिलैप्स को 5/10 अंक दिए और पाया कि एमिनेम का शब्द खेल "नीचता की गहराई तक दुष्ट" था, किन्तु अंततः महसूस किया कि "एल्बम का जरूरत से अधिक एहसास अत्यंत थकाने वाला, तथा सही मायनों में अपनी फॉर्म को प्राप्त करने के रूप में आनंदरहित था। MSN म्यूज़िक की अपनी उपभोक्ता गाइड में, आलोचक रॉबर्ट क्रिस्टगो ने एल्बम को B रेटिंग दी और इसे "माह की सबसे खराब" का नाम देते हुए संकेत दिया "एक खराब रिकॉर्ड जिसका विवरण शायद ही कभी इसके अतिरिक्त और विचारों को जन्म देता है। ऊपरी स्तर पर पर यह जरूरत से अधिक मूल्यांकन प्राप्त, निराशाजनक या कुंठित हो सकता है। निचले स्तर पर यह घृणित हो सकता है". क्रिस्टगो ने एमिनेम के गीतों के लिए नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की और उसे यह कहते हुए सनसनी फ़ैलाने का आरोपी करार दिया कि "यह स्लिम शैडी एल्बम नहीं है। स्लिम शैडी अपने आप में आलोकमय था।" द विलेज वॉइस ' के थिओन वेबर ने इसके सनसनीखेज गीतों की आलोचना करते हुए कहा "एक नम गुंजायमान चैम्बर जिसमें वह व्यर्थ के अलगाव में अपनी "सदमा देने वाली शैली" को जारी रखता है".
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5 में से 4 स्टार देते हुए रोलिंग स्टोन के लेखक रोब शेफील्ड ने इसे "और अधिक दर्दनाक, ईमानदार और महत्वपूर्ण रिकॉर्ड" बताया, जिसे उन्होनें एमिनेम की बहुप्रशंसित तीसरी एलबम द एमिनेम शो के साथ देखा था। आलम्यूज़िक के स्टीफन थॉमस अर्लवाइन ने इसे "संगीत के हिसाब से हॉट, सघन और नाटकीय" एल्बम के रूप में वर्णित किया और कहा कि "उसका प्रवाह इतना बढ़िया है, उसकी शब्दों के साथ खेलने की गति इतनी तेज़ है कि यह कल्पना करना बेईमानी लगता है कि उसने अपने लम्बे समय से दिमाग में घर बनाए हुए विचारों तथा दुष्टों के अतिरिक्त किसी और को संबोधित किया है". द डेली टेलीग्राफ ने एमिनेम के नशे की लत और इसकी अति को ईमानदारी से दिखाने के लिए एल्बम की सराहना की। एंटरटेनमेंट वीकली ' के लिया ग्रीनब्लाट ने इसे A-रेटिंग दी और कहा " रिलैप्स ' के असली प्रतिध्वनि नाजुक, दु:खद प्रतिभा से आती है जो उस चित्रित मुसकान के पीछे है। वाईब ' के बैंजामिन मिडोस इन्ग्राम के अनुसार एल्बम की अवधारणा "दोषयुक्त" थी, लेकिन उन्होनें एमिनेम के गीत लेखन की प्रशंसा करते हुए लिखा, " खुद की रैप कला का सीमाओं से बाहर विस्तार करते हुए..., एम् शब्दों के साथ चमत्कारिक काम करता है, रचना प्रयोगात्मक और भावात्मक है, एक विशेषज्ञ फार्म के साथ खेलता है". इसके विपरीत, पॉपमैटर्स के एलन रान्ता ने रिलैप्स को 3/10 अंक दिए और लिखा "स्पष्ट शब्दों में, विक्षिप्त होने के कारण इस तरह की कट्टर नफरत से भरा भाषण देना कोई अच्छा बहाना नहीं है, खासकर जब यह इस तरह के बिना कोई साज सज्जा के साथ पेश किया जाए. संक्षेप में, रिलैप्स एक जबरदस्ती चमकाई गयी नफरत से भरी खिचड़ी से अधिक कुछ नहीं है, जो समाज के दिशा के साथ चलने के लिए अनुकूल नहीं है।" स्पूतनिकम्यूज़िक के जॉन ए हैन्सन ने इसे 5 में से 1 स्टार दिया और पाया कि एमिनेम के गीतों में सार की कमी थी। एल्बम ने 52 वें ग्रेमी पुरस्कार समारोह में सर्वश्रेष्ठ रैप एल्बम का ग्रेमी पुरस्कार जीता।
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सर्वसत्तावाद, सर्वाधिकारवाद या समग्रवादी व्यवस्था उस राजनीतिक व्यवस्था का नाम है जिसमें शासन अपनी सत्ता की कोई सीमारेखा नहीं मानता और लोगों के जीवन के सभी पहलुओं को यथासम्भव नियंत्रित करने को उद्यत रहता है। ऐसा शासन प्रायः किसी एक व्यक्ति, एक वर्ग या एक समूह के नियंत्रण में रहता है।
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समग्रवादी व्यवस्था लक्ष्यों, साधनों एवं नीतियों के दृष्टिकोण से प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत होता है। यह एक तानाशाह या शक्तिशाली समूह की इच्छाओं एवं संकल्पनाओं पर आधारित होता है।इसमें राजनैतिक शक्ति का केन्द्रीकरण होता है अर्थात् राजनैतिक शक्ति एक व्यक्ति, समूह या दल के हाथ में होती है। ये आर्थिक क्रियाओं का सम्पूर्ण नियंत्रण करता है। इसमें एक सर्वशक्तिशाली केन्द्र से सम्पूर्ण व्यवस्था को नियंत्रित किया जाता है। इसमें सांस्कृतिक विभिन्नता को समाप्त कर दिया जाता है और सम्पूर्ण समाज को सामान्य संस्कृति के अधीन करने का प्रयत्न किया जाता है। ऐसा प्रयत्न वास्तव में दृष्टिकोणों की विभिन्नता की समाप्ति के लिये किया जाता है और ऐसा करके केन्द्र द्वारा दिये जाने वाले आदेशों और आज्ञाओं के पालन में पड़ने वाली रूकावटों को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है। समग्रवादी व्यवस्था का सम्बन्ध एक सर्वशक्तिशाली राज्य से है। इसमें पूर्ण या समग्र को वास्तविक मानकर इसके हितों की पूर्ति के लिये आयोजन किया जाता है। किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाएगा, कब, कहाँ, कैसे और किनके द्वारा किया जायेगा और कौन लोग इसमें लाभान्वित होगें, इसका निश्चय मात्र एक राजनैतिक दल, समूह या व्यक्ति द्वारा किया जाता है। इसमें व्यक्तिगत साहस व क्रिया के लिये स्थान नहीं होता है। सम्पूर्ण सम्पत्ति व उत्पादन के समस्त साधनों पर राज्य का अधिकार होता है।
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इस व्यवस्था में दबाव का तत्व विशेष स्थान रखता है। इसके दो प्रमुख रूप रहे हैं - अधिनायकतंत्र तथा साम्यवादी तंत्र।
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राजनीतिक व्यवस्था के एक प्रकार के रूप में 'सर्वसत्तावाद' एक ऐसा पद है जो निरंकुशता, अधिनायकवाद और तानाशाही जैसे पदों का समानार्थक लगता है। यद्यपि इस समानार्थकता को ख़ारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद प्रचलित ज्ञान के समाजशास्त्र की निगाह से देखने पर सर्वसत्तावाद भिन्न तात्पर्यों से सम्पन्न अभिव्यक्ति की तरह सामने आता है। शुरुआत में इतालवी फ़ासिस्ट सर्वसत्तावाद को अपनी व्यवस्था के सकारात्मक मूल्य की तरह पेश करते थे। पर बाद में इसका अधिकतर इस्तेमाल शीतयुद्धीन राजनीति के दौरान पश्चिमी ख़ेमे के विद्वानों द्वारा किया गया ताकि उदारतावादी लोकतंत्र के ख़ाँचे में फ़िट न होने वाली व्यवस्थाओं को कठघरे में खड़ा किया जा सके। इन विद्वानों ने सर्वसत्तावाद के जरिये राजनीतिक व्यवस्थाओं के इतिहास का फिर से वर्गीकरण करने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप नाज़ी जर्मनी, फ़ासीवादी इटली, स्तालिनकालीन सोवियत संघ और सेंडिनिस्टा की हुकूमत वाले निकारागुआ को ही सर्वसत्तावादी श्रेणी में नहीं रखा गया, बल्कि प्लेटो द्वारा वर्णित रिपब्लिक, चिन राजवंश, भारत के मौर्य साम्राज्य, डायक्लेटियन के रोमन साम्राज्य, कैल्विनकालीन जिनेवा, जापान के मीज़ी साम्राज्य और प्राचीन स्पार्टा को भी उसी पलड़े में तौल दिया गया।
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बीसवीं सदी के दूसरे दशक से पहले समाज-विज्ञान में इस पद का इस्तेमाल किया ही नहीं जाता था। 1923 में इतालवी फ़ासीवाद का एक प्रणाली के रूप वर्णन करने के लिए गियोवानी अमेंडोला ने इसका प्रयोग किया। इसके बाद फ़ासीवाद के प्रमुख सिद्धांतकार गियोवानी जेंटील ने बेनिटो मुसोलिनी के नेतृत्व में स्थापित व्यवस्था को ‘टोटलिरिटो’ की संज्ञा दी। यह नये किस्म का राज्य जीवन के हर क्षेत्र को अपने दायरे में लेने के लिए तत्पर था। वह राष्ट्र और उसके लक्ष्यों का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व करने का दावा करता था। मुसोलिनी ने टोटलिटेरियनिज़म को एक सकारात्मक मूल्य की तरह व्याख्यायित किया कि यह व्यवस्था हर चीज़ का राजनीतीकरण करने वाली है, चाहे वह आध्यात्मिक हो या पार्थिव। मुसोलिनी का कथन था : ‘हर चीज़ राज्य के दायरे में, राज्य के बाहर कुछ नहीं, राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं।’ फ़ासीवादियों द्वारा अपनाये जाने के बावजूद 1933 में प्रकाशित इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पहले संस्करण से यह पद नदारद है। हान्ना एरेंत द्वारा किये गये विख्यात विश्लेषण में सर्वसत्तावाद को राजनीतिक उत्पीड़न के पारम्परिक रूपों से भिन्न बताया गया है। एरेंत के अनुसार बीसवीं सदी में विकसित हुई इस राज्य-व्यवस्था का इतिहास नाज़ीवाद से स्तालिनवाद के बीच फैला हुआ है। यह परिघटना विचारधारा और आतं�� के माध्यम से न केवल एक राज्य के भीतर बल्कि सारी दुनिया पर सम्पूर्ण प्रभुत्व कायम करने के सपने से जुड़ी है। विचारधारा से एरेंत का मतलब इतिहास के नियमों का पता लगा लेने की दावेदारियों से था। आतंक के सर्वाधिक भीषण उदाहरण के रूप में उन्होंने नाज़ी यातना शिविरों का हवाला दिया। उन्होंने समकालीन युरोपीय अनुभव की व्याख्या करते हुए उन आयामों की शिनाख्त की जिनके कारण सर्वसत्तावाद मुमकिन हो सका। उन्होंने दिखाया कि यहूदियों की विशिष्ट राजनीतिक और सामाजिक हैसियत के कारण सामीवाद विरोधी मुहिम को नयी ताकत मिली; साम्राज्यवाद के कारण नस्लवादी आंदोलन पैदा हुए; और युरोपीय समाज के उखड़े हुए समुदायों में बँट जाने के कारण अकेलेपन और दिशाहीनता के शिकार लोगों को विचारधाराओं के ज़रिये गोलबंद करने में आसानी हो गयी। एरेंत के बाद दार्शनिक कार्ल पॉपर ने प्लेटो, हीगेल और मार्क्स की रैडिकल आलोचना करते हुए ‘यूटोपियन सोशल इंजीनियरिंग’ के प्रयासों को सर्वसत्तावाद का स्रोत बताया। पॉपर के चिंतन ने जिस समझ की नींव डाली उसके आधार पर आंद्रे ग्लुक्समैन, बर्नार्ड हेनरी लेवी और अन्य युरोपियन दार्शनिकों ने बीसवीं सदी में सोवियत संघ में हुए मार्क्सवाद के प्रयोग से मिली निराशाओं के तहत इस पद का प्रयोग जारी रखा। धीरे-धीरे सर्वसत्तावाद पश्चिम के वैचारिक हथियार के रूप में रूढ़ हो गया।
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शासन पद्धतियों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वानों कार्ल फ़्रेड्रिख़ और ज़िगनियू ब्रेज़िंस्की ने सर्वसत्तावाद की परिभाषा जीवन के हर क्षेत्र को अपने दायरे में समेट लेने वाली विचारधारा, एक पार्टी की हूकूमत वाले राज्य, ख़ुफ़िया पुलिस के दबदबे और आर्थिक-सांस्कृतिक-प्रचारात्मक ढाँचे पर सरकारी जकड़ के संयोग के रूप में की। यह परिभाषा अपने आगोश में फ़ासीवादी और मार्क्सवादी व्यवस्थाओं को समेट लेती थी। पर सत्तर के दशक में सर्वसत्तावाद के ज़रिये पश्चिमी विद्वानों ने नयी कारीगरी करने की कोशिश की और मार्क्सवादी हुकूमतों को फ़ासीवादी हुकूमतों से अलग करके दिखाया जाने लगा। इस दिलचस्प कवायद का परिणाम ‘सर्वसत्तावाद’ और ‘अधिनायकवाद’ की तुलनात्मक श्रेणियों में निकला। इसके तहत दक्षिणपंथी ग़ैर-लोकतांत्रिक राज्यों को ‘टोटलिटेरियन’ वामपंथी राज्यों के मुकाबले बेहतर ठहराने के लिए ‘एथॉरि��ेरियन’ नामक नयी संज्ञा को जन्म दिया गया। इस बौद्धिक उपक्रम के कारण सर्वसत्तावाद का प्रयोग पूरी तरह से बदल गया। जो पद शुरुआत में फ़ासीवाद को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल किया गया था और जिसे अपनी बौद्धिक वैधता आधुनिक तानाशाहियों के वामपंथी और दक्षिणपंथी रूपों को एक ही श्रेणी में रखने से मिली थी, उसे रोनाल्ड रेगन के राष्ट्रपतित्व के दौरान केवल कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं के वर्णन में सीमित कर दिया गया।
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ज्ञान के समाजशास्त्र के इस शीतयुद्धीन संस्करण में राजनीतिशास्त्रियों ने जम कर योगदान किया। उनके प्रयासों से ही सर्वसत्तावाद की नयी व्याख्याएँ पचास और साठ के दशक में उभरे आधुनिकीकरण और विकास के सिद्धांतों के नतीजे के रूप में सामने आयीं। इसके पहले चरण में सभी समाजों को परम्परागत से आधुनिकता की तरफ़ सिलसिलेवार रैखिक गति से बढ़ते हुए दिखाया गया। इसके बाद कहा गया कि आधुनिक हो जाने के बाद कुछ समाज सकारात्मक व्यवस्थाओं की तरफ़ चले गये क्योंकि वे आगे बढ़े हुए थे और कुछ नकारात्मक प्रणालियों को अपना बैठे क्योंकि वे पिछड़े हुए समाज थे। इस बौद्धिकता ने लोकतांत्रिक और सर्वसत्तावादी शासन व्यवस्थाओं को आदर्शीकृत रूप में पेश किया।
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1968 में अमेरिकी बुद्धिजीवी सेमुअल पी. हंटिंग्टन की रचना पॉलिटिकल ऑर्डर इन चेंजिंग सोसाइटी का प्रकाशन हुआ। हॉब्स की युगप्रवर्तक रचना लेवायथन से प्रभावित इस कृति में हंटिंग्टन ने तर्क दिया कि अविकसित समाजों में कई बार फ़ौज के अलावा ऐसी कोई आधुनिक, पेशेवर और संगठित राष्ट्रीय संस्था नहीं होती जो लोकतंत्र की तरफ़ संक्रमण करने की मुश्किल अवधि में उनका नेतृत्व कर सके। ऐसे समाजों में केवल फ़ौजी शासन ही शांति-व्यवस्था कायम रखते हुए आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से निकले अशांतकारी प्रभावों को काबू में रख सकता है। हंटिंग्टन के इस विश्लेषण ने आधुनिकीकरण के साथ जुड़े हुए कार्य-कारण संबंधों को नयी दृष्टि से देखने का रास्ता खोला। पहली बार यह सूत्रीकरण सामने आया कि आधुनिकीकरण के दबावों से राज्य प्रणाली के संस्थागत ढाँचे का क्षय हो जाता है। फ़ौजी तानाशाही इस ढाँचे की पुनर्रचना कर सकती है जिसका बाद में लोकतंत्रीकरण किया जा सकता है। सैनिक तानाशाही को लोकतंत्र के वाहक की संज्ञा देने वाले इस विकट सूत्रीकरण के पीछे ग़रीब देशों पर काबिज�� अलोकतांत्रिक हुकूमतों का अनुभव था।
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लोकतंत्र और सर्वसत्तावाद के बीच इस द्विभाजन को पहली चुनौती 1970 में मिली। समाज-वैज्ञानिकों ने 1964 से 1974 के बीच के दौर में देखा कि लातीनी अमेरिका के अपेक्षाकृत विकसित देशों में ही नहीं, बल्कि स्पेन और पुर्तगाल जैसे धनी देशों में अधिनायकवादी शासन चल रहा है। मैक्सिको में भी लोकतंत्र के आवरण के नीचे दरअसल तानाशाही है। ये व्यवस्थाएँ अफ़्रीकी देशों की व्यक्तिगत किस्म की तानाशाहियों से भिन्न बेहद संगठित और जटिल किस्म की प्रणालियाँ थीं। इनका दावा था कि वे अपने-अपने समाजों में विकास और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का नेतृत्व कर रही हैं। उधर एशिया में भी दक्षिण कोरिया और ताइवान में निरंकुश सरकारें आर्थिक विकास करने में कामयाब दिखने लगी थीं। इस घटनाक्रम का अध्ययन करते हुए युआन लिंज़ ने अपनी क्लासिक रचना ‘एन एथॉरिटेरियन रिज़ीम : अ केस ऑफ़ स्पेन’ में एक ऐसी व्यवस्था की शिनाख्त की जिसमें लोकतंत्र और सर्वसत्तावाद के मिले-जुले लक्षण थे। इसके बाद गुलेरमो ओडोनेल ने 1973 में दक्षिण अमेरिकी राजनीति का अध्ययन करके दावा किया कि पूँजीवादी विकास और आधुनिकीकरण के गर्भ से लातीनी अमेरिका के अपेक्षाकृत निर्भर लेकिन विकसित देशों में एक नौकरशाह-तानाशाही ने जन्म लिया है।
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अमेरिकी राजनीतिशास्त्री जीन किर्कपैट्रिक ने 1979 में हंटिंग्टन, लिंज़ और ओडोनेल की व्याख्याओं के आधार पर स्पष्ट सूत्रीकरण किया कि सर्वसत्तावादी केवल मार्क्सवादी- लेनिनवादी हूकूमतें हैं। अधिनायकवादी शासन दमनकारी तो होता है पर उसमें पूँजीवादी लोकतंत्र के रूप में सुधरने की गुंजाइश होती है। किर्कपैट्रिक के इस बहुचर्चित लेख ‘डिक्टेटरशिप ऐंड डबल स्टैंडर्ड’ से हंगामा मच गया। इसकी आलोचना में कहा गया कि सर्वसत्तावादी राज्य अगर गिरक्रतारी, यातना और हत्या पर निर्भर रहता है तो अधिनायकवादी राज्य इसी तरह के काम निजी क्षेत्र के ज़रिये करवाता है। बहरहाल, किर्कपैट्रिक रेगन प्रशासन की कारकुन बनीं और उन्होंने शीतयुद्धीन राजनीति के लिए अपने राजनीतिशास्त्रीय ज्ञान का जम कर दोहन किया।
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शीत युद्ध खत्म हो जाने के बाद राजनीतिशास्त्र के दायरों में इस समय स्थिति यह है कि विद्वानों ने सर्वसत्तावाद की श्रेणी को पूरी तरह से ख़ारिज करके अधिनायकवादी व्यवस्थाओं की एक नयी व्यापक श्रेणी बनायी है। इसमें दमनकारी, असहिष्णु, निजी अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं का अतिक्रमण और ग़ैर-राजकीय हित समूहों को सीमित स्वायत्तता देने वाली प्रणालियों को रखा गया है। इस वर्णन से ज़ाहिर है कि इन प्रवृत्तियों की शिनाख्त ख़ुद को पूरी तरह से लोकतांत्रिक कहने वाले राज्यों में भी की जा सकती है। इस लिहाज़ से स्थापित उदारतावादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के मुकाबले अधिनायकवाद अधिकांशतः अब एक रुझान का नाम रह गया है।
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1. हान्ना एरेंत, द ओरिजिंस ऑफ़ टोटलिटेरियनिज़म, मेरिडियन, न्यूयॉर्क, दूसरा संस्करण.
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2. कार्ल पॉपर, ओपन सोसाइटी ऐंड इट्स एनिमीज़, रॉटलेज, लंदन.
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3. सेमुअल पी. हंटिंग्टन, पॉलिटिकल ऑर्डर इन चेंजिंग सोसाइटी, येल युनिवर्सिटी प्रेस, न्यू हैविन.
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3. सी.जे. फ़्रेड्रिख़ और ज़ैड. ब्रेज़िंस्की, टोटलिटेरियन डिक्टेटरशिप ऐंड ऑटोक्रेसी, प्रेजर, न्यूयॉर्क.
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4. जीन किर्कपैट्रिक, ‘डिक्टेटरशिप ऐंड डबल स्टेंडर्ड’, कमेंटरी, खण्ड 68, अंक 5.
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5. जे.जे. लिंज़, ‘एन एथॉरिटेरियन रिज़ीम : अ केस ऑफ़ स्पेन’, ई. अलार्ड और एस रोकन, मास पॉलिटिक्स : स्टडीज़ इन पॉलिटिकल सोसियोलॅजी, फ़्री प्रेस, न्यूयॉर्क.
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2Assigned on 19 सितंबर 1990, existing onwards.3एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया की सरकारें मानती है कि वे कभी सोवियत संघ का वैध भाग ही नहीं थे।रूस इन तीनों को सोवियत संघ का वैध अंश मानता है और इन सरकारों के कथन को अवैध मानता है।संयुक्त राज्य अमेरिका और बहुत सी अन्य पश्चिमी सरकारों ने इन तीनों का द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ में विलय कभी नहीं स्वीकारा, इसलिए उन्हें सोवियत संघ का वैध अंश नहीं मानते।
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सोवियत संघ, जिसका औपचारिक नाम सोवियत समाजवादी गणतंत्रों का संघ था, यूरेशिया के बड़े भूभाग पर विस्तृत एक देश था जो 1922 से 1991 तक अस्तित्व में रहा। यह अपनी स्थापना से 1990 तक साम्यवादी पार्टी द्वारा शासित रहा। संवैधानिक रूप से सोवियत संघ 15 स्वशासित गणतंत्रों का संघ था लेकिन वास्तव में पूरे देश के प्रशासन और अर्थव्यवस्था पर केन्द्रीय सरकार का कड़ा नियंत्रण रहा। रूसी सोवियत संघीय समाजवादी गणतंत्र इस देश का सबसे बड़ा गणतंत्र और राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र था, इसलिए पूरे देश का गहरा रूसीकरण हुआ। यही कारण रहा कि विदेश में भी सोवियत संघ को अक्सर गलती से 'रूस' बोल दिया जाता था।
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शब्द "सोवियत" एक रूसी शब्द है जिसका अर्थ है परिषद, असेंबली, सलाह और सद्भाव।
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सोवियत संघ की स्थापना की प्रक्रिया 1917 की रूसी क्रान्ति के साथ शुरू हुई जिसमें रूसी साम्राज्य के ज़ार को सत्ता से हटा दिया गया। व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया लेकिन फ़ौरन ही वह बोल्शेविक-विरोधी श्वेत मोर्चे के साथ गृह युद्ध में फँस गई। बोल्शेविकों की लाल सेना ने गृह युद्ध के दौरान ऐसे भी कई राज्यों पर क़ब्ज़ा कर लिया जिन्होनें त्सार के पतन का फ़ायदा उठाकर रूस से स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। दिसम्बर 1922 में बोल्शेविकों की पूर्ण जीत हुई और उन्होंने रूस, युक्रेन, बेलारूस और कॉकस क्षेत्र को मिलकर सोवियत संघ की स्थापना का ऐलान कर दिया।
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अप्रैल 1917 : लेनिन और अन्य क्रान्तिकारी जर्मनी से रूस लौटे।
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अक्तूबर 1917 : बोल्शेविकों ने आलेक्सान्द्र केरेंस्की की सत्ता को पलटा और मॉस्को पर अधिकार कर लिया।
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1918 - 20 : बोल्शेविकों और विरोधियों में गृहयुद्ध।
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1920 : पोलैण्ड से युद्ध
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1921 : पोलैंड से शांति संधि, नई आर्थिक नीति, बाजार अर्थव्यवस्था की वापसी, स्थिरता।
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1922 : रूस, बेलारूस और ट्रांसकॉकेशस क्षेत्रों का मिलन; सोवियत संघ की स्थापना।
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1922 : जर्मनी ने सोवियत संघ को मान्यता दी।
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1924 : सोवियत संघ में प्रोलिटैरिएट तानाशाही के तहत नया संविधान लागू। लेनिन की मृत्यु। जोसेफ स्टालिन ने सत्ता संभाली।
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1933 : अमेरिका ने सोवियत संघ को मान्यता दी।
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1934 : सोवियत संघ लीग ऑफ नेशंस में शामिल हुआ।
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अगस्त 1939 : द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ।
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जून 1941 : जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला किया।
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1943 : स्टालिनग्राद के युद्ध में जर्मनी की हार।
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1945 : सोवियत सैनिकों ने बर्लिन पर कब्जा किया। याल्टा और पोट्सडैम सम्मेलनों के जरिए जर्मनी को विभाजित कर पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी का निर्माण। जापान का आत्मसमर्पण और दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति।
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1948-49 : बर्लिन नाकेबंदी। पश्चिमी सेनाओं और सोवियत सेनाओं में तनातनी।
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1949 : सोवियत संघ ने परमाणु बम बनाया। चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता दी।
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1950-53 : कोरियाई युद्ध ; सोवियत संघ और पश्चिम के संबंधों में तनाव।
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मार्च 1953 : स्टालिन की मृत्यु। निकिता ख्रुश्चेव कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के प्रथम सचिव बने।
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1953 : सोवियत संघ ने अपना पहला हाइड्रोजन बम बनाया।
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1955 : वारसॉ की संधि।
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1956 : सोवियत सेना ने हंगरी के विद्रोह को कुचलने में मदद की।
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1957 : पहला अंतरिक्ष यान स्पूतनिक धरती की कक्षा में पहुंचा। चीन की पश्चिम से बढ़ती नजदीकियों ने दोनों कम्युनिस्ट देशों में दूरियां पैदा कीं।
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1960 : सोवियत संघ ने अमेरिका का जासूसी जहाज U2 गिराया।
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1961 : यूरी गागारिन अंतरिक्ष में जाने वाले पहले व्यक्ति बने।
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1962 : क्यूबा में सोवियत मिसाइल पहुंची।
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1963 : सोवियत संघ ने अमेरिका और ब्रिटेन के साथ परमाणु संधि की। अमेरिका और सोवियत संघ में हॉट लाइन स्थापित।
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1964 : ख्रुश्चेव की जगह लियोनिड ब्रेजनेव ने संभाली।
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1969 : सोवियत और चीनी सेनाओं का सीमा पर विवाद।
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1977 : नए संविधान के तहत ब्रेजनेव राष्ट्रपति चुने गए।
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1982 : ब्रेजनेव का निधन। केजीबी प्रमुख यूरी आंद्रोपोव ने सत्ता संभाला।
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1982 : आंद्रोपोव का निधन। कोन्सटांटिन चेरनेंको ने सत्ता संभाली।
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1985 : मिखाइल गोर्बाचेव कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव बने। खुलेपन और पुनर्निर्माण की नीति की शुरुआत की।
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1986 : चरनोबिल परमाणु दुर्घटना। उक्रेन और बेलारूस के बड़े क्षेत्र विकिरण से प्रभावित।
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1987 : सोवियत संघ और अमेरिका में मध्यम दूरी की परमाणु मिसाइलों को नष्ट करने पर सम���ौता।
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1988 : गोर्बाचेव राष्ट्रपति बने। कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन में निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे खोलने पर सहमति।
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1989 : अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं की वापसी।
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1990 : कम्युनिस्ट पार्टी में एक पार्टी की सत्ता खत्म करने पर मतदान। येल्तसिन ने सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ी।
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अगस्त 1991 : रक्षा मंत्री दिमित्री याजोव, उप राष्ट्रपति गेनाडी यानायेव और केजीबी प्रमुख ने राष्ट्रपति गोर्बाचेव को हिरासत में लिया। तीन दिन बाद ये सभी गिरफ्तार। येल्तसिन ने सोवियत रूस कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगाया। उक्रेन को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दी। उसके बाद कई अन्य देशों ने खुद को स्वतंत्र घोषित किया।
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सितम्बर 1991 : 'कांग्रेस ऑफ पीपल्स डिप्यूटीज' ने सोवियत संघ के विघटन के लिए वोट डाला।
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8 दिसम्बर 1991 : रूस, उक्रेन और बेलारूस के नेताओं ने 'कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट' बनाया।
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25 दिसम्बर 1991 : गोर्बाचेव ने पद से इस्तीफा दिया। अमेरिका ने स्वतंत्र सोवियत राष्ट्रों को मान्यता दी।
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26 दिसम्बर 1991 : रूसी सरकार ने सोवियत संघ के कार्यालयों को संभाला।
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पूर्वी यूरोप में अपने नियंत्रण के अधीन देशों के साथ सोवियत संघ ने एक साम्यवादी सैन्य मित्रपक्ष बनाया, जिसे वारसॉ संधि गुट के नाम से जाना जाता है। इसके विपक्ष अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों का गुट था। दोनों विपक्षियों के बीच शीत युद्ध जारी रहा जिसमें दोनों में सीधी लड़ाई तो कभी नहीं हुई, लेकिन दोनों परमाणु हथियारों और मिसाइलों से लैस हमेशा विध्वंसकारी परमाणु युद्ध छिड़ जाने की संभावना के साये में रहे।
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स्टालिन की मृत्यु के बाद विभिन्न साम्यवादी नेताओं में सर्वोच्च नेता बनने की खींचातानी हुई और निकिता ख़्रुश्चेव सत्ता में आये। उन्होंने स्टालिन की सबसे सख़्त तानाशाही नीतियों को पलट दिया। सोवियत संघ अंतरिक्ष अनुसंधान में सबसे आगे निकल गया। 1957 में उसने विश्व का सबसे पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक पृथ्वी के इर्द-गिर्द कक्षा में पहुँचाया। 1961 में सोवियत वायु-सैनिक यूरी गगारिन पृथ्वी से ऊपर अंतरिक्ष में पहुँचने वाला सबसे पहला मानव बना। 1962 में क्यूबाई मिसाइल संकट में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच बहुत गंभीर तनाव बना और वे परमाणु प्रलय की दहलीज़ पर पहुँच गए, लेकिन किसी तरह यह संकट टल गया। 1970 के दशक में सोवियत-अमेरिकी संबं���ों में तनाव कम हुआ लेकिन 1979 में जब सोवियत संघ ने अफ्गानिस्तान में हस्तक्षेप करते हुए वहाँ अपनी फ़ौज भेजी तो सम्बन्ध बहुत बिगड़ गए।
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1924 लेनिन की मृत्यु हुई और जोसेफ़ स्टालिन सत्ता में आया। उसने सोवियत संघ में ज़बरदस्त औद्योगीकरण करवाया और केंद्रीय आर्थिक व्यवस्था बनाई। कृषि और अन्य व्यवसायों का सामूहिकीकरण किया गया, यानि खेत किसानों की निजी संपत्ति न होकर राष्ट्र की संपत्ति हो गए और उनपर किसानों के गुट सरकारी निर्देशों पर काम करने लगे। इसी केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था को द्वितीय विश्वयुद्ध में जंग लड़ने के लिए प्रयोग किया गया जिस से सोवियत संघ की जीत हुई। स्टालिन ने अपने शासनकाल में साम्यवादी पार्टी के बहुत से सदस्यों और नेताओं को अलग करके मरवाया और सोवियत संघ के कई समुदायों पर भी अत्याचार किया।
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द्वितीय विश्वयुद्ध में शुरू में तो जर्मनी और सोवियत संघ में एक संधि थी जिसके अंतर्गत उन्होंने पोलैंड को आपस में बाँट लिया था और क्रॅसि इलाक़ा सोवियत संघ को मिल गया। लेकिन 1941 में जर्मनी ने पलट कर सोवियत संघ पर हमला कर दिया। इस से सोवियत संघ मित्रपक्ष शक्तियों के गुट में संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन का साथ हो गया और जर्मनी के विरुद्ध लड़ा। जर्मनी-सोवियत युद्ध बहुत ही भयंकर था और इसमें 2.1 करोड़ सोवियत लोगों की मृत्यु हुई। लेकिन अंत में सोवियत संघ विजयी हुआ और पूर्वी यूरोप के बहुत से देश पर उसका नियंत्रण हो गया।
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1917 की बोल्शेविक क्रांति की सफलता के साथ ही रूस में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई जिसने विश्व में सर्वा हारा क्रांति का नारा दिया और पूंजीवाद की समाप्ति की बात की अंतः जन्म से ही पूंजीवादी राष्ट्रों ने इसे अपना शत्रु माना इस तरह सोवियत संघ आरंभ से ही अनेक शत्रुओं से गिर गयास्टालिन के शासन में तनुश्री का कठोर एवं उग्र रूप दिखाई पड़ा जिसके तहत साम्यवाद विरोधियों का दमन किया गया और नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया लोगों के आवागमन समाचार पत्रों एवं लेखकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया इस तरह सोवियत संघ की पहचान जनतंत्र का आनंद करने वाले शासक के रूप में हुई शासन प्रणाली ने लोग भावना पर लोग आवरण डाल दिया इतना ही नहीं साम्यवादी शासन की स्थापना के समय यह कहा गया कि सर्वहारा की तानाशाही स्थापित होगी किंतु व्यवहारिक स्तर पर सर्वहारा पर तानाशाही स्थापित हुई सोवियत संघ ने एक दल और सरकार में बैठे लोगों की तानाशाही स्थापित हुई दाल और सरकार में कोई अंतर नहीं रह गया ब दल एवं शासन प्रणाली जनसमर्थन खोने लगास्टालिन के शासनकाल में स्थापित कठोर तंत्र साम्यवादी शासन की कमजोरियों को उद्घाटित करने लगा वस्तुतः पूर्वी यूरोपीय देशों में जहां साम्यवादी शासन मौजूद था वहां पर भी जनता अपने राजनीतिक आर्थिक संरचना से असंतुष्ट थी और जब सोवियत संघ में साम्यवादी शासन की कठोरता के प्रति विरोध बढ़ने लगा तो पूर्वी यूरोप के देशों में भी साम्यवादी शासन के प्रति अविश्वास बढ़ने लगा और जन विद्रोह हुआसोवियत संघ की आर्थिक कमजोरी भी उसके भी बटन का कारण बनी वस्तु दयनीय वह बढ़ने कमजोर देशों को आर्थिक सहायता देने एवं शीत युद्ध में शक्ति प्रदर्शन के कारण सोवियत संघ की आर्थिक दिशा कमजोर हो गई दरअसल आधारभूत ढांचे के विकास नवीनीकरण के स्थान पर सोवियत धनराशि शीत युद्ध के साधनों पर खर्च की जाने लगी आता 1980 तक आते-आते इसकी आर्थिक वृद्धि दर में भारी गिरावट आई प्रतिस्पर्धा रहित आर्थिक संरचना के कारण उत्पादन में कमी उपभोक्ता वस्तुओं का अभाव मूल्य वृद्धि जैसी समस्याएं बड़ी पलटा जो संतोष बढ़ने लगा इसी दौर में gurvyachavने शासन संभाला और सुधारवादी नीतियों की घोषणा की जिसका परिणाम सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आया
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अफ्गानिस्तान में सोवियत नियंत्रण के विरुद्ध उपद्रव और गृह युद्ध लगातार जारी रहे और अन्ततः 1989 में सोवियत सेनाएँ वहाँ से बिना अपना लक्ष्य पूरा किये लौट आईं। देश में आर्थिक कठिनाइयाँ बनी रहीं और विदेशी संबधों में भी पेचीदगियाँ रहीं। अंतिम सोवियत नेता मिख़ाइल गोरबाचोफ़ ने देश में ग्लास्नोस्त नामक राजनैतिक खुलेपन की नई नीति और पेरेस्त्रोइका नामक आर्थिक ढाँचे को बदलने की नीति के अंतर्गत सुधार करने की कोशिश की लेकिन विफल रहे। दिसम्बर 1991 में उनकी विचारधारा के विरुद्ध राज्यविप्लव की कोशिश हुई लेकिन वह कुचली गई। इस घटना के बाद सोवियत संघ टूट गया और उसके 15 गणतंत्र सभी स्वतन्त्र देशों के रूप में उभरे। अंतर्राष्ट्रीय संधियों में रूस को सोवियत संघ के उत्तराधिकारी देश की मान्यता दी गई।
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निर्देशांक: 30°18′59″N 78°01′56″E / 30.3165°N 78.0322°E / 30.3165; 78.0322
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देहरादून, देहरादून जिले का मुख्यालय है जो भारत की राजधानी दिल्ली से 230 किलोमीटर दूर दून घाटी में बसा हुआ है। 9 नवंबर, 2000 को उत्तर प्रदेश राज्य को विभाजित कर जब उत्तराखण्ड राज्य का गठन किया गया था, उस समय इसे उत्तराखण्ड की अंतरिम राजधानी बनाया गया। देहरादून नगर पर्यटन, शिक्षा, स्थापत्य, संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है। इसका विस्तृत पौराणिक इतिहास है।
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देहरादून का इतिहास कई सौ वर्ष पुराना है। देहरादून से 56 किलोमीटर दूर कालसी के पास स्थित शिलालेख से इस पर तीसरी सदी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक का अधिकार होने की सूचना मिलती है। देहरादून ने सदा से ही आक्रमणकारियों को आकर्षित किया है। खलीलुल्लाह खान के नेत्वृत्व में 1654 में इस पर मुगल सेना ने आक्रमण किया था। सिरमोर के राजा सुभाक प्रकाश की सहायता से खान गढ़वा के राजा पृथ्वी शाह को हराने में सफल रहे। गद्दी से अपदस्त किए गए राजा को इस शर्त पर गद्दी पर आसीन किया गया कि वे नियमित रूप से मुगल बादशाह शाहजहाँ को कर चुकाएगें। इसे 1772 में गुज्जरों ने लूटा था। तत्कालीन राजा ललत शाह जो पृथ्वी शाह के वंशज थे, की पुत्री की शादी गुलाब सिंह नामक गुज्जर से की गई थी। गुलाब सिंह के पुत्र का नियंत्रण देहरादून पर था और उनके वंशज इस समय भी नगर में मिल सकते हैं।
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गढ़वाल के राजा ललत शाह के पुत्र प्रदुमन शाह के शासन काल में रोहिल्ला नजीब के पोते गुलाम कादिर के नेतृत्व में अफगानों का आक्रमण हुआ। जिसमें उसने गुरू राम राय के अनुयायियों और शिष्यों को मौत के घाट उतार दिया। जिन लोगों ने हिन्दू धर्म त्यागने का निर्णय लिया, उन्हें छोड़ दिया गया। लेकिन अन्य लोगों के साथ बहुत निमर्मतापूर्वक व्यवहार किया गया। सहारनपुर के राज्यपाल और अफगान प्रमुख नजीबुदौल्ला भी देहरादून को अपने अधिकार में करने के उद्देश्य में सफल रहा उसके बाद देहरादून पर गुज्जरों, सिक्खों, राजपूतों और गोरखाओं के लगातार आक्रमण हुए और यह उपजाऊ और सुंदर भूमि शिघ्र ही बंजर स्थल में बदल गई। 1783 में एक सिक्ख प्रमुख बुघेल सिंह ने देहरादून पर आक्रमण किया और बिना किसी बड़े प्रतिरोध के सहजता से इस क्षेत्र को जीत लिया। 1786 में देहरादून पर गुलाम कादिर का आक्रमण हुआ। उसने पहले हरिद्वार को लूटा और फिर देहरादून पर कहर बरपाया। उसने नगर पर आक्रमण किया और उसे जमकर लूटा तथा बाद में देहरादून को बर्बाद कर दिया। 1801 तक अमर सिंह थापा के नेत्वृत्व में गोरखा ने दून घाटी पर आक्रमण किया और उस पर अधिकार कर लिया। 1814 में नालापानी के लिए अमर सिंह थापा के पोते बालभद्र सिंह थापा के नेत्वृत्व में गोरखा और जनरल जिलेस्पी के नेत्वृत्व में ब्रिटिश के बीच युद्ध हुआ। गोरखाओं ने इस लड़ाई में जमकर बराबरी कि और जनरल समेत कई ब्रिटिश सेनाओं को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। इस बीच गोरखाओं को एक असामान्य स्थिति का सामना करना पड़ा और उन्हें नालापानी के किले को छोड़ कर जाना पड़ा। 1815 तक गोरखाओं को हरा कर ब्रिटिश शासन ने इस पूरे क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।
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देहरादून के दो स्मारक प्रसिद्ध हैं। का निर्माण ब्रिटिश जनरल गिलेस्पी और उसके अधिकारियों की स्मृति में कराया गया है। दूसरा स्मारक गिलेस्पी से लोहा लेनेवाले कैप्टन बलभद्र सिंह थापा और उनके गोरखा सिपाहियों की स्मृति में बनवाया गया है। कालंगा गढ़ी सहस्त्रधारा सड़क पर स्थित है। घंटा घर से इसकी दूरी 4.5 किलोमीटर है। इसी वर्ष देहरादून तहसील के वर्तमान क्षेत्र को सहारनपुर जिले से जोड़ दिया गया। इसके बाद 1825 में इसे कुमाऊँ मण्डल को हस्तांतरित कर दिया गया। 1828 में अलग-अलग उपायुक्त के प्रभार के अंतर्गत देहरादून और जॉनसार बवार हस्तांतरित कर दिया गया और 1829 में देहरादून जिले को मेरठ खण्ड को हस्तांतरित कर दिया गया। 1842 में देहरादून को सहारनपुर जिले से जोड़ दिया गया और इसे जिलाधीश के अधिनस्थ एक अधिकारी के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। 1871 से यह एक अलग जिला है। 1968 में इस जिले को मेरठ खण्ड से अलग करके गढ़वा खण्ड से जोड़ दिया गया। देहरादून के इतिहास के बारे में विस्तृत जानकारी चंदर रोड पर स्थित स्टेट आर्काइव्स में है। यह संस्था दलानवाला में स्थित है।
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देहरादून की स्थापना 1699 में हुई थी। कहते हैं कि सिक्खों के गुरु रामराय किरतपुर पंजाब से आकर यहाँ बस गए थे। मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने उन्हें कुछ ग्राम टिहरी नरेश से दान में दिलवा दिए थे। यहाँ उन्होंने 1699 ई. में मुग़ल मक़बरों से मिलता-जुलता मन्दिर भी बनवाया जो आज तक प्रसिद्ध है। शायद गुरु का डेरा इस घाटी में होने के कारण ही इस स्थान का नाम देहरादून पड़ गया होगा।इसके अतिरिक्त एक अत्यन्त प्राचीन किंवदन्ती के अनुसार देहरादून का नाम पहले द्रोणनगर था और यह कहा जाता था कि पाण्डव-कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य ने इस स्थान पर अपनी तपोभूमि बनाई थी और उन्हीं के नाम पर इस नगर का नामकरण हुआ था। एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार जिस द्रोणपर्त की औषधियाँ हनुमान जी लक्ष्मण के शक्ति लगने पर लंका ले गए थे, वह देहरादून में स्थित था, किन्तु वाल्मीकि रामायण में इस पर्वत को महोदय कहा गया है।
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देहरादून की जलवायु समशीतोष्ण है। यहां का तापमान 16 से 36 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है जहां शीत का तापमान 2 से 24 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। देहरादून में औसतन 2073.3 मिलिमीटर वर्षा होती है। अधिकांश वर्षा जून और सितंबर के बीच होती है। अगस्त में सबसे अधिक वर्षा होती है।
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राजपुर मार्ग पर या डालनवाला के पुराने आवासीय क्षेत्र में पूर्वी यमुना नहर सड़क से देहरादून शुरु हो जाता है। सड़क के दोनों किनारे स्थित चौड़े बरामदे और सुन्दर ढालदार छतों वाले छोटे बंगले इस शहर की पहचान हैं। इन बंगलों के फलों से लदे हुए पेड़ों वाले बगीचे बरबस ध्यान आकर्षित करते हैं। घण्टाघर से आगे तक फैलाहुआ रंगीन पलटन बाजार यहाँ का सर्वाधिक पुराना और व्यस्त बाजार है। यह बाजार तब अस्तित्व में आया जब 1820 में ब्रिटिश सेना की टुकड़ी को आने की आवश्यकता पड़ी। आज इस बाजार में फल, सब्जियां, सभी प्रकार के कपड़े, तैयार वस्त्र जूते और घर में प्रतिदिन काम आने वाली वस्तुयें मिलती हैं। इसके स्टोर माल, राजपुर सड़क तक है जिसके दोनों ओर विश्व के लोकप्रिय उत्पादों के शो रूम हैं। अनेक प्रसिद्ध रेस्तरां भी राजपुर सड़क पर है। कुछ छोटी आवासीय बस्तियाँ जैसे राजपुर, क्लेमेंट टाउन, प्रेमनगर और रायपुर इस शहर के पारंपरिक गौरव हैं।
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देहरादून के राजपुर मार्ग पर भारत सरकार की दृष्टिबाधितों के लिए स्थापित पहली और एकमात्र राष्ट्रीय स्तर की संस्था राष्ट्रीय दृष्टिबाधित संस्थान स्थित है। इसकी स्थापनी 19वीं सदी के नब्बे के दशक में विकलांगों के लिए स्थापित चार संस्थाओं की श्रंखला में हुआ जिसमें राष्ट्रीय दृष्टिबाधित संस्था के लिए देहरादून का चयन किया गया। यहाँ दृष्टिबाधित बच्चों के लिए स्कूल, कॉलेज, छात्रावास, ब्रेल पुस्तास्तलय एवं ध्वन्यांकित पुस्तकों का पुस्तकालय भी स्थापित किया गया है। इसके कर्मचारी इसके अन्दर रहते हैं इसके अतिरिक्त शार्प मेमोरियल नामक निजी संस्था राजपुर में हैं यें दृष्टि अपंगता तथा कानों सम्बन्धि बजाज संस्थान तथा राजपुर सड़क पर दूसरी अन्य संस्थाये बहुत अच्छा कार्य कर रही है। उत्तराखण्ड सरकार का एक और नया केन्द्र है। करूणा विहार, बसन्त विहार में कुछ कार्य शुरू किये है। तथा गहनता से बच्चों के लिये कार्य कर रहें है तथा कुछ नगर के चारों ओर केन्द्र है। देहरादून राफील रेडरचेशायर अर्न्तराष्ट्रीय केन्द है। रिस्पना ब्रिज शायर गृह डालनवाला में हैं। जो मानसिक चुनौतियों के लिए कार्य करते है। मानसिक चुनौतियों के लिए काम करने के अतिरिक्त राफील रेडरचेशायर अर्न्तराष्ट्रीय केन्द्र ने टी.बी व अधरंग के इलाज के लिये भी अस्पताल बनाया। अधिकाँश संस्थायें भारत और विदेश से स्वेच्छा से आने वालो को आकर्षित तथा प्रोत्साहित करती है। आवश्यकता विहीन का कहना है कि स्वेच्छा से काम करने वाले इन संस्थाओं को ठीक प्रकार से चलाते है। तथा अयोग्य, मानसिक चुनौतियो और कम योग्य वाले लोगो को व्यक्तिगत रूप से चेतना देते है।
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देहरादून अपनी पहाडीयों और ढलानो के साथ-साथ साईकिलिंग का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। चारों ओर पर्वतो और हरियाली से घिरा होने के कारण यहाँ साईकिलिंग करना बहुत सुखद है। लीची देहरादून का पर्यायवाची है क्योंकि यह स्वादिष्ट फल चुनिँदा जलवायु में ही उगता है। देहरादून देश के उन जगहों में से एक है जहाँ लीची उगती है। लीची के अतिरिक्त देहरादून के चारों ओर बेर, नाशपत्ती, अमरूद्ध और आम के पेड है। जो नगर की बनावट को घेरे हुये है। ये सारी चीजे घाटी के आकर्षण में वृद्धि करती है। यदि तुम मई माह या जून के शुरू की गर्मियों में भ्रमण के लिये जाओ तो तुम इन फलों को केवल देखोगें ही नही बल्कि खरीदोंगे भी। बासमती चावल की लोकप्रियता देहरादून या भारत में ही नही बल्कि विदेशो में भी है। एक समय अंग्रेज भी देहरादून में रहते थे और वे नगर पर अपना प्रभाव छोड गयें। उदाहरण के रूप में देहरादून की बैकरीज आज भी यहाँ प्रसिद्ध है। उस समय के अंग्रेजो ने यहाँ के स्थानीय स्टाफ को सेंकना सीखाया। यह निपुणता बहुत अच्छी सिद्ध हुई तथा यह निपुणता अगली संतति सन्तान में भी आयी। फिर भी देहरादून के रहने वालो के लिये यहाँ के स्थानीय रस्क, केक, होट क्रोस बन्स, पेस्टिज और कुकीज मित्रों के लिये सामान्य उपहार है, कोई भी ऐसी नही बनाता जैसे देहरा��ून में बनती है।
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दूसरा उपहार जो पर्यटक यहाँ से ले जाते है विख्यात क्वालिटी की टॉफी जोकि क्वालिटी रेस्टोरेन्ट से मिलती हैं। यद्यपि आज बडी संख्या में दूसरी दुकानों से भी ये टॉफी मिलती है परन्तु असली टॉफी आज भी सर्वोतम है। देहरादून में आन्नद के और बहुत से पर्याप्त विकल्प है। प्रर्याप्त मात्रा में देहरादून में दर्शनीय चीजे है जो उनके लिये प्रकृति के उपहार है विशेष रूप से देहरादून से मसूरी का मार्ग जो कि पैदल चलने वालों के लिये बहुत लोकप्रिय है। उन लोगो के लिये जो साधारण से ऊपर कुछ करना चाहते है सर्वोतम योग संस्थानों में से किसी एक से जुड़ना चाहिये अथवा सलसा सीखना चाहिये।
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सड़क मार्गः देहरादून देश के विभिन्न हिस्सों से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है और यहां पर किसी भी जगह से बस या टेक्सी से आसानी से पहुंचा जा सकता है। सभी तरह की बसें, गांधी बस स्टेंड जो दिल्ली बस स्टेंड के नाम से जाना जाता है, यहां से खुलती हैं। यहां पर दो बस स्टैंड हैं। देहरादून और दिल्ली, शिमला और मसूरी के बीच डिलक्स/ सेमी डिलक्स बस सेवा उपलब्ध है। ये बसें क्लेमेंट टाउन के नजदीक स्थित अंतरराज्यीय बस टर्मिनस से चलती हैं। दिल्ली के गांधी रोड बस स्टैंड से एसी डिलक्स बसें भी चलती हैं। यह सेवा हाल में ही यूएएसआरटीसी द्वारा शुरू की गई है। आईएसबीटी, देहरादून से मसूरी के लिए हर 15 से 70 मिनट के अंतराल पर बसें चलती हैं। इस सेवा का संचालन यूएएसआरटीसी द्वारा किया जाता है। देहरादून और उसके पड़ोसी केंद्रों के बीच भी नियमित रूप से बस सेवा उपलब्ध है। इसके आसपास के गांवों से भी बसें चलती हैं। ये सभी बसें परेड ग्राउंड स्थित स्थानीय बस स्टैड से चलती हैं।
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देहरादून और कुछ महत्वपूर्ण स्थानों के बीच की दूरी नीचे दी गयी है:
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रेलः देहरादून उत्तरी रेलवे का एक प्रमुख रेलवे स्टेशन है। यह भारत के लगभग सभी बड़े शहरों से सीधी ट्रेनों से जुड़ा हुआ है। ऐसी कुछ प्रमुख ट्रेनें हैं- हावड़ा-देहरादून एक्सप्रेस, चेन्नई- देहरादून एक्सप्रेस, दिल्ली- देहरादून एक्सप्रेस, बांद्रा- देहरादून एक्सप्रेस, इंदौर- देहरादून एक्सप्रेस आदि।वायु मार्गः जॉली ग्रांट एयरपोर्ट देहरादून से 25 से किलोमीटर है। यह दिल्ली एयरपोर्ट से अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं। एयर डेक्कन दोनों एयरपोर्टों के बीच प्रतिदिन वायु सेवा संचालित करती है।
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श्रीलंकाई गृहयुद्ध श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहला और अल्पसंख्यक तमिलो के बीच 23 जुलाई, 1983 से आरंभ हुआ गृहयुद्ध है। मुख्यतः यह श्रीलंकाई सरकार और अलगाववादी गुट लिट्टे के बीच लड़ा जाने वाला युद्ध है। 30 महीनों के सैन्य अभियान के बाद मई 2009 में श्रीलंकाई सरकार ने लिट्टे को परास्त कर दिया।
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लगभग 25 वर्षों तक चले इस गृहयुद्ध में दोनों ओर से बड़ी संख्या में लोग मारे गए और यह युद्ध द्वीपीय राष्ट्र की अर्थव्यस्था और पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हुआ। लिट्टे द्वारा अपनाई गई युद्ध-नीतियों के चलते 32 देशों ने इसे आतंकवादी गुटो की श्रेणी में रखा जिनमें भारत, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूरोपीय संघ के बहुत से सदस्य राष्ट्र और अन्य कई देश हैं। एक-चौथाई सदी तक चले इस जातीय संघर्ष में सरकारी आँकड़ों के अनुसार ही लगभग 80,000 लोग मारे गए हैं।
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श्रीलंका में दशकों तक चले जातीय संघर्ष का घटनाक्रम इस प्रकार है:-
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1948 - श्रीलंका स्वतंत्र हुआ। इसी वर्ष सिलोन नागरिकता कानून अस्तित्व में आया। इस कानून के अनुसार तमिल भारतीय मूल के हैं इसलिए उन्हें श्रीलंका की नागरिकता नहीं दी जा सकती है। हालांकि इस कानून को मान्यता नहीं मिली।
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1956 - सरकार ने देश के बहुसंख्यकों की भाषा सिंहली को आधिकारिक भाषा घोषित किया। अल्पसंख्यक तमिलों ने कहा कि सरकार ने उन्हें हाशिये पर डाल दिया। तमिल राष्ट्रवादी पार्टी ने इसका विरोध किया और उसके सांसद सत्याग्रह पर बैठ गए। बाद में इस विरोध ने हिंसक रूप ले लिया। इस हिंसा में दर्जनों लोग मारे गए और हजारों तमिलों को बेघर होना पड़ा।
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1958 - पहली बार तमिल विरोधी दंगे हुए जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों को अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा। इसके बाद तमिलों और सिंहलियों के बीच खाई और गहरी हो गई। दंगे के बाद तमिल राष्ट्रवादी पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
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संघर्ष का दूसरा कारण सरकार की वह नीति थी जिसके अंतर्गत बहुसंख्यक सिंहला समुदाय को पूर्वी प्रांत में बसाया गया, जो परंपरागत रूप से तमिल राष्ट्रवादी लोगों की गृहभूमि समझा जाता है। संघर्ष का तात्कालिक कारण यही था।
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सत्तर के दशक में भारत से तमिल पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं और चलचित्रों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। साथ ही, श्रीलंका में उन संगठनों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया, जिनका संबंध तमिल नाडु के राजनीतिक दलों से था। छ���त्रों के भारत आकर पढ़ाई करने पर रोक लगा दी गई। श्रीलंकाई तमिलों ने इन कदमों को उनकी अपनी संस्कृति से काटने का षड़यंत्र घोषित दिया, हालांकि सरकार ने इन कदमों को आर्थिक आत्मनिर्भरता के समाजवादी कार्यसूची का भाग बताया।
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1972: सिलोन ने अपना नाम बदलकर श्रीलंका रख लिया और देश के धर्म के रूप में बौद्ध धर्म को प्राथमिकता पर रखा जिससे जातीय तमिल अल्पसंख्यकों की नाराजगी और बढ़ गई जो पहले से ही यह महसूस करते आ रहे थे कि उन्हें हाशिए पर रखा जा रहा है।
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1973: सरकार ने मानकीकरण की नीति लागू की। सरकार के अनुसार से इसका उद्देश्य शिक्षा में असमानता दूर करना था, लेकिन इससे सिंहलियों को ही लाभ हुआ और श्रीलंका के विश्वविद्यालयों में तमिल छात्रों की संख्या लगातार घटती गई।
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इसी वर्ष तमिल राष्ट्रवादी पार्टी यानी फेडरल पार्टी ने अलग तमिल राष्ट्र की मांग कर डाली। अपनी मांग को सुदृड़ करने के लिए फेडरल पार्टी ने अन्य तमिल पार्टियों को अपने साथ कर दिया और इस प्रकार तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट का निर्माण हुआ। फ्रंट का 1976 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें पार्टी ने अलग राष्ट्र की मांग की। हालांकि इस समय तक सरकार की नीतियों के भारी विरोध के बावजूद पार्टी एक राष्ट्र के सिद्धांत की बात करती थी।
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कुल मिलाकर, स्वतंत्रता से पहले जो काम अंग्रेजों ने किया, वही काम स्वतंत्रता के बाद आत्मनिर्भरता के नाम पर श्रीलंकाई सरकार ने किया।
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1976: प्रभाकरण ने 'लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल एलम' की स्थापना की।
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1977: अलगाववादी पार्टी 'तमिल युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट' ने श्रीलंका के उत्तर पूर्व के तमिल बहुल क्षेत्रों में सभी सीटें जीतीं। तमिल विरोधी दंगों में 100 से अधिक तमिल मारे गए।
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1981: श्रीलंकाई तमिलों की सांस्कृतिक राजधानी जाफ़ना में एक सार्वजनिक पुस्तकालय में आग लगाए जाने की घटना से तमिल समुदाय की भावनाएं और अधिक भड़क उठीं।
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1983: लिट्टे के हमले में 13 सैनिक मारे गए जिससे समूचे उत्तर पूर्व में तमिल विरोधी दंगे भड़क उठे जिनमें समुदाय के सैकड़ों लोग मारे गए।
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1985: श्रीलंका सरकार और लिट्टे के बीच पहली शांति वार्ता विफल।
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1987: श्रीलंकाई बलों ने लिट्टे को उत्तरी शहर जाफ़ना में वापस धकेला। सरकार ने उत्तर और पूर्व में तमिल क्षेत्रों के लिए नई परिषदें बनाने के लिए हस्ताक्षर किए और भारतीय शांति सैनिकों की तैनाती के लिए भारत के साथ समझौता किया।
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1990: भारतीय शांति सेना ने श्रीलंका छोड़ा। श्रीलंकाई बलों और लिट्टे के बीच हिंसा।
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1991: पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की चेन्नई के निकट एक आत्मघाती हमले में मारे गए। लिट्टे पर लगा हत्याकांड को मूर्तरूप देने का आरोप।
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1993: लिट्टे के आत्मघाती हमलावरों ने श्रीलंकाई राष्ट्रपति प्रेमदास की हत्या की।
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1994: चंद्रिका कुमार तुंग सत्ता में आई। लिट्टे से बातचीत आरंभ की।
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1995: राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंग विद्रोही लिट्टे के साथ संघर्ष विराम लागू करने को तैयार हुईं। लिट्टे द्वारा श्रीलंकाई नौसेना के पोत को डुबोने के साथ ही ‘ईलम तीन युद्ध’ आरंभ।
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1995-2001: युद्ध उत्तर से पूर्व की ओर फैला। सेंट्रल बैंक पर आत्मघाती हमले में लगभग 100 लोग मारे गए जबकि सुश्री कुमारतुंग एक अन्य हमले में घायल हो गईं।
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2002: श्रीलंका और लिट्टे ने नार्वे की मध्यस्थता से संघर्ष विराम पर हस्ताक्षर किए।
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2004: लिट्टे कमांडर करुणा ने विद्रोही आंदोलन में बिखराव का नेतृत्व किया और अपने समर्थकों के साथ भूमिगत हो गए।
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2005: लिट्टे ने श्रीलंका के विदेश मंत्री लक्ष्मण कादिरगमार की हत्या की।
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जनवरी 2008: सरकार ने संघर्ष विराम समाप्त किया।
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जुलाई 2008: श्रीलंकाई सेना ने कहा कि उसने लिट्टे के विदात्तलतिवु स्थित नौसैन्य ठिकाने पर अधिकार कर लिया है।
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जनवरी 2009: श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे की राजधानी त्रिलिनोच्चिच्पर अधिकार किया।
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अप्रैल 2009: श्रीलंकाई सेना ने मुल्लाइतिवु जिले में स्थित लिट्टे के अधीन अंतिम नगर पर अधिकार किया।
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16 मई, 2009: राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने घोषणा की कि लिट्टे को सैन्य स्तर पर हरा दिया गया है।
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17 मई, 2009: लिट्टे ने हार स्वीकारी।
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18 मई, 2009: प्रभाकरण के बेटे चार्ल्स एंथनी सहित सात शीर्ष विद्रोही नेता मारे गए।
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श्रीलंकाई सरकार की गलत नीतियों और पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण श्रीलंका के तमिलों में गहरा असंतोष पैदा हो गया। जो तमिल पार्टियां 1973 तक राष्ट्र विभाजन के विरुद्ध थी, वो भी अब अगल राष्ट्र की मांग करने लगीं।
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सरकार की नीतियों के कारण बहुसंख्यक सिंहला समुदाय को जहां लाभ हुआ, वहीं अल्पसंख्यक तमिलों को हानि। शिक्षा से लेकर रोजगार तक, धर्म से लेकर संस्कृति तक, वाणिज्य से लेकर व्यवसाय तक; हर जगह तमिलों से भेदभाव किया गया। उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया गया। सत्तर और अस्सी के दशक में स्थ���ति ये हो गई कि तमिल युवकों का विश्वविद्यालयों में दाखिला और रोजगार पाना असंभव-सा हो गया। इन बेरोजगार और बेकार युवकों ने विद्रोह का रास्ता अपना लिया। काले जुलाई की घटना से भी तमिल विद्रोह को हवा मिली। 23 जुलाई, 1983 को एलटीटीई के एक हमले में श्रीलंकाई सेना के तेरह सैनिक मारे गए। इस घटना के बाद भड़की हिंसा में कम से कम एक हजार तमिल मार दिए गए और कम से कम दस हजार तमिल घरों को आग के हवाले कर दिया गया। इस नरसंहार ने दुनियाभर के तमिलों को हिला दिया। श्रीलंका में हजारों तमिल युवकों ने सशस्त्र विद्रोह का रास्ता अपना लिया।
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औपनिवेशिक काल में चाय के बगानों में काम करने के लिए श्रमिकों को भारत से श्रीलंका लाया गया था। कहते हैं कि घाव कितना भी गहरा हो, समय के साथ भर जाता है, लेकिन तमिलों के साथ ऐसा नहीं हुआ। जिन तमिलों ने देश की प्रगति में भागीदारी की, उन्हीं तमिलों को बहुसंख्यक सिंहला समुदाय अपना मानने के लिए तैयार नहीं हुआ। यही कारण है कि तमिलों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी निर्धनता का जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ा।
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1962 में भारत और श्रीलंका के बीच एक संधि हुई जिसके अंतर्गत अगले पंद्रह वर्षों में छः लाख तमिलों को भारत भेजा जाना था और पौने चार लाख तमिलों को श्रीलंका की नागरिकता देनी थी। लेकिन ये तमिल श्रीलंका से भारत नहीं लौटे। बिना नागरिकता, बिना अधिकार वे श्रीलंका में ही रहते रहे। वर्ष 2003 तक उन्हें श्रीलंका की नागरिकता नहीं मिली।
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जब सिंहला को राजभाषा का दर्जा मिला तो तमिलभाषी लोगों को नौकरियों से निकाल दिया गया। एक ओर भारत से तमिल साहित्य, चलचित्रों, पत्र-पत्रिकाओं के आयात पर रोक लगा दी गई। वहीं दूसरी ओर, शिक्षा नीति के मानकीकरण के नाम पर तमिलों के महाविद्यालयों में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 1981 के जाफ़ना पुस्तकालय अग्निकांड से तमिलों को बहुत ठेस पहुंची। 31 मई से 2 जून तक बड़े ही सुनियोजित ठंग से तमिलों पर हमला किया गया। तमिल समाचारपत्र के कार्यालय और पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया गया। इस अग्निकांड में पुस्तकालय की लगभग एक लाख तमिल भाषी पुस्तकें जलकर राख हो गई। इस अग्निकांड में कई पुलिसकर्मी भी शामिल थे।
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श्रीलंका वर्ष 1983 से ही गृहयुद्ध की विभीषिका झेल रहा है। इस युद्ध में आधिकारिक रूप से सत्तर हजार से भी अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इसे दुनिया के सबसे खतरनाक और रक्त-रंजित संघर्षों में से एक माना जाता है। यह युद्ध मुख्यतः तमिल विद्रोही एलटीटीई और सिंहला समुदाय के प्रभाव वाली सरकार के बीच है। दुनिया के इकतीस देशों ने एलटीटीई को आतंकवादी संगठन का दर्ज दे रहा है, जिसमें भारत भी है।
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2001 के युद्धविराम के बाद शांति की संभावना बनी। 2002 में दोनों पक्षों ने एक संधि पर हस्ताक्षर भी किया, लेकिन 2005 में हिंसा फिर से भड़क उठी। 2006 में सरकार ने एलटीटीई के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया और पूर्वी प्रांत से उसे बाहर खदेड़ दिया। इसके बावजूद लिट्टे ने अलग राष्ट्र की मांग को लेकर संघर्ष फिर से आरंभ करने की घोषणा की। श्रीलंकाई सेना ने दावा किया कि उसने शत्रुओं की सारी नौकाओं को नष्ट कर दिया है और उसने ये भी दावा किया कि आने वाले समय में वह उसे पूरी तरह नष्ट कर देगी। एलटीटीई पर सैंकड़ों बार संधि उल्लंघन का आरोप लगाते हुए उसने 2 जनवरी, 2008 को उसके विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया।
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एक वर्ष बाद उसने लिट्टे के गढ़ किलिनोच्ची पर अधिकार कर लिया। इस संघर्ष के कारण लगभग 2 लाख तमिलों को विस्थापित होना पड़ा।
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संघर्ष के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
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भारत ने कई कारणों से श्रीलंकाई संघर्ष में हस्तक्षेप किया। इनमें क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्वयं को प्रदर्शित करना और तमिल नाडु में स्वतंत्रता की मांग को दबाना सम्मिलित था। चूंकि तमिल नाडु के लोग सांस्कृतिक कारणों से श्रीलंकाई तमिलों के हितों के पक्षधर रहे हैं, इसलिए भारत सरकार को भी संघर्ष के दौरान श्रीलंकाई तमिलों की सहायता के लिए आगे आना पड़ा। 80 के दशक के आरंभ में भारतीय संस्थाओं ने बहुत प्रकार से तमिलों की सहायता की।
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5 जून, 1987 को जब श्रीलंका सरकार ने दावा किया कि वे जाफ़ना पर अधिकार करने के निकट हैं, तभी भारत ने पैराशूट के द्वारा जाफ़ना में राहत सामाग्रियां गिराई। भारत की इस सहायता को लिट्टे की प्रत्यक्ष सहायता भी माना गया। इसके बाद 29 जुलाई, 1987 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन श्रीलंकाई राष्ट्रपति जयवर्द्धने के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुआ। इस समझौते के अंतर्गत श्रीलंका में तमिल भाषा को आधिकारिक दर्जा दिया गया। साथ ही, तमिलों के कई अन्य मांगें मान ली गईं। वहीं, भारतीय शांति रक्षक बलों के सामने विद्रोहियों को हथियार डालना पड़ा।
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अधिकतर विद्रोही गुटों ने भारतीय शांति रक्षक बलों के सामने हथियार डाल दिए थे, लेकिन लिट्टे इसके लिए तैयार नहीं हुआ। भारतीय शांति रक्षक सेना ने लिट्टे को तोड़ने का पूरा प्रयास किया। तीन वर्षों तक दोनों के बीच युद्ध चला। इस दौरान शांति रक्षकों पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप भी लगे। उधर, सिंहलियों ने भी अपने देश में भारतीय सैनिकों की उपस्थिति का विरोध करना आरंभ किया। इसके बाद श्रीलंका सरकार ने भारत से शांति रक्षकबलों को वापस बुलाने की मांग की, लेकिन राजीव गांधी ने इससे मना कर दिया। 1989 के संसदीय चुनाव में राजीव गांधी की हार के बाद नए प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने श्रीलंका से शांति रक्षक बलों को हटाने का आदेश दिया। इन तीन वर्षों में श्रीलंका में ग्यारह सौ भारतीय सैनिक मारे गए, वहीं पांच हजार श्रीलंकाई भी मारे गए थे।
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1991 में एक आत्मघाती हमलावर लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या कर दी। इसके बाद भारत ने श्रीलंकाई तमिलों की सहायता बंद कर दी।वर्ष 2008 में जब श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे के ठिकानों पर अधिकार करना आरंभ किया तो भारत की गठबंधन सरकार हिल गई। तमिल नाडु के राजनीतिक दलों ने केंद्र सरकार से श्रीलंकाई मामले में हस्तक्षेप की मांग की। ऐसा नहीं करने पर मुख्य सहयोगी दल डीएमके ने सरकार से हटने की भी धमकी दे डाली। केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए तमिल नाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने अपने सांसदों से इस्तीफा तक ले लिया। तमिलों के मुद्दे पर तमिल नाडु की तमाम पार्टियां एकसाथ हो गई और श्रीलंका में तुरंत युद्धविराम की मांग की। भारी दबाव के बीच विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी श्रीलंका गए। श्रीलंका के राष्ट्रपति ने उन्हें तमिलों की सुरक्षा का आश्वासन दिया। युद्ध में फंसे आम-नागरिकों को बाहर निकलने लिए उसने एकपक्षीय युद्ध विराम भी घोषित किया। यदि यही बात पहले होती तो सैंकड़ों निर्दोष लोगों के प्राण बच जाते।
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19वीं शताब्दी में राज्य और समाज के आपसी सम्बन्ध पर वाद-विवाद शुरू हुआ तथा 20वीं शताब्दी में, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक विज्ञानों में विभिन्नीकरण और विशिष्टीकरण की उदित प्रवृत्ति तथा राजनीति विज्ञान में व्यवहारवादी क्रान्ति और अन्तः अनुशासनात्मक उपागम के बढ़े हुए महत्व के परिणामस्वरूप जर्मन और अमरीकी विद्वानों में राजनीतिक विज्ञान के समाजोन्मुख अध्ययन की एक नूतन प्रवृत्ति शुरू हुई। इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप राजनीतिक समस्याओं की समाजशास्त्रीय खोज एवं जांच की जाने लगी। ये खोजें एवं जांच न तो पूर्ण रूप से समाजशास्त्रीय थीं और न ही पूर्णतः राजनीतिक। अतः ऐसे अध्ययनों को ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ के नाम से पुकारा जाने लगा।
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एक स्वतन्त्र और स्वायत्त अनुशासन के रूप में ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ का उद्भव और अध्ययन-अध्यापन एक नूतन घटना है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद फेंज न्यूमा, सिमण्ड न्यूमा, हेन्स गर्थ, होरोविज, जेनोविटस, सी.राइट मिल्स, ग्रियर ओरलिन्स, रोज, मेकेंजी, लिपसेट जैसे विद्वानों और चिन्तकों की रचनाओं में ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ ने एक विशिष्ट अनुशासन के रूप् में लोकप्रियता अर्जित की है। लेकिन आज भी यह विषय अपनी बाल्यावस्था में ही है। यहां तक कि इस विषय के नामकरण के बारे में भी आम सहमति नहीं पायी जाती है। कतिपय विद्वान इसे ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ कहकर पुकारते हैं जबकि अन्य विद्वान इसे ‘राजनीति का समाजशास्त्र’ कहना पसन्द करते हैं। एस. एन. इसे ‘राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन’ कहकर पुकारते हैं। ‘राजनीतिक समाजशस्त्र’ वस्तुतः समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के बीच विद्यमान सम्बन्धों की घनिष्ठता का सूचक है। इस विषय की व्याख्या समाजशास्त्री और राजनीतिशास्त्री अपने-अपने ढंग से करते हैं। जहां समाजवादी के लिए यह समाजशास्त्र की एक शाखा है, जिसका सम्बन्ध समाज के अन्दर या मध्य में निर्दिष्ट शक्ति के कारणों एवं परिणामों तथा उन सामाजिक और राजनीतिक द्वन्द्वों से है जो कि सत्ता या शक्ति में परिवर्तन लाते हैं; राजनीतिशास्त्री के लिए यह राजनीतिशास्त्र की शाखा है जिसका सम्बन्ध सम्पूर्ण समाज व्यवस्था के बजाय राजनीतिक उपव्यवस्था को प्रभावित करने वाले अन्तःसम्बन्धों से है। ये अन्तःसम्बन्ध रा���नीतिक व्यवस्था तथा समाज की दूसरी उपव्यवस्थाओं के बीच में होते हैं। राजनीतिशास्त्री की रूचि राजनीतिक तथ्यों की व्याख्या करने वाले सामाजिक परिवर्त्यों तक रहती है जबकि समाजशास्त्री समस्त सम्बन्धी घटनाओं को देखता है।
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एक नया विषय होने के कारण ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ की परिभाषा करना थोड़ा कठिन है। राजनीतिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत हम सामाजिक जीवन के राजनीतिक एवं सामाजिक पहलुओं के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं का विश्लेषण करते हैं; अर्थात् राजनीतिक कारकों तथा सामाजिक कारकों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा इनके एक-दूसरे पर प्रभाव एवं प्रतिच्छेदन का अध्ययन करते हैं।
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‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ की निम्नलिखित परिभाषाएं की जाती हैं :
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डाउसे तथा ह्यूज : राजनीतिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की एक शाखा है जिसका सम्बन्ध मुख्य रूप से राजनीति और समाज में अन्तःक्रिया का विश्लेषण करना है।
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जेनोविट्स : व्यापकतर अर्थ में राजनीतिक समाजशास्त्र समाज के सभी संस्थागत पहलुओं की शक्ति के सामाजिक आधार से सम्बन्धित है। इस परम्परा में राजनीतिक समाजशास्त्र स्तरीकरण के प्रतिमानों तथा संगठित राजनीति में इसके परिणामों का अध्ययन करता है।
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लिपसेट : राजनीतिक समाजशास्त्र को समाज एवं राजनीतिक व्यवस्था के तथा सामाजिक संरचनाओं एवं राजनीतिक संस्थाओं के पारस्परिक अन्तःसम्बन्धों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
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बेंडिक्स : राजनीति विज्ञान राज्य से प्रारम्भ होता है और इस बात की जांच करता है कि यह समाज को कैसे प्रभावित करता है। राजनीतिक समाजशास्त्र समाज से प्रारम्भ होता है और इस बात की जांच करता है कि वह राज्य को कैसे प्रभावित करता है।
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पोपीनो : राजनीतिक समाजशास्त्र में वृहत् सामाजिक संरचना तथा समाज की राजनीतिक संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
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सारटोरी : राजनीतिक समाजशास्त्र एक अन्तःशास्त्रीय मिश्रण है जो कि सामाजिक तथा राजनीतिक चरों को अर्थात् समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित निर्गमनों को राजनीतिशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित निर्गमनों से जोड़ने का प्रयास करता है। यद्यपि राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीतिशास्त्र तथा समाजशास्त्र को आपस से जोड़ने वाले पुलों में से एक है, फिर भी इसे ‘राजनीति के समाजशास्त्र’ का पर्यायवाची नहीं समझा जाना चाहिए।
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लेविस कोजर : राजनीतिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध सामाजिक कारकों तथा तात्कालिक समाज में शक्ति वितरण से है। इसका सम्बन्ध सामाजिक और राजनीतिक संघर्षो से है जो शक्ति वितरण में परिवर्तन का सूचक है।
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टॉम बोटामोर : राजनीतिक समाजशास्त्र का सरोकर सामाजिक सन्दर्भ में सत्ता से है। यहां सत्ता का अर्थ है एक व्यक्ति या सामाजिक समूह द्वारा कार्यवाही करने, निर्णय करने व उन्हें कार्यान्वित करने और मोटे तौर पर निर्णय करने के कार्यक्रम को निर्धारित करने की क्षमता जो यदि आवश्यक हो तो अन्य व्यक्तियों और समूहों के हितों और विरोध में भी प्रयुक्त हो सकती है।
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राजनीति विज्ञान के परम्परावादी विद्वान अपने अध्ययन विषय का सम्बन्ध ‘राज्य’ और ‘सरकार’ जैसी औपचारिक संस्थाओं से जोड़ते थे। राजनीति विज्ञान में व्यवहारवादी क्रान्ति के परिणामस्वरूप ‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के राजनीतिक व्यवहार, हित समूहों की क्रियाओं तथा विभिन्न हित समूहों में संघर्ष के समाधान के लिए किया जाने लगा। डेविड ईस्टन ने इसे किसी समाज में मूल्यों के प्राधिकारिक वितरण से सम्बन्धित क्रिया कहा है। संक्षेप में, राजनीति के अध्ययन से अभिप्राय केवल राज्य और सरकार की औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करना ही नहीं अपितु यह एक सामाजिक क्रिया है क्योंकि सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों में राजनीति पायी जाती है।
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निष्कर्षतः राजनीतिक समाजशास्त्र का उपागम सामाजिक एवं राजनीतिक कारकों को समान महत्व देने के कारण, समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र दोनों से भिन्न है तथा इसलिए यह एक पृथक् सामाजिक विज्ञान है। प्रो.आर.टी. जनगम के अनुसार राजनीतिक समाजशास्त्र को समाजशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र के अन्तःउर्वरक की उपज माना जा सकता है जो राजनीति को सामाजिक रूप में प्रेक्षण करते हुए, राजनीति पर समाज के प्रभाव तथा समाज पर राजनीति के प्रभाव का अध्ययन करता है। संक्षेप, में राजनीतिक समाजशास्त्र समाज के सामाजिक आर्थिक पर्यावरण से उत्पन्न तनावों और संघर्षो का अध्ययन कराने वाला विषय है। राजनीति विज्ञान की भांति राजनीतिक समाजशास्त्र समाज में शक्ति सम्बन्धों के वितरण तथा शक्ति विभाजन का अध्ययन हैं इस दृष्टि से कतिपय विद्वान इसे राजनीति विज्ञान का उप-विष�� भी कहते है।
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उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने से ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ की निम्नलिखित विशेषताएं स्पष्ट होती हैं-
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अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र दोनों के गुणों को अपने में समाविष्ट करते हुए यह दोनों का अधिक विकसित रूप में प्रतिनिधित्व करता है। एस.एस. लिपसेट इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं : यदि समाज-व्यवस्था का स्थायित्व समाजशास्त्र की केन्द्रीय समस्या है तो राजनीतिक व्यवस्था का स्थायित्व अथवा जनतन्त्र की सामाजिक परिस्थिति राजनीतिक समाजशास्त्र की मुख्य चिन्ता है।
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प्रक्रम गति का सूचक है। किसी भी वस्तु की आंतरिक बनावट में भिन्नता आना परिवर्तन है। जब एक अवस्था दूसरी अवस्था की ओर सुनिश्चित रूप से अग्रसर होती है तो उस गति को प्रक्रम कहा जाता है। इस अर्थ में जीव की अमीबा से मानव तक आने वाली गति, भूप्रस्तरण की क्रियाएँ तथा तरल पदार्थ का वाष्प में आना प्रक्रम के सूचक हैं। प्रक्रम से ऐसी गति का बोध होता है जो कुछ समय तक निरंतरता लिए रहे। सामान्य जगत् में जड़ और चेतन, पदार्थ और जीव में आने वाले ऐसे परिवर्तन प्रक्रम के द्योतक हैं। इस प्रकार प्रक्रम शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होता है।
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प्रक्रम के इस मूल ग्रंथ के उपयोग सामाजिक जीवन के समझने के लिए किया गया है। सामाजिक शब्द से उस व्यवहार का बोध होता है जो एक से अधिक जीवित प्राणियों के पारस्परिक संबंध को व्यक्त करे, जिसका अर्थ निजी न होकर सामूहिक हो, जिसे किसी समूह द्वारा मान्यता प्राप्त हो और इस रूप में उसकी सार्थकता भी सामूहिक हो। एक समाज में कई प्रकार के समूह हो सकते हैं जो एक या अनेक दिशाओं में मानव व्यवहार को प्रभावित करें। इस अर्थ में सामाजिक प्रक्रम वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामाजिक व्यवस्था अथवा सामाजिक क्रिया की कोई भी इकाई या समूह अपनी एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर निश्चित रूप से कुछ समय तक अग्रसर होने की गति में हो।
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एक दृष्टि से विशिष्ट दिशा में होने वाले परिवर्तन सामाजिक व्यवस्था के एक भाग के अंतर्गत देखे जा सकते हैं तथा दूसरी से सामाजिक व्यवस्था के दृष्टिकोण से। प्रथम प्रकार के परिवर्तन के तीन रूप हैं-
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आकार के आधार पर संख्यात्मक रूप से परिभाषित - जनसंख्या की वृद्धि, एक स्थान पर कुछ वस्तुओं का पहले से अधिक संख्या में एकत्र होना, जैसे अनाज की मंडी में बैलगाड़ियों या ग्राहकों का दिन चढ़ने के साथ बढ़ना, इसके उदाहरण हैं। मैकईश्वर ने इसके विपरीत दिशा में उदाहरण नहीं दिए हैं, किंतु बाजार का शाम को समाप्त होना, बड़े नगर में दिन के 8 से 10 बजे के बीच बसों या रेलों द्वारा बाहरी भाग से भीतरी भागों में कई व्यक्तियों का एकत्र होना तथा सायंकाल में विसर्जित होना ऐसे ही उदाहरण हैं। अकाल तथा महामारी के फैलने से जनहानि भी इसी प्रकार के प्रक्रम के द्योतक हैं।
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संरचनात्मक तथा क्रियात्मक दृष्टि से गुण में होने वाली परिवर्तन - किसी भी सामाजिक इकाई में आंतरिक ल���्षणों का प्रादुर्भाव होना या उनका लुप्त होना इस प्रकार के प्रक्रम के द्योतक हैं। जनतंत्र के लक्षणों का लघु रूप से पूर्णता की ओर बढ़ना ऐसा ही प्रक्रम है। एक छोटे कस्बे का नगर के रूप में बढ़ना, प्राथमिक पाठशाला का माध्यमिक तथा उच्च शिक्षणालय के रूप में सम्मुख आना, छोटे से पूजा स्थल का मंदिर या देवालय की अवस्था प्राप्त करना विकास के उदाहरण हैं। विकास की क्रिया से आशय उन गुणों की अभिवृद्धि से है जो एक अवस्था में लघु रूप से दूसरी अवस्था में वृहत् तथा अधिक गुणसंपन्न स्थिति को प्राप्त हुए हैं। यह वृद्धि केवल संख्या या आकार की नहीं, वरन् आंतरिक गुणों की है। इस भाँति की वृद्धि संरचना में होती है और क्रियाओं में भी। इंग्लैंड में प्रधानमंत्री और संसद के गुण रूपी वृद्धि में निरंतरता देखी गई है। इस विकास की दो दिशाएँ थीं। इन्हें किसी भी दिशा से देखा जा सकता है। भारत में कांग्रेस का उदय और स्वतंत्रता की प्राप्ति एक ओर तथा ब्रिटिश सरकार का निरंतर शक्तिहीन होना दूसरी ओर इसी रूप से देखा जा सकता है। जब तक सामाजिक विकास में नई आने वाली गुण संबंधी अवस्था को पहले आने वाली अवस्था से हेय या श्रेय बताने का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक सामाजिक प्रक्रम विकास व ्ह्रास की स्थिति स्पष्ट करते हैं।
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निश्चित मर्यादाओं के आधार पर लक्ष्यों का परिवर्तन - जब एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर जाना सामाजिक रूप से स्वीकृत वा श्रेय माना जाए तो उस प्रकार का प्रक्रम उन्नति या प्रगति का रूप लिए होता है और जब सामाजिक मान्यताएँ परिवर्तन द्वारा लाई जाने वाली दिशा को हीन दृष्टि से देखें तो उसे पतन या विलोम होने की प्रक्रिया कहा जाएगा। रूस में साम्यवाद की ओर बढ़ाने वाले कदम प्रगतिशील माने जाएँगे, अमरीका में राजकीय सत्ता बढ़ाने वाले कदम पतन की परिभाषा तक पहुँच जाएंगे, शूद्र वर्ण के व्यक्तियों का ब्राह्मण वर्ण में खान-पान होना समाजवादी कार्यक्रम की मान्यताओं में प्रगति का द्योतक है और परंपरागत व्यवस्थाओं के अनुसार अध:पतन का लक्षण। कुछ व्यवस्थाएँ एस समय की मान्यताओं के अनुसार श्रेयस्कर हो सकती हैं और दूसरे समय में उन्हें तिरस्कार की दृष्टि से देखा जा सकता है। रोम में ग्लेडिएटर की व्यवस्था, या प्राचीन काल में दास प्रथा की अवस्था में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर भावनाएँ निहित थीं। समाज में विभिन्न वर्ग या समूह होते हैं, उनसे मान्यताएँ निर्धारित होती हैं। एक समूह की मान्यताएँ कई बार संपूर्ण समाज के अनुरूप होती हैं। कभी-कभी वे विपरीत दिशाओं में भी जाती हैं और उन्हीं के अनुसार विभिन्न सामाजिक परिवर्तनों का मूल्यांकन श्रेय वा हेय दिशाओं में किया जा सकता है। जब तक सामाजिक मान्यताएँ स्वयं न बदल जाएँ, वे परिवर्तनों को प्रगति या पतन की परिभाषा लंबे समय तक देती रहती हैं।
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दूसरे प्रकार के सामाजिक प्रक्रम अपने से बाहर किंतु किसी सामान्य व्यवस्था के अंग के रूप में संतुलन करने या बढ़ने की दृष्टि से देखे जा सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन चब एक संस्था के लक्षणों में आते हैं तो कई बार उस संस्था की संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था या अन्य विभागों से बना हुआ संबंध बदल जाता है। पहले के संतुलन घट-बढ़ जाते हैं और किसी भी दिशा में प्रक्रम चालू हो जाते हैं। परिवारों के छोटे होने के साथ संयुक्त परिवार के ्ह्रास के फलस्वरूप वृद्ध व्यक्तियों का परिवार या ग्राम से संबंध बदलता सा दिखाई पड़ रहा है। सामंतशाही के सदृढ़ संबंध एकाएक उस युग के प्रमुख व्यक्तियों के लिए एक नई समस्या लेकर आए हैं। इस भांति के परिवर्तनों को समझने का आधारभूत तत्व समाज के एक अंग की पूर्वावस्था के संतुलन को नई अवस्था की समस्याओं से तुलना करने में है। इस प्रकार के परिवर्तन संतुलन बढ़ाने या घटाने वाले हो सकते हैं। संतुलन एक अंग का अन्य अंगों से देखा जा सकता है।
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दो व्यक्ति या समूह जब एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्वीकृत साधनों के उपयोग द्वारा प्रयत्न करते हैं तो यह क्रिया प्रतियोगिता कहलाती है। इसमें लक्ष्य प्राप्ति के साधन सामान्य होते हैं। कभी-कभी नियमावली तक प्रकाशित हो जाती है। ओलंपिक खेल तथा खेल की विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताएँ इसकी सूचक हैं। परीक्षा के नियमों के अंतर्गत प्रथम स्थान प्राप्त करना दूसरा उदाहरण है। जब नियमो को भंग कर, या उनकी अवहेलना कर लक्ष्य प्राप्ति के लिए विपक्षी को नियमों से परे हानि पहुँचाकर प्रयास किए जाएँ तो वे संघर्ष कहलाएँगे। राजनीतिक दलों में प्रतियोगिता मूल नियमों को सदृढ़ बनाती हैं; उनमें होने वाले संघर्ष नियमों को ही क्षीण बनाते हैं और इस प्रकार अव्यवस्था फैलाते हैं। कभी-कभी छोटे संघर्ष बड़ी एकता का सर्जन करते हैं। बाहरी आक्रमण के समय भी���री संगठन कई बार एक हो जाते हैं, कभी-कभी ऐसा कुव्यवस्था जड़ पकड़ लेती है कि उसे साधारण से परे ढंग से भी नहीं हटाया जा सकता। यह आवश्यक नहीं कि संघर्ष का फल सदा समाज के अहित में हो, किंतु उस प्रक्रम में नियमों के अतिरिक्त होने वाले प्रभावात्मक कदम अवश्य उठ जाते हैं।
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एक समाज या संस्कृति का दूसरे समाज या संस्कृति से जब मुकाबला होता है तो कई बार एक के तत्व दूसरे में तथा दूसरे के पहले में आने लगते हैं। संस्कृति के तत्वों का इस भाँति का ग्रहण अधिकतर सीमित एवं चुने हुए स्थलों पर ही होता है। नाश्ते में अंग्रेजों से चाय ग्रहण कर ली गई पर मक्खन नहीं; घड़ियों का उपयोग बढ़ा पर समय पर काम करने की आदत उतनी व्यापक नहीं हुई; कुर्सियों पर पलथी मार कर बैठना तथा नौकरी दिलाने में जाति को याद करना इसी प्रकार के परिवर्तन हैं। दर समाज में वस्तुओं के उपयोग के साथ कुछ नियम और प्रतिबंध हैं, कुछ मान्यताएँ तथा विधियाँ हैं और उनकी कुछ उपादेयता है। एक वस्तु का जो स्थान एक समाज मे है, उसका वही स्थान इन सभी बिंदुओं पर दूसरे समाज में हो जाए यह आवश्यक नहीं। भारत में मोटर और टेलीफोन का उपयोग सम्मान वृद्धि के मापक के रूप में है, जबकि अमरीका में वह केवल सुविधा मात्र का; कुछ देशों में परमाणु बम रक्षा का आधार है, कुछ में प्रतिष्ठा का। इस भाँति संस्कृति का प्रसार समाज की आवश्यकताओं, मान्यताओं तथा सामाजिक संरचना द्वारा प्रभावित हो जाता है। इस प्रक्रिया में नई व्यवस्थाओं एवं वस्तुओं के कुछ ही लक्षण ग्रहण किए जाते हैं। इसे अंग्रेजी में एकल्चरेशन कहा गया है। कल्चर में जब किसी नई वस्तु का आंशिक समावेश किया जाता है तो उस अंश ग्रहण को इस शब्द से व्यक्त किया गया है।
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जब किसी संस्कृति के तत्व को पूर्णरूपेण नई संस्कृति में समाविष्ट कर लिया जाए तब उस प्रक्रिया को ऐसिमिलेशन कहा जाता है। इस शब्द का बोध है कि ग्रहण किए गए लक्षण या वस्तु को इस रूप में संस्कृति का भाग बना लिया है, मानो उसका उद्गम कभी विदेशी रहा ही न हो। आज के रूप में वह संस्कृति का इतना अभिन्न अंग बन गया है कि उसके आगमन का स्रोत देखने की आवश्यकता का मान तक नहीं हो सकता। हिंदी का खड़ी बोली का स्वरूप हिंदी भाषी प्रदेश में आज उतना ही स्वाभाविक है जितना उनके लिए आलू का उपयोग या तंबाकू का प्रचलन। भारत में शक, हूण और सीथियन तत्वों का इतना समावेश हो चुका है कि उनका पृथक् अस्तित्व देखना ही मानो निरर्थक हो गया है। एक भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द इसी रूप में अपना स्थान बना लेते हैं, जैसे पंडित का अंग्रेजी में या रेल मोटर का हिंदी में समावेश हो गया है। बाहरी व्यवस्था से प्राप्त तत्व जब अभिन्न रूप से आंतरिक व्यवस्था का भाग बन जाता है तब उस प्रक्रम को आत्मीकरण कहा जाता है।
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एक ही समाज के विभिन्न भाग जब एक-दूसरे का समर्थन करते हुए सामाजिक व्यवस्था को अखंड बनाए रखने में योगदान करते रहते हैं तो उस प्रक्रम को इंटेग्रेशन कहा जाता है। इस प्रकार के समाज की ठोस रचना कई बार समाज को बलवान् बनाते हुए नए विचारों से विहीन बना देती है। नित्य नए परिवर्तनों के बीच एकमात्र ठोस व्यवस्ता स्वयं में संतुलन खो बैठती है। अत: अपेक्षित है कि जीवित सामाजिक व्यवस्था अपने अंदर उन प्रक्रियाओं को भी प्रोत्साहन हे, जिनसे नई अवस्थाओं के लिए नए संतुलन बन सकें; इस दृष्टि से पूर्ण संगठित समाज स्वयं में कमजोरी लिए होता है। गतिशील समाज में कुछ असंतुलन आवश्यक है किंतु मुख्य बात देखने की यह है कि उसमें नित्य नए संतुलन तथा समस्या समाधान के प्रक्रम किस स्वास्थ्यप्रद ढंग से चलते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग एवं संघर्ष की प्रक्रियाएँ सदा चलते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग एवं संघर्ष की प्रक्रियाएँ सदा चलती रहती हैं और उनके बीच व्यवस्था बनाए रखना हर समाज के बने रहने के लिए ऐसी समस्या है जिसके समाधान का प्रयत्न करते रहना आवश्यक है।
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विल्हेम द्वितीय या विलियम द्वितीय जर्मनी का अन्तिम सम्राट तथा प्रशा का राजा था जिसने जर्मन साम्राज्य एवं प्रशा पर 15 जून 1888 से 9 नवम्बर 1918 तक शासन किया।
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विलियम प्रथम की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र फैड्रिक तृतीय जर्मनी के राजसिंहासन पर 9 मार्च 1888 ई. को आसीन हुआ। किन्तु केवल 100 दिन राज्य करने के बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु होने पर उसका पुत्र विलियम द्वितीय राज्य सिंहासन पर आसीन हुआ। वह एक नवयुवक था। उसमें अनेक गुणों और दुर्गुणों का सम्मिश्रण था। वह कुशाग्र बुद्धि, महत्वकांक्षी आत्मविश्वासी तथा असाधारण नवयुवक था। वह स्वार्थी और घमण्डी था तथा उसका विश्वास राजा के दैवी सिद्धांत में था। किसी अन्य व्यक्ति के नियंत्रण में रहना उसको असह्य था जिसके कारण कुछ ही दिनों के उपरांत उसकी अपने चांसलर बिस्मार्क से अनबन हो गई। परिस्थितियों से बाध्य होकर बिस्मार्क को त्याग-पत्र देना पड़ा। बिस्मार्क के पतन के उपरांत विलियम ने समस्त सत्ता को अपने हाथों में लिया और उसके मंत्री आज्ञाकारी सेवक बन गये और वह स्वयं का शासन का कर्णधार बना।
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विलियम कैसर अत्यधिक हठी, महत्वाकांक्षी एवं क्रोधी व्यक्ति था। वह कहता था कि हमारा भविष्य समुद्र पर निर्भर है। उसके जर्मनी को समुद्री शक्ति बनाने के प्रयास ने इंग्लैण्ड की स्थायी शत्रुता प्राप्त कर ली थी। उसकी नीति थी- 'संपूर्ण विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना।' यदि इसमें उसे सफलता न मिले तो वह विश्व के सर्वनाश के लिए तत्पर था। व्यापारिक देश होने के कारण इंग्लैण्ड युद्ध के पक्ष में नहीं था, जिसे विलियम कैसर इंग्लैण्ड की कायरता समझता था। वह आक्रमक रूख अपनाकार इंग्लैण्ड को भयभीत कर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था और यह गलत समझ थी कि इंग्लैंड किसी भी कीमत पर युद्ध टालना चाहेगा। इस प्रकार विलियम कैसर के उग्र, साम्राज्यवादी, निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी व्यक्तित्व ने यूरोप को महायुद्ध के कगार पर पहुंचा दिया।
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कैसर विलियम द्वितीय की विश्व नीति के निम्नलिखित तीन मुख्य उद्देश्य थे -
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उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति करने के अभिप्राय से कैसर विलियम द्वितीय ने जर्मनी की ‘विदेश नीति’ का संचालन करना आरंभ किया। प्रथम उद्देश्य के कारण आस्ट्रिया के साथ घनिष्ट मेल आवश्यक था, क्योंकि वह भी उसी दिशा में बढ़ कर सैलोनिका के बन्दरगाह पर अधिकार करना चाहता था। इसका अर्थ था, मध्य यूरोप के कूटनीतिज्ञ गुट को सुदृढ़ बनाना। आस्ट्रिया और रूस के हितों में संघर्ष होने के कारण इसका अर्थ रूस से अलग हटना और अन्त में उसे अपना विरोधी बना लेना भी था। दूसरे उद्देश्य की पूर्ति का अर्थ था, 'संसार में जहां कहीं भी आवश्यक हो, विशेषकर अफ्रीका में, जर्मनी की शक्ति का प्रदर्शन करना।' इस संबन्ध में मोरक्को ने फ्रांस को दो बार 1905 ई. और 1911 ई. में चुनौती दी। तीसरे उद्देश्य की पूर्ति का स्पष्ट परिणाम था इंगलैंड के साथ तीव्र प्रतिस्पर्द्धा और वैमनस्य। सारांश में इस नई नीति का स्वाभाविक परिणाम होना था, रूस, फ्रांस और इंगलैंड की शत्रुता और अंत में इन तीनों का उसके मुकाबले में एकत्रित हो जाना, अर्थात् बिस्मार्क के समस्त कार्य का विनाश। विलियम द्वितीय ने अपनी नीति से उसकी समस्त व्यवस्था को नष्ट कर दिया।
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तीन वर्ष के अंदर रूस जर्मनी से अलग हो गया और बाद में फ्रांस से संधि करके उसने उसके एकाकीपन का अंत कर दिया। 6 वर्ष के अंदर इंगलैंड शत्रु बन गया। मोरक्को में हस्तक्षेप करने सेफ्रांस से शत्रुता और बढ़ गई और 1907 ई. तक जर्मनी, आस्ट्रिया तथा इटली के त्रिगुट के मुकाबले में फ्रांस, रूस और इंगलैंड की त्रिराष्ट्र मैत्री स्थापित हो गई। इटली का त्रिगुट से संबंध भी शिथिल पड़ता जा रहा था किन्तु विलियम द्वितीय ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया।
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1890 ई. में पुनराश्वासन संधि की पुनरावृत्ति होने वाली थी जो बिस्मार्क द्वारा जर्मनी और रूस में हुई थी, जबकि विलियम रूस की अपेक्षा आस्ट्रिया से सुदृढ़ संबंध स्थापित करना चाहता था जिससेवह बालकन में होकर पूर्वी भूमध्यसागर को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने में सफल हो सके। रूस ने भी इस पुनराश्वासन संधि की पुनरावृत्ति को यह कहकर मना कर दिया कि 'सन्धि बड़ी पेचीदा है और इसमें आस्ट्रिया के लिये धमकी मौजूद है जिसके बड़े अनिष्टकारी परिणाम हो सकते हैं।'
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पुनराश्वासन सन्धि की पुनरावृत्ति के न होने का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि रूस अकेला रह गया। उसको अपने एकाकीपन को दूर करने के लिये एक मित्र की खोज करनी अनिवार्य हो गई। अबउसके सामने उसके शत्रु इंगलैंड और फ्रांस ही थे। किन्तु अपनी परिस्थिति से बाध्य होकर वह फ्रांस से मित्रता करने की ओर आकर्षित हुआ और उससे मित्रता करने का प्रयत्न करने लगा। अन्��� में, 1895 ई. में दोनों देशों में संधि हुई जो द्विगुट संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि से फ्रांस को अत्यधिक लाभ हुआ और उसका अकेलापन समाप्त हो गया।
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विलियम बड़ा महत्वकांक्षी था। वह जर्मनी को यूरोप का भाग्य-निर्माता ही नहीं, वरन् विश्व का भाग्य-निर्माता बनाना चाहता था। बिस्मार्क विश्व के झगड़ों से जर्मनी को अलग रखना चाहता था,किन्तु विलियम ने यूरोप के बाहर के झगड़ों में हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया। वह केवल बालकन प्रायद्वीप में ही जर्मन-प्रभाव से संतुष्ट नहीं था, वरन् वह तो उसको विश्व-शक्ति के रूप में देखनाचाहता था। इसी उद्देश्य के लिए 1890 ई. के उपरांत जर्मनी की वैदेशिक नीति में विश्व-व्यापी नीति का समावेश हुआ। विलियम के अनेक भाषणों से उसके इन विचारों का दिग्दर्शन होता है। उसने इन प्रदेशों को अपने अधिकार में किया -
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विलियम टर्की को अपने प्रभाव-क्षेत्र के अंतर्गत लाना चाहता था और यह उसकी विश्व नीति का एक प्रमुख अंग था। इंगलैंड भी इस ओर प्रयत्नशील था। वह किसी यूरोपीय राष्ट्र का प्रभुत्व टर्की में स्थापित नहीं होने देना चाहता था, क्योंकि ऐसा होने से उसके भारतीय साम्राज्य को भय उत्पन्न हो सकता था। 1878 ई. की बर्लिन-कांग्रेस तक टर्की पर इंगलैंड का प्रभुत्व रहा और जब कभी भी किसी यूरोपीय रास्ट्र ने उस ओर प्रगति करने का विचार किया तो इंगलैंड ने उसका डटकर विरोध किया, परन्तु साइप्रस के समझौते के उपरांत उसका प्रभाव टर्की पर से कम होने लगा। जब इंगलैंड का 1882 ई. में मिस्र पर अधिकार हुआ तो इंगलैंड और टर्की के मध्य जो रही-सही सद्भावना विद्यमान थी उसका भी अंत होना आरंभ हो गया। अब विलियम द्वितीय ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर टर्की को अपने प्रभाव-क्षेत्र में लाने का प्रयत्न किया। इस संबन्ध में उसने निम्न उपाय किये-
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कुस्तुन्तुनिया तक रेल बनाने का भी था। इस मार्ग के खुल जाने से जर्मनी का सम्पर्क फारस की खाड़ी तक हो जाता जो इंगलैंड के भारतीय साम्राज्य के लिए विशेष चिन्ता का विषय बन जाता।
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विलियम टर्की को अपनी ओर आकर्षित करने में अवश्य सफल हुआ, किन्तु उसने अपनी इस नीति से रूस, फ्रांस और इंगलैंड को अपना शत्रु बना लिया जबकि टर्की की शक्ति इन तीनों बड़े राष्ट्रों के सामने नगण्य थी। विलियम की इस नीति को सफल नीति नहीं कहा जा सकता। उसने तीनों राष्टोंं को एक साथ अप्रसन्न किया जिसका परिणाम यह हुआ कि त्रिदलीय गुट का निर्माण संभव हो गया।
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1890 ई. तक जर्मनी और इंगलैंड के संबन्ध अच्छे थे, किन्तु जब विलियम द्वितीय के शासनकाल में जर्मनी ने विश्वव्यापी नीति को अपनाना आरंभ किया तो जर्मनी और इंगलैंड के संबंध कटु होनेआरंभ हो गये। बिस्मार्क के पद त्याग करने के उपरांत विलियम ने जर्मनी की नौसेना में विस्तार करना आरंभ किया तो इंगलैंड जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति से सशंकित होने लगा था। कुछ समय तकदोनों में मैत्री का हाथ बढ़ा, किन्तु 1896 ई. के उपरांत दोनों के संबंध कटु होने आरंभ होते गये। जब विलियम ने ट्रान्सवाल के रास्ट्रपति क्रुजर को जेम्स के आक्रमण पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में बधाई का तार भेजा। इस तार से इंगलैंड की जनता में बड़ा क्षेभ उत्पन्न हुआ। महारानी विक्टोरिया ने भी अपने पौत्र विलियम द्वितीय के इस कार्य की बड़ी निन्दा की। इस समय इंगलैंड ने जर्मनी से संबंध बिगाड़ना उचित नहीं समझा, क्योंकि ऐसा करने पर वह अकेला रह जाता। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने जर्मनी से अच्छे संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया। 1898 ई. में अफ्रीका के संबंध में तथा 1899 ई. में सेनाओं के संबन्ध में दोनों देशों के समझौते भी हुए। उसी वर्ष इंगलैंड के उपनिवेश मंत्री जोसेफ चेम्बरलेन ने इंगलैंड, जर्मनी और संयुक्त राज्य के एक त्रिगुट के निर्माण का प्रस्ताव किया, किन्तु 1899 ई. में ब्यूलो ने जो इस समय जर्मनी का प्रधानमंत्री था, इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उसका इस प्रस्ताव के अस्वीकार करने का कारण यह था कि इसके द्वारा इंगलैंड का आशय यह है कि आगामी युद्धों में जर्मनी, इंगलैंड का पक्ष ले और उसके समर्थक के रूप में युद्ध में भाग ले और इंगलैंड यूरोपीय महाद्वीप से निश्चिन्त होकर एशिया तथा अफ्रीका में अपने साम्राज्य का विस्तार करता रहे। ब्यूलो का यह विचार था कि जर्मनी की औपनिवेशिक, व्यापारिक तथा नाविक उन्नति से इंगलैंड को असुविधा होना अनिवार्य थी और कभी भी दोनों में युद्ध छिड़ सकता है। अतः जर्मनी की नीतियों द्वारा इंगलैंड भली प्रकार समझ गया कि जर्मनी पर अधिक विश्वास करना इंगलैंड के लिए घातक सिद्ध होगा और वास्तव में एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब इंगलैंड और जर्मनी का युद्ध होगा।
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फ्रांस और रूस के मध्य मित्रता की स्थापना हो चुकी थी, अब फ्रांस द्वारा रूस और इंगलैंड की मित्रता ��ा कार्य आरंभ हुआ। 1907 ई. में फ्रांस के प्रयत्न से रूस और इंगलैंड का गुट तैयार हो गया। यह गुट रक्षात्मक था किन्तु जर्मन सम्राट विलियम द्वितीय को इसके निर्माण से बड़ी चिन्ता हुई। अब उसने अपना ध्यान इस गुट के अंत करने की ओर विशेष रूप से आकर्षित किया। इसी समय जर्मनी को पूर्वी समस्या में हस्तक्षेप करने तथा रूस को अपमानित करने का अवसर प्राप्त हुआ।
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1908 ई . टर्की में एक आन्दोलन हुआ जो युवा तुर्क आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध है। शीघ्र ही आस्ट्रिया ने बॉस्निया तथा हर्जेगोविना अधिकार कर लिया। सर्बिया यह सहन नहीं कर सका और उसने युद्ध की तैयारी करना आरंभ कर दिया। उसको यह आशा थी कि आस्ट्रिया तथा जर्मनी के विरूद्ध रूस और इंगलैंड उसकी सहायता करने की उद्यत हो जायेंगे किन्तु रूस की अभी ऐसी स्थिति नहीं थी। आस्ट्रिया ने सर्बिया के साथ बड़ा कठोर व्यवहार किया जिसके कारण युद्ध का होना अनिवार्य सा दिखने लगा, किन्तु जब जर्मनी ने स्पष्ट घोषणा कर दी कि यदि रूस सर्बिया की किसी प्रकार से सहायता करेगा, तो वह युद्ध में आस्ट्रिया की पूर्ण रूप से सहायता करने को तैयार है। इस प्रकार युद्ध टल गया। इस समय रूस में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह जर्मनी और आस्ट्रिया की सम्मिलित सेवाओं का सफलतापूर्वक सामना कर सकता। रूस को बाध्य होकर दब जाना पड़ा और जर्मन राजनीति बालकन प्रायद्वीप में सफल हुई।
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यद्यपि जर्मन-सम्राट विलियम कैसर बालकन प्रदेश में रूस को नीचा दिखलाने में सफल हुआ और वह अपने मित्र आस्ट्रिया की शक्ति का विस्तार तथा प्रभाव में वृद्धि करवा सका, किन्तु फिर भी वह फ्रांस, रूस और इंगलैंड के गुट से भयभीत बना रहा। उसने फ्रांस और रूस से मित्रता करने की ओर हाथ बढ़ाना आरंभ किया। 8 फरवरी 1909 ई. को उसने फ्रांस से एक समझौता किया जिसके अनुसार फ्रांस ने मोरक्को की स्वतंत्रता एवं अखण्डता के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। जर्मनी ने मोरक्को की आन्तरिक सुरक्षा के संबंध में फ्रांस की असाधारण स्थिति मान ली। इधर निश्चिन्त होकर जर्मनी ने अपना ध्यान रूस से समझौता करने की ओर आकर्षित किया। जर्मनी ने रूस से नवम्बर 1910 में मेसोपोटामिया और फारस में अपने हितों के संबंध में समझौता किया, जिसके द्वारा 'रूस ने जर्मनी को बर्लिन-बगदाद रेलवे की योजना का विरोध न करने का वचन दिया और विलियम ने फारस में रूस के हितों की स्वीकृति प्रदान की।'
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उपरोक्त कार्यो द्वारा विलियम द्वितीय रूस, फ्रांस और इंगलैंड के गुट को निर्बल करने में सफल हुआ, किन्तु यह स्थिति अधिक काल तक स्थायी नहीं रह सकी। मोरक्को के प्रश्न का समाधान करने का प्रयत्न फ्रांस और जर्मनी द्वारा किया गया था, किन्तु दोनों समझौते की स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। ‘मोरक्को की स्वतंत्रता’ तथा फ्रांस की पुलिस सत्ता में स्वाभाविक विरोध था जिसके कारण भविष्य में झगड़ा होना निश्चित था। फ्रांस मोरक्को को पूर्णतया अपने अधिकार में लाने पर तुला हुआ था और जर्मनी उसे रोकने या उसके बदले में उपयुक्त पुरस्कार प्राप्त करने पर कटिबद्ध था। 1911 ई . में मोरक्को में एक ऐसी घटना घटी जिसने यूरोप के प्रमुख राष्ट्रों का ध्यान उस ओर आकर्षित किया। मोरक्को में गृहयुद्ध की अग्नि प्रज्जवलित हुई और मोरक्को का सुल्तान इस विद्रोह का दमन करने में असफल रहा। इस परिस्थिति के उत्पन्न होने पर फ्रांस ने आंतरिक सुरक्षा के लिए अपने उत्तरदायित्व का बहाना लेकर एक सेना भेजी, जिसने 21 मई 1910 ई. को मोरक्को में विद्रोह का दमन करना आरंभ कर दिया। जर्मनी फ्रांस के इस प्रकार के हस्तक्षेप को सहन नहीं कर सका और जर्मनी के विदेशमंत्री ने घोषणा की कि 'यदि फ्रांस को मोरक्को में रहना आवश्यक प्रतीत हुआ तो मोरक्को की पूर्ण समस्या पर पुनः विचार किया जायेगा और एल्जीसिराज के एक्ट पर हस्ताक्षर करने वाली समस्त सत्ताओं को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता पुनः प्राप्त हो जायेगी।' विद्राेहियों के दमन के उपरांत फ्रांस की सेनायें वापिस लौटने लगी, किन्तु इस पर भी जर्मनी ने अपने कड़े व्यवहार में किसी प्रकार परिवर्तन करना उचित नहीं समझा। जुलाई 1910 ई. को जर्मनी ने घोषणा की कि उसने जर्मन हितों तथा जर्मन निवासियों की रक्षा के अभिप्राय से एक जंगी जहाज दक्षिणी मोरक्को के एजेडिर नामक बन्दरगाह पर भेज दिया। जर्मनी के इस व्यवहार ने बड़ी संकटमय परिस्थिति उत्पन्न कर दी और यह संभावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगी कि शीघ्र ही यूरोप के राष्टोंं के मध्य युद्ध का होना अनिवार्य है।
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अंत में फ्रांस और जर्मन के मध्य संधि हो गई जो कि 4 नवम्बर 1911 को सम्पन्न हुई, जिसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि मोरक्को पर फ्रांस का संरक्षण पूर्ववत् बना रहे और जर्मनी को फ्रेंच कांगों का आधा प्रदेश प्राप्त हुआ। मोरक्को के प्रश्न पर जर्मनी को मुंह की खानी पड़ी, क्योंकि रूस, फ्रांस और इंगलैंड का त्रिराष्टींय गुट पहले की अपेक्षा अब अधिक दृढ़ तथा स्थाई हो गया था तथा जर्मनी और इंगलैंड के संबंध दिन-प्रतिदिन खराब होने आरंभ हो गए।
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कायस्थ भारत में रहने वाले सवर्ण हिन्दू समुदाय की एक जाति है। गुप्तकाल के दौरान कायस्थ नाम की एक उपजाति का उद्भव हुआ। पुराणों के अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं।
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हिंदू धर्म की मान्यता है कि कायस्थ धर्मराज श्री चित्रगुप्त जी की संतान हैं तथा देवता कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों धर्मों को धारण करने का अधिकार प्राप्त है।
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वर्तमान में कायस्थ मुख्य रूप से श्रीवास्तव, सिन्हा, सक्सेना, अम्बष्ट, निगम, माथुर, भटनागर, लाभ, लाल, कुलश्रेष्ठ, अस्थाना, बिसारिया, कर्ण, वर्मा, खरे, राय, सुरजध्वज, विश्वास, सरकार, बोस, दत्त, चक्रवर्ती, श्रेष्ठ, प्रभु, ठाकरे, आडवाणी, नाग, गुप्त, रक्षित, बक्शी, मुंशी, दत्ता, देशमुख, पटनायक, नायडू, सोम, पाल, राव, रेड्डी, दास, मंडल, मेहता आदि उपनामों से जाने जाते हैं। वर्तमान में कायस्थों ने राजनीति और कला के साथ विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में सफलतापूर्वक विद्यमान हैं। वेदों के अनुसार कायस्थ का उद्गम ब्रह्मा ही हैं। उन्हें ब्रह्मा जी ने अपनी काया की सम्पूर्ण अस्थियों से बनाया था, तभी इनका नाम काया+अस्थि = कायस्थ हुआ।
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स्वामी विवेकानन्द ने अपनी जाति की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है:
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—स्वामी विवेकानन्द
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पद्म पुराण के अनुसार कायस्थ कुल के ईष्ट देव श्री चित्रगुप्त जी के दो विवाह हुए। इनकी प्रथम पत्नी सूर्यदक्षिणा सूर्य-पुत्र श्राद्धदेव की कन्या थी, इनसे 4 पुत्र हुए-भानू, विभानू, विश्वभानू और वीर्यभानू। इनकी द्वितीय पत्नी ऐरावती धर्मशर्मा नामक ब्राह्मण की कन्या थी, इनसे 8 पुत्र हुए चारु, चितचारु, मतिभान, सुचारु, चारुण, हिमवान, चित्र एवं अतिन्द्रिय कहलाए। इसका उल्लेख अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में भी किया गया है। चित्रगुप्त जी के बारह पुत्रों का विवाह नागराज वासुकी की बारह कन्याओं से सम्पन्न हुआ। इसी कारण कायस्थों की ननिहाल नागवंश मानी जाती है और नागपंचमी के दिन नाग पूजा की जाती है। नंदिनी के चार पुत्र काश्मीर के निकटवर्ती क्षेत्रों में जाकर बस गये तथा ऐरावती के आठ पुत्रों ने गौड़ देश के आसपास में जा कर निवास किया। वर्तमान बंगाल उस काल में गौड़ देश कहलाता था
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इन बारह पुत्रों के दंश के अनुसार कायस्थ कुल में 12 शाखाएं हैं जो - श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीक, अष्ठाना, माथु��, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, कर्ण, कुलश्रेष्ठ नामों से चलती हैं। अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों के अनुसार इन बारह पुत्रों का विवरण इस प्रकार से है:
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प्रथम पुत्र भानु कहलाये जिनका राशि नाम धर्मध्वज था| चित्रगुप्त जी ने श्रीभानु को श्रीवास और कान्धार क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था| उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ था एवं देवदत्त और घनश्याम नामक दो पुत्रों हुए। देवदत्त को कश्मीर एवं घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला। श्रीवास्तव 2 वर्गों में विभाजित हैं - खर एवं दूसर। इनके वंशज आगे चलकर कुछ विभागों में विभाजित हुए जिन्हें अल कहा जाता है। श्रीवास्तवों की अल इस प्रकार हैं - वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया,रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा,तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन, इत्यादि।
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द्वितीय पुत्र विभानु हुए जिनका राशि नाम श्यामसुंदर था। इनका विवाह मालती से हुआ। चित्रगुप्त जी ने विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इन्होंने अपने नाना सूर्यदेव के नाम से अपने वंशजों के लिये सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाने का अधिकार एवं सूर्यध्वज नाम दिया। अंततः वह मगध में आकर बसे।
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तृतीय पुत्र विश्वभानु हुए जिनका राशि नाम दीनदयाल था और ये देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनका विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ एवं इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा भाग नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया जहां तपस्या करते हुए उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढंक गया था, अतः इनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने। इनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए। वर्तमान में इनके वंशज गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं, उनको "वल्लभी कायस्थ" भी कहा जाता है।
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चौथे पुत्र वीर्यभानु का राशि नाम माधवराव था और इनका विवाह देवी सिंघध्वनि से हुआ था। ये देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे। चित्रगुप्त जी ने वीर्यभानु को आदिस्थान क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इनके वंशजों ने आधिष्ठान नाम से अष्ठाना नाम लिया एवं रामनगर के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया। वर्तमान में अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान, चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी,दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं। मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या है। ये 5 अल में विभाजित हैं |
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ऐरावती के प्रथम पुत्र का नाम चारु था एवं ये गुरु मथुरे के शिष्य थे तथा इनका राशि नाम धुरंधर था। इनका विवाह नागपुत्री पंकजाक्षी से हुआ एवं ये दुर्गा के भक्त थे। चित्रगुप्त जी ने चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था अतः इनके वंशज माथुर नाम से जाने गये। तत्कालीन मथुरा राक्षसों के अधीन था और वे वेदों को नहीं मानते थे। चारु ने उनको हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया। तत्पश्चात् इन्होंने आर्यावर्त के अन्य भागों में भी अपने राज्य का विस्तार किया। माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण किये। वर्तमान माथुर 3 वर्गों में विभाजित हैं -देहलवी,खचौली एवं गुजरात के कच्छी एवं इनकी 84 अल हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया,दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया,रानोरिया इत्यादि। एक मान्यता अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की वर्तमान में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था। माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे।
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द्वितीय पुत्र सुचारु गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था। ये देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने सुचारू को गौड़ देश में राज्य स्थापित करने भेजा था एवं इनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ। इनके वंशज गौड़ कहलाये एवं ये 5 वर्गों में विभाजित हैं: - खरे, दुसरे, बंगाली, देहलवी, वदनयुनि। गौड़ कायस्थों को 32 अल में बांटा गया है। गौड़ कायस्थों में महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त राजा हुए थे।
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तृतीय पुत्र चित्र हुए जिन्हें चित्राख्य भी कहा जाता है, गुरू भट के शिष्य थे, अतः भटनागर कहलाये। इनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था तथा ये देवी जयंती की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चि���्राक्ष को भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इन क्ष्त्रों के नाम भी इन्हिं के नाम पर पड़े हैं। इन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए। इनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए एवं 84 अल में विभाजित हैं, इनकी कुछ अल इस प्रकार हैं- डसानिया, टकसालिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया,बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजिया इत्यादि| भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है।
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चतुर्थ पुत्र मतिमान हुए जिन्हें हस्तीवर्ण भी कहा जाता है। इनका विवाह देवी कोकलेश में हुआ एवं ये देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे। चित्रगुप्त जी ने मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा। उनके पुत्र महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया। ये शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सक्सेना कहलाये। आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था। वर्तमान में ये कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह,इटावा, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं| सक्सेना लोग खरे और दूसर में विभाजित हैं और इस समुदाय में 106 अल हैं, जिनमें से कुछ अल इस प्रकार हैं- जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया,दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया, इत्यादि|
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पांचवें पुत्र हिमवान हुए जिनका राशि नाम सरंधर था उनका विवाह भुजंगाक्षी से हुआ। ये अम्बा माता की अराधना करते थे तथा चित्रगुप्त जी के अनुसार गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा। हिमवान के पांच पुत्र हुए: नागसेन, गयासेन, गयादत्त, रतनमूल और देवधर। ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया। इनमें नागसेन के 24 अल, गयासेन के 35 अल, गयादत्त के 85 अल, रतनमूल के 25 अल तथा देवधर के 21 अल हैं। कालाम्तर में ये पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई। मान्यता अनुसार अम्बष्ट कायस्थ बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए "खास घर" प्रणाली का उपयोग करते हैं। इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी प्रयोग किये जाते हैं। ये "खास घर" वे हैं जिनसे मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे। इनमें से कुछ घरों के नाम हैं- भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर,कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार,नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार,देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार,करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियार, आदि|
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छठवें पुत्र का नाम चित्रचारु था जिनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ। ये देवी दुर्गा की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा। वर्तमान में ये कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं,महोबा में रहते हैं एवं 43 अल में विभाजित हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी,चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि।
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सातवें पुत्र चित्रचरण थे जिनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचरण को कर्ण क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनके वंशज कालांतर में उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और वर्तमान में नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। ये बिहार में दो भागों में विभाजित है: गयावाल कर्ण – गया में बसे एवं मैथिल कर्ण जो मिथिला में जाकर बसे। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि,मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित हैं। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है, जो वंशावली अंकन की एक प्रणाली है। कर्ण 360 अल में विभाजित हैं। इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्होंने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर प्रवास किया। यह ध्यानयोग्य है कि इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है।
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अंतिम या आठवें पुत्र चारुण थे जो अतिन्द्रिय भी कहलाते थे। इनका राशि नाम सदानंद है और उन्होंने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने अतिन्द्रिय को कन्न��ज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से सर्वाधिक धर्मनिष्ठ और संन्यासी प्रवृत्ति वाले थे। इन्हें 'धर्मात्मा' और 'पंडित' नाम से भी जाना गया और स्वभाव से धुनी थे। इनके वंशज कुलश्रेष्ठ नाम से जाने गए तथा आधुनिक काल में ये मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, एटा, इटावा और मैनपुरी में पाए जाते हैं | कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव - बंगाल में पाए जाते हैं |
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^क कुछ विद्वानों के अनुसार वीर्यभानू और विश्वभानू इरावती माता के पुत्र तथा चित्रचारू और अतीन्द्रिय नंदिनी माता के पुत्र हैं। इसका एक मात्र प्रमाण कुछ घरो में विराजित श्री चित्रगुप्त जी महाराज का चित्र है। आजकल सिन्हा, वर्मा,प्रसाद...आदि जातिनाम रखने का प्रचलन दूसरी जातियों में भी देखा जाता है
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दिल्ली षडयंत्र मामला, जिसे दिल्ली-लाहौर षडयंत्र के नाम से भी जाना जाता है, 1912 में भारत के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड हार्डिंग की हत्या के लिए रचे गए एक षड्यंत्र के संदर्भ में प्रयोग होता है, जब ब्रिटिश भारत की राजधानी के कलकत्ता से नई दिल्ली में स्थानांतरित होने के अवसर पर वह दिल्ली पधारे थे। रासबिहारी बोस को इस षड्यंत्र का प्रणेता माना जाता है। लॉर्ड हार्डिंग पर 23 दिसम्बर 1912 को चाँदनी चौक में एक जुलूस के दौरान एक बम फेंका गया था, जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गए थे। इस घटनाक्रम में हार्डिंग के महावत की मृत्यु हो गयी थी। इस अपराध के आरोप में बसन्त कुमार विश्वास, बाल मुकुंद, अवध बिहारी व मास्टर अमीर चंद को फांसी की सजा दे दी गयी, जबकि रासबिहारी बोस गिरफ़्तारी से बचते हुए जापान फरार हो गए थे।
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इस षड्यंत्र का प्रणेता रासबिहारी बोस को माना जाता है। देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में कुछ समय तक हेड क्लर्क के रूप में काम करने के दौरान ही बोस का परिचय क्रान्तिकारी जतिन मुखर्जी की अगुआई वाले युगान्तर नामक क्रान्तिकारी संगठन के अमरेन्द्र चटर्जी से हुआ, और वह बंगाल के क्रान्तिकारियों के साथ जुड़ गये थे। इसके कुछ समय बाद वह अरबिंदो घोष के राजनीतिक शिष्य रहे जतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रान्त, और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रान्तिकारियों के भी निकट आये।
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दिल्ली में जार्ज पंचम के 12 दिसंबर 1911 को होने वाले दिल्ली दरबार के बाद वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में सवारी निकाली जा रही थी। इस शोभायात्रा की सुरक्षा में अंग्रेज़ों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सादे कपड़ों में सीआईडी के कई आदमी यात्रा से हफ्तों पहले ही पूरी दिल्ली में फ़ैल गए थे। यात्रा वाले दिन भी सुरक्षा इंतज़ाम सख्त थे। दो सुपरिंटेंडेंट, दो डिप्टी-सुपरिंटेंडेंट, पांच सार्जेंट और 75 हेड कांस्टेबल और 34 माउंटेड कांस्टेबल सुरक्षा पंक्ति में लगे थे। इनके अतिरिक्त इलेवेंथ लैंसर्स की पूरी कम्पनी को भी तैनात किया गया था।
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बोस की योजना इसी शोभायात्रा में हार्डिंग पर बम फेंकने की थी। अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसन्त कुमार विश्वास को बम फेंकने के लिए चुना गया, जो देहरादून में बोस का नौकर था। बालमुकुंद गुप्त, अवध बिहारी व मास्टर अमीर चंद ने भी इस हमले में स���्रिय रूप से भूमिका निभाई थी।
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दिल्ली में जार्ज पंचम के 12 दिसंबर 1911 को होने वाले दिल्ली दरबार के बाद वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में सवारी निकाली जा रही थी। लार्ड हार्डिंग रत्नजड़ित पोशाक पहनकर एक हाथी पर बैठे हुए थे। उनके ठीक आगे उनकी पत्नी, लेडी हार्डिंग बैठी थी। हाथी चलाने वाले एक महावत के अतिरिक्त उस हाथी पर सबसे पीछे लार्ड हार्डिंग का एक अंगरक्षक भी सवार था। हज़ारों की संख्या में घोड़े, हाथी, तथा बन्दूकों और राइफलों से सुसज्जित कई सैनिक उनके इस काफिले का हिस्सा थे।
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जब यह काफिला चाँदनी चौक पहुंचा, तो वहां ये दृश्य देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ पड़ी। कई महिलाएं चौक पर स्थित पंजाब नेशनल बैंक की छत से यह दृश्य देख रही थी। बसन्त कुमार विश्वास ने भी एक महिला का वेश धारण किया और इन्हीं महिलाओं की भीड़ में शामिल हो गया। उसने अपने आस-पास बैठी महिलाओं का ध्यान भटकाने के लिए लेडी हार्डिंग के मोतियों के हार की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करवाया, और मौक़ा पाते ही वायसराय पर बम फेंक दिया। बम फटते ही वहां ज़ोरदार धमाका हुआ, और पूरा इलाका धुंए से भर गया। वाइसराय बेहोश होकर एक तरफ को जा गिरे। घबराकर भीड़ तितर-बितर हो गयी, और इसी का फायदा उठाकर विश्वाश वहां से बच निकले। पुलिस ने इलाके की घेराबन्दी कर कई लोगों के घरों की तलाशी भी ली, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ।
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हालाँकि, इस बात की पुष्टि काफी बाद में हुई कि विश्वास का निशाना चूक गया था। बम के छर्रे लगने की वजह से लॉर्ड हार्डिंग की पीठ, पैर और सिर पर काफी चोटें आयी थी। उनके कंधों पर भी मांस फट गया था। लेकिन, घायल होने के बावजूद, वाइसराय जीवित बच गए थे, हालांकि इस हमले में उनका महावत मारा गया था। लेडी हार्डिंग भी सुरक्षित थी।
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बिस्वास पुलिस से बचकर बंगाल पहुँच गए थे। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गयी और वह बचने के लिये रातों-रात रेलगाडी से देहरादून खिसक लिये, और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। अगले दिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा बुलायी, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निन्दा भी की। इस प्रकार उन पर इस षडयन्त्र और काण्ड का प्रमुख सरगना होने का किंचितमात्र भी सन्देह किसी को न हुआ।
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26 फ़रवरी 1914 को अपने पैतृक गाँव परगाछा में अपने पिता की अंत्येष्टि करने आये बसंत को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद कलकत्ता के राजा बाजार इलाके में एक घर की तलाशी लेते हुए ब्रिटिश अधिकारियों को अन्य क्रांतिकारियों से संबंधित कुछ सुराग हाथ लगे। इन्हीं सुरागों के आधार पर मास्टर अमीर चंद, अवध बिहारी और भाई बालमुकुंद को भी गिरफ्तार कर लिया गया। कुल 13 लोगों को इस मामले में गिरफ्तार किया गया था। इन अभियुक्तों में से एक, दीनानाथ सरकारी गवाह बन गया था।
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16 मार्च 1914 को मास्टर अमीर चंद, अवध बिहारी और बालमुकुंद गुप्त और सात अन्य लोगों पर दिल्ली की न्यायलय में देशद्रोह और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का मुकदमा दायर किया गया। यह भी पाया गया कि 17 मई 1913 को लाहौर में हुए एक अन्य बम हमला भी बसंत कुमार बिस्वास और उसके इन साथियों ने ही किया था। "दिल्ली षड्यंत्र केस" या "दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र केस" नामक इस मुकदमे की सुनवाई 21 मई 1914 को शुरू होकर 1 सितम्बर 1914 तक चली थी। 5 अक्टूबर 1914 को न्यायलय ने इस मुक़दमे का फैसला सुनाया; सभी अभियुक्तों को काला पानी में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी।
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फैसले से नाखुश ब्रिटिश सरकार ने लाहौर हाईकोर्ट में अपील की और अंततः पंजाब के गवर्नर, सर माइकल ओ'ड्वायर के हस्तक्षेप के बाद इन सभी की सजाओं को फांसी में बदल दिया गया था। 8 मई 1915 को दिल्ली में दिल्ली गेट से आगे स्थित वर्तमान खूनी दरवाजे के पास स्थित एक जेल में बाल मुकुंद, अवध बिहारी और मास्टर अमीर चंद को फांसी पर लटका दिया गया। 11 मई 1915 को अम्बाला की सेंट्रल जेल में बसंत कुमार विश्वास को भी फांसी दे दी गयी। रास बिहारी बोस, हालाँकि, पुलिस गिरफ़्तारी से बचते-बचाते घूमते रहे, और 1916 में जापान पहुँचने में सफल हो गए थे।
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मुज़फ्फरनगर में किंग्सफोर्ड पर बम हमले के बाद यह उस वर्ष का दूसरा बम हमला था। जब इस धमाके की खबर अमेरिका में लाला हरदयाल के पास पहुंची, तो वह भी इससे काफी खुश हुए। उन्होंने इसकी प्रशंशा करते हुए एक न्यूज़ बुलेटिन भी जारी किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था
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इस हमले ने ये स्पष्ट किया कि क्रान्तिकारी बंगाल, आसाम, बिहार और उड़ीसा के साथ साथ संयुक्त-प्रान्त, दिल्ली और पंजाब तक भी फैल चुके थे, हालांकि उन क्रांतिकारियों के केंद्र आज भी बंगाल ही था। इस हमले में प्रयोग हुआ बम भी बंगाल में ही बना था। ब्रिटिश सरकार भी अब पंजाब और बंगाल में पनप रहे इस क्रांतिकारी आन्दोलन को कुचलने क��� भरसक प्रयास करने लगी थी।
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दिल्ली में स्थित मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज में सभी क्रांतिकारियों को समर्पित एक स्मारक उपस्थित है।
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बंजी जम्पिंग एक ऐसी गतिविधि है जिसमे एक ऊंची संरचना से एक बड़ी लोचदार रस्सी के साथ जुड़े रहते हुए कूदना शामिल है। यह लम्बी संरचना आम तौर पर एक इमारत, पुल या एक क्रेन जैसी स्थायी वस्तु हो सकती है; लेकिन हॉट-एयर-बलून या हेलिकॉप्टर जैसी एक चलायमान वस्तु से भी कूदना सम्भव है, जिसमे जमीन से ऊपर मंडराने की क्षमता हो. जितना रोमांच फ्री-फालिंग से आता है उतना ही पलटाव से आता है।
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जब व्यक्ति कूदता है, तो रस्सी खिंचाव के कारण विस्तृत हो जाती है और जब रस्सी वापस सिकुड़ती है तब कूदने वाला ऊपर की ओर उड़ जाता है और इसी प्रकार कभी ऊपर और कभी नीचे की ओर तब तक दोलायमान रहता है जब तक कि उसकी सारी उर्जा विकीर्ण नहीं हो जाती.
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जैसा कि जेम्स जेनिंग्स की 1825 में प्रकाशित पुस्तक "ऑब्ज़र्वेशन्स ऑफ़ सम ऑफ़ दी डायलेक्ट्स इन दी वेस्ट ऑफ़ इंग्लॅण्ड" में परिभाषित किया गया है "बंजी" शब्द की उत्पत्ति पश्चिमी देश की भाषा से हुई है जिसका अर्थ है, "कुछ भी मोटा और फूहड़". 1930 के आस-पास यह नाम एक रबर इरेज़र के लिए इस्तेमाल होने लगा. कहा जाता है कि ए. जे. हैकेट द्वारा इस्तेमाल बंजी शब्द "किवी आम बोलचाल की भाषा में एक लचीली पट्टी के लिए किया जाता है".कपड़े से ढके हुए और सिरे पर हुक लगे हुए रबर के तार दशकों से आम तौर पर बंजी कॉर्ड के नाम से उपलब्ध हैं।
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1950 के दशक में डेविड एटनबरो और BBC का एक फ़िल्म दल, वनुआतु में पेंटेकोस्ट आइलैंड के "लैंड डाइवर्स" की फ़ुटेज लेकर आया, जिसमें जवान मर्द अपने पैरों की एड़ियों से रस्सियां बांध कर लकड़ी के लम्बे चबूतरों से कूदते थे और अपने साहस और मर्दानगी का प्रदर्शन करते थे। ऐसे ही एक अभ्यास को, जिसमें गिरने की गति बहुत धीमी होती है, Danza de los Voladores de Papantla या मध्य मेक्सिको के 'पपांटला फ्लायर्स' के रूप में किया जाता रहा है, जिसकी परंपरा अज़टेक के समय से चली आ रही है।
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"सर्वश्रेष्ठ रबर" के तार द्वारा एक "कार" को लटकाए जाने की प्रणाली से लैस, एक 4000 फीट ऊंची मीनार को शिकागो वर्ल्ड फेयर के लिए 1892-1893 में प्रस्तावित किया गया। दो सौ सवारियों को बिठाए हुए इस कार को, मीनार पर बने एक चबूतरे से धकेला जायेगा और फिर वह उछल कर रुक जायेगी. डिज़ाइनर इंजीनियरों ने सुझाया कि सुरक्षा के लिए "नीचे की जमीन पर आठ फीट मोटा पंखों का बिस्तर बिछाया जाए. इस प्रस्ताव को फेयर्स के आयोजकों ने ख़ारिज कर दिया.
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ब्रिस्टल में स्���ित, 250-फुट ऊंचे क्लिफ्टन सस्पेंशन ब्रिज से पहली आधुनिक बंजी कूद 1 अप्रैल 1979 को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के डेंजरस स्पोर्ट्स क्लब के डेविड किरके, क्रिस बेकर, सिमोन कीलिंग, टिम हंट और एलेन वेस्टन ने लगाई. इस घटना के तुरंत बाद इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन इस अवधारणा को पूरे विश्व में फैलाते हुए उन्होंने अमेरिका के गोल्डन गेट और रॉयल जॉर्ज ब्रिज से कूदना जारी रखा. . 1982 तक वे चलायमान क्रेनों और गर्म हवा के गुब्बारों से कूदने लगे. व्यावसायिक बंजी जंपिंग की शुरुआत न्यूजीलैंड के, ए. जे. हैकेट ने की, जिन्होंने ऑकलैंड के ग्रीनहिथ ब्रिज से 1986 में अपनी पहली छलांग लगाई. बाद के वर्षों में हैकेट ने पुलों और दूसरी इमारतों से कई बार कूद लगाई, ऐसा करके उन्होंने ना केवल इस खेल के प्रति लोगों का रुझान बढ़ाया बल्कि न्यूजीलैंड के साऊथ आइलैंड में स्थित क्वीन्सटाउन में विश्व की प्रथम स्थाई व्यावसायिक बंजी साईट खोली. कई देशों में अपनी पैंठ बनाने वाले हैकेट एक सबसे बड़े व्यावसायिक प्रचालक बने हुए हैं।
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अत्यधिक ऊंचाई से कूदने में निहित खतरे के बावजूद, 1980 से कई लाख सफल कूदें लगाई गईं. इसका श्रेय बंजी प्रचालकों को जाता है, जो मानकों के अनुरूपण और कूद को शासित करने वाले दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन करते हैं, जैसे हर कूद के लिए गणना और फिटिंग जैसे मानकों की दोहरी जांच करना. जैसा कि किसी भी अन्य खेल में होता है, इसमें फिर भी चोटें लगती हैं और इसमें घातक परिणाम भी हुए हैं। बहुत लम्बी रस्सी का प्रयोग करना दुर्घटनाओं के मामलों में एक अपेक्षाकृत आम गलती है। रस्सी की लम्बाई कूदे जाने वाले चबूतरे से वस्तुत: काफी छोटी होनी चाहिए ताकि उसे खिंचाव के लिए जगह मिल सके. जब रस्सी अपनी प्राकृतिक लंबाई तक पहुंचती है तब कूदनेवाले की गति या तो धीमी होने लगती है या तेज़ होने लगती है यह गिरने की गति पर निर्भर करता है। जब तक कि रस्सी एक सार्थक मात्रा तक नही खिंच जाती है, किसी जम्पर की गति धीमी होनी शुरू नहीं होती, क्योंकि प्राकृतिक लंबाई में रस्सी के विरूपण के लिए प्रतिरोध की क्षमता शून्य होती है और यह कुछ समय लेते हुए कूदनेवाले के शारीरिक वज़न के बराबर पहुंचते हुए धीरे-धीरे ही बढ़ती है। स्थिर स्प्रिंगों और बंजी रस्सियों को मरोड़ने के लिए आवश्यक बल और अन्य स्प्रिंग-समान वस्तुओं पर चर्चा करने के लिए संभावित ऊर्जा भी देखें.
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जिस लोचदार रस्सी का प्रथम बंजी जंपिंग में इस्तेमाल किया गया था और जिसे आज भी कई व्यावसायिक प्रचालकों द्वारा उपयोग किया जाता है, कारखाने में उत्पादित ब्रेडेड शॉक रस्सी है। इसमें एक मजबूत बाहरी खोल के भीतर कई लेटेक्स के रेशे होते हैं। बाहरी कवर को उस समय इस्तेमाल किया जा सकता है जब लेटेक्स पर पहले से ही तनाव पड़ा हो, ताकि रस्सी के खिंचाव के लिए प्रतिरोधक क्षमता रस्सी की प्राकृतिक लम्बाई में पहले से ही उल्लेखनीय हो. यह एक ठोस और तीव्र उछाल देता है। ब्रेडेड कवर उल्लेखनीय मजबूती के लिए भी लाभप्रद होता है। अन्य प्रचालक, जिसमें ए. जे. हैकेट और दक्षिणी-गोलार्द्ध के प्रचालक शामिल हैं, अनब्रेडेड रस्सियों का प्रयोग करते हैं जिसमे लेटेक्स के रेशे दिखते हैं . ये एक नरम और लम्बी उछाल देते हैं और घरेलू रूप से उत्पादित किये जा सकते हैं।
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हालांकि, केवल एक साधारण एंकल अटैचमेंट के प्रयोग में एक शान होती हैं, कई ऐसे हादसों ने जिनमें प्रतिभागी के रस्सी से अलग हो जाने से दुर्घटनाएं घटी हैं, कई व्यावसायिक प्रचालकों को केवल एंकल अटैचमेंट के बैकअप के रूप में शरीरिक कवच का उपयोग करने की दिशा दिखाई. शारीरिक कवच आम तौर पर पैराशूट उपकरणों के बजाय चढ़ाई उपकरणों से प्राप्त किया जाता है।
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पुनः वापसी की विधियां, इस्तेमाल किये गये साइटों के अनुसार भिन्न होती हैं। मोबाइल क्रेन, वापसी में अधिकतम गति और लचीलापन प्रदान करती है, जिसमें जम्पर को तेजी से धरती के स्तर तक उतारा जाता है और फिर रस्सी से अलग किया जाता है। कूदने वाले चबूतरे की प्रकृति और तुरंत मुड़ने की आवश्यकता के अनुसार कई अन्य क्रियाविधियों को तैयार किया गया है।
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अगस्त 2005 में, ए. जे. हैकेट ने मकाऊ टॉवर से स्काईजम्प लगाई, जो 233 मीटर पर दुनिया की सबसे ऊंची कूद थी.. इस स्काईजम्प को दुनिया की सबसे ऊंची बंजी का खिताब नही मिल पाया क्योंकि साफ़ तौर पर कहा जाये तो यह एक बंजी कूद नहीं थी, अपितु इसे एक 'डेसिलरेटर-डिसेंट' कूद के रूप में संदर्भित किया गया, जिसमें लोचदार रस्सी के बजाय एक स्टील के तार और डेसिलरेटर प्रणाली का इस्तेमाल किया गया। 17 दिसम्बर 2006 में, मकाऊ टॉवर ने सही तरीके की बंजी कूद का प्रचालन शुरू किया, जो गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकॉड्स के अनुसार "विश्व की सबसे ऊंची वाणिज्यिक बंजी जम्प" थी। मकाऊ टॉवर बंजी के पास एक "गाइड केबल" प्रणाली है जो झूलने को सीमा में बांधती है, लेकिन गिरने की गति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए यह कूद अभी भी वर्ल्ड रिकॉर्ड के लिए अर्हता प्राप्त किये हुए है।
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उधर एक और व्यावसायिक बंजी कूद इस समय प्रचलन में है जो केवल 13 मि. छोटी है, 220 मीटर . यह कूद जो बिना गाइड रस्सियों के बनी है, लोकार्नो और स्विट्जरलैंड के निकट स्थित है और वरज़ासका डैम के ऊपर से भी की जाती है। इस छलांग को जेम्स बॉण्डकी फिल्म गोल्डेन आई के शुरुआती दृश्य में विशेष रूप से दर्शाया गया है।
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दक्षिण अफ्रीका में स्थित ब्लाऊक्रांस ब्रिज और वरज़ासका डैम की कूदें, एक ही रस्सी से शुद्धतः झूलती फ्रीफ़ॉल बंजी हैं।
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ब्लाऊक्रांस ब्रिज 1997 में खोला गया था और यह पेंडुलम बंजी प्रणाली का उपयोग करता है। यह चबूतरे से नीचे नदी तक, 216 मि. ऊंचा है.
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गिनीज़ केवल स्थाई वस्तुओं से कूदी गई कूदों को ही दर्ज़ करता है ताकि माप की सटीकता की गारंटी रहे. 1989 में जॉन कॉक्लेमन ने कैलिफ़ोर्निया में एक गर्म हवा के गुब्बारे से 2,200-फुट बंजी कूद दर्ज की. 1991 में एंड्रयू सेलिसबरी ने कैन्कन के ऊपर एक हेलिकोप्टर से 9,000 फीट एक टेलिविज़न कार्यक्रम के लिए कूद लगाई, इस कूद को रीबोक ने प्रायोजित किया। पूरी उंचाई को 3,157 फीट दर्ज किया गया था। वह पैराशूट द्वारा सुरक्षित उतरे.
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एक व्यावसायिक कूद जो अन्य सभी कूद की तुलना में सबसे ऊंची है, कोलोराडो में स्थित रॉयल जोर्ज ब्रिज पर है। मंच की ऊंचाई 321 मीटर है। रॉयल जोर्ज गो फास्ट गेम्स के भाग के रूप में इस कूद की उपलब्धता काफी कम है- पहली बार 2005 में और फिर 2007 में यह उपलब्ध कराई गयी .
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कई प्रमुख फिल्मों में बंजी कूद को दर्शाया गया है, इनमे सबसे प्रसिद्ध रही 1995 में बनी जेम्स बोंड की फिल्म गोल्डन आई का आरम्भिक दृश्य जिसमे बोंड रशिया में स्थित एक बांध के छोर से कूदते हैं, .
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यह एक दक्षिण कोरियाई फिल्म के शीर्षक बंजी जम्पिंग ऑफ़ देयर ओन में प्रस्तुत होता है हालांकि यह फिल्म में कोई बड़ी भूमिका नहीं निभाता है।
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1986 में, BBC पर नोएल एड्मोंड द्वारा प्रस्तुत टीवी कार्यक्रम दी लेट, लेट ब्रेकफास्ट शो को उस वक्त बंद कर दिया गया, जब उनके 'वरली व्हील' सजीव स्टंट अनुभाग के स्वयंसेवक माइकल लश की एक बंजी कूद पूर्व अभ्यास के दौरान मृत्यु हो गई।
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1982 में डेली स्टार में प्रकाशित, जज ड्रेड की कहानी 'क्रिमिनल हाइट्स' में बंजी ज��्पिंग को शहर के अगले 'क्रेज़' के रूप में चित्रित किया गया था।
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एक काल्पनिक प्रोटो-बंजी कूद माइकल चेबोन के उपन्यास दी अमेज़िंग एडवेंचर्स ऑफ़ कवैलियर एंड क्ले के कथानक का बिंदु है।
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फिल्म सेलेना में, जेनिफर लोपेज़ को जिसने फिल्म में सेलेना कवीन्टेलीना-पेरेज़ की भूमिका निभाई है एक आनंदोत्सव में बंजी जंपिंग करते हुए दर्शाया गया है। यह एक वास्तविक घटना है जो 1995 में सेलेना की मृत्यु से कुछ ही समय पहले घटी थी।
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"केटापल्ट" में जम्पर जमीन से उछलना शुरू करता है .
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इसमें कूदनेवाले को लाया जाता है और रस्सी को खींचा जाता है और फिर छोड़ा जाता है, जिससे कूदनेवाला ऊपर हवा में उछल जाता है। इसे अक्सर एक क्रेन या एक -स्थाई संरचना से जुड़े एक उत्तोलक के उपयोग से हासिल किया जाता है। यह रस्सी को खींचने और बाद में प्रतिभागी को ज़मीन पर उतारने की प्रक्रिया को सरल बनाता है।
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दो तिरछी रस्सियों के साथ "ट्विन टॉवर" भी समान है।
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जैसा कि नाम से ही पता चलता है, बंजी ट्रैम्पोलिन, बंजी और ट्रैम्पोलिन के तत्वों का उपयोग करता है। प्रतिभागी एक ट्रैम्पोलिन पर कूदना शुरू करता है और एक शरीर कवच से जुड़ा होता है, जो बंजी तारों के द्वारा ट्रैम्पोलिन के दोनों तरफ दो लम्बे पोलों से जुड़े होते हैं। जब वे कूदना शुरू करते हैं, तब बंजी रस्सियां कड़ी हो जाती हैं जिससे उन्हें एक ऊंची कूद मिल पाती है जो उन्हें केवल ट्रैम्पोलिन से नहीं मिलती है।
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बंजी रनिंग में कोई कूद शामिल नहीं होती. जैसा कि नाम से ही पता चलता है, इसमें महज बंजी रस्सियों को साथ संलग्न कर के एक ट्रैक पर चलना होता है। धावकों के पास प्रायः एक वेल्क्रो-बैक्ड मार्कर होता है जो यह अंकित करता है कि बंजी रस्सियों के पीछे खींचने से पहले धावक कितनी दूर पहुंचा था।
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रैम्प से बंजी कूद. दो रबर के तार - "बंजीज़" - प्रतिभागियों की कमर के चारों ओर एक हार्नेस से बंधे होते हैं। ये बंजी तार, इस्पात के केबलों के साथ जुड़े होते हैं जिनके सहारे वे फिसल सकते हैं, स्टेनलेस पुली को धन्यवाद. प्रतिभागी कूद से पहले बाइक चलाते हैं, स्लेज या स्की करते हैं।
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एक कूद के दौरान संभव चोटों की व्यापक संभावनाएं होती हैं। सुरक्षा कवच के विफल होने, रस्सी की लोच का गलत आकलन करने, या रस्सी के कूद मंच से ठीक से जुड़ा न होने की स्थिति में एक कूद के दौरान चोटें लग सकती हैं। ज्यादातर मामलों ���ें, यह लापरवाही से की गई सुरक्षा तैयारी की मानवीय त्रुटि के परिणाम के रूप में होता है। एक अन्य प्रमुख चोट तब लगती है जब कूदने वाला अपने शरीर को रस्सी के साथ उलझा हुआ पाता है। अन्य चोटों में शामिल है नेत्र आघात, रस्सी से जलन, गर्भाशय च्युति, विस्थापन, खंरोच, उंगलियों में ऐंठन और पीठ में चोट.
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उम्र, उपकरण, अनुभव, स्थान और वजन कुछ कारक हैं और घबराहट नेत्र अघात को अधिक बुरा बना सकता है।
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1997 में, लौरा पैटरसन, 16-सदस्यीय पेशेवर बंजी जंपिंग टीम के एक सदस्या की मौत, भारी कपालीय आघात के कारण हो गई, जब उसने लुइसियाना सुपरडोम के शीर्ष स्तर से एक लापरवाही से व्यवस्थित बंजी रस्सी के साथ छलांग लगाई और कंक्रीट-आधारित मैदान पर सर के बल गिरी. वह एक प्रदर्शनी के लिए अभ्यास कर रही थी जिसे सुपर बाउल XXXI के हाफटाइम शो के दौरान प्रदर्शित किया जाना था। उस कार्यक्रम के बंजी जंपिंग हिस्से को हटा दिया गया और पैटरसन का एक स्मरणोत्सव जोड़ा गया।
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साँचा:Extreme Sports
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परिचयपंकज सुबीर शिक्षा : एम. एससी. रसायन शास्त्रप्रकाशित पुस्तकेंये वो सहर तो नहीं, ईस्ट इंडिया कम्पनी, महुआ घटवारिन, कसाब.गांधी एट यरवदा.इन, नई सदी का कथा समय, युवा पीढ़ी की प्रेम कथाएँ, नौ लम्बी कहानियाँ, लोकरंगी प्रेमकथाएँ, एक सच यह भी, हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य, हँसते-हँसते रोना ।सम्मान एवं पुरस्कारउपन्यास ये वो सहर तो नहीं को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा वर्ष 2009 का ज्ञानपीठ युवा पुरस्कार। उपन्यास ये वो सहर तो नहीं को इंडिपेंडेंट मीडिया सोसायटी द्वारा वर्ष 2011 का स्व. जे. सी. जोशी शब्द साधक जनप्रिय सम्मान। उपन्यास ये वो सहर तो नहीं को मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार। कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी वर्ष 2008 में भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार हेतु अनुशंसित। कहानी संग्रह महुआ घटवारिन को कथा यूके द्वारा वर्ष 2013 में लंदन के हाउस ऑफ कामंस के सभागार में अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान। समग्र लेखन हेतु वर्ष 2014 में वनमाली कथा सम्मानअमेरिका तथा कैनेडा में हिन्दी लेखन हेतु विशेष रूप से सम्मानित किया गया। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तीन कहानी संकलनों लोकरंगी प्रेम कथाएँ, नौ लम्बी कहानियाँ तथा युवा पीढ़ी की प्रेम कथाएँ में प्रतिनिधि कहानियाँ सम्मिलित। कहानी शायद जोशी कथादेश अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत। पाकिस्तान की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका आज ने भारत की कहानी पर केन्द्रित विशेषांक में चार कहानियों का उर्दू अनुवाद प्रकाशित किया।विशेषतीन कहानियों पर हिन्दी फीचर फिल्मों का निर्माण कार्य चल रहा है। एक कहानी कुफ्र पर लघु फिल्म बन कर रिलीज़ हो चुकी है। फिल्मों में गीत लेखन। कहानियाँ, व्यंग्य लेख एवं कविताएँ नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, हँस, व्यंग्य यात्रा, लमही, प्रगतिशील वसुधा, हिंदी चेतना, परिकथा, सुख़नवर, सेतु, वागर्थ, कथाक्रम, कथादेश, समर लोक, संवेद वराणसी, जज्बात, आधारशिला, समर शेष है, लफ्ज़, अभिनव मीमांसा, अन्यथा जैसी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। इसके अलावा समाचार पत्रों के सहित्यिक पृष्ठों पर भी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दैनिक भास्कर, नव भारत, नई दुनिया, लोकमत आदि हिंदी के प्रमुख समाचार पत्र शामिल हैं। कई कहानियों तथा व्यंग्य लेखों का तेलगू, पंजाबी, उर्दू, राजस्थ��नी में अनुवाद। दिनकर स्मृति न्यास दिल्ली द्वारा प्रकाशित शोध ग्रंथों ‘समर शेष है 2007’ तथा ‘हुंकार हूं मैं 2008 ’ में ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पर शोध पत्र प्रकाशित। ‘‘हँस’’ में प्रकाशित कहानी ‘‘और कहानी मरती है .....’’ के लिये प्रगतिशील लेखक संघ की सीहोर इकाई ने प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित किया। वर्ष 2003 में जनार्दन शर्मा पुरस्कार प्राप्त हुआ। उत्तरप्रदेश की संस्था नवोन्मेष द्वारा 2011 का नवोन्मेष साहित्य सम्मान। जल रोको आयोजन के तहत पत्रिका संकल्प के संपादन पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा विशेष पुरस्कार दिया गया। कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध कार्य। इंटरनेट पर ग़ज़ल के व्याकरण को लेकर विशेष कार्य अपने ब्लॉग के माध्यम से। जहाँ पर ग़ज़ल का व्याकरण सीखने वालों को उसकी जानकारी उपलब्ध करवाते हैं। इंटरनेट पर हिंदी के प्रचार प्रसार को लेकर विशेष रूप से कार्यरत। सह संपादक : हिंदी चेतना, समन्वयक : हिन्दी प्रचारिणी सभा, कैनेडापंकज सुबीरपी.सी. लैब, शॉप नं. 3-4-5-6, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेण्टबस स्टैण्ड के सामने, सीहोर, मध्य प्रदेश 466001मोबाइल : 09977855399, दूरभाष : 07562-405545, 07562-695918 पंकज सुबीर नाम पंकज सुबीर प्रकज सुबीर का नाम देश के युवा कथाकारों की सूची में शामिल है अभी कुछ दिनों पहले ही भारतीय ज्ञानपीठ ने उनको उनके उपन्यास के लिये ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा की है। पंकज सुबीर इंटरनेट पर ग़जल़ गुरू के नाम से प्रसिद्ध हैं क्योंकि वे ग़ज़ल के व्याकरण पर अपना ब्लाग चलाते हैं। कहानी संग्रह 'महुआ घटवारिन और अन्य कहानियां' के लिये पंकज सुबीर को वर्ष 2012 का 'कथा यूके अंतर्राष्ट्रीय इन्दू शर्मा कथा सम्मान' दिनांक 10 अक्टूबर 2013 को लंदन के हाउस ऑफ कॉमन्स में सम्मान प्रदान किया गया। उपन्यास ये वो सहर तो नहीं को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा वर्ष 2010 का नवलेखन पुरस्कार। कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी वर्ष 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरुस्कार हेतु अनुशंसित।कथादेश अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में कहानी शायद जोशी को साँत्वना पुरस्कार। इंडिया टुडे ने मध्यप्रदेश के युवा साहित्यकारों पर केन्द्रित विशेष आलेख में प्रमुख स्थान दिया। वर्ष 2009 में कहानी महुआ घटवारिन विशेष रूप से चर्चा में आई तथा हंस, आधारशिला एवं नया ज्ञानोदय ने इस कहानी को लेकर आलेख तथा कहानी का प्रकाशन हुआ। वर्ष 2010 में नया ज्ञानोदय के युवा विशेषांक में प्रकाशित कहानी चौथमल मास्साब और पूस की रात को काफी सराहना मिली। कहानियाँ, व्यंग्य लेख एवं कविताएँ नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, हँस, परिकथा, सुंखनवर, सेतु, वागर्थ, कथाक्रम, कथादेश, समर लोक, संवेद वराणसी, जज्बात, आधारशिला, समर शेष है, लफ जैसी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। इसके अलावा समाचार पत्रों के सहित्यिक पृष्ठों पर भी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दैनिक भास्कर, नव भारत, नई दुनिया आदि हिंदी के प्रमुख समाचार पत्र शामिल हैं। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर स्मृति न्यास दिल्ली द्वारा प्रकाशित शोध ग्रंथों 'समर शेष है 2007' तथा 'हुंकार हूं मैं 2008 ' में 'संस्कृति के चार अध्याय' पर शोध पत्र प्रकाशित। भारतीय भाषा परिषद ने लगातार दो वर्षों तक युवा कथाकारों के विशेषांक में शामिल किया। तथा देश के प्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ ने वर्ष 2007 की युवा लेखकों के विशेषांक में स्थान दिया। हँस में प्रकाशित कहानी और कहानी मरती है।.... के लिये प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित। वर्ष 2003 में सुकवि पंडित जनार्दन शर्मा पुरुस्कार प्राप्त हुआ। जल रोको आयोजन के तहत पत्रिका संकल्प के संपादन पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा विशेष पुरुस्कार दिया गया। कहानियों 'घेराव' तथा 'राम जाने' का तेलगू तथा ऑंसरिंग मशीन का पंजाबी में अनुवाद। कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध कार्य। इंटरनेट पर ंगाल के व्याकरण को लेकर विशेष कार्य अपने ब्लॉग के माध्यम से। जहां पर ंगाल का व्याकरण सीखने वालों को उसकी जानकारी उपलब्ध करवाते हैं। इंटरनेट पर हिंदी के प्रचार प्रसार को लेकर विशेष रूप से कार्यरत। सीहोर के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय से विज्ञान में स्नातक उपाधि तथा रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि बरकत उल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल द्वारा प्राप्त की। उसके पश्चात पत्रकारिता से लगाव होने के चलते दैनिक जागरण, साँध्य दैनिक प्रदेश टाइम्स, सहारा समय जैसे समाचार पत्रों तथा चैनलों के लिये पत्रकारिता की। उसी दौरान पत्रकारिता के कड़वे अनुभवों के कारण इंटरनेट पर आधारित अपनी स्वयं की समाचार सेवा सुबीर संवाद सेवा प्रारंभ की। इंटरनेट पर आधारित ये एजेंसीं आज कई सारे समाचार पत्रों तथा चैनलों को समाचार प्रदान करने का कार्य करती है। फ्रीलांस पत्रकारिता के दौरान आजतक, स्टार न्यूज तथा एनडीटीवी जैसे चैनलों के लिये कई समाचारों पर कार्य किया। 2000 में स्वयं के कम्प्यूटर प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की। वर्तमान में फ्रीलांस पत्रकारिता के साथ साथ कम्प्यूटर हार्डवेयर, नेटवर्किंग तथा ग्राफिक्स प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत हैं।एक उपन्यास ये वो सहर तो नहीं तथा कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशन।संप्रति : कम्प्यूटर प्रशिक्षण केंद्र का संचालन
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1.1 जीवन परिचयजन्म दिनाँक 11 अक्टूबर 1975 को मध्यप्रदेश के होशँगाबाद जिले के सीवनी मालवा कस्बे में हुआ। पिता के शासकीय सेवा में चिकित्सक होने के कारण मध्यप्रदेश के विभिन्न शहरों में शिक्षा दीक्षा हुई। उसमें भी अधिकाँश सीहोर जिले में। प्राथमिक शिक्षा शाजापुर जिले के सुसनेर कस्बे में, उौन तथा सीहोर जिले के आष्टा कस्बे में हुई। माध्यमिक तथा हाईस्कूल शिक्षा सीहोर जिले के ही छोटे से कस्बे इछावर में हुई। तत्पश्चात सीहोर के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय से विज्ञान में स्नातक उपाधि तथा रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि बरकत उल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल द्वारा प्राप्त की। उसके पश्चात पत्रकारिता से लगाव होने के चलते दैनिक जागरण, साँध्य दैनिक प्रदेश टाइम्स, सहारा समय जैसे समाचार पत्रों तथा चैनलों के लिये पत्रकारिता की। उसी दौरान पत्रकारिता के कड़वे अनुभवों के कारण इंटरनेट पर आधारित अपनी स्वयं की समाचार सेवा सुबीर संवाद सेवा प्रारंभ की। इंटरनेट पर आधारित ये एजेंसीं आज कई सारे समाचार पत्रों तथा चैनलों को समाचार प्रदान करने का कार्य करती है। 2000 में स्वयं के कम्प्यूटर प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की। वर्तमान में फ्रीलांस पत्रकारिता के साथ साथ कम्प्यूटर हार्डवेयर, नेटवर्किंग तथा ग्राफिक्स प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। 1.2 माता-पितामाता श्रीमती संतोष पुरोहित तथा पिता डॉ॰ प्रमोद कुमार पुरोहित 1.3 विद्यार्थी जीवन का संघर्ष पिता के शासकीय सेवा में होने के कारण सबसे पहले तो यायावर की तरह शिक्षा लेनी पड़ी। उसमें भी प्राथमिक तथा हाईस्कूल की शिक्षा आष्टा तथा इछावर जैसे कस्बों में हुई जहां पर सुविधाओं का नितांत अभाव था। महाविद्यालयीन शिक्षा के लिये जिला मुख्यालय सीहोर जाना पड़ा क्योंकि इछावर में महाविद्यालय नहीं था। स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा रोज इछावर से सीहोर आना जाना करके करनी पड़ी। आने जाने में ही रोज करीब तीन चार घंटे का समय व्यर्थ हो जाता था। चिकित्सा शिक्षा महाविद्यालय में प्रवेश के लिये प्रवेश परीक्षा देने के कारण बी.एससी. द्वितीय वर्ष की परीक्षा नहीं दी, उधर चिकित्सा महाविद्यालय में भी प्रवेश नहीं हो पाने के कारण एक वर्ष गहन नैराश्य में बीता उससे उबरते हुए पुन: स्नातक तथा स्नातकोत्तर परीक्षाएँ दीं और उत्तीर्ण कीं। 1.4 शिक्षा बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल के अंतर्गत आने वाले शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय से जीव विज्ञान विषयों में स्नातक उपाधि तथा उसके बाद वहीं से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। 1.5 जीवन के सुखद एवं दु:खद प्रसंग जीवन का लम्बा समय सीहोर के इछावर कस्बे में बिताने के बाद जब उसे छोड़ना पड़ा तो काफी दु:खद रहा वो विछोह। वो शहर जहां लगभग पूरा बचपन बीता और अधिकांश विद्यालयीन तथा महाविद्यालयीन शिक्षा वहीं रह कर पूरी की। आज भी इछावर कहानियों में कविताओं में आ जाता है। सबसे सुखद क्षण वो था जब अपनी पहली कहानी को दैनिक भास्कर समाचार पत्र की पत्रिका मधुरिमा में प्रकाशित देखा। उसके बाद जब भारतीय ज्ञानपीठ ने कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी को नवलेखन पुरुस्कार के लिये अनुशंसित किया तथा उसका प्रकाशन किया। नई दिल्ली के हिंदी भवन के सभागार में देश के दिग्गज साहित्यकारों के बीच कहानी संग्रह के विमोचन का अवसर भी जीवन के सुखद प्रसंगों में शामिल है। 1.6 वैवाहिक जीवन
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1.7 लेखकीय प्रेरणा संभवत: स्कूल के दिनों में ही लेखन के तो नहीं हां पढ़ने के संस्कार ज़रूर मिल गये थे। माताजी को पढ़ने का बहुत शौक है। उनके कारण घर में सभी प्रकार की पुस्तकें आती थीं। इनमें साहित्यिक पत्रिकाओं से लेकर उपन्यास आदि भी शामिल हैं। उन्हीं पत्रिकाओं तथा उपन्यासों को पढ़ पढ़ कर साहित्य के संस्कार मिले। पहली बार जिस कहानी ने सबसे यादा प्रभावित किया वो थी श्री फणीश्वर नाथ रेणू की कहानी लाल पान की बेगम, ये कहानी कोर्स की किसी पुस्तक में शामिल थी। कहानी ने इतना यादा प्रभावित किया कि उसे कई बार पढ़ा और आज भी ये कहानी सबसे पसंदीदा कहानियों में है। उस समय पढ़े गये रूमानी उपन्यासों जिनमें अधिकांश गुलशन नंदा के थे, ने भी लेखन की ओर झुकाया। फिर श्री कमलेश्वर जी, श्री रवीन्द्र कालिया जी, श्री मोहन राकेश, श्रीमती ममता कालिया जी, श्रीमती मन्नू भंडारी जी जैसे साहित्यकारों को पढ़ा और कब स्वयं भी कहानियां लिखने लगा पता नहीं। लेखकीय प्रेरणा का यदि कोई एक कारण ढूंडा जाये तो वो है पढ़ने की आदत, आज भी ये आदत किसी लत की तरह है। 1.8 कृतित्व अब तक सौ से यादा साहित्यिक रचनाएँ जिनमें कहानियाँ, कविताएँ, ग़ज़लें, लेख तथा व्यंग्य लेख शामिल हैं देश भर की शीर्ष साहित्यिक पत्रिकाओं हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, कथाक्रम, आधारशिला, जबात, सेतु, लफ, संवेद वाराणसी, समरलोक, कादम्बिनी, अर्बाबे कलम, में प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा समाचार पत्रों के सहित्यिक पृष्ठों पर भी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दैनिक भास्कर, नव भारत, नई दुनिया आदि हिंदी के प्रमुख समाचार पत्र शामिल हैं। भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ ने लगातार दो वर्षों तक युवा विशेषांक में देश के प्रतिनिधि युवा कथाकार के रूप में चयन किया, भारतीय ज्ञान पीठ की पत्रिका ने एक बार देश भर के प्रतिनिधि युवा कथाकारों के विशेषांक में स्थान दिया। आचार्य रामधारी सिंह दिनकर स्मृति न्यास दिल्ली द्वारा प्रकाशित स्मारिका में दो वर्षों से संस्कृति के चार अध्याय पर शोध पत्र प्रकाशित। पार्श्व गायिका सुश्री लता मंगेशकर पर लिखे गये कई शोधात्मक लेख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित। ग़ज़ल के व्याकरण तथा तकनीक पर काफी कार्य किया है। कहानी आंसरिंग मशीन का पंजाबी में तथा घेराव का तेलगू में अनुवाद किया गया है। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी के कार्यक्रमों में कहानी पाठ तथा ग़ज़ल पाठ किया। 1.8.1 कहानी संग्रह वर्ष 2009 में प्रथम कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा किया गया। 1.8.2 उपन्यास उपन्यास ये वो सहर तो नहीं को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 1.8.3 अन्य रचनाएँ एक व्यंग्य संग्रह बुध्दिजीवी सम्मेलन ग़ज़ल के व्याकरण पर एक पुस्तक तथा खंड काव्य तुम्हारे लिये प्रकाशन की प्रक्रिया में। 1.9 कर्म क्षेत्र के विविध आयाम कम्प्यूटर प्रशिक्षण के साथ फ्रीलाँस पत्रकारिता कर्मक्षेत्र। पिछले कुछ सालों से एक अलग प्रकार के काम से जुड़े हैं। ये कार्य है इंटरनेट के माध्यम से नये लिखने वालों को हिंदी ग़ज़ल लिखने के ���ारे में तकनीकी जानकारी तथा सहायता प्रदान करना। ये कार्य खूब लोकप्रिय हुआ है तथा आज दुनिया भर के देशों में रहने वाले भारतीय इंटरनेट के माध्यम से ग़ज़ल लिखना, कविताएँ लिखना सीख रहे हैं। ये कार्य बहुत संतोष प्रदान करता है। साहित्य के क्षेत्र में तकनीक एवं प्रोद्यौगिकी के उपयोग पर जोर। इंटरनेट की दुनिया में ग़ज़ल गुरू के नाम से मशहूर। फ्रीलांस पत्रकारिता के दौरान आजतक, स्टार न्यूज तथा एनडीटीवी जैसे चैनलों के लिये कई समाचारों पर कार्य किया। कवि तथा शायर के रूप में देश भर के कई अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों तथा मुशायरों में काव्य पाठ किया। इंटरनेट तकनीक का उपयोग करते हुए कई आन लाइन कवि सम्मेलनों का भी आयोजन किया जिनमें दुनिया भर के हिंदी कवियों ने काव्य पाठ किया। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिये इंटरनेट पर कार्यरत। जल संरक्षण पर एक नदी की कथा संकल्प नाम की पत्रिका का संपादन मध्यप्रदेश शासन के लिये किया। 1.10 पुरुस्कार एवं सम्मान संकल्प पत्रिका के संपादन के लिये मध्यप्रदेश सरकार द्वारा सम्मान।हंस में प्रकाशित कहानी और कहानी मरती है के लिये प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा सम्मान प्रदान। पंडित जनार्दन शर्मा स्मृति कविता सम्मान।कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी ज्ञानपीठ नवलेखन के लिये अनुशंसित।
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बौरा फ़र्रूख़ाबाद जिले का एक गाँव।
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अवाजपुर.अकरखेरा • अकबरगंज गढ़िया • अकबरपुर • अकबरपुर दामोदर • अकराबाद • अचरा • अचरातकी पुर • अचरिया वाकरपुर • अजीजपुर • अजीजाबाद • अटसेनी • अटेना • अतगापुर • अताईपुर • अताईपुर कोहना • अताईपुर जदीद • अतुरुइया • अद्दूपुर • अद्दूपुर डैयामाफी • अब्दर्रहमान पुर • अमरापुर • अमिलापुर • अमिलैया आशानन्द • अमिलैया मुकेरी • अरियारा • अलमापुर • अल्लापुर • अल्लाहपुर • अलादासपुर • अलियापुर • अलियापुर मजरा किसरोली • अलेहपुर पतिधवलेश्वर • असगरपुर • अहमद गंज • आजम नगर • आजमपुर • इकलहरा • इजौर • इमादपुर थमराई • इमादपुर समाचीपुर • ऊगरपुर • उम्मरपुर • उलियापुर • उलीसाबाद • उस्मानपुर • • ऊगरपुर • ऊधौंपुर • • अंगरैया •
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ककरोली • कटरा रहमतखान • कटरी तौफीक गड़ियाहैबतपुर • कटरी दुंध • कटरी रम्पुरा • कटरीरूपपुर मंगलीपुर • कटिया • कनासी • कम्पिल • कमठारी • कमरुद्दीन नगर • कमलैयापुर • कर्हुली • करनपुर • करनपुर गंगतारा • करीमनगर • कमालगंज • कमालपुर • कलिआपुर सैनी • कादर दादपुर सराय • कायमगंज • कायमपुर • कारव • कासिमपुर तराई • काँधेमई • किन्नर नगला • किसरोली • कुतुबुद्दीनपुरकुइयां सन्त • कुबेरपुर • कुंअरपुर इमलाक • कुंअरपुर खास • कुंइयाखेरा • कुइयांधीर • कुंआखेरा खास • कुंआखेरा वजीरआलम खान • कुरार • कैराई • कैलिहाई • कैंचिया • कोकापुर • ख्वाजा अहमदपुर कटिया • खगऊ • खलवारा • खलवारा • खानपुर • खिनमिनी • खुदना धमगवाँ • खुदना वैद • खुम्मरपुर • खेतलपुर सौंरिया • खेमपुर • ग्रासपुर • ग्रिड कायमगंज • गठवाया • गड़िया हैबतपुर • गदनपुर वक्त • गदरपुर चैन • गनीपुर जोगपुर • गिलासपुर • गुटैटी दक्खिन • गुठिना • गुसरापुर • गूजरपुर • गोविन्दपुर अस्दुल्ला • गोविन्दपुर हकीमखान • गौरखेरा • गौरीमहादेव पुर • गंगरोली मगरिब • गंगलउआ • गंगलऊ परमनगर • घुमइया रसूलपुर •
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चन्दपुर • चन्दपुर कच्छ • चम्पतपुर • चरन नगला • चहुरेरा • चँदुइया • चहोरार • चाँदनी • चिचौली • चिलसरा • चिलसरी • चौखड़िया • छछौनापुर • छिछोना पट्टी • छोटन नगला • ज्योना • ज्योनी • जटपुरा • जरारा • जरारी • जहानपुर • जिजपुरा • जिजौटा खुर्दजिजौटा बुजुर्ग • जिनौल • जिनवाह • जिरखापुर • जिराऊ • जैदपुर • जैसिंगपुर • जॅसिंगापुर • जोगपुर • जौंरा • झब्बूपुर • झौआ •
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डेरा शादीनगर • ढुड़���यापुर •
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त्यौर खास • त्यौरी इस्माइलपुर • तलासपुर • तारापुर भोयापुर • ताल का नगला • तुर्क ललैया • तुर्कीपुर • तेजपुर • द्युरियापुर • द्योरा महसौना • दरियापुर • दलेलगंज • दारापुर • दिवरइया • दीपुरनगरिया • दुर्गा नगला • दुन्धा • दुबरी • धधुलिया पट्टी • धरमपुर • धाउनपुरा • नगरिया • नगला कलार • नगला खमानी • नगला दमू • नगला थाला • नगला बसोला • नगला मकोड़ा • नगला सेठ • नगलाकेल • नगलानान • नटवारा • नये नगरा • नरसिंगपुर • नरायनपुर • नरु नगला • नरैनामऊ • नवाबगंज • नसरुल्लापुर • नहरोसा • निजामुद्दीनपुर • नियामतपुर दिलावली • नियामतपुर भक्सी • नीबलपुर • नुनवारा • नुनेरा • नूरपुर गड़िया • नैगवां • नैगवाँ • नौगाँव • नौली
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प्रहलादपुर • प्रहलादपुर संतोषपुर • पचरौली महादेवपुर • पथरामई • पट्टी मदारी • पट्टीमजरा लालपुर • पत्योरा • पदमनगला • पपड़ी • पपड़ी खुर्द बुजुर्ग • पपराभूजी • परतापुर तराई • परम नगर • परसादी नगला • परौली • परौली खुरदाई • पलिया • पहाड़पुर • पहाडपुर बैरागढ़ • पहाड़पुर मजरा अटसेनी • पंथरदेहामाफी • पाराहपुर • पितौरा • पिलखना • पुरौरी • पैथान • पैसियापुर • पितौरा • पिपरगाँव • पुरौरी • पैथान खुर्द बुजुर्ग • पैलानी दक्खिन • फतनपुर • फतेहगढ़ • फतेहपुर परौली • फरीदपुर • फरीदपुर मजरा सैंथरा • फरीदपुर मंगलीपुर • फरीदपुर सैदबाड़ा • फ़र्रूख़ाबाद •
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बकसुरी • बख्तरपुर • बघऊ • बघेल • बघौना • बछलइया • बन्तल • बबना • बबुरारा • बमरुलिया • बरई • बरखेड़ा • बरझाला • बरतल • बहबल पुर • बरई • बराबिकू • बलीपुर • बलीपुर गढ़ी • बलीपुर मजरा अटसेनी • बलीपुर भगवंत • बसईखेड़ा • बाजिदपुर • बारग • बिछौली • बिजौरी • बिराइमपुर • बिराहिमपुर जागीर • बिराहिमपुर निरोत्तमपुर • बिरिया डाण्डा • बिरसिंगपुर • बिल्सड़ी • बिलहा • बीरबल का नगला • बुड़नपुर • बुड़नापुर • बुढ़नपुर • बेग • बेलासराय गजा • बेहटा बल्लू • बेहटा मुरलीधर • बेला • बैरमपुर • बौरा • बंगस नगर • बंसखेरा • भटासा • भकुसा • भगवानपुर • भागीपुर उमराव • भगोरा • भगौतीपुर • भटपुरा • भटमई • भटासा • भरतपुर • भरथरी • भिड़ौर • भैंसारी • भोलेपुर • भौंरुआ • मगतई • मद्दूपुर • मन्तपुरा • मदारपुर • मधवापुर • मसूदपुर पट्टी • महमदीपुर • महमदपुर कामराज • महमदपुर ढ़ानी • महमूदपुर पट्टीसफा • महमूदपुर सिनौरा • मानिकपुर • मामपुर • मिल��क कुरेश • मिलिक मजमुल्ला • मिलिक सुल्तान • मिलिकिया • मिस्तिनी • मीरपुर कमरुद्दीन नगर • मुर्शिदाबाद • मुराठी • मेदपुर • मुजफ्फरपट्टी • मुजाहिदपुर • मुहद्दीनपुर • मुड़ौल • मुरैठी • मूसेपुर • मोहम्दाबाद • मोहम्मदाबाद • मंगलीपुर • मंझना • मँझोला •
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याहियापुर • रुखैया खलिकदादपुर • रम्पुरा • रजपालपुर • रजलामई • रमापुर • रमापुर जसू • रमापुर दबीर • रसीदाबाद • रानीपुर गौर • रशीदाबाद खटिक • रशीदाबाद ब्राह्मनन • रशीदाबाद बल्लभ • रसीदपुर • रसीदपुर तराई • रसीदपुर मई • रसीदपुर मजरा अटसेनी • रसीदाबाद • रायपुर • रायपुर खास • रायपुर चिंगहाटपुर • रुटौल • रुटॉल • रुदायन • रुटौल • रुस्तमपुर • रूपपुर मंगली • रोशनाबाद • रौकरी • लखनपुर • लपहापानी • ललई • ललैयातुर्क • ललौर राजपूताना • लहरारजा कुलीपुर • लाखनपुर • लाड़मपुर द्योना • लालपुर पट्टी • लुखड़पुरा • लुधैया • लोधीपुर • वीरपुर •
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शम्साबाद • शम्भूनगला • शम्भूनगला • शमसपुर भिखारी • शरीफपुर छिछौनी • शाद नगर • शाहआलम पुर • शाहपुर • शाहीपुर • शिवरई बरियार • शिवरई मठ • शिवारा • • शेशपुर हुसंगा • शंकरपुर हरहरपुर • स्यानी • सन्तोषपुर • समाधान नगला • सरपरपुर • सलेमपुर • सलेमपुर त्योरी • सलेमपुर दूँदेमई • सवितापुर विहारीपुर • सशा जगदीशपुर • समुद्दीनपुर • समेचीपुर छीतर • समेचीपुर मजरा अथुरैया • सादिकपुर • साहबगंज • सिउरइया • सिकन्दरपुर • सिकन्दरपुर अगू • सिकन्दरपुर कोला • सिकन्दरपुर खास • सिकन्दरपुर छितमन • सिकन्दरपुर तिहइया • सिकन्दरपुर मजरा नहरोश • सिकन्दरपुर महमूद • सिलसंडा • सिनौली • सिरमोरा बांगर • सिवारा खास • सिवारा मुकुट • सुकरुल्लापुर • सुताड़िया • सुथारी • सुभानपुर • सुल्तानपुर • सुल्तानपुर खरेटा • सुल्तानपुर पालनपुर • सुल्तानपुर राजकुंअर • सूरजपुर चमरौआ • सैदपुर पिस्तूर • सैदपुर रहीमदादपुर • सैंथरा • सोतेपुर • सोनाजानकी पुर • सोना जानकीपुर • संतोषपुर • हईपुर • हजरतगंज • हजरतपुर • हदीदादपुर मई • हथौड़ा • हमेलपुर • हजियाँपुर • हरसिंहपुर गोवा • हकीकतपुर • हमीरपुर काजी • हमीरपुर खास • हरसिंगपुर तराई • हमीरपुर मजरा बरतल • हमीरपुर मजरा जाट • हरकरनपुर • हरसिंगपुर गोवा • हरसिंगपुर मजरा अटसेनी • हाजीपुर • हुसंगपुर • हंसापुर • हंसापुर गौरियापुर • होतेपुर • हुसेनपुर तराई • हुसेनपुर बांगर • ���ुसंगा •
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· अंबेडकर नगर जिला · आगरा जिला · अलीगढ़ जिला · आजमगढ़ जिला · इलाहाबाद जिला · उन्नाव जिला · इटावा जिला · एटा जिला · औरैया जिला · कन्नौज जिला · कौशम्बी जिला · कुशीनगर जिला · कानपुर नगर जिला · कानपुर देहात जिला · गाजीपुर जिला · गाजियाबाद जिला · गोरखपुर जिला · गोंडा जिला · गौतम बुद्ध नगर जिला · चित्रकूट जिला · जालौन जिला · चन्दौली जिला · ज्योतिबा फुले नगर जिला · झांसी जिला · जौनपुर जिला · देवरिया जिला · पीलीभीत जिला · प्रतापगढ़ जिला · फतेहपुर जिला · फ़र्रूख़ाबाद जिला · फिरोजाबाद जिला · फैजाबाद जिला · बलरामपुर जिला · बरेली जिला · बलिया जिला · बस्ती जिला · बदौन जिला · बहरैच जिला · बुलन्दशहर जिला · बागपत जिला · बिजनौर जिला · बाराबांकी जिला · बांदा जिला · मैनपुरी जिला · महामायानगर जिला · मऊ जिला · मथुरा जिला · महोबा जिला · महाराजगंज जिला · मिर्जापुर जिला · मुझफ्फरनगर जिला · मेरठ जिला · मुरादाबाद जिला · रामपुर जिला · रायबरेली जिला · लखनऊ जिला · ललितपुर जिला · लखीमपुर खीरी जिला · वाराणसी जिला · सुल्तानपुर जिला · शाहजहांपुर जिला · श्रावस्ती जिला · सिद्धार्थनगर जिला · संत कबीर नगर जिला · सीतापुर जिला · संत रविदास नगर जिला · सोनभद्र जिला · सहारनपुर जिला · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश · हरदोइ जिला
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समाचार पत्र या अख़बार, समाचारो पर आधारित एक प्रकाशन है, जिसमें मुख्यत: सामयिक घटनायें, राजनीति, खेल-कूद, व्यक्तित्व, विज्ञापन इत्यादि जानकारियां सस्ते कागज पर छपी होती है। समाचार पत्र संचार के साधनो में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। समाचारपत्र प्रायः दैनिक होते हैं लेकिन कुछ समाचार पत्र साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक एवं छमाही भी होतें हैं। अधिकतर समाचारपत्र स्थानीय भाषाओं में और स्थानीय विषयों पर केन्द्रित होते हैं।
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सबसे पहला ज्ञात समाचारपत्र 59 ई.पू. का 'द रोमन एक्टा डिउरना' है। जूलिएस सीसर ने जनसाधरण को महत्वपूर्ण राजनैतिज्ञ और समाजिक घटनाओं से अवगत कराने के लिए उन्हे शहरो के प्रमुख स्थानो पर प्रेषित किया। 8वी शताब्दी में चीन में हस्तलिखित समाचारपत्रो का प्रचलन हुआ।
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अखबार का इतिहास और योगदान: यूँ तो ब्रिटिश शासन के एक पूर्व अधिकारी के द्वारा अखबारों की शुरुआत मानी जाती है, लेकिन उसका स्वरूप अखबारों की तरह नहीं था। वह केवल एक पन्ने का सूचनात्मक पर्चा था। पूर्णरूपेण अखबार बंगाल से 'बंगाल-गजट' के नाम से वायसराय हिक्की द्वारा निकाला गया था। आरंभ में अँग्रेजों ने अपने फायदे के लिए अखबारों का इस्तेमाल किया, चूँकि सारे अखबार अँग्रेजी में ही निकल रहे थे, इसलिए बहुसंख्यक लोगों तक खबरें और सूचनाएँ पहुँच नहीं पाती थीं। जो खबरें बाहर निकलकर आती थींत्र से गुजरते, वहाँ अपना आतंक फैलाते रहते थे। उनके खिलाफ न तो मुकदमे होते और न ही उन्हें कोई दंड ही दिया जाता था। इन नारकीय परिस्थितियों को झेलते हुए भी लोग खामोश थे। इस दौरान भारत में ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’, ‘नेशनल हेराल्ड', 'पायनियर', 'मुंबई-मिरर' जैसे अखबार अँग्रेजी में निकलते थे, जिसमें उन अत्याचारों का दूर-दूर तक उल्लेख नहीं रहता था। इन अँग्रेजी पत्रों के अतिरिक्त बंगला, उर्दू आदि में पत्रों का प्रकाशन तो होता रहा, लेकिन उसका दायरा सीमित था। उसे कोई बंगाली पढ़ने वाला या उर्दू जानने वाला ही समझ सकता था। ऐसे में पहली बार 30 मई 1826 को हिन्दी का प्रथम पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ।
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यह पत्र साप्ताहिक था। ‘उदंत-मार्तंड' की शुरुआत ने भाषायी स्तर पर लोगों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। यह केवल एक पत्र नहीं था, बल्कि उन हजारों लोगों की जुबान था, जो अब तक खामोश और भयभीत थे। हिन्दी में पत्रों की शुरुआत से देश में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ और आजादी की जंग। उन्हें काफी तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता था, ताकि अँग्रेजी सरकार के अत्याचारों की खबरें दबी रह जाएँ। अँग्रेज सिपाही किसी भी क्षेत्र में घुसकर मनमाना व्यवहार करते थे। लूट, हत्या, बलात्कार जैसी घटनाएँ आम होती थीं। वो जिस भी क्षेको भी एक नई दिशा मिली। अब लोगों तक देश के कोने-कोन में घट रही घटनाओं की जानकारी पहुँचने लगी। लेकिन कुछ ही समय बाद इस पत्र के संपादक जुगल किशोर को सहायता के अभाव में 11 दिसम्बर 1827 को पत्र बंद करना पड़ा। 10 मई 1829 को बंगाल से हिन्दी अखबार 'बंगदूत' का प्रकाशन हुआ। यह पत्र भी लोगों की आवाज बना और उन्हें जोड़े रखने का माध्यम। इसके बाद जुलाई, 1854 में श्यामसुंदर सेन ने कलकत्ता से ‘समाचार सुधा वर्षण’ का प्रकाशन किया। उस दौरान जिन भी अखबारों ने अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई भी खबर या आलेख छपा, उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ी। अखबारों को प्रतिबंधित कर दिया जाता था। उसकी प्रतियाँ जलवाई जाती थीं, उसके प्रकाशकों, संपादकों, लेखकों को दंड दिया जाता था। उन पर भारी-भरकम जुर्माना लगाया जाता था, ताकि वो दुबारा फिर उठने की हिम्मत न जुटा पाएँ।
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आजादी की लहर जिस तरह पूरे देश में फैल रही थी, अखबार भी अत्याचारों को सहकर और मुखर हो रहे थे। यही वजह थी कि बंगाल विभाजन के उपरांत हिन्दी पत्रों की आवाज और बुलंद हो गई। लोकमान्य तिलक ने 'केसरी' का संपादन किया और लाला लाजपत राय ने पंजाब से 'वंदे मातरम' पत्र निकाला। इन पत्रों ने युवाओं को आजादी की लड़ाई में अधिक-से-अधिक सहयोग देने का आह्वान किया। इन पत्रों ने आजादी पाने का एक जज्बा पैदा कर दिया। ‘केसरी’ को नागपुर से माधवराव सप्रे ने निकाला, लेकिन तिलक के उत्तेजक लेखों के कारण इस पत्र पर पाबंदी लगा दी गई।
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उत्तर भारत में आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1913 में कानपुर से साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं। इससे लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे। इसकी आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखकों, संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दीं, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा।
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इसी प्रकार बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र के क्षेत्रों से पत्रों का प्रकाशन होता रहा। उन पत्रों ने लोगों में स्वतंत्रता को पाने की ललक और जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। अगर यह कहा जाए कि स्वतंत्रता सेनानियों के लिए ये अखबार किसी हथियार से कमतर नहीं थे, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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अखबार बने आजादी का हथियार प्रेस आज जितना स्वतंत्र और मुखर दिखता है, आजादी की जंग में यह उतनी ही बंदिशों और पाबंदियों से बँधा हुआ था। न तो उसमें मनोरंजन का पुट था और न ही ये किसी की कमाई का जरिया ही। ये अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ आजादी के जाँबाजों का एक हथियार और माध्यम थे, जो उन्हें लोगों और घटनाओं से जोड़े रखता था। आजादी की लड़ाई का कोई भी ऐसा योद्धा नहीं था, जिसने अखबारों के जरिए अपनी बात कहने का प्रयास न किया हो। गाँधीजी ने भी ‘हरिजन’, ‘यंग-इंडिया’ के नाम से अखबारों का प्रकाशन किया था तो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 'अल-हिलाल' पत्र का प्रकाशन। ऐसे और कितने ही उदाहरण हैं, जो यह साबित करते हैं कि पत्र-पत्रिकाओं की आजादी की लड़ाई में महती भूमिका थी।
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यह वह दौर था, जब लोगों के पास संवाद का कोई साधन नहीं था। उस पर भी अँग्रेजों के अत्याचारों के शिकार असहाय लोग चुपचाप सारे अत्याचर सहते थे। न तो कोई उनकी सुनने वाला था और न उनके दु:खों को हरने वाला। वो कहते भी तो किससे और कैसे? हर कोई तो उसी प्रताड़ना को झेल रहे थे। ऐसे में पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत ने लोगों को हिम्मत दी, उन्हें ढाँढस बँधाया। यही कारण था कि क्रांतिकारियों के एक-एक लेख जनता में नई स्फूर्ति और देशभक्ति का संचार करते थे। भारतेंदु का नाटक ‘भारत-दुर्दशा’ जब प्रकाशित हुआ था तो लोगों को यह अनुभव हुआ था कि भारत के लोग कैसे दौर से गुजर रहे हैं और अँग्रेजों की मंशा क्या है।
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द लोर्ड ऑफ द रिंग्स फिल्म ट्रियोलॉजी, काल्पनिक महाकाव्य पर आधारित तीन एक्शन फिल्में हैं जिसमें द फेलोशिप ऑफ द रिंग, द टू टावर्स और द रिटर्न ऑफ द किंग शामिल हैं। यह ट्रियोलॉजी तीन खंडों में विभाजित है और जे.आर.आर. टोलकिन द्वारा लिखित द लोर्ड ऑफ द रिंग्स किताब पर आधारित है। हालांकि ये फिल्में पुस्तक की सामान्य कहानी का ही अनुसरण करती है लेकिन साथ ही स्रोत सामग्री से कुछ अलग भी इसमें शामिल किया गया है।
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मध्य धरती के काल्पनिक दुनियां में सेट ये तीन फिल्में होब्बिट फ्रोडो बग्गीन्स के ईर्द-गिर्द ही घूमती हैं जिसमें वह और फेलोशिप एक रिंग को नष्ट करने की तलाश में निकलते हैं और उसके निर्माता डार्क लोर्ड सौरोन के विनाश को सुनिश्चित करते हैं। लेकिन फैलोशिप विभाजित हो जाता है और फ्रोडो अपने वफादार साथी सैम और विश्वासघाती गोल्लुम के साथ खोज जारी रखता है। इसी बीच, देश निकाला झेल रहे जादूगर गैंडाल्फ़ और एरागोर्न, जो गोन्डोर के सिंहासन के असल वारिस होते हैं, वे मध्य धरती के आजाद लोगों को एकजुट करते हैं और वे अंततः रिंग के युद्ध में विजयी होते हैं।
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पीटर जैक्सन इन तीनों फिल्म के निर्देशक हैं और इनका वितरण न्यू लाइन सिनेमा द्वारा की गई है। इसे आज तक के विशालतम और महत्वाकांक्षी फिल्म परियोजनाओं में से एक माना जाता है, जिसका बजट कुल मिलाकर 285 करोड़ डॉलर था और इस परियोजना को पूरा होने में लगभग आठ वर्ष लगे और सभी तीन फिल्मों को एक साथ प्रदर्शित करने के लिए जैक्शन के जन्मस्थान न्यूजीलैंड में बनाया गया। ट्रियोलॉजी के प्रत्येक फिल्म का विशेष वर्धित संस्करण भी था जिसे सिनेमाघरों में जारी होने के एक साल बाद डीवीडी में जारी किया गया था।
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सर्वकालीक फिल्मों के बीच इस ट्रियोलॉजी को सबसे ज्यादा वित्तीय सफलता प्राप्त हुई थी। इन फिल्मों की समीक्षकों ने खूब प्रशंसा की और कुल 30 अकादमी पुरस्कार में इनका नामांकन हुआ था जिसमें से कुल 17 पुरस्कार मिले और इसके कलाकारों के चरित्रों और अभिनव के लिए काफी सराहना की गई और साथ ही डिजिटल विशेष प्रभाव के लिए भी व्यापक रूप में प्रशंसा की गई।
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2011 और 2012 में रिलीज़ होने वाली द होब्बिट एक फिल्म रुपांतर है जिसे दो भागोंमें बनाया जा रहा है, इसमें गिलर्मो डेल टोरो का जैक्सन सहयोग कर रहे हैं।
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निर्देशक पीटर जैक्सन पहली बार द लोर्ड ऑफ द रिंग्स क��� संपर्क में आए जब उन्होंने 1978 में राल्फ बख्शी की फिल्म देखी थी। जैक्सन को काफी "अच्छी लगी और वे चाहते थे कि उसके बारे में अधिक जाने." बाद में, उन्होंने वेलिंगटन से ऑकलैंड की बारह घंटे की रेल यात्रा के दौरान ही उस किताब के टाई-इन संस्करण को पढ़ा.
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1995 में जैक्सन ने द फ्राइटर्नर्स को खत्म कर रहे थे और एक नई परियोजना के रूप में द लोर्ड ऑफ द रिंग्स बनाने का विचार कर रहे थे और साथ ही काफी आश्चर्यचकित थे कि " क्यों कोई इस पर कुछ नहीं कर रहा है" कंप्यूटर द्वारा उत्पन्न काल्पनिक चित्र जुरासिक पार्क के बाद उस कड़ी में एक नया विकास करते हुए जैक्सन ने अपेक्षाकृत गंभीर और वास्तविक प्रतीत होने वाली एक काल्पनिक फिल्म बनाने की योजना बनाई. अक्टूबर तक वह और उनके साथी फ्रैनवाल्श, मीरामैक्स फिल्म्स के मालिक हार्वे विन्सटीन के साथ मिलकर शाऊल ज़ेन्त्ज़ जिनके पास 1970 के दशक के बाद से ही इस किताब के अधिकार थे, के साथ बातचीत की औरद होब्बिट और द लोर्ड ऑफ द रिंग्स पर आधारित दो फिल्मों पर जोर दिया.
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1997 में जब यूनिवर्सल ने किंग काँग को रद्द कर दिया, तब जैक्सन और वाल्श को फौरन विन्सटीन का समर्थन मिला और अधिकारों की छंटाई के लिए एक छह हफ्ते की प्रक्रिया शुरु हुई. जैक्सन और वाल्श ने कोस्टा बोतेस से पुस्तक का संक्षेप में सार लिखने को कहा और इन्होंने किताब को फिर से पढ़ना शुरू किया। दो से तीन महीने के बाद उन्होंने अपने संस्करण को लिखा. पहली फिल्म में जिस विषय की चर्चा की गई थी वह बाद में The Lord of the Rings: The Fellowship of the Ring The Lord of the Rings: The Two Towers बनता और The Lord of the Rings: The Return of the King की शुरुआत होती, सरुमन की मौत के साथ अंत होती और गंदाल्फ और पिपिन मिनास टिरिथ चले जाते. इस प्रस्तुतिकरण में सरुमन के बचने के बाद गवाहीर और गंदाल्फ की एडोरस की यात्रा करते हैं और जब फैलोशिप के एकजुट के समय और फार्मर मेगोट, ग्लोरफिंडेल, राडागास्ट, एलाडेन और एलरोहिर की मौजुदगी में गोल्लम, फ्रोडो पर हमला करता है। बिल्बो एल्रोन्ड की काउंसिल में उपस्थित होता है, सैम गलाड्रियल के आइने में देखता है, सरुमन मृत्यु से पहले प्रायश्चित करता है और उनके गिरने से पहले नाज़गुल पर्वत का विनाश करता है। उन्होंने हार्वे और बॉब विन्सटिन को अपना संस्करण प्रस्तुत किया और अपनी पटकथा पर जोर देते हुए उन्होंने बॉब को केन्द्र में रखा, क्योंकि उसने पुस्तक नहीं पढ़ी थी। 75 करोड़ डॉल��� के कुल बजट पर दो फिल्मों के लिए उन्होंने अपनी सहमति व्यक्त की.
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1997 के मध्य के दौरान जैक्सन और वाल्श स्टीफन ने सिंक्लैर के साथ लिखना शुरू किया। सिंक्लैर का पार्टनर फिलिप बोयेंस किताब का एक बड़ा प्रशंसक था और उनके वर्णन को पढ़ने के बाद उनके लेखन टीम में शामिल हुआ। दो फिल्मों की पटकथा को लिखने में 13-14 महीने लग गए, जो क्रमशः 147 और 144 पन्नों के थे। नाट्य संबंधी दायित्वों के कारण सिंक्लैर को परियोजना को छोड़ना पड़ा. उनके संशोधन में, सैम को दूसरों की बात छिपकर सुनने के चलते उसे फ्रोडो के साथ जाने को मज़बूर किया गया और सैम की जगह मैरी और पिपिन ने उस रिंग के बारे में पता लगाया और फ्रोडो से इनका सामना होने के बाद स्वेच्छापूर्वक उसके साथ चले जाते हैं और यह रूप मूल उपन्यास में पाया जाता है। गंदाल्फ के ओर्थांक में बिताए गए समय को फ्लैशबैक से बाहर निकाल लिया गया और लोथलोरियन को काट लिया गया और साथ ही ग्लाड्रियल वही करती है जो वह कहानी में रिवेंडेल में करती है। डेनेथोर अपने बेटे के साथ विचारसभा में आती है। अन्य परिवर्तनों में आर्वेन का फ्रोडो का बचाव करना और गुफा ट्रोल में एक्शन की कड़ी भी शामिल है। यहां तक की आर्वेन का विच-किंग को मारने जाना भी.
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समस्या तब पैदा हुई जब मार्टी कैट्ज को न्यूजूलैंड भेज दिया गया। वहां चार महीने बिताने के बाद उसने मीरामैक्स से कहाकि इन फिल्मों में और करीब 150 करोड़ डॉलर की लागत है और मीरामैक्स के साथ वित्त करने में असमर्थ है और करीब 15 करोड़ डॉलर पहले ही खर्च हो जाने के चलते उन्होंने दो फिल्मों को एक में ही विलय करने का फैसला किया। 17 जून 1998 को बॉब वेन्सटीन ने पुस्तक रुपांतरण को दो घंटे के फिल्मी प्रयोग को प्रस्तुत किया। उन्होंने ब्री और हेम्सडीप के युद्ध को हटाने का सुझाव दिया, सरुमन को "रखने या हटाने" का, बोरोमीर की बहन के रूप में रोहन और गोंडोर को इयोविन को प्रतिस्थापित करना, रिवेंडेल और मोरिया को छोटा करना, साथ ही साथ उरुक हाई द्वारा मैरी और पिपिन के अपहरण को एंट्स के द्वारा रोकना. "आधे से अच्छी चीजें काटने" के विचार पर जैक्सन ने एतराज जताई तो मीरामैक्स ने घोषणा की कि वेटा कार्यशाला द्वारा संपन्न कोई भी पटकथा या काम उनका है। मार्क ओर्डेस्की के साथ न्यू लाइन सिनेमा के मीटिंग से पहले अपने काम के पैंतीस मिनट के वीडियो को दिखाने के लिए जैक्सन लगभग ���ार सप्ताह के लिए हॉलीवुड गए थे। नई लाइन सिनेमा पर रॉबर्ट शये ने वीडियो को देखा और पूछाकि आखिर क्यों वे दो फिल्म बना रहे हैं जबकि किताब तीन संस्करणों के रूप में प्रकाशित है, वे फिल्म ट्रियोलॉजी बनाना चाहते थे। जिसके कारण जैक्सन, वाल्श और बोयेंस को अब तीन नए पटकथा लिखने थे।
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तीन फिल्मों में विस्तार के लिए रचनात्मक स्वतंत्रता तो ज्यादा थी, लेकिन वाल्श, जैक्सन और बोयेंस को अपनी स्क्रिप्ट के मुताबिक उनका पुनर्गठन करना था। तीन फिल्में ट्रियोलॉजी के तीन संस्करणों के बिल्कुल अनुरूप तो नहीं है, लेकिन तीनों हिस्से के रुपांतरण का प्रतिनिधित्व करती हैं। वैसे जैक्सन ने कहानी के लिए टोल्किन से भी अधिक कालानुक्रमिक दृष्टिकोण को अपनाया. फ्रोडो का खोज इनका मुख्य लक्ष्य है और अरागोर्न मुख्य उप कथानक है, और इसके कई क्रम उन दो कथानकों में प्रत्यक्ष रूप से योगदान ना करने वाले कई दृश्यों को छोड़ दिया गया है। संतोषजनक और सुनिश्चित निष्कर्ष बनाने के लिए बहुत प्रयास किया गया था और सुनिश्चित किया गया कि प्रतिपादन उनकी गति को धीमी ना कर दे. नए दृश्यों के बीच, वहाँ तत्वों का भी विस्तार किया गया है जो टोल्किन को संदिग्ध करती है जैसे युद्ध और जीव के रूप में.
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अतिरिक्त नाटक के लिए अधिकांश चरित्रों का फेर-बदल किया गया: अरागोर्न, थियोडेन और ट्रीबर्ड में स्वशंका के तत्वों को जोड़ा गया या परिवर्तित किया गया, जबकि गलाड्रियल, एलरोन्ड और फारामीर के चरिण को स्याह किया गया। बोरोमीर और गोल्लम को अपेक्षाकृत अधिक दयालु जबकि लिगोलस, गिम्ली, सरुमन और डेनोथोर को सरलीकृत के रूप में किया गया। कुछ चरित्र जैसे कि आर्वेन और योमर को किताब के लघु चरित्र जैसे ग्लोरफिंडेल और एर्केनब्रांड के साथ मिला दिया गया है और एक सामान्य मामले की तरह संवाद की पंक्तियों को कभी-कभी दृश्यों की उपयुक्तता के आधार पर स्थानों या पात्रों के बीच बदला गया है। चरित्र-चित्रण के विस्तार के लिए नए दृश्यों को भी जोड़ा गया। फिल्मांकन के दौरान पटकथाओं में आंशिक रूप से उन कलाकारों के योगदान की वजह से विकास होता रहा जो अपने पात्र को अधिक खंगालना चाहते थे। इन पुनर्लेखनों में सबसे अधिक उल्लेखनीय चरित्र आर्वेन, का था जिसे मूल रूप से एक योद्धा राजकुमारी के रूप में योजना बनाई गई थी, लेकिन पुस्तक में देखें तो उसका रूप प्रत्या��र्तित है और जो कहानी में शारीरिक रूप से निष्क्रिय है .
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फिल्म निर्माण का सबसे व्यापक अध्ययन द फ्रोडो फ्रैंचाइज है जिसे फिल्म इतिहासकार क्रिस्टिन थॉमसन द्वारा बनाया गया।
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इस ट्रियोलॉजी में युद्ध और तलवार की कोरियोग्राफी को विकसित करने के लिए फिल्म निर्माताओं ने हॉलीवुड के मान्यता प्राप्त तलवार गुरु बॉब एंडरसन को नियुक्त किया। एंडरसन ने प्रतिभाशाली विग्गो मोर्टेंसन और कार्ल अर्बन के साथ मिलकर फिल्म में कई तलवार युद्ध और स्टंट के विकास के लिए काम किया। द लोर्ड ऑफ द रिंग्स ट्रियोलॉजी में बॉब एंडरसन ने जो भूमिका अदा की है उनकी उस विशिष्टता को फिल्म रिक्लेमिंग द ब्लेड में दिखाया गया है। तलवार मार्शल आर्ट पर आधारित इस वृत्तचित्र में वेटा कार्यशाला और रिचर्ड टेलर, द लोर्ड ऑफ द रिंग्स के चित्रकार जॉन होवे और अभिनेता विग्गो मोर्टेंसन और कार्ल अर्बन को विशेष रूप से प्रदर्शित किया गया है। ट्रियोलॉजी में इनके तलवार से संबंधित भूमिकाओं की चर्चा इसमें की गई है।
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अगस्त 1997 में जैक्सन ने क्रिस्टियन रिवर्स के साथ इस ट्रियोलॉजी की कथा रुपांकन की शुरुआत की और अपने नाविक दल को मीडिल अर्थ के डिजाइन को शुरु करने का भार सौंपा. जैक्सन ने अपने पुराने सहयोगी रिचर्ड टेलर को वेटा कार्यशाला में पांच प्रमुख डिजाइन तत्वों: कवच, हथियार, प्रोस्थेटिक/मेकप, प्राणी और लघुचित्र के नेतृत्व का भार सौंपा. नवंबर 1997 में, प्रसिद्ध टोल्किन व्याख्याता एलन ली और जॉन होवे परियोजना में शामिल हुए. फिल्मों में अधिकांश बिम्ब उनके विभिन्न चित्रों पर आधारित है। प्रोडक्शन डिजाइनर ग्रांट मेजर को ली और होवे के डिजाइन को स्थापत्य कला में परिवर्तित करने की जिम्मेवारी सौंपी गई थी, विह्लस्ट डेन हेनाह ने कला निर्देशन, स्थानों का पता लगाना और सेट के निर्माण का आयोजन के रूप में काम किया।
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जैक्सन की मध्य-धरती की कल्पना को रेंडी कुक द्वारा रे हेरीहौसन की डेविड लीन से मुलाकात के रूप में वर्णित किया गया है। जैक्सन कल्पना के लिए एक दृढ़ यथार्थ और ऐतिहासिक लिहाज चाहते थे और उस दुनिया को तर्कसंगत और विश्वसनीय बनाने का उन्होंने भरसक प्रयास किया। उदाहरण के लिए, न्यूजीलैंड सेना ने फिल्म बनाने के कुछ महीने पहले ही होबीटन को बनाने में मदद की थी ताकि xxx जीव विज्ञान के अनुसार विश्वसनीय जीव प्रतीत होने जैसा डिजाइन किया गया, जैसे गिरे हुए जानवरों को उड़ने में मदद के लिए भारी पंखों को बनाया गया। xx कुल 48,000 हथियारों में से 500 कवच और 10,000 तीर वेटा कार्यशाला के द्वारा बनाया गया। साथ ही उन्होंने कई प्रोस्थेटिक्स जैसे अग्रणी अभिनेताओं के लिए 1,800 होब्बिट के पैरों के जोड़ें, साथ ही पात्रों के लिए कई कान, नाक और सिर बनाया गया और करीब 19,000 पोशाक से भी ज्यादा बुने गए। और प्रत्येक अवलम्ब का डिजाइन कला विभाग द्वारा किया गया था। xxxx
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तीनों फिल्मों के प्रधान फोटोग्राफी, का आयोजन न्यूजीलैंड के कई इलाकों के संरक्षण वाले क्षेत्रों और राष्ट्रीय पार्कों में 11 अक्टूबर 1999 से 22 दिसम्बर 2000 के बीच करीब 438 दिनों तक किया गया था। पिकअप शूटिंग को सलाना 2001 से 2004 तक आयोजित किया गया था। सात भिन्न-भिन्न शूटिंग इकाइयों के साथ इस ट्रियोलॉजी की शूटिंग 150 से भी ज्यादा स्थानों में की गई थी, साथ ही साथ वेलिंगटन और क्वीन्सटाउन के आसपास साउंडस्टेजेस भी लगाए गए थे। जेक्सन ने सारे प्रोडक्शन का निर्देशन किया, इसके अलावा अन्य इकाइयों के निर्देशकों में जॉन महाफ्फिए, ज्यॉफ मर्फी, फ्रैंन वाल्श, बर्री ओस्बौरने, रिक पोर्रस और कुछ अन्य सहायक निर्देशक, निर्माता, या लेखक शामिल थे। जैक्सन सजीव उपग्रह फीड के माध्यम से इन इकाइयों की निगरानी करते थे साथ ही उन्हें स्क्रिप्ट का लगातार पुनर्लेखन करना होता था जिसके कारण उनके उपर अतिरिक्त दबाव बन गया था जिसके चलते उन्हें करीब चार घंटे ही सोने के लिए मिलते थे, इसके अलावा अनेक इकाइयों उनके इस कल्पना का व्याख्या भी करती थी। कुछ स्थानों के अत्यंत सुदूर होने के कारण कभी-कभी हैलीकॉप्टर उस इलाके को ढूंढने में असमर्थ होती थी और फिल्म दल को समय पर घर छोड़ नहीं पाती थीं इसीलिए चालक दल अपने साथ उत्तरजीविता किट रखा करते थे। न्यूजीलैंड संरक्षण विभाग द्वारा प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभावों को नजरअंदाज करने और सार्वजनिक सूचना दिए बिना राष्ट्रीय उद्यानों में फिल्म शूटिंग की अनुमति देने के कारण उनकी कड़ी आलोचना की गई थी। तोंगारिरो नेशनल पार्क में युद्ध के दृश्य फिल्माने से पार्क पर काफी बूरा असर पड़ा था जिसके चलते बाद में पार्क का मरम्मत करना जरूरी हो गया था।
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निम्नलिखित कलाकारों के सदस्यों की सूची है जिन्होंने द लोर्ड ऑफ द रिंग्स फिल्म ट्रियोलॉजी के विस्तारित संस्करण में अभिनय किय�� है या अपनी आवाज दी है।
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| --| --! एरागोर्न|colspan="3"" | विगो मोर्टेनसेन| --! फ्रोडो बेगिन्स|colspan="3" | एलिजाह वूड| --! बोरोमीर| colspan="3" | सीन बीन| --! 'मेरियाडोक' मेरी ब्रांडीबक| colspan="3" | डोमिनिक मोनागहन| --! समवाइज गमगी| colspan="3" | सीन एस्टिन| --! गंदाल्फ| colspan="3" | इयान मैककेलेन| --! गिमली|colspan="3" | जॉन रेज-डेविएस"| --! लेगोलस| colspan="3" | ऑरलैंडो ब्लूम| --! प्रेरेग्रीन 'पिप्पिन' टूक|colspan="3"" | बिली बॉयड| --! colspan="4" style = "background-color: lightblue;" |
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| --| --! बिल्बो बेगिन्स| इयान होल्म| style = "background-color: lightgrey;" | | इयान होल्म| --! श्रीमती ब्रेसगिर्डल | लोरी डुंगे| style = "background-color: lightgrey;" | |style = "background-color: lightgrey;" | | --! बर्लीमन बटरबर | डेविड वेथरले|style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! रोजी कॉटन| सारा मैकलियोड| style = "background-color: lightgrey;" | | सारा मैकलियोड| --! गफ़र गमगी | नॉर्मन फॉरसे| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! एलानोर गमगी | style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | अलेक्जेन्डरा एस्टिन| --! ब्री गेट कीपर | मार्टिन सेडरसन| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! फार्मर मगोट | कैमरॉन रोड्स| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! ओल्ड नोक्स | बिल जॉनसन| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! एवारर्ड प्राउडफूट | नोएल एपेलेबे| style = "background-color: lightgrey;" | | नोएल एपेलेबे| --! मिसेज प्राउडफूट | मेगन एडवर्ड्स| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! ओथो सेकविले | पीटर कोरीगन|style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! लोबेलिआ सेकविले-बेगिन्स | एलिजाबेथ मूडी| style= "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! टेड सेन्डीमेन | ब्रायन सर्जेंट| style= "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! colspan="4" style = "background-color: lightblue;" |
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| --| --! अर्वेन|colspan="3"" | लिव टाइलर| --! लोर्ड सेलेबोर्न| मार्टोन सोकास| style = "background-color: lightgrey;" | | मार्टोन सोकास| --! लोर्ड एलरोन्ड|colspan="3"" | ह्यूगो विविंग| --! लेडी गलाड्रील|colspan="3"" | केट ब्लेन्चेट | --! हल्दीर| colspan="2" | क्रेग पार्कर| style = "background-color: lightgrey;" | | --! Rúmil| Jørn बेन्जोन| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! colspan="4" style = "background-color: lightblue;" |
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| --| --! डमरोड| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | एलिस्टेयर ब्राउनिंग| --! डेनेथोर| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | जॉन नोबल| --! Éomer| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | कार्ल अर्बन| --! Éothain| style = "background-color: lightgrey;" | | सैम कोमेरी| style= "background-color: lightgrey;" | | --! Éowyn| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | मिरांडा ओट्टो| --! फारामीर| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | डेविड वेंहम| --! फ्रेडा| style= "background-color: lightgrey;" | | ओलिविया टेनेट| style = "background-color: lightgrey;" | | --! गेमलिंग| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | ब्रूस हॉपकिंस| --! ग्रीमबोल्ड| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | ब्रूस फिलिप्स| --! Háma| style = "background-color: lightgrey;" | | जॉन लेग| style = "background-color: lightgrey;" | | --! हलेथ| style = "background-color: lightgrey;" | | कालुम गिटिंस| style = "background-color: lightgrey;" | | --! इयोरलस| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | इयान ह्यूजेस| --! किंग ऑफ द डेड| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | पॉल नोरेल| --! मदरिल| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | जॉन बच| --! मोर्वेन| style = "background-color: lightgrey;" | | रोबेन माल्कॉम| style = "background-color: lightgrey;" | | --! किंग Théoden| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | बर्नार्ड हिल| --! Théodred| style = "background-color: lightgrey;" | | पेरिस होवे स्ट्रीव| style = "background-color: lightgrey;" | | --! ट्रीबियर्ड| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | जॉन रेज-डेविएस | --! colspan="4" style = "background-color: lightblue;" |
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| --| --! Sméagol Gollum /|colspan="3"" | एंडी सर्किस| --! गोरबग| style="background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | स्टीफन ऊरे| --! गोथमोग| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | लॉरेंस माकोरे| --! Gríma वोर्मटोंग| style = "background-color: lightgrey;" | | colspan="2" | ब्राड डोरिफ| --! Grishnákh| style = "background-color: lightgrey;" | | स्टीफन ऊरे| style = "background-color: lightgrey;" | | --! लर्ट्ज| लॉरेंस माकोरे| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! मउहुर| style = "background-color: lightgrey;" | | रोबी मगासिवा| style = "background-color: lightgrey;" | | --! सोरन का मुँह| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | ब्रूस स्पेंस| --! द वन रिंग| एलन हावर्ड | style = "background-color: lightgrey;" | | एलन हावर्ड | --! सरुमन|colspan="3"" | क्रिस्टोफर ली| --! सउरन| सला बेकर| style = "background-color: lightgrey;" | | सला बेकर| --! शगरट| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | पीटर टैट| --! शार्कु| style = "background-color: lightgrey;" | | जेड ब्रॉफी| style = "background-color: lightgrey;" | | --! स्नागा| style = "background-color: lightgrey;" | | जेड ब्रॉफी| style = "background-color: lightgrey;" | | --! Uglúk| style = "background-color: lightgrey;" | | नेथानियल लीज| style = "background-color: lightgrey;" | | --! विच-किंग ऑफ अंगमार| शेन रंगी ब्रेंट मैकइनटायर एंडी सर्किस | style = "background-color: lightgrey;" | | लॉरेंस माकोरा एंडी सर्किस | --! colspan="4" style = "background-color: lightblue;" |
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| --| --! Déagol| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | थॉमस रोबिन्स| --! एलेनडिल| पीटर मैकेन्जी| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! गिल-गलाड| मार्क फर्ग्यूसन| style = "background-color: lightgrey;" | | style = "background-color: lightgrey;" | | --! इसिलडुर| हैरी सिंक्लेयर| style = "background-color: lightgrey;" | | हैरी सिंक्लेयर| --|)
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पहली फिल्म में 540 के आसपास प्रभावी शॉट्स थे, दूसरे में 799 और तीसरे में 1,488 थे। . इसके विस्तारित संस्करण में यह बढ़कर कुल 3,420 हो गई। 260 प्रभावपूर्ण दृश्यों के कलाकारों ने ट्रियोल़जी पर काम करना शुरू किया और द टू टॉवर्स में यह नम्बर करीब दोगुना हो गया। चालक दल के अग्रणी जिम राइजियल और रेंडी कुक ने लंबे समय तक काम किया और वे अक्सर कम समय में विशेष प���रभाव के लिए रात-रात भर काम किया करते थे। जैक्सन की सक्रिय कल्पना एक प्रेरणा थी। उदाहरण के लिए, हेल्म्स डीप के कई प्रमुख शॉट द टू टावर्स के निर्माणोत्तर के छह हफ्ते के भीतर लिए गए और द रिटर्न ऑफ द किंग में भी इसी तरह छह हफ्ते में प्रमुख शॉट लिए गए।
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प्रत्येक फिल्म के दिसम्बर में रिलीज़ होने से पहले उत्तर निर्माण के लिए पूरे साल भर का समय का लाभ प्राप्त था जो अक्सर अक्टूबर-नवम्बर में खत्म हो जाता था, जिसके तुरंत बाद ही फिल्मकर्मी अगली फिल्म के कार्य में जूट जाते थे। इस अवधि के उत्तरार्ध में स्कोर निर्माण और संपादन के निरीक्षण के लिए जैक्शन लंदन जाते थे, जबकि द डोरचेस्टर होटल में उनके पास परिचर्चा के लिए कम्प्यूटर फीड होती थी और साथ ही पाइनवूड स्टूडियो से इंटरनेट कनेक्शन का एक मोटा पाइप भी था जिससे वे विशेष प्रभावों को देखते थे। उनके पास एक पोलीकॉम वीडियो लिंक और 5.1 सराउण्ड साउण्ड था, जिससे आमतौर पर वे जहां भी होते थे वहीं से वे मीटिंग कर सकते थे और नए संगीत और ध्वनि प्रभाव को भी सुन सकते थे। विस्तारित संस्करण में भी वर्ष के शुरु में विशेष प्रभावों और संगीत को पूरा करने का कम समय होता था।
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दबाव से बचने के लिए जैक्सन ने प्रत्येक फिल्म के लिए एक अलग संपादक को काम पर रखा था। जॉन गिल्बर्ट ने पहली फिल्म पर काम किया, माइक होरटों ने दूसरे और जैक्सन के पुराने सहयोगी ] ने तीसरे फिल्म पर काम किया। प्रतिदिन अक्सर चार घंटे तक संपादन का कार्य किया जाता था, जिसमें 1999-2002 के दौरान लिए गए दृश्यों का संपादन कर लगभग का अनिंतम संग्रह बनाया गया था। कुल मिलाकर, साठ लाख फूट के फिल्म को विस्तारित डीवीडी के कुल समय से संपादित कर 11 घंटे और 23 मिनट में किया गया। यह फिल्म को आकार देने का अंतिम क्षेत्र था, जब जैक्सन को एहसास हुआ कि कभी-कभी सर्वश्रेष्ठ पटकथा स्क्रीन पर अनावश्यक हो सकता है, चूंकि उन्होंने विभिन्न टेक से प्रतिदिन दृश्यों की कटु आलोचना की।
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पहली फिल्म का संपादन अपेक्षाकृत हलका था, लेकिन बाद में जेक्शन विस्तारित संस्करण के संकल्पना के साथ आए, हालांकि नई लाइन की स्क्रीनिंग के बाद उन्हें प्रस्तावना के शुरु के लिए फिर से संपादित करना था।xxx फिल्म कर्मियो ने हमेशा स्वीकार किया था कि बनाने के रूप से द टू टावर्स सबसे कठिन फिल्म था, चूंकि इसका कोई शुरूआत या अंत नहीं था और साथ ही अतिरिक���त समस्या के रूप में उचित ढ़ग से कहानी की इंटर-कटिंग की थी।xxx जैक्सन ने फिल्म के उन हिस्सों का संपादन का कार्य जारी रखा जिन हिस्सों का आधिकारिक तौर पर समय समाप्त हो चुका था जिसके परिणामस्वरुप कुछ दृश्यों को द रिटर्न ऑफ द किंग में ले जाया गया, जिसमें Andúril का पूनर्निर्माण और गोल्लुम की पृष्ठ कहानी और सारुमन की मृत्यु शामिल है। बाद में, सरुमन की मृत्यु को विवादास्पद ढ़ग से सिनेमा संस्करण से काट दिया गया था जब जैक्सन को लगा कि कारगर ढंग से तीसरी फिल्म शुरू करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। तीसरी फिल्म के उत्तर निर्माण की तरह सभी हिस्सों के संपादन कार्य अव्यवस्थित थे। सही मायने में जैक्सन ने पहली बार पूरी फिल्म को वेलिंगटन के प्रीमियर में देखा था।
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कई फिल्माए गए दृश्य अप्रयुक्त रहे, यहां तक की विस्तारित संस्करण में भी. कटे दृश्यों में शामिल हैं:
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पीटर जैक्सन ने कहा है कि वह इन अप्रयुक्त दृश्यों में से कुछ दृश्यों का इस्तेमाल भविष्य में इस फिल्म ट्रियोलॉजी के "अल्टीमेट एडीशन" में करेंगे, जिसे होम वीडियो में रिलीज़ की जाएगी . इन दृश्यों को फिर से फिल्मों में नहीं डाला जाएगा लेकिन अलग से देखने के लिए उपलब्ध कराई जाएगी. इस संस्करण में संपादित कर हटाए गए टेक भी शामिल होंगे।
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साँचा:Sound sample box align right
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साँचा:Sample box endहावर्ड शोर ने इस ट्रियोलॉजी के संगीत की रचना की, योजना बनाई, प्रबंधन करवाया और निमार्ण किया। अगस्त 2000 में उन्हें फिल्म की संगीत के लिए लिया गया और उन्होंने सेट का दौरा करते हुए फिल्म के भाग 1 और 3 के असेम्बली कट को देखा था। शोर ने विभिन्न पात्रों, संस्कृति और स्थानों को दर्शाने के लिए कुछ विशिष्ट स्वर लहरियों का प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए, होब्बिट्स के साथ-साथ देश के एक विशेष भाग के लिए वहां विशिष्ट स्वर लहरियां हैं।
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ये स्कोर मुख्य रूप से लंदन फिलहारमोनिक आर्केस्ट्रा के द्वारा बजाया गया था, जिसमें बेन डेल मेस्ट्रो, इंया, रेनी फ्लेमिंग, सर जेम्स गॉलवे, एनी लेंनोक्स और एमिलिअना तोर्रिनी जैसे कई कलाकारों ने अपना योगदान दिया। यहां तक कि अभिनेता बिली बोयड, विग्गो मोर्तेंसेन, लिव टेलर, मिरांडा ओट्टो और पीटर जैक्सन स्कोर के लिए योगदान दिया। फ्रैंन वाल्श और फिलिप बोयेंस भी विभिन्न संगीत और गाने लिखे हैं, जिसे डेविड सालो ने टोल्किन भाषाओं में अनुवाद किया है। तीसरी ��िल्म के अंतिम गीत इंटू द वेस्ट को एक युवा फिल्म निर्माता कैमरॉन डंकन को श्रद्धांजली दी गई है जो जैक्सन और वाल्श के दोस्त थे और जिनकी मृत्यु 2003 में कैंसर से हुई थी।
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शोर ने द फैलोशिप के अनेक अलग-अलग चरित्रों की धून की बजाए एक मुख्य धून को बनाया और ट्रियोलॉजी के विभिन्न बिंदुओं को इसे ताकत और कमजोरी की मात्रा पर दर्शाया गया। उस के शीर्ष पर, अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व के लिए अलग-अलग धून बनाए गए थे। ग्रहित रूप से, शोर को संगीत की जितनी मात्रा तीसरे फिल्म के लिए रोज लिखनी पड़ती थी वह नाटकीय रूप से करीब सात मिनिट तक बढ़ गई थी।
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ध्वनि तकनीशियनों ने वर्ष के शुरुआती समय को उपयुक्त ध्वनि ढूंढ़ने में बिताया. कुछ जानवरों, जैसे बाघ और वालरस की आवाजें खरीदे गए थे।
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अन्य कई ध्वनियों के लिए तकनीशियनों ने न्यूजीलैंड के स्थानीय लोगों के साथ काम किया। मोरिया क्रम में जिस तरह का प्रभाव है उसी प्रकार की ध्वनियों के प्रतिध्वनि के लिए उन्होंने पुराने सुरंगों में फिर से रिकॉर्ड किया। द टू टॉवर्स में 10,000 न्यूजीलैंड के रग्बी प्रशंसकों ने जैक्सन के साथ उरुक-हाई के सेना की ध्वनि प्रदान की जिसमें जैक्शन मध्य समय के दौरान कंडक्टर के रूप में कार्य किया। उन्होंने रात में कब्रिस्तान में ध्वनि की रिकॉर्डिंग के लिए समय बिताया, इसके अलावा द रिटर्न ऑफ द किंग में पत्थरों की फायरिंग और लैंडिंग की ध्वनि के लिए निर्माण कार्य के श्रमिकों द्वारा पत्थर गिराए जाने की आवाज़ की रिकॉर्डिंग भी उनके पास थी। 2003 में जैक्शन द्वारा नए स्टूडियो की बिल्डिंग का अधिकार प्राप्त करने से पहले, द फिल्म मिक्स में मिश्रण का काम अगस्त और नवम्बर के बीच पूरा हो गया था। हालांकि, भवन का निर्माण अभी तक ठीक से पूरा भी नहीं हुआ था कि द रिटर्न ऑफ द किंग के लिए मिश्रण का कार्य शुरू कर दिया गयाथा।
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इस ट्रियोलॉजी का ऑन-लाइन प्रोमोशनल ट्रेलर सबसे पहले 27 अप्रैल 2000 को जारी किया था और जारी करने के पहले 24 घंटे में ही 17 लाख हिट दर्ज की गई और इसी के साथ ही इसने डाउनलोड के सारे रिकार्ड तोड़ दिए. इसके ट्रेलर के लिए अन्य कट के अलावा ब्रेवहार्ट और शॉशैंक रिडेम्पशन के साउण्डट्रेक से चयन किया गया। सन् 2001 में, कांस फिल्म महोत्सव में इस ट्रियोलॉजी से 24 मिनिट का फुटेज दिखाया गया था जो मुख्य रूप से मोरिया क्रम से लिया गया था और इसकी का��ी सराहना की गई। साथ ही इस शो में मध्य धरती की तरह दिखने वाला एक क्षेत्र को डिजाइन किया गया था। इस फुटेज का पूरा विवरण यहाँ से प्रप्त किया जा सकता है:
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19 दिसम्बर 2001 को द लार्ड ऑफ द रिंग्स: द फैलोशिप ऑफ द रिंग को रिलीज़ किया गया था। अमेरिका में इसके रिलीज़ होने के पहले हफ्ते ही 47 करोड़ डॉलरऔर विश्व भर में लगभग 871 करोड़ डॉलर की कमाई हुई. द लोर्ड ऑफ द रिंग्स: द टू टावर्स की एक पूर्वावलोकन फिल्म के अंतिम क्रेडिट से पहले डाला गया था।
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इसका प्रचारक ट्रेलर बाद में जारी किया गया था। इस ट्रेलर में फिल्म रिक्वेम फॉर ए ड्रीम से कुछ संगीत को फिर से बनाया गया है। 18 दिसम्बर 2002 को द लोर्ड ऑफ द रिंग्स: द टू टावर्स रिलीज़ किया गया था। अमेरिका में इसने अपने पहले सप्ताहांत में अपने पूर्ववर्ती से 62 करोड़ डॉलर ज्यादा की कमाई की और विश्व भर में 926 मिलियन डॉलर की कमाई हुई.
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23 सितम्बर 2003 को इसका प्रचारक ट्रेलर विशेष रूप से नई लाइन सिनेमा फिल्म सेकंडहैंड लायंस से पहले दिखाया गया। 17 दिसम्बर 2003 को यह रिलीज़ हुई और अमेरिका में पहले सप्ताह के अंत में इसने कुल 72 लाख डॉलर की कमाई की और पूरे विश्व भर में 1 अरब डॉलर का कमाई कर यह दुनिया की दूसरी बड़ी फिल्म बन गई।
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प्रत्येक फिल्म में अगली फिल्म का पूर्वावलोकन के साथ मानक टू-डिस्क संस्करण में रिलीज़ की गई थी। थियेटर कट की सफलता से वर्धित संस्करण के करीब चार डिस्क में नए संपादन के साथ विशेष प्रभावों और संगीत को जोड़ा गया। ये निर्देशक की कट नहीं है लेकिन जैक्सन ने कहा है कि उन्हें थियेटर संस्करण पसंद है।
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फिल्म के वर्धित कट और उससे संबंधित विशेष लक्षण डिस्क के दो भाग में समाहित हैं, ये विशेष वर्धित संस्करण डीवीडी सेट को निम्न रूप में जारी किया गया है:
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इस विशेष वर्धित डीवीडी संस्करण में फैलोशिप की यात्रा का अस्पष्ट मानचित्र भी था।
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28 अगस्त 2006 में शाखा संस्करण के साथ-साथ कोस्टा बोट्स द्वारा एक नई फीचर लंबाई वाले वृतचित्र, दोनों संस्करणों को एक साथ एक परिसीमित संस्करण में किया गया। नवम्बर 14, 2006 को इस पूरी ट्रियोलॉजी को छह डिस्क में जारी किया गया था।
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मई 2008 में जैक्सन ने कहा कि ट्रियोलॉजी को उच्च परिभाषा ब्लू रे प्रारूप में जारी करने के लिए उन्होंने वार्नर Bros. के साथ काम किया था, हालांकि जारी करने की तिथि की पुष्टि नहीं की गई थी।
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16 अप्रैल 2009 को वार्नर Bros. ने ये घोषण��� की कि ट्रियोलॉजी का थियेटर संस्करण को ब्लू रे बॉक्स सेट में 2009 के उत्तरार्ध में जारी की जाएगी. जैक्सन ने यह भी कहा है कि वर्धित संस्करण का विकास ब्लू रे के लिए किया गया है और 2011 में द होब्बिट के फिल्मी रुपांतरण के साथ इसे भी जारी किया जाएगा.
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जुलाई 2009 में जैक्सन ने एक साक्षात्कार में इस बात की घोषणा की कि इसके वर्धित संस्करण को 2010 के किसी समय में संभावित नए विशेष लक्षणों के साथ जारी किया जाएगा.
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14 दिसम्बर 2009 को यह घोषणा की गई कि तीनों फिल्मों को 6 अप्रैल 2010 को ब्लू रे पर जारी किया जाएगा. प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि वर्धित संस्करण को "बाद की तारीख में" जारी किया जाएगा. ब्लू-रे घोषणा के साथ यह भी घोषणा की गई थी कि पहली बार सभी प्रमुख डिजिटल सेवा प्रदाताओं से तीनों फिल्मों के डिजिटल खरीदी की जा सकती है।
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द लोर्ड ऑफ द रिंग्स ट्रियोलॉजी पूरे विश्व भर में अब तक की सर्वोच्च आय अर्जित करने वाली मोशन पिक्चर ट्रियोलॉजी है, जो मूल स्टार वार्स त्रयी और द गॉडफ़ादर से भी बेहतर रहीं। इस फिल्म ट्रियलॉजी ने कुल 2.91 अरब डॉलर की कमाई की। साथ ही इस फिल्म ट्रियलॉजी ने अकादमी पुरस्कार जीतने की कुल संख्या के लिए भी एक रिकार्ड कायम किया।
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ज्यादातर आलोचकों ने भी इस ट्रियोलॉजी की प्रशंसा की, लॉस एंजिल्स टाइम्स में केनेथ तुरन ने लिखा है कि "भविष्य में इस प्रकार का ट्रियोलॉजी बनाना मुश्किल है, अगर बना भी तो इसकी बराबरी नहीं कर सकता." विशेष रूप से, इयान मैककेलेन, सीन अस्टिन, सीन बीन, एंडी सेर्किस और बर्नार्ड हिल के अभिनय को दर्शकों ने काफी सराहा और साथ ही युद्ध के विशेष प्रभावों और गोल्लम की भी प्रशंसा की गई। कुछ आलोचक जैसे रोगर एबार्ट ने शिकागो सन टाइम्स में इस ट्रियोलॉजी को उच्च रैंक तो नहीं दिया लेकिन विशेष प्रभावों की सराहना करते समय उन्होंने कहानी की महता को दर्शाया, हालांकि उनके उस वर्ष के प्रथम 10 की सुची में कोई भी फिल्म दिखाई नहीं देती. कुछ आलोचको द्वारा फिल्म के धीमी गति से बढ़ने और उसकी लम्बाई की आलोचना की गई, फिलाडेलफिया विकली के अनुसार "यह शानदार सेट टुकड़ों का एक संग्रह है जो बिना किसी गति के एक के बाद एक चलती है।" हालांकि कुल मिलाकर, rottentomatoes.com पर फिल्म आलोचकों में 94% आलोचकों की आम राय ने फिल्म को एक सकारात्मक दर्ज़ा दिया, .
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वैसे ये ट्रियोलॉजी अनेक टॉप 10 फिल्म सुची में, जैसे डलास-फोर्ट वर्थ फिल्म क्रिटिक असोसिएशन के टॉप 10 फिल्म, टाइम पत्रिका की ऑल-टीइम 100 मूविज, जेम्स बेरारडिनेली टॉप 100 और स्क्रीन डाइरेक्टरी के ऑल टाइम के टॉप टेन फिल्मों में देखा गया। .. वर्ष 2007 में, यूएसए टूडे ने इस ट्रेयोलॉजी को पिछले 25 वर्षों की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म के रूप में माना.
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द लोर्ड ऑफ द रिंग्स ट्रियोलॉजी की बिक्री उसके समकालीन ट्रियोलॉजी जैसे द पाइरेट्स ऑफ द कैरिबियन फिल्म, द स्पाइडर मैन के सीरीज़ और स्टार वार्स के प्रिक्वेल्स आदि से ज्यादा हुए.
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ट्रियोलॉजी के तीनो फिल्मों का 30 अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकन हुआ था जिनमें से इन्हें 17 पुरस्कार मिले और यह किसी भी ट्रियोलॉजी फिल्म के लिए एक रिकॉर्ड था। द रिटर्न ऑफ द किंग हर वर्ग में व्यापक रूप से विजित हुआ, जिस पुरस्कार के लिए भी इसका नामांकन हुआ था, इसे बेस्ट पिक्चर के लिए ऑस्कर पुरस्कार भी मिला था जिसे परोक्षतः व्यापक रूप में पूरे ट्रियोलॉजी के लिए पुरस्कार माना जाता था। बेन हर और टाइटेनिक के साथ द रिटर्न ऑफ द किंग ने भी कुल 11 अकादमी पुरस्कार जीतकर एक रिकॉर्ड कायम किया . इन तीनों फिल्मों के किसी भी अभिनेता ने ऑस्कर नहीं जीता, हालांकि द फैलोशिप ऑफ द रिंग के अभिनेता इयान मैककेलेन का उनके कार्य के लिए नामांकन जरुर हुआ था।
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अकादमी पुरस्कार के साथ-साथ ट्रियोलॉजी के प्रत्येक फिल्मों ने एमटीवी मूवी अवार्ड्स 'सर्वश्रेष्ठ फिल्म और वेस्ट ड्रामाटिक प्रेजेन्टेशन केटेगोरिज के लिए हुगोपुरस्कार जीता। पहली और तीसरी फिल्म ने BAFTA के सर्वश्रेष्ठ फिल्म का भी पुरस्कार जीता। द टू टावर के साउंडट्रैक ने नामांकन हासिल नहीं किया, क्योंकि पिछले साउंडट्रैक से संगीत शामिल करने वाले साउंडट्रैक को नामांकन के लिए पात्रता पर रोक लगाने के नियम की वजह से. द रिटर्न ऑफ द किंग के समय यह नियम पलट गया और इसे सर्वश्रेष्ठ संगीत स्कोर के लिए ऑस्कर पुरस्कार से नवाजा गया।
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एक ओर जहां आम तौर पर फिल्मों में किताब से सारे चीजों को लिया गया है वहीं किताब के कुछ पाठकों का मानना है कि फिल्म में कुछ बदलाव किए गए हैं। फिल्म के चरित्रों में कई बदलाव किए गए हैं जैसे गंदाल्फ़, अरागोर्न, आर्वेन, डेनेथोर, फ़ारामीर, गिम्ली, यहां तक कि मुख्य नायक फ्रोडो के रूप में भी बदलाव किए गए हैं साथ ही घटनाओं में भी कई परिवर्तन किए गए हैं, जब किताब से फिल्म की तूलना क��� जाए तो मालूम चलता है कि किताब से इसका स्वर और विषय कितना अलग है।
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कई लोगों का मानना है कि उपन्यास के अंत से पहले वाले अध्याय "द स्कोरिंग ऑफ द शीर" को पूर्ण रूप से मिटा दिया गया है, जिसे टोल्किन कथ्यपरक रूप से आवश्यक मानते थे।
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टोल्किन की रचनाओं पर काम करने वाले वेन जी हम्मोंड ने पहली दो फिल्मों के बारे में कहा है:
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पुस्तक के कुछ प्रशंसक इस बात से असहमत है कि इस तरह के बदलाव दर्शकों के लिए किए गए हैं, प्रशंसकों को मूल के करीब लाने के लिए ही बहुत सारे परिवर्तन किए गए हैं। एक संयुक्त 8 घंटे का ट्रियोलॉजी संस्करण मौजूद है, जिसे द लोर्ड ऑफ द रिंग्स: द प्यूरिस्ट एडीशन कहा जाता है।
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ट्रियोलॉजी के प्रशंसकों ने दावा किया है कि यह पुस्तक का एक सही व्याख्या है और किए गए अधिकांशतः परिवर्तन आवश्यक थे। फिल्म के सह लेखक बोयन्स ने कहा कि जिन लोगों ने ट्रियोलॉजी पर काम किया है, वे इस किताब के प्रशंसक हैं, इन लोगों में क्रिस्टोफर ली भी शामिल हैं जो वास्तव में टोल्किन से व्यक्तिगत रूप से मिले भी थे, साथ ही उन्होंने एक बार कहा कि कोई बात नहीं है, यह सिर्फ उनकी किताब पर ब्याख्या है।
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2005 में, मिथोपोइक सोसायटी ने इस ट्रियोलॉजी और इसके लोकप्रिय संस्कृति पर प्रभाव पर महत्वपूर्ण निबंध प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था टोल्किन ऑन फिल्म:ऐस्से ऑन पीटर जैक्शन द लोर्ड ऑफ द रिंग्स . इस पुस्तक की काफी सराहना की गई चूंकि ये काफी संतुलित थी और इसके लेखक को "सही मायने में महत्वपूर्ण" माना गया, क्योंकि वे "फिल्म कैसे सफल और असफल है, दोनों पर विचार रखती है और साथ ही उसके लोकप्रियता की प्रशंसा और शोक दोनों पर नज़र डालती है". निबंध के अन्य विषयों में, 'फिल्मों के मूल्यांकन,' टोलकेन के मूल विषय की तुलना में महिलाओं का प्रस्तुतिरण, फ़िल्म के समर्थन में प्रयुक्त दलीलों की आलोचना और उपन्यास और इसके स्त्रोतों से फिल्म में नायक और वीरता का प्रस्तुतिकरण का मूल्यांकन के रूप में शामिल है। कैथी अकेर्स-जोर्डन, जेन चैंस, विक्टोरिया गाइडोसिक और मॉरीन थूम का तर्क है कि टोल्किन के लेखन और फिल्म में अंतर होने के बावजूद महिलाओं का चित्रण, विशेष रूप से आर्वेन चित्रण समग्र रूप से कथ्यपरक है . फिल्म को किताब का रुपांतर मानने वाली कई दलीलों की डेविड ब्रैटमैन ने कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि "यह जैक्शन की कल्पना है, टोल्किन की ��हीं ", "लेकिन उन्होंने इस पर वाकई मज़बूती से काम किया है ", "उनका यह प्रयास किताब के नए पाठकों को जरुर पैदा करती है ", "अगर देखा जाए तो पूरी फिल्म करीब 40 घंटे की होगी " और पुस्तक अभी भी शेल्फ पर रखी हुई है। . उन्होंने ये भी लिखा है कि " पीटर जैक्सन के पास टोल्किन की नौ वर्षों की समझ है" और उन्होंने फिल्म की दृश्यों और मंच सज्जा को ए का दर्जा, किताब से अलग स्वतंत्र कार्य को बी का दर्जा, टोल्किन की कहानी और व्यौरेवार रूप से वर्णन के प्रति व्श्वसनीयता को सी का दर्जा और टोल्किन की भावना और लहजे के प्रति ईमानदारी को डी का दर्जा दिया है। डैन टिमोन्स लिखते हैं कि फ्रोडो का चित्रण, गुप्त रूप से फिल्म के विषय वस्तु और आंतरिक तर्क को हानि पहुंचाती है, जिसे उन्होंने टोल्किन के मूल रूप को कमजोर माना है। कायला मैककिनी विगिंस का मानना है कि टोल्किन के लेखन और स्रोत सामग्री में नायक का जो लक्षण है उसे फिल्म में गलत समझा गया है और फिल्म में नायक के चरित्र में विकास की जगह साहसिक कार्य पर ध्यान दिया गया है। जेनेट ब्रेन्नन क्रोफ्ट ने टोल्किन के खुद के संभावना और सपाट के शर्तों, जिसका इस्तेमाल उन्होंने प्रस्तावित फिल्म के पटकथा की आलोचना के लिए किया था, का प्रयोग करते हुए आलोचना की है। उन्होंने जैक्सन के "बहुत ज्यादा कम समय" की मनोदशा के साथ टोल्किन की सूक्ष्मता की तुलना की है।
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इन फिल्मों के रिलीज होने के बाद देखा गया कि टोल्किन के द लोर्ड ऑफ द रिंग्स और अन्य किताबों के प्रति लोगों के मन में रुचि जागी और लोकप्रिय संस्कृति पर उनका असर तेजी से बढ़ने लगा। ट्रियोलॉजी पर टोल्किन परिवार में मतभेद होने का अफवाह भी फैला था जिसमें क्रिस्टोफर टोल्किन और सिमोन टोल्किन के बीच इसके फिल्म में रुपांतरण के विचार के सही होने या नहीं होने को लेकर असहमति बनी हुई थी। क्रिस्टोफर टोल्किन ने इन दावों का खंडन करते हुए कहाकि, "मेरा खुद का मानना है कि विशेष रूप से द लोर्ड ऑफ द रिंग्स दृश्य नाट्य रूप में परिवर्तन के लिए अनुपयुक्त है। जो फिल्म के लिए सुझाव दिया गया है उसे मैं अस्वीकृत करता हूं, यहां तक कि जिनके विचार मुझसे अलग हैं मैं उनके बारे में बुरा सोचता हूं, ये पूरी तरह से बेबुनियाद है। साथ ही उन्होंने कहा कि "ऐसी कोई भावना व्यक्त नहीं की थी।" 2006 में इस किताब का संगीत रुपांतरण टोरंटो, ओंटारियो, कनाडा में प्रारम्भ किया गया था लेकिन भद्दी आलोचना के चलते बंद कर दिया गया। 2007 की गर्मियों में लंदन, ब्रिटेन में इसके लघु संस्करण की शुरुआत की गई। फिल्मों की सफलता से वीडियो गेम और व्यापार के कई अन्य प्रकारों का खूब उत्पादन हुआ।
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ट्रियोलॉजी की सफलता के परिणामस्वरुप पीटर जैक्सन फिल्म व्यवसाय में स्टीवन स्पेलबर्ग और जार्ज लुकास की तरह एक खिलाड़ी बन गए और उद्योग के कुछ दिग्गजों जैसे ब्रायन सिंगर, फ्रैंक डाराबोन्ट और जेम्स कैमरोन के साथ दोस्ती की प्रक्रिया में आने लगे। जैक्सन ने उसके बाद से अपनी फिल्म निर्माण कंपनी, विंगनट फिल्म्स साथ ही साथ विंगनट इंटरएक्टिव, याने एक वीडियो गेम कंपनी की स्थापना की। साथ ही उन्हें वर्ष 2005 में किंग काँग का रीमेक बनाने का मौका भी दिया गया था। हालांकि ये फिल्म द लोर्ड ऑफ द रिंग्स की तरह सफलता प्राप्त नहीं कर सकी लेकिन इस फिल्म की काफी सराहना की गई और बॉक्स ऑफिस पर सफल हुई। जैक्सन को न्यूजीलैंड का "फैवरिट सन" बुलाया जाता था। 2004 में हावर्ड शोर द लोर्ड ऑफ द रिंग्स सिम्फनी के साथ यात्रा की जिसका स्कोर दो घेटे का था। हैरी पॉटर फिल्मों के साथ साथ इस ट्रियोलॉजी ने फंतासी फिल्म विधा में नए सिरे से रुचि जगाई. सभवतः ट्रियोलॉजी में न्यूजीलैण्ड के स्थानों के प्रदर्शन के कारण न्यूजीलैंड का पर्यटन काफी ऊंचा उठने लगा और देश का पर्यटन उद्योग दर्शकों की परिचित छवियों के प्रति जागरुक होने लगा।
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दिसंबर 2002 में, The Lord of the Rings Motion Picture Trilogy: The Exhibition न्यूजीलैंड2007 के अनुसार के वेलिंगटन में ते पापा संग्रहालय खोला गया, यह प्रदर्शनी दुनिया भर के सात अन्य शहरों में भी लगाया गया।
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द लोर्ड ऑफ द रिंग्स से अतिरिक्त मुनाफे पर अदालती मामले भी विरासत के रूप में दर्ज है। सोलह कलाकार सदस्यों ने ने उनकी उपस्थिति से सामग्री की बिक्री से राजस्व न मिलने के चलते मुकदमा किया। 2008 में अदालत ने इस मामले का समाधान किया। वैसे एपेलेबी के लिए मामला का समाधान होने में काफी देर हो चुका था क्योंकि 2007 में ही एपेलेबी की मौत कैंसर से हो गई थी। 2004 में शाऊल ज़ाइन्ट्ज ने भी एक मुकदमा दायर कर दावा किया कि उन्हें उनकी रॉयल्टी के सभी भुगतान नहीं किए गए थे। जैक्सन ने पहली फिल्म के लाभ को लेकर अगले साल खुद स्टूडियो पर मुकदमा कर दिया और पूर्व कड़ी की फिल्मों के विकास को 2007 तक धीमा कर दिया। फरवरी 2008 में टोल्किन ट्रस्ट ने अधिकार संबंधी मूल समझौते का उल्लंघन करने के लिए एक मुकदमा दायर किया, जिसके तहत वे अपने कार्य पर आधारित किसी फिल्मों के सकललाभ के 7.5% की कमाई कर सकती है। ट्रस्ट ने 150 करोड़ डॉलर के मुआवजे की मांग की। हालांकि एक जज ने इस विकल्प का खंडन किया, लेकिन अधिनियमों के अनुसार अनुबंध के तहत स्टूडियो की अनदेखी करने से मुआवजा जीतने के लिए उन्हें अनुमति दिया। 8 सितम्बर 2009 को ट्रस्ट और नई लाइन के बीच इस विवाद के समाधान की घोषणा की गई .
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निबंध का प्रभु में व्यवसाय के रूप फिल्म चक्र की लंबाई समीक्षा व्यवसाय के विषय, या फोन पर मूल पुस्तक के साथ तुलना में.xxxx मूल रूप से द मार्स हिल रिव्यू में प्रकाशित.
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दक्षिण अमेरिका
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पैराग्वे, आधिकारिक तौर पर पैराग्वे गणराज्य, मध्य दक्षिण अमेरिका में एक स्थल-रुद्ध देश है, यह अर्जेंटीना द्वारा दक्षिण और दक्षिणपश्चिम, ब्राजील द्वारा पूर्व और पूर्वोत्तर, और बोलीविया से उत्तर-पश्चिम में घिरा हुआ है। यह पैराग्वे नदी के दोनों किनारों पर बसा हुआ है, जो देश के केंद्र होते हुए उत्तर से दक्षिण तक बहती है। दक्षिण अमेरिका में इसके केंद्रीय स्थान के कारण, इसे कभी-कभी कोराज़ोन डी सुदामेरिक भी कहा जाता है। पैराग्वे अफ्रीका-यूरेशिया के बाहर दो स्थलरुद्ध देशों में से एक है, और अमेरिका में सबसे छोटा स्थल-रुद्ध देश है।
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पैराग्वे संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश के साथ-साथ कई अंतरराष्ट्रीय समूहों जैसे अमेरिकी देशों का संगठन, लैटिन अमेरिकी एकीकरण संघ, दक्षिणी शंकु आम बाजार और इंटरपोल का सक्रिय प्रतिभागी है। यह दुनिया के कुछ एक देशों और एकमात्र दक्षिण अमेरिकी राष्ट्र है जिसने आधिकारिक तौर पर चीन जनवादी गणराज्य के बजाय ताइवान को मान्यता दी है।
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गणराज्य का नाम, देश के उत्तरी भाग से क्षिणी हिस्से तक बहने वाली पैराग्वे नदी के नाम पर रखा गया था। नदी के नाम की उत्पत्ति में कम से कम चार संस्करण हैं, हालांकि गुरानी में नाम का शाब्दिक अनुवाद है। गुरानी में "पैरा" का अर्थ है कई रंगों का, "गुआ" का अर्थ है उससे संबंधित या उद्गम स्थल और "वाई" का मतलब पानी, नदी या झील है।
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आधुनिक पैराग्वे के पहले निवासी विभिन्न अमेरिकी आदिवासी थे, जो सेमिनोमैडिक थे जिनकी योद्धा संस्कृति थी। 16वीं शताब्दी की शुरुआत तक यूरोपीय लोगों का आगमन होने लगा जिसमें सबसे पहले स्पेनिश विजयविद जुआन दे सलाज़र दे एस्पिनोज़ा के नेतृत्व में पहुंचे और 15 अगस्त, 1537 को असुन्सियोन उपनिवेशिक बस्ती की स्थापना की। जोकि जल्दी ही एक शहर और स्पेनिश औपनिवेशिक प्राधिकरण का केंद्र बन गया। यह ईसाइ बस्तियों और मिशन का मुख्य स्थल भी था, जो 150 वर्षों तक चला, जब तक स्पेनिश अधिकारियों ने 1767 में देश से धार्मिक आदेश निष्कासित नहीं कर दिय। 14 मई, 1811 को स्पेनिश औपनिवेशिक प्रशासन को हटाकर देश स्वतंत्र हो गया।
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पैराग्वे कई वर्षों तक अपने पड़ोसियों, अर्जेंटीना, ब्राजील और उरुग्वे के बीच चली लड़ाई की श्रृंखला में शामिल रहा। तीन गठबंधन के युद्ध में जो पांच सालों तक चलता रहा, पैराग्वे अपने तीन पड़ोसी देश��ं के हाथों 1870 में पराजित हो गया। पैराग्वे अर्जेंटीना और ब्राजील के हाथों, अपनी आधी से ज्यादा आबादी और क्षेत्रफल खो बैठा। 1930 के दशक में यह बोलीविया के खिलाफ चाको युद्धों लड़ा जहां वह विजयी रहा। पैराग्वे चाको क्षेत्र में अपना अधिकार को फिर से स्थापित करने में सक्षम रहा, लेकिन शांति समझौते के हिस्से के रूप में अतिरिक्त क्षेत्र को त्यागना पड़ा। 1904 से 1954 तक देश के 31 राष्ट्रपति हुए, जिनका औसत सेवाकाल डेढ़ वर्ष रहा। अधिकांशो ने अपना कार्यकाल तक पूरा नहीं किया।
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2008 में पूर्व बिशप फर्नांडो लूगो ने भारी बहुमत से राष्ट्रपति चुनाव जीत कर, देश में रूढ़िवादी पार्टी के लगातार 60 वर्षों से अधिक का शासन समाप्त कर दिया।
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पैराग्वे को दो विभेदित भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया गया है। पूर्वी क्षेत्र ; और पश्चिमी क्षेत्र, जिसे आधिकारिक तौर पर पश्चिमी पराग्वे और जिसे चाको भी कहा जाता है, जो ग्रैन चाको का हिस्सा है। देश अक्षांश 19°डिग्री और 28°एस, और 54° और 63°डब्ल्यू देशांतर में स्थित है। इलाके में पूर्वी क्षेत्र में अधिकतर घास के मैदान और जंगली पहाड़ी शामिल हैं। पश्चिम में ज्यादातर निचले, दलदली मैदानी हैं।
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कुल जलवायु उपोष्णकटिबंधीय से लेकर उष्णकटिबंधीय है। इस क्षेत्र की अधिकांश भूमि की तरह ही, पैराग्वे में केवल नम और शुष्क अवधि होती है। पैराग्वे के मौसम को प्रभावित करने में हवाएं प्रमुख भूमिका निभाती हैं: अक्टूबर और मार्च के बीच, उत्तर में अमेज़ॅन बेसिन से गर्म हवाएं उड़ती हैं, जबकि मई और अगस्त के बीच की अवधि में एंडीज से ठंडी हवाऐं आती है।
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पैराग्वे सरकार, लोकतांत्रिक प्रतिनिधि प्रणाली के साथ एक गणतंत्र है। सरकार को तीन अलग-अलग शाखाओं कार्यकारी, विधायी और न्यायपालिका में बांटा गया है। कार्यकारी शक्ति सरकार पर निर्भर करती है, जहाँ राष्ट्रपति, सरकार और राष्ट्र दोनों का प्रमुख होता हैं। राष्ट्रपति सीधे जनता के मतों द्वारा चुने जाते हैं और उनका कार्यकाल पांच साल का होता हैं। राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की नियुक्ति करते हैं। राष्ट्रपति का कार्यालय "पालासिओ डी लॉस लोपेज़" और निवास स्थल "बुरुवीचा रोगा हाउस" है और दोनों राजधानी असुन्सियोन में स्थित है। कार्यालय छोड़ने के बाद राष्ट्रपति संवैधानिक रूप से जीवनभर के लिए सीनेटर के पद में रहते हैं, हालांकि उन्हें केवल बोलने का हक होता हैं और वे मतदान नहीं कर सकते हैं।
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विधान शक्तियां राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा प्रयोग की जाती हैं जो दो कक्षों में विभाजित होती है। ये दो कक्ष "कैमरा डी दीपुताडोस" या चैंबर ऑफ डेप्युटीज हैं जो 80 सदस्यों और "कैमरा डी सेनाडोरेस या 45 सदस्यों से बना सीनेटर के चैंबर से बना हैं। दोनों कक्ष पांच वर्ष की अवधि के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुने जाते हैं।
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पैराग्वे की सर्वोच्च अदालत देश में सबसे बड़ी न्यायिक अदालत होती है। इसके 9 सदस्यों का चयन राष्ट्रपति और राष्ट्रीय कांग्रेस के सीनेट कक्ष द्वारा किया जाता है, जो मजिस्ट्रेट काउंसिल की सिफारिश के आधार पर एक संवैधानिक निकाय है। 9 सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश असुनसियन में स्थित पैलेस ऑफ जस्टिस से काम करते हैं। अदालत को तीन कक्षों, संवैधानिक, नागरिक और वाणिज्यिक और आपराधिक, में विभाजित किया गया है।
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देश को 17 प्रशासनिक विभागों या प्रांतों और एक निर्वाचित गवर्नर की अध्यक्षता में एक राजधानी शहर में विभाजित किया गया है।
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पैराग्वे को विकासशील अर्थव्यवस्था माना जाता है। 2007 तक देश ने लगभग 4,000 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति का सकल घरेलू उत्पाद पंजीकृत किया था, जो इसे दक्षिण अमेरिका का दूसरा सबसे गरीब देश बनाता है। अनुमानित आबादी में से ढाई मिलियन से अधिक, लगभग 35% गरीब मानी जाती हैं, हालांकि राजधानी शहर असुन्सियोन को रहने के लिए दुनिया का सबसे सस्ता शहर माना जाता है।
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इसकी अर्थव्यवस्था में बाजार संचालित एक बड़ा अनौपचारिक क्षेत्र है, जो हजारों लघु उद्योगों से बना है और अपने पड़ोसी देशों के साथ आयातित उपभोक्ता वस्तुओं के व्यापार पर केन्द्रित है। कृषि सामान और मवेशी देश के मुख्य आर्थिक उत्पाद हैं। देश वर्तमान में दुनिया का तीसरा मुख्य श्यामपट निर्यातक है और बड़ी मात्रा में गोमांस का भी निर्यात करता है। इसके उपोष्णकटिबंधीय जलवायु और इसकी अनुकूल कृषि भूमि ने अंतर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है, विशेष रूप से भूमि के विदेशी स्वामित्व की अनुमति के बाद। पैराग्वे दुनिया का छठा सबसे बड़ा सोयाबीन उत्पादक है। कृषि उत्पादन जीडीपी में लगभग 27% और कुल निर्यात का लगभग 84% योगदान देता है जो इसे अपनी अर्थव्यवस्था का मुख्य घटक बनाता है। पैराग्वे अपनी सीमाओं में बने दो बड़ी जल विद्युत विद्युत परियोजनाओं से इलेक्ट्���िक पावर का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। जिसका उत्पादन वह ब्राजील, अर्जेंटीना और उरुग्वे को बेचता है।
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चूंकि देश स्थलरुद्ध है, इसकी अर्थव्यवस्था अपने दो प्रमुख भागीदारों अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच निर्यात और व्यापार पर निर्भर करती है, जहां इसके सकल घरेलू उत्पाद का 35% से अधिक व्युत्पन्न होता है। पैराग्वे ने विशेष रूप से अर्जेंटीना, ब्राजील और उरुग्वे के साथ विभिन्न संधि पर हस्ताक्षर किए हैं जो मुक्त बंदरगाहों का आश्वासन देते है, जिसके माध्यम से पैराग्वे अपने सामान निर्यात कर सकता है। देश यूरोपीय संघ के साथ माल का व्यापार भी करता है। यह द्विपक्षीय व्यापार 2005 तक 437 मिलियन यूरो तक पहुंच गया है। यूई व्यापार उसी वर्ष अपने कुल व्यापार का लगभग 9% हिस्सा है।
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पैराग्वे की संस्कृतियां और परंपराएं यूरोपीय और गुआरानी का मिश्रण हैं। स्वदेशी गुआरानी महिलाओं के साथ बसने वालों स्पेनिश नर के बीच अंतर्जातीय विवाह के परिणामस्वरूप, देश की 90% आबादी मेस्टिज़ो है। अधिकांश आबादी द्विभाषी है जिसमें 80% लोग स्पेनिश और गुआरानी दोनों भाषा बोलने में सक्षम हैं; जोपारा मूल रूप से स्पेनिश और गुआरानी का मिश्रण है, जो कि अधिकांश आबादी द्वारा बोली जाती है।
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देश की कढ़ाई और लेस बनाने की कला में सांस्कृतिक मिश्रण देखा जा सकता है। इसके संगीत में पोल्का, गैलोपा और गुआरानी शामिल हैं। गुरानिया शहरों में लोकप्रिय है, जबकि ग्रामीण इलाकों में पसंदीदा संगीत पोल्का या पुरीहे जाहे नामक संगीत शैली है।
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इसके पाककला भी संस्कृतियों के अंतःक्रिया को दिखाते हैं, मनीओक जो स्थानीय फसल है, देश के कई प्रसिद्ध व्यंजनों में शामिल किया जाता है।
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1950 और 60 के दशक में देश के कई शीर्ष उपन्यासकार और कवियों हुए जिनमें से रोक जोस रिकार्डो माज़ो और ऑगस्टो रोआ बास्टोस को नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया था।
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पैरागुआयन अपने परिवार के प्रति वफादार और समर्पित होते हैं, असल में उनके सामाजिक जीवन उनके माता-पिता, बच्चों और रक्त संबंधों के चारों ओर घुमता हैं, और ज़रूरत के समय में सुरक्षा और सहायता के लिए खड़े रहते हैं।
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पैराग्वे पृथ्वी पर कुछ शेष स्थानों में से एक है जहां मृत्यु तक द्वंद्वयुद्ध को कानूनी मान्यता है, हालांकि उन्हें केवल ऐसा करने की इजाजत, दोनों पक्षों ने स्वयं को अंग दाताओं के रूप में पंजीक���त करने के बाद दी जा जाती है।
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पराना और पैराग्वे नदी का संगम।
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ग्रान चाको का क्षेत्र।
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जीसस दे तवरांगु के खंडहर।
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असुन्सियोन शहर रात में।
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ओवेचा रागुए त्यौहार।
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पराग्वे का मुख्य कैथोलिक चैपल, कॉन्सेप्सिओन।
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कैक्यूपे में एक सभा रैली।
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सम्प्रभु राज्यअर्जेण्टीना · बोलिविया · ब्राज़ील · चिली · कोलम्बिया · ईक्वाडोर · गुयाना · पनामा * · पैराग्वे · पेरू · सूरीनाम · त्रिनिदाद और टोबैगो '* · उरुग्वे · वेनेज़ुएला
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अधीन क्षेत्रअरूबा · फ़ॉकलैंड द्वीपसमूह · फ़्रान्सीसी गुयाना ·
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सन्दर्भ त्रुटि: "nb" नामक सन्दर्भ-समूह के लिए टैग मौजूद हैं, परन्तु समूह के लिए कोई टैग नहीं मिला। यह भी संभव है कि कोई समाप्ति टैग गायब है।
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एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन, या Integrated Pest Control ) नाशीजीवों के नियंत्रण की सस्ती और वृहद आधार वाली विधि है जो नाशीजीवों के नियंत्रण की सभी विधियों के समुचित तालमेल पर आधारित है। इसका लक्ष्य नाशीजीवों की संख्या एक सीमा के नीचे बनाये रखना है। इस सीमा को 'आर्थिक क्षति सीमा' ) कहते हैं।
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एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें फसलों को हानिकारक कीड़ों तथा बीमारियों से बचाने के लिए किसानों को एक से अधिक तरीकों को जैसे व्यवहारिक, यांत्रिक, जैविक तथा रासायनिक नियंत्रण इस तरह से क्रमानुसार प्रयोग में लाना चाहिए ताकि फसलों को हानि पहुंचाने वालें की संख्या आर्थिक हानिस्तर से नीचे रहे और रासायनिक दवाईयों का प्रयोग तभी किया जाए जब अन्य अपनाए गये तरिके से सफल न हों।
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व्यवस्थित निगरानी रखना।
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यांत्रिक, अनुवांशिक, जैविक, संगरोध व रासायनिक नियंत्रण का यथायोग्य करना।
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सही मात्रा में प्रयोग करना।
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वर्तमान समय में जहां एक ओर उत्तम किस्मों के आने से तथा उत्तम फसल प्रबंधन अपनाने से फसल की पैदावार में महत्वपूर्णवृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर कृषि पारिस्थितिक तन्त्र में भौतिक, जैविक सस्य परिवर्तनों के कारण फसल में तरह-तरह के कीड़ों वबिमारियों में भी वृद्धि हुई है। इन कीड़ो व बिमारियों से छुटकारा पाने के लिए किसानों ने रासायनिक दवाईयों को मुख्यहथियार के रूप में अपनाया। ये कीटनाशकों किसानों के लिए वरदान सिद्ध हुए लेकिन आगे चलकर इनसे अनेक समस्याएं पैदा हो गईं।
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मानव जाति पर तथा अन्य प्राणियों पर भी बहुत बुरा पड़ रहा है। विभिन्न प्रकार की बीमारियां पैदा हा रही है, जिनकाइलाज भी आसानी से संम्भव नहीं है।
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बिमारियां निर्धारित मात्रा में उपयोग से नहीं मरते बल्कि उनकी संख्या कुछ दिनों के बाद और भी बढ़ जाती है जिसेरिसर्जेस कहते हैं।
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हैं जिन्हें किसानों को मित्र कीड़े कहा जाता है। रासायनों के अन्ध-धुन्ध प्रयोग से, ये मित्र किडे़ हानिकारक कीड़ो कीअपेक्षा शीघ्र मर जाते हैं क्योंकि ये प्रायः फसल की ऊपरी सतह पर हानिकारक कीड़ो की खोज में रहते है और रासायनोके सीधे सम्पर्क में आ जाते है इस तरह जो प्राकृतिक सन्तुलन दोनों तरह के कीड़ोे में पाया जाता है बिगड़ जाताहै और हानिकारक कीड़ों की संख्या वढ़ जाती है। इस तरह जो कीड़े अब तक हानि पहंुचाने की क्षमता नहीं रखतेथे वे भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं। इसे सेकेन्ड्री पेस्ट आउट ब्रेक कहते हैं।
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रसायनों के प्रयोग से उत्पन्न बुरे प्रभावों में से कुछ मुख्य जो मनुष्य जाति पर पड़े है इस प्रकार हैं :
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से प्रभावित हो जाते हैं जिनमें से बीस हजार लोग मर जाते है। जबिक यू.एन.ओ. की रिर्पोट के अनुसार ये आकडे़20 लाख तथा 40 हजार है। अन्धाधुन्ध रसायनों के प्रयोग से ये आकड़े लगातार बढ़ते जा रहे है, इसके लिए कड़े कदमउठाने आवश्यक है।
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दूध में डी. डी. टी. और बी.एच.सी. की मात्रा दूसरे देशों की तुलना में कम से कम चार गुणा अधिक पाई गयी है
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है, बेहोशी, मृत्यु, चक्कर, थकान, सिरदर्द, उल्टी, छाती दर्द केंसर, मोतिया बिन्द, अंधापन, दमा, उच्च रक्तचाप, दिलका दौरा, गर्भपात, अनियमत मासिक धर्म, नपंुसकता इत्यादि।
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इन सब बुरे प्रभावों को मध्य नजर रखते हुए भारत सरकार ने कुछ ज्यादा जहरीली कीटनाशक दवाइयों का या तोउत्पादन तथा प्रयोग बन्द कर दिया है या उनका प्रयोग कुछ एक फसलों पर ही करना सुनिश्चित किया है। इन सबबुरे प्रभावों को ध्यान में रखते हुए विश्व के कृषि वैज्ञिानिकों ने यह सलाह दी है कि किसानों को ऐसे सभी तरिकों कोक्रमानुसार प्रयोग में लाना चाहिए जो उनकी फसलों को कीड़ो तथा बिमारियों से बचा सकें तथा साथ ही साथ पर्यावरणको भी प्रदूषण से बचाया जा सके। ऐसी विधि को ही एकीकृत नाशीजीवी प्रबन्धन' का नाम दिया गयाहै।
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बढ़ती जा रही है जिससे मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के स्वास्थय पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है और कई प्रकार की बीमारियांजन्म ले रही हैं।
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है जिससे रासायनों के निर्धारित मात्रा का प्रयोग करने से ये कीड़े या बीमारियां नही मरती बल्कि कुछ दिनों के बादइनकी संख्या और बढ़ जाती है। ऐसी परिस्थिति में रासायनों का प्रयोग करना पर्यावरण के प्रदूषण को बढ़ाना है।
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हानिकारक तथा लाभदायक कीड़ो का प्राकृतिक संतुलन हमेशा बना रहता है और फसलों का कोई आर्थिक हानि नहीपंहुचती। लेकिन रासानिक दवाईयों के प्रयोग से मित्र किड़े शीघ्र मर जाते हैं क्योंकि वे प्रायः फसल की ऊपरी सतहपर शत्रु कीड़ो काी खोज में रहते है। बौर कीटनाशकों के साधे संपर्क में बा जाते हैं जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़जाता हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जो किड़े अब तक आर्थिक हानि पहुँचाने की क्षमता नहीं रखते थे अर्थातउनकी संख्या कम थी, वे भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर ��ेते हैं।
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कमी हो जाती है।
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रासायनो के दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुए किसानों के लिये आई. पी. एम. विधि अपनाना अनिवार्य है।
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बीज के चयन तथा बीजाई से लेकर फसल की कटाई तक विभिन्न विधियां, जो प्रयोग समयानुसार एवं क्रमानुसार आई. पी.एम. विधि में अपनाई जाती है, इस प्रकार हैं:-
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व्यवहारिक नियन्त्रण से तात्पर्य है कि परम्परागत अपनाए जाने वाले कृषि क्रियाओं में ऐसा क्या परिवर्तन लाया जाए, जिससेकीड़ों तथा बिमारियों से होने वाले आक्रमण को या तो रोका जाए या कम किया जाए। या विधियां हमारे पूर्वजों से चलीआ रही है लेकिन आधुनिक रासायनों के आने से इनका प्रयोग कम होता जा रहा है।इसके अंतगर्त निन्मलिखित तरिके अपनाएं जाते है:-
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इस विधि को फसल रोपाई के बाद अपनाना आवश्यक है। इसके अंतर्गत निम्न तरिकें अपनाएं जाते है:-
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इस विधि से नर कीटों में प्रयोगशाला में या तो रासायनों से या फिर रेडिऐशन तकनिकी से नंपुसकता पैदा की जाती हैऔर फिर उन्हें काफी मात्रा में वातावरण में छोड़ दिया जाता है ताकि वे वातावरण में पाए हाने वाले नर कीटों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। लेकिन यह विधि द्वीप समूहों में ही सफल पाई जाती है।
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इस विधि में सरकार के द्वरा प्रचलित कानूनों को सख्ती से प्रयोग में लाया जाता है जिसके तहत कोई भी मनुष्य कीटया बीमारी ग्रस्त पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थानों को नहीं ले जा सकता। यह दो तरह का होता है जैसे घरेलूतथा विदेशी संगरोध।
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जैव नियन्त्रणः फसलों के नाशीजीवों कों नियन्त्रित करने के लिए प्राकृतिक शत्रुओं को प्रयोग में लाना जैव नियन्त्रण कहलाता है।
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नाशीजीव फसलों को हानि पहुँचाने वाले जीव नाशीजीव कहलाते है।
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प्राकृतिक शत्रुः प्रकृति में मौजूद फसलों के नाशीजीवों के नाशीजीव 'प्राकृतिक शत्रु', 'मित्र जीव', 'मित्र कीट', 'किसानों केमित्र', 'वायो एजैेट' आदि नामों सें जाने जोते हैं।
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जैव नियन्त्रण एकीकष्त नाशीजीव प्रबधन का महत्वपूर्ण अंग है। इस विधि में नाशीजीवी व उसके प्राकृतिक शत्रुओ के जीवनचक्र, भोजन, मानव सहित अन्य जीवों पर प्रभाव आदि का गहन अध्ययन करके प्रबन्धन का निर्णय लिया जाता है।
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पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होने अखिल भारतीय गायत्री परिवार की स्थापना की। उनने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया। उन्होने आधुनिक व प्राचीन विज्ञान व धर्म का समन्वय करके आध्यात्मिक नवचेतना को जगाने का कार्य किया ताकि वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सके। उनका व्यक्तित्व एक साधु पुरुष, आध्यात्म विज्ञानी, योगी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, लेखक, सुधारक, मनीषी व दृष्टा का समन्वित रूप था।
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पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1967 को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में हुआ था। उनका बाल्यकाल व कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता। वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा आस-पास के, दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत् विचलित रहता था। साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे। छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे। किसे मालूम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुतः अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी। जाति-पाँति का कोई भेद नहीं। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवा कर उनने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ा। उन्होने किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना आरंभ कर दी थीं। औपचारिक शिक्षा स्वल्प ही पायी थी। किन्तु, उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि, जो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न हो वह औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है। हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें, इसके छोटे-छोटे पैम्पलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बने, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे, इसलिए गाँव में जन्मे। इस लाल ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाय-यह सिखाया।
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पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में उनके घर की पूजास्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आधार थी, जबसे महामना पं.मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ। अदृश्य छायाधारी सूक्ष्म रूप में। उनने प्रज्ज्वलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में सम्पन्न क्रिया-कलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आये हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकलाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषिसत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं। चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक की अवधि तक हिमालय आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हे तीन संदेश दिए -
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यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक-दूसरे के पर्याय हैं, जीवन यात्रा का यह एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जिसने भावी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया। पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक हमारी वसीयत और विरासत में लिखते हैं कि प्रथम मिलन के दिन ही समर्पण सम्पन्न हुआ। दो बातें गुरुसत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गई-संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी। वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।
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भारत के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हे उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आदेशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था। 1927 से 1933 तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक- स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों-सखाओं-मार्गदर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये। छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई। जेल में भी जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटै। आसनसोल जेल में वे पं.जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना। यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्म घट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था - प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश।
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स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगत सिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय श्री अरविन्द के किशोर काल की क्रान्तिकारी स्थिति की तरह उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों प्रति असहयोग जाहिर होता था। नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे परन्तु, समाधि स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था पर आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं जबकि, फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे। उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तक सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला। अभी भी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिए अगणित व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं। लगानबन्दी के आकड़े एकत्र करने के लिए उन्होंने पूरे आगरा जिले का दौरा किया व उनके द्वारा प्रस्तुत वे आँकड़े तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत द्वारा गाँधी जी के समक्ष पेश किये गये। बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आँकड़े ब्रिटिश पार्लियामेन्ट भेजे, इसी आधार पर पूरे संयुक्त प्रान्त के लगान माफी के आदेश प्रसारित हुए। कभी जिनने अपनी इस लड़ाई के बदले कुछ न चाहा, उन्हें सरकार ने अपने प्रतिनिधि के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन दिया, जिसे उनने प्रधानमंत्री राहत फण्ड के नाम समपित कर दी। वैरागी जीवन का, सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?
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1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गये। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंर्चों पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाय, यह र्निदेश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, जब आगरा में 'सैनिक' समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्रीकृष्णदत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया।
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बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए सतत स्वाध्यायरत रहकर उनने 'अखण्ड ज्योति' नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया। प्रयास पहला था, जानकारियाँ कम थीं अतः पुनः सारी तैयारी के साथ विधिवत् 1940 की जनवरी से उनने परिजनों के नाम पाती के साथ अपने हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया, जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु क्रमशः उनके अध्यवसाय, घर-घर पहुँचाने, मित्रों तक पहुँचाने वाले उनके हृदयस्पर्शी पत्रों द्वारा बढ़ती-बढ़ती नवयुग के मत्स्यावतार की तरह आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है।
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अखिल भारतीय गायत्री परिवार का जालघरपं॰ श्रीराम शर्मा आचार्य
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भारत, नेपाल, मॉरीशस, सूरीनाम
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लुप्तप्राय भाषा गुयाना और त्रिनिदाद और टोबैगो में
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4करोड़ 16 करोड़
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भोजपुरी शब्द का निर्माण बिहार का प्राचीन जिला भोजपुर के आधार पर पड़ा। जहाँ के राजा "राजा भोज" ने इस जिले का नामकरण किया था।भाषाई परिवार के स्तर पर भोजपुरी एक आर्य भाषा है और मुख्य रूप से पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्र में बोली जाती है। आधिकारिक और व्यवहारिक रूप से भोजपुरी हिन्दी की एक उपभाषा या बोली है। भोजपुरी अपने शब्दावली के लिये मुख्यतः संस्कृत एवं हिन्दी पर निर्भर है कुछ शब्द इसने उर्दू से भी ग्रहण किये हैं। भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार विश्व के सभी महाद्वीपों पर है जिसका कारण ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाये गये मजदूर हैं जिनके वंशज अब जहाँ उनके पूर्वज गये थे वहीं बस गये हैं। इनमे सूरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, फिजी आदि देश प्रमुख है। भारत के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या लगभग 4 करोड़ है, हालांकि द टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख के में ये बताया गया है कि पूरे विश्व में भोजपुरी के वक्ताओं की संख्या 16 करोड़ है, जिसमें बिहार में 8 करोड़ और उत्तर प्रदेश में 7 करोड़ तथा शेष विश्व में 1 करोड़ है। उत्तर अमेरिकी भोजपुरी संगठन के अनुसार वक्ताओं की संख्या 18 करोड़ है। वक्ताओं के संख्या के आंकड़ों में ऐसे अंतर का संभावित कारण ये हो सकता है कि जनगणना के समय लोगों द्वारा भोजपुरी को अपनी मातृ भाषा नहीं बताई जाती है।
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डॉ॰ ग्रियर्सन ने भारतीय भाषाओं को अन्तरंग ओर बहिरंग इन दो श्रेणियों में विभक्त किया है जिसमें बहिरंग के अन्तर्गत उन्होंने तीन प्रधान शाखाएँ स्वीकार की हैं -
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इस अन्तिम शाखा के अन्तर्गत उड़िया, असमी, बँग्ला और पुरबिया भाषाओं की गणना की जाती है। पुरबिया भाषाओं में मैथिली, मगही और भोजपुरी - ये तीन बोलियाँ मानी जाती हैं। क्षेत्रविस्तार और भाषाभाषियों की संख्या के आधार पर भोजपुरी अपनी बहनों मैथिली और मगही में सबसे बड़ी है।
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भोजपुरी भाषा का नामकरण बिहार राज्य के आरा जिले में स्थित भोजपुर नामक गाँव के नाम पर हुआ है। पूर्ववर्ती आरा जिले के बक्सर सब-डिविजन में भोजपुर नाम का एक बड़ा परगना है जिसमें "नवका भोजपुर" और "पुरनका भोजपुर" दो गाँव हैं। मध्य काल में इस स्थान को मध्य प्रदेश के उज्जैन से आए भोजवंशी परमार राजाओं ने बसाया था। उन्होंने अपनी इस राजधानी को अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर भोजपुर रखा था। इसी कारण इसके पास बोली जाने वाली भाषा का नाम "भोजपुरी" पड़ गया।
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भोजपुरी भाषा का इतिहास 7वीं सदी से शुरू होता है - 1000 से अधिक साल पुरानी! गुरु गोरख नाथ 1100 वर्ष में गोरख बानी लिखा था। संत कबीर दास का जन्मदिवस भोजपुरी दिवस के रूप में भारत में स्वीकार किया गया है और विश्व भोजपुरी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
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भोजपुरी भाषा प्रधानतया पश्चिमी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्रों में बोली जाती है।इन क्षेत्रों के अलावा भोजपुरी विदेशों में भी बोली जाती है।भोजपुरी भाषा फिजी और नेपाल की संवैधानिक भाषाओं में से एक है।इसे मॉरीशस,फिजी,गयाना,गुयाना,सूरीनाम,सिंगापुर,उत्तर अमरीका और लैटिन अमेरिका में भी बोला जाता है।
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मुख्यरुप से भोजपुरी बोले जाने वाले जिले-
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आदर्श भोजपुरी,
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पश्चिमी भोजपुरी और
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अन्य दो उपबोलियाँ "मघेसी" तथा "थारु" के नाम से प्रसिद्ध हैं।
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जिसे डॉ॰ ग्रियर्सन ने स्टैंडर्ड भोजपुरी कहा है वह प्रधानतया बिहार राज्य के आरा जिला और उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर जिले के पूर्वी भाग और घाघरा एवं गंडक के दोआब में बोली जाती है। यह एक लंबें भूभाग में फैली हुई है। इसमें अनेक स्थानीय विशेताएँ पाई जाती है। जहाँ शाहाबाद, बलिया और गाजीपुर आदि दक्षिणी जिलों में "ड़" का प्रयोग किया जाता है वहाँ उत्तरी जिलों में "ट" का प्रयोग होता है। इस प्रकार उत्तरी आदर्श भोजपुरी में जहाँ "बाटे" का प्रयोग किया जाता है वहाँ दक्षिणी आदर्श भोजपुरी में "बाड़े" प्रयुक्त होता है। गोरखपुर की भोजपुरी में "मोहन घर में बाटें" कहते परंतु बलिया में "मोहन घर में बाड़ें" बोला जाता है।
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पूर्वी गोरखपुर की भाषा को 'गोरखपुरी' कहा जाता है परंतु पश्चिमी गोरखपुर और बस्ती जिले की भाषा को "सरवरिया" नाम दिया गया है। "सरवरिया" शब्द "सरुआर" से निकला हुआ है जो "सरयूपार" का अपभ्रंश रूप है। "सरवरिया" और गोरखपुरी के शब्दों - विशेषत: संज्ञा शब्दों- के प्रयोग में भिन्नता पाई जाती है।
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बलिया और सारन इन दोनों जिलों में 'आदर्श भोजपुरी' बोली जाती है। परंतु कुछ शब्दों के उच्चारण में थोड़ा अन्तर ���ै। सारन के लोग "ड" का उच्चारण "र" करते हैं। जहाँ बलिया निवासी "घोड़ागाड़ी आवत बा" कहता है, वहाँ छपरा या सारन का निवासी "घोरा गारी आवत बा" बोलता है। आदर्श भोजपुरी का नितांत निखरा रूप बलिया और आरा जिले में बोला जाता है।
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जौनपुर, आजमगढ़, बनारस, गाजीपुर के पश्चिमी भाग और मिर्जापुर में बोली जाती है। आदर्श भोजपुरी और पश्चिमी भोजपुरी में बहुत अधिक अन्तर है। पश्चिमी भोजपुरी में आदर सूचक के लिये "तुँह" का प्रयोग दीख पड़ता है परंतु आदर्श भोजपुरी में इसके लिये "रउरा" प्रयुक्त होता है। संप्रदान कारक का परसर्ग इन दोनों बोलियों में भिन्न-भिन्न पाया जाता है। आदर्श भोजपुरी में संप्रदान कारक का प्रत्यय "लागि" है परंतु वाराणसी की पश्चिमी भोजपुरी में इसके लिये "बदे" या "वास्ते" का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ :
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पश्चिमी भोजपुरी -
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मधेसी शब्द संस्कृत के "मध्य प्रदेश" से निकला है जिसका अर्थ है बीच का देश। चूँकि यह बोली तिरहुत की मैथिली बोली और गोरखपुर की भोजपुरी के बीचवाले स्थानों में बोली जाती है, अत: इसका नाम मधेसी पड़ गया है। यह बोली चंपारण जिले में बोली जाती और प्राय: "कैथी लिपि" में लिखी जाती है।
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"थारू" लोग नेपाल की तराई में रहते हैं। ये बहराइच से चंपारण जिले तक पाए जाते हैं और भोजपुरी बोलते हैं। यह विशेष उल्लेखनीय बात है कि गोंडा और बहराइच जिले के थारू लोग भोजपुरी बोलते हैं जबकि वहाँ की भाषा पूर्वी हिन्दी है। हॉग्सन ने इस भाषा के ऊपर प्रचुर प्रकाश डाला है।
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भोजपुरी बहुत ही सुंदर, सरस, तथा मधुर भाषा है। भोजपुरी भाषाभाषियों की संख्या भारत की समृद्ध भाषाओं- बँगला, गुजराती और मराठी आदि बोलनेवालों से कम नहीं है। इन दृष्टियों से इस भाषा का महत्व बहुत अधिक है और इसका भविष्य उज्जवल तथा गौरवशाली प्रतीत होता है।
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भोजपुरी भाषा में निबद्ध साहित्य यद्यपि अभी प्रचुर परिमाण में नहीं है तथापि अनेक सरस कवि और अधिकारी लेखक इसके भंडार को भरने में संलग्न हैं। भोजपुरिया-भोजपुरी प्रदेश के निवासी लोगों को अपनी भाषा से बड़ा प्रेम है। अनेक पत्रपत्रिकाएँ तथा ग्रन्थ इसमें प्रकाशित हो रहे हैं तथा भोजपुरी सांस्कृतिक सम्मेलन, वाराणसी इसके प्रचार में संलग्न है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन समय-समय पर आंदोलनात्म, रचनात्मक और बैद्धिक तीन स्तरों पर भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास में निरंतर ज���टा हुआ है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन से ग्रन्थ के साथ-साथ त्रैमासिक 'समकालीन भोजपुरी साहित्य' पत्रिका का प्रकाशन हो रहे हैं। विश्व भोजपुरी सम्मेलन, भारत ही नहीं ग्लोबल स्तर पर भी भोजपुरी भाषा और साहित्य को सहेजने और इसके प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। देवरिया, दिल्ली, मुंबई, कोलकभोजपुता, पोर्ट लुईस, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और अमेरिका में इसकी शाखाएं खोली जा चुकी हैं।
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भोजपुरी साहित्य में भिखारी ठाकुर योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है।उन्हें भोजपुरी का शकेस्पीयर भी कहा जाता है।उनके लिखे हुए नाटक तत्कालीन स्त्रियों के मार्मिक दृश्य को दर्शाते हैं, अपने लेखों के द्वारा उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया है।उनके प्रमुख ग्रंथ है:-बिदेशिया,बेटीबेचवा,भाई बिरोध,कलजुग प्रेम,विधवा बिलाप इतियादी।
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संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों का सार्वभौम घोषणा को विश्व के 154 भाषाओं में प्रकाशित किया है जिसमें भोजपुरी तथा सूरीनामी हिन्दुस्तानी भी उपस्थित है, सूरीनामी हिन्दुस्तानी भोजपुरी के तरह हीं बोली जाती है केवल इसे रोमन लिपि में लिखा जाता है। मानवाधिकारों के घोषणा का प्रथम अनुच्छेद भोजपुरी, हिंदी, सूरीनामी तथा अंग्रेजी में निम्नलिखित है -
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अनुच्छेद 1: सबहि लोकानि आजादे जन्मेला आउर ओखिनियो के बराबर सम्मान आओर अधिकार प्राप्त हवे। ओखिनियो के पास समझ-बूझ आउर अंत:करण के आवाज होखता आओर हुनको के दोसरा के साथ भाईचारे के बेवहार करे के होखला।
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अनुच्छेद 1: सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतन्त्रता और समानता प्राप्त हैं। उन्हें बुद्धि और अन्तरात्मा की देन प्राप्त है और परस्पर उन्हें भाईचारे के भाव से बर्ताव करना चाहिये।
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Aadhiaai 1: Sab djanne aadjádi aur barabar paidaa bhailèn, iddjat aur hak mê. Ohi djanne ke lage sab ke samadj-boedj aur hierdaai hai aur doesare se sab soemmat sè, djaane-maane ke chaahin.
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Article 1: All human beings are born free and equal in dignity and rights. They are endowed with reason and conscience and should act towards one another in a spirit of brotherhood.
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आचार्य हवलदार त्रिपाठी "सह्मदय" लम्बे समय तक अन्वेषण कार्य करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भोजपुरी संस्कृत से ही निकली है। उनके कोश-ग्रन्थ में मात्र 761 धातुओं की खोज उन्होंने की है, जिनका विस्तार "ढ़" वर्ण तक हुआ है। इस प्रबन्ध के अध्ययन से ज्ञात होता है कि 761 पदों की मूल धातु की वैज्ञानिक निर्माण प्रक्रिया में पाणिनि सूत्र का अक्षरश: अनुपालन हुआ है।
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इस कोश-ग्रन्थ में वर्णित विषय पर एक नजर डालने से भोजपुरी तथा संस्कृत भाषा के मध्य समानता स्पष्ट परिलक्षित होती है। वस्तुत: भोजपुरी-भाषा संस्कृत-भाषा के अति निकट और संस्कृत की ही भांति वैज्ञानिक भाषा है। भोजपुरी-भाषा के धातुओं और क्रियाओं का वाक्य-प्रयोग विषय को और अधिक स्पष्ट कर देता है। प्रामाणिकता हेतु संस्कृत व्याकरण को भी साथ-साथ प्रस्तुत कर दिया गया है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें भोजपुरी-भाषा के धातुओं और क्रियाओं की व्युत्पत्ति को स्रोत संस्कृत-भाषा एवं उसके मानक व्याकरण से लिया गया है।
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सामंतवाद मध्यकालीन युग में इंग्लैंड और यूरोप की प्रथा थी। इन सामंतों की कई श्रेणियाँ थीं जिनके शीर्ष स्थान में राजा होता था। उसके नीचे विभिन्न कोटि के सामंत होते थे और सबसे निम्न स्तर में किसान या दास होते थे। यह रक्षक और अधीनस्थ लोगों का संगठन था। राजा समस्त भूमि का स्वामी माना जाता था। सामंतगण राजा के प्रति स्वामिभक्ति बरतते थे, उसकी रक्षा के लिए सेना सुसज्जित करते थे और बदले में राजा से भूमि पाते थे। सामंतगण भूमि के क्रय-विक्रय के अधिकारी नहीं थे। प्रारंभिक काल में सामंतवाद ने स्थानीय सुरक्षा, कृषि और न्याय की समुचित व्यवस्था करके समाज की प्रशंसनीय सेवा की। कालांतर में व्यक्तिगत युद्ध एवं व्यक्तिगत स्वार्थ ही सामंतों का उद्देश्य बन गया। साधन-संपन्न नए शहरों के उत्थान, बारूद के आविष्कार, तथा स्थानीय राजभक्ति के स्थान पर राष्ट्रभक्ति के उदय के कारण सामंतशाही का लोप हो गया।.
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यूरोप में सामंतवाद का विकास सामान्यतः इन परिस्थितियों में हुआ। रोमन साम्राज्य के टूटने के बाद उस पर पश्चिमी यूरोप की असभ्य जातियां-फ्रैंक लोम्बार्ड तथा गोथ इत्यादि ने अधिकार कर लिया। इन लुटेरी जातियों ने समाज और सरकार को सर्वथा नवीन रूप दिया। पांचवीं शताब्दी तक रोमन साम्राज्य अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो चुके थे। जर्मन की बर्बर जातियों के आक्रमण के कारण इटली के गांव असुरक्षित से हो गए थे, क्योंकि सरकार सुरक्षा करने में समर्थ नहीं थी जिसके परिणामस्वरूप जनता ने अपनी सुरक्षा के लिए शक्तिशाली वर्ग से समझौता किया। यही शक्तिशाली वर्ग आगे चलकर सामंतवाद के आधार बने। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में भी सुरक्षा की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। उसके अनुसार ‘‘सामंतवाद के जन्म में सुरक्षा की भावना प्रधान थी। संभावित विदेशी आक्रमण तथा सरकारी अफसरों की अनियंत्रित मांगों से छुटकारे के लिए एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी, जो उन्हें किसी भी कीमत पर सुरक्षा प्रदान कर सके।’’
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यूरोप में सामंतवाद के उदय के पीछे एक और जबरदस्त कारण रहा हैं। साम्राज्य के दूरस्थ विस्तार के कारण सम्राट पूरे साम्राज्य का सुचारू रूप से संचालन करने में असमर्थ था। इसलिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो गया जो आवश्यक कार्य होने के साथ लोकतंत्र की दिशा में एक कदम था।
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धीरे-धीरे जनता को सुरक्षा प्रदान करने वाला यह शक्तिशाली वर्ग अर्थात् सामंतवाद सम्पूर्ण यूरोप में फैल गया। उसका केन्द्र कैरोलिगियन साम्राज्य में था। वहां से वह पवित्र रोमन साम्राज्य के माध्यम से पूर्वी जर्मनी और डेनमार्क पहुंचा। दक्षिणी फ्रांस में सामंतवाद का प्रभाव स्पेन पर पड़ा। बाद में सामंतवाद फ्रांस में अपने उत्कर्ष रूप में दिखाई पड़ता है। नारमन विजय के फलस्वरूप दक्षिणी इटली और इंग्लैण्ड भी इसके पूर्ण प्रभाव में आ गए। इस प्रकार सम्पूर्ण यूरोप में एक नए ढंग की व्यवस्था का सूत्रपात हुआ और यही नई व्यवस्था सामंतवाद कहलायी जो लगभग आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक समस्त यूरोप में अपने पूर्ण वैभव के साथ छाई रही।
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इसी के संदर्भ में डॉ॰ रामशरण शर्मा को मत उद्धृत किया जा सकता है -‘‘उनका राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचा भूमि अनुदानों के आधार पर गठित था और उसी ढांचा कृषि दासत्व प्रथा के आधार पर। इस प्रथा के अधीन किसान भूमि से बंधे होते थे और भूमि के मालिक वे जमींदार होते थे जो असली काश्तकारों और राजा के बीच कड़ी का काम करते थे। डी.डी.आर. भण्डारी भी ‘‘सामतंवाद को संवेदात्मक सरकार का एक रूप मानते है जिसमें सामंत मध्यस्थता का काम करते थे। कुछ इन्हीं आधारों को पुष्ट करते हुए डॉ॰ सतीशचन्द्र का मत है कि ‘‘यूरोप में सामंतवाद का सम्बन्ध दो व्यवस्थाओं से था जिनमें से एक कृषि दास व्यवस्था तथा दूसरा आधार था सैनिक संगठन।’’ इस आधार पर कृषि दासत्व एवं सैनिक संगठन दोनों सामंतवाद के मुख्य आधार है। इस विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि सामंतवाद यूरोप में भूमिव्यवस्था से सम्बन्धित विकेन्द्रीकरण पर आधारित एक ऐसी प्रशासकीय व्यवस्था थी जिसमें सामंत सर्वोच्च सत्ता और किसानों के मध्य पुल था, जो दोनों पार्टी से निश्चित अनुबंधों के माध्यम से जुड़ा होता था।
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यूरोप में राज्य सेवा करने के पुरस्कार स्वरूप सामंतों को भूमि दी जाती थी और उन सामंतों की प्रशासनिक देख-रेख में जितना क्षेत्र होता था, उसका पूरा राजस्व उन्हीं को प्राप्त होता था किन्तु वह अपने अधीनस्थ लोगों के प्राप्त कर में से अपने प्रभु को नियमित रूप से कुछ नज़र भेजता रहेगा। राजा अफसरों को नकद वेतन के बदले जमीन देता था। जमीन उन अन्य लोगों को भी दी जाती थी जिनको राजा पुरस्कृत करना चाहता था।
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इसलिए यूरोपीय सामंतवाद मे�� किसानों को, जमींदारों या उन व्यक्तियों के लिए काम करना पड़ता था जिन्हें जमीन दे दी जाती थी और जो सामंती कहलाते थे। सामंतों का कर्तव्य राजा के लिए सैनिक एकत्र करना था। प्रो॰ सिजविक ने सामंतवाद को चार विभिन्न प्रवृत्तियों का परिणाम माना है। पहली प्रवृत्ति एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य के साथ, जो उससे उच्चतर स्तर का था, वैयक्तिक संबंधों की थी। अपनी सुरक्षा के दृष्टिकोण से उन्होनें अपने से शक्तिशाली व्यक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जो नागरिकता के नाते न होकर वैयक्तिक था। सरंक्षक और आश्रित एक दूसरे के साथ वैयक्तिक सम्बन्धों के जुड़ाव के कारण बंधे हुए थे। संरक्षक अपने आश्रितों की रक्षा करता था तथा आश्रितों की बढ़ती हुई संख्या के कारण उसका बल बढ़ जाता था। दूसरी प्रवृत्ति मनुष्य के अधिकार, राजनैतिक स्थान तथा उसकी सामाजिक स्थिति के निर्धारण करने की प्रवृत्ति थी। सामंतवाद में व्यक्ति के राजनैतिक संबंध तथा उसकी सामाजिक स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितनी भूमि का स्वामी था। तीसरी प्रवृत्ति यह थी कि बड़े-बड़े भूपति अपने प्रदेशों में राजनीतिक सत्ता का प्रयोग करने लगे। यह परिवर्तन क्रमशः हुआ। उन्हें यह अधिकार प्रारम्भ से प्राप्त नहीं था, केन्द्रीय सत्ता की दुर्बलता के कारण जैसे-जैसे उनकी शक्ति बढ़ी, उन्होंने अपने प्रदेश की सुव्यवस्था के लिए अपने अधिकारों को बढ़ाया और उन पर शासन करने लगे। चौथी प्रवृत्ति सामाजिक वर्गों के पार्थक्त की प्रवृत्ति थी राजा अथवा सामंत पर आश्रित व्यक्ति दो प्रकार के होते थे। पहले वे जो सैनिक सेवाओं के बदले राजा या सामंतों से बंधे हुए थे तथा दूसरे वे जो उनकी भूमि पर कृषि या अन्य प्रकार के कार्य करते थे।
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श्री एच. एस. डेवीस ने सामतंवाद के स्वरूप को निर्धारित करते हुए इसकी मौलिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हुए कहा है कि ‘‘इस व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति सुरक्षा के दृष्टिकोण से अपने प्रभु से अनुबंधित होता था। वह अपने सामंती प्रभुत से पृथक् अपनी स्वतंत्रा सत्ता की घोषणा नहीं कर सकता था। युद्ध सामंती व्यवस्था का प्रमुख सिद्धान्त था। भाई-भाई के विरूद्ध और पुत्र पिता के विरूद्ध लड़ने में कोई संकोच नहीं करता था। निम्न वर्ग की दशा भी अत्यन्त शोचनीय थी।’’ प्रस्तुत दृष्टिकोण में व्यक्ति की सुरक्षा की भावना पर अधि�� बल दिया गया है एवं सामंती सम्बन्धों तथा अनुबन्धों की दृढ़ता की ओर संकेत किया गया है। जिस प्रभु से व्यक्ति लाभान्वित होता था, उसके प्रति अपने स्वामी-भक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता था। व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती थी। हेनी एस ल्यूकस के अनुसार ‘‘सामंती संगठन में सामंत को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। प्रत्येक सामंती राजकुमार के अधीन अनेक वेसोल्स होते थे, जो उसे अपनी सलाह तथा युद्ध में सहायता देने के लिए प्रतिबंधित थे।’’
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श्री ल्यूकस के मतानुसार राजा और सामंत दोनों की पारस्पारिक अनुबंधता सिद्ध होती है, जिसका आधार पारस्पारिक आदान-प्रदान था। सामंत राजा को सैनिक सहायता प्रदान करता था, राजा को महत्वपूर्ण परामर्श देकर राजा की मंत्रणा प्राप्त करने का अधिकारी था। बेव्सटर महोदय ने अपने कोश में सामंतवाद के स्वरूप में प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ‘‘यह एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था थी जो राजा और सामंत के भूमि से सम्बन्धित पारस्पारिक सम्बन्धों पर आधरित थी तथा जिसमें भूमि प्राप्तकर्ता द्वारा सेवा और आदर-भावना स्वामित्व, सहायता, विवाह आदि की घटनाएं प्रमुख थी।’’
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चैम्बर्स इन्साक्लोपीड़िया में सामंतवाद विषयक मान्यताओं में स्वामी भक्ति और आज्ञा-पालन पर बल देते हुए लिखा गया है कि ‘‘सामंतवाद शब्द यद्यपि समाज व्यवस्था का एक प्रकार है तथा मुख्य रूप से उन व्यक्ति सम्बन्धों की व्याख्या करता है जो जमीन के अधिकार और व्यक्तिगत सम्पति के आधार पर एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के प्रति अधीनता प्रकट करते है, तथापि यह व्यक्तिगत सम्बन्धों और नियमों की उस विशिष्ट पद्धति की ओर संकेत करता है जिसमें एक ओर सुरक्षा तथा निर्वाह है तथा दूसरी ओर सेवा तथा आज्ञा पालन है। इस प्रकार सामंत के निर्वाह और सामंतवादः सामाजिक एवं आर्थिक विकास प्रक्रिया सुरक्षा का उत्तरदायित्व प्रभु पर था। साथ ही सामंत प्रभु की आज्ञापालन और सेवा भक्ति से अनुबंधित था। आज्ञा पालन न करने पर राजा केवल सैद्धान्तिक रूप में उससे भूमि वापस लेकर उसे पदच्युत कर सकता था। यह केवल प्रारंभिक सैद्धान्तिक स्वरूप था, किन्तु व्यवहारिक रूप में ऐसा नहीं होता था। कालांतर में यह व्यवस्था बदल गयी। भूमि पहले आजीवन दी जाती थी, बाद में आनुवंशिक अधिकार होने लगा। तब उन्होंने भी प्राप्त भूमि को उन्हीं शर्तों पर प्रदान किया जिन शर्तों पर इन्हें राजा से प्राप्त हुई थी। इस प्रकार सामंती व्यवस्था वंशानुगत रूप से चलने लगी।
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पूर्वोक्त मत की पुष्टि के संदर्भ में वह विचार देखा जा सकता है। ‘‘सामंती प्रथा वंशानुगत थी। सामंत की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी उसका स्वामी बनाया जाता था, जो पहले राज्य दरबार में जाकर कुछ भेंट कर राजा के प्रति अपनी स्वामी भक्ति प्रगट किया करता था।’’
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इस प्रकार राजा द्वारा सामंत को और सामंत द्वारा अपने से नीचे सरदारों को भूमि प्रदान करना वंशानुगत हो गया और सामंतवाद के एक नये स्तर अर्थात् उपसामंतवाद का जन्म होने लगा। कृषकों का सम्बन्ध सीधे राजा से न होकर एक मध्यस्थ कुलीन उच्चवर्ग से होने लगा। यद्यपि मुद्रा का चलन पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ था तथापि उसका प्रयोग बहुत कम होता था, धन के रूप में भूमि का प्रयोग किया जाता था। सामंती व्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धान्त आनुवंशिकता का था।
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पाश्चात्य सामंतवाद विषयक पूर्वोक्त विद्वानों के मतों का विवेचन-विश्लेषण करने पर जो मुख्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। कहीं तो प्रभु और सामंत के अनुबंधात्मक संबंधों में निहित कानूनी पक्ष पर बल दिया गया है, कहीं सामाजिक पक्ष पर कहीं आर्थिक पक्ष पर, किन्तु कुछ ऐसे सामान्य तत्व भी है जिनका लगभग सभी विचारकों के मतों में संकेत मिलता है। इन सामान्य तत्वों में प्रभु द्वारा भूमि अनुदान और सामंत द्वारा सेवा एवं आज्ञा-पालन। इनके साथ यूरोपीय सामंतवाद के स्वरूप निर्धारण में कृषि दासत्व प्रथा भी एक महत्वपूर्ण तत्व है। इसके अधीन किसान भूमि से बंधे होते थे और भूमि के असली मालिक वे जमींदार होते थे जो असली काश्तकारों और राजा के बीच कड़ी का काम करते थे। किसान जमीन जोतने के बदले सामंतों को उपज और बेठ-बेगार के रूप में लगान अदा करते थे। इस प्रणाली का आधार आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था थी, जिसमें चीजों का उत्पादन बाजार बाजार में बेचने के लिए नहीं, बल्कि मुख्यतः स्थानीय किसानों और उनके मालिकों के उपयोग के लिए होता था।’’
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सामंतवाद को लेकर मोटे तौर पर कोई स्वीकृत आधुनिक परिभाषा नहीं है। शब्द सामंतवाद या सामंती व्यवस्था पूर्व आधुनिक काल में गढ़ा गया था और अक्सर राजनीतिक और मत प्रचार संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता था। 20 वीं शताब्दी के मध्य तक, फ़्रांस्वा लुई गंशोफ़ के फ्य���डिलिज्म है, 3 एडीशन., सामंतवाद का एक पारंपरिक परिभाषा बन गया। 1960 के दशक के बाद से जब मार्क ब्लोच के फ्यूडल सोसायटी इसका समवर्ती हुआ जब इसे पहली बार अंग्रेजी में अनुवाद किया गया, कई मध्यकालीन इतिहासकारों ने एक व्यापक सामाजिक पहलू को इसमें शामिल किया, इसमें जमींदारी के बांड को जोड़ा, जिसे कभी-कभी "सामंती व्यवस्था" के रूप में संदर्भित किया जाता है। 1970 के दशक के बाद से, जब एलिजाबेथ ए.आर. ब्राउन ने द टायरेनी ऑफ ए कंस्ट्रक्ट प्रकाशित किया, कई लोगों ने फिर से सबूत की जांच की और निष्कर्ष निकाला कि सामंतवाद एक असाध्य शब्द है और विद्वतापूर्ण और शैक्षिक चर्चा से पूरी तरह इसे निकाल देना चाहिए या कम से कम केवल गंभीर योग्यता और चेतावनी के साथ इसका इस्तेमाल होना चाहिए।
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यूरोपीय संदर्भ के बाहर, सामंतवाद की अवधारणा का सामान्य तौर पर सादृश्य के द्वारा प्रयोग किया जाता है, शोगुन के तहत सबसे अधिक बार जापान में चर्चा की जाती है और कभी-कभी मध्ययुगीन और गोंडाराइन इथियोपिया. हालांकि, कुछ सादृश्य सामंतवाद को आगे लिया गया है, प्राचीन मिस्र, पार्थियन साम्राज्य, भारतीय उपमहाद्वीप और अमेरिका के दक्षिण लड़ाई के पहले विविधता के रूप में देखा जाता था।
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सामंतवाद शब्द का इस्तेमाल भी किया जाता है - अक्सर अनुपयुक्त या प्रबल भी हैं मध्ययुगीन यूरोप की गई उन लागू-अक्सर अनुपयुक्त या निंदात्मक ढ़ंग से- गैर पश्चमी देशों में जहां संस्था और व्यवहार उन मध्ययुगीन यूरोप के साथ समान माना जाता था। कुछ इतिहासकारों और राजनीतिक सिद्धांतों का मानना है कि कई मायनों में सामंतवाद शब्द का प्रयोग इसके विशिष्ट अर्थ को वंचित करने के लिए किया गया है जिसके चलते समाज को समझने में इस उपयोगी अवधारणा को अस्वीकार किया गया है।
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फ़्रांस्वा लुई गंशोफ़ का सामंतवाद संस्करण बड़े युद्धों के बीच पारस्परिक कानूनी और सैन्य दायित्वों का वर्णन करता है और भगवान, जागीरदार और मिल्कियत के आसपास तीन महत्वपूर्ण अवधारणाएं घूमती हैं। एक प्रभु व्यापक अर्थ में एक महान संदर्भ है जो जमीन पर कब्जा करता था, एक जागीरदार भगवान के द्वारा जमीन को अपनाता था और भूमि को जागीर के रूप में जाना जाता है। मिल्कियत का इस्तेमाल करते और प्रभु के संरक्षण के लिए विदेशी मुद्रा में, जागीरदार प्रभु की सेवा के कुछ प्रकार प्रदान करेगा। वहां कार्यका��� सामंती देश के कई किस्में थे, जिसमें सैन्य और गैर सैन्य शामिल थे। स्वामी और जागीरदार के बीच दायित्वों और इसके अधिकार के बीच संबंध के विषय में सामंती जागीर के रूप के आधारित था।
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इससे पहले कि प्रभु किसी को भूमि अनुदान कर सके, उन्हें उस व्यक्ति को एक जागीरदार बनाना पड़ता था। इसे औपचारिक और प्रतीकात्मक समारोह में संपन्न किया गया जिसे प्रशस्ति समारोह कहा गया और यह शपथ और श्रद्धांजलि अधिनियम दो भागों में बांटा गया। श्रद्धांजलि के दौरान स्वामी और मातहत एक अनुबंध में आते हैं जो जागीरदार को अपने आदेश में प्रभु के लिए लड़ने के लि प्रवेश करना होता था, हालांकि प्रभु को बाहरी ताकतों से जागीरदार की रक्षा करने का वादा के लिए सहमत होना पड़ता था। श्रंद्धांजलि लैटिन के फिडेलिटास शब्द से आता है और प्रभु अर्थ सामंती अपने लिए एक जागीरदार द्वारा निष्ठा होता था। "श्रंद्धांजलि" भी शपथ के लिए संदर्भित करता है और अधिक स्पष्ट रूप से श्रद्धांजलि के दौरान किए गए जागीरदार की प्रतिबद्धताओं को पुष्टि करता है। इस तरह की शपथ श्रद्धांजलि के बाद होता था।
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एक बार प्रशस्ति समारोह पूरा किया गया, प्रभु और जागीरदार के साथ एक सामंती संबंध आपसी दायित्वों पर एक दूसरे पर सहमत थे। प्रभु का प्रमुख दायित्व "सहायता", या सैन्य सेवा के लिए जागीरदार किया गया था। जो भी उपकरण का उपयोग कर जागीरदार मिल्कियत से राजस्व के आधार पर प्राप्त कर सकता है, मातहत को कॉल करने के लिए प्रभु की ओर से सैन्य सेवा करने के लिए उत्तर जिम्मेदार था। सैन्य मदद की यह सुरक्षा का प्राथमिक कारण प्रभु सामंती रिश्ते में प्रवेश किया था। इसके अलावा, जागीरदार को अपने प्रभु की अन्य दायित्व हो सकते हैं, जैसे कोर्ट में प्रवेश, चाहे जागीरगारी, सामंति या राजा के खुद के कोर्ट में उपस्थिति. यह भी "सलाह" प्रदान करने के जागीरदार शामिल सकता है, इसलिए यदि प्रभु एक बड़ा फैसला वह अपनी सारी जागीरदार को बुलाने और एक कौंसिल आयोजित करेंगे सामना करना पड़ा है। जागीर स्तर पर इस कृषि नीति का एक काफी सांसारिक मामला हो सकता है, लेकिन यह भी कुछ मामलों में मौत की सज़ा सहित आपराधिक अपराधों के लिए सजा का प्रभु से नीचे सौंपने शामिल थे। राजा की सामंती अदालत के संबंध में, इस तरह के विवेचना युद्ध की घोषणा के सवाल शामिल हो सकते हैं। इन उदाहरण हैं यूरोप में स्थ���न और समय की अवधि पर निर्भर करता है, सीमा शुल्क और सामंती प्रथाओं विविध, सामंतवाद का उदाहरण देखें.
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शब्द 'सामंती समाज' के रूप में परिभाषित बलोच मार्क द्वारा गंशोफ़ द्वारा फैलता प्रस्तावित परिभाषा पर और मनोरिअलिस्म सामंती शामिल भीतर संरचना न केवल योद्धा अभिजात वर्ग, लेकिन यह भी किसानों से बंधे.
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सामंतवाद पारंपरिक रूप से एक साम्राज्य का विकेन्द्रीकरण का एक परिणाम के रूप में उभर रहे हैं। यह विशेष रूप से जापानी और कारोलिंगियन यूरोपीय साम्राज्य जो दोनों नौकरशाही आवश्यक बुनियादी सुविधाओं के लिए इन घुड़सवार सैनिकों को भूमि आवंटित करने की क्षमता के बिना घुड़सवार समर्थन अभाव में मामला था। घुड़सवार सैनिकों को उनके आवंटित भूमि और उनकी सत्ता पर वंशानुगत शासन की एक प्रणाली से अधिक सुरक्षित क्षेत्र के रूप में अच्छी तरह से सामाजिक, राजनीतिक, न्यायिक और आर्थिक क्षेत्रों धरना आया था। इन शक्तियों का अधिग्रहण काफी इन साम्राज्यों में केंद्रीकृत सत्ता की उपस्थिति कम हो। केवल जब बुनियादी सुविधाओं के साथ अस्तित्व के रूप में बनाए रखने के लिए केंद्रीकृत सत्ता यूरोपीय मोनर्चिएस-गायब हो गई अंततः सामंतवाद नई इस शुरू करने के लिए उपज करने के लिए संगठित शक्ति और.
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शब्द सामंतवाद अनजान था और इस प्रणाली का वर्णन करता यह अवधि मध्यकालीन थे में से लोगों के जीवन प्रणाली नहीं राजनीतिक औपचारिक एक कल्पना के रूप में. यह खंड सामंतवाद का विचार है, के इतिहास का वर्णन कैसे विद्वानों और विचारकों, यह कैसे समय के साथ बदल के बीच उत्पन्न अवधारणा है और इसके उपयोग के बारे में आधुनिक बहस.
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शब्द "सामंती" इतालवी नवजागरण न्यायविद द्वारा आविष्कार किया गया था वर्णन करने के लिए वे क्या करने के लिए संपत्ति के आम प्रथागत कानून हो लिया। यह) 884 से व्युत्पन्न मध्यकालीन लैटिन शब्द फ़ोदुम द्वारा 17 फ्रांसीसी था गढ़ा में, जब यह प्रणाली कथित वर्णन करने के लिए या गायब हो गया था पूरी तरह से तेजी से चला गया है। अवधि में कोई भी लेखकों में सामंतवाद के लिए विकसित हुई है चाहिए था करने के लिए शब्द ही प्रयोग किया जाता है जाना जाता है। यह एक था बाद में टीकाकारों ने अपमानजनक रूप में अक्सर इस्तेमाल किया जाएगा. वर्णन किसी भी कानून या कस्टम कि दिनांकित, वे कथित रूप अनुचित या बाहर सीमा शुल्क और इनमें से अधिकांश कानूनों मिल्कियत में थे संबंधित के मध्ययुगीन संस्था को किसी तरह से और इस प्रकार यह शब्द एक साथ लुम्पेद के अंतर्गत. शब्द आज हम जानते हैं, "सामंतवाद", फ्रेंच क्रांति से आता है फ्रेंच दौरान féodalisme, गढ़ा.
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सामंतवाद 1748 बन गया एक लोकप्रिय और व्यापक रूप में शब्द का प्रयोग किया,) कानून करने के लिए धन्यवाद मोंतेस्कुई DE L'एसप्रिट है देस आत्मा की लोइस शक्ति का शासक वर्ग . उसकी परिभाषा क्लासिक सामंतवाद आज है सबसे व्यापक रूप से जाना जाता है और जागीरदार भी एक आसान तरीका है समझने के लिए, बस रखा, जब एक जागीर दी गई एक स्वामी, जागीरदार वापसी सेवा में सैन्य प्रदान की है।
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है, के एक गंशोफ़ समकालीन फ्रांसीसी इतिहासकार मार्क बलोच इतिहासकार था सबसे प्रभावशाली 20 वीं सदी के मध्यकालीन. बलोच सामंतवाद को देखने के एक कानूनी और सैन्य दृष्टि से, लेकिन एक समाजशास्त्रीय एक से इतना नहीं से संपर्क किया। वह) अंग्रेजी 1961; विकसित उनके विचारों में सभ्य साहित्य की बात कर सकते हैं और एक सामंती अर्थव्यवस्था।
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1974 में, अमेरिका इतिहासकार एलिजाबेथ एआर ब्राउन अवधारणा को एकरूपता के खारिज कर दिया लेबल भावना होती है कि एक झूठे एक कालभ्रम सामंतवाद के रूप में. सामंतवाद की विरोधाभासी, परिभाषाओं अक्सर वर्तमान उपयोग के कई नोट करने के बाद, वह तर्क है कि शब्द वास्तविकता यह है ही मध्ययुगीन में कोई आधार के साथ एक निर्माण, आधुनिक इतिहासकारों के एक आविष्कार वापस पढ़ें "त्य्रंनिकाल्ली" रिकॉर्ड में ऐतिहासिक. ब्राउन के समर्थकों का सुझाव दिया है कि इस शब्द का इतिहास पाठ्यपुस्तकों से किया जाना चाहिए और पूरी तरह मध्ययुगीन इतिहास पर व्याख्यान. जागीरदार में फिएफ्स और: मध्यकालीन सबूत, सुसान रेनोल्ड्स थीसिस मूल पर विस्तार ब्राउन है। हालांकि कुछ समकालीनों कार्यप्रणाली रेनॉल्ड्स पूछताछ की है, अन्य इतिहासकारों तर्क उसके समर्थित है और यह. कृपया ध्यान दें कि रेनॉल्ड्स सामंतवाद उपयोग के मार्क्सवादी उद्देश्य के लिए नहीं करता है।
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शब्द सामंती की तरह है) सिस्टम लागू किया गया, यह भी करने के लिए गैर पश्चिमी समाजों में इसी तरह के नजरिए और जो संस्थान हैं उन मध्यकालीन यूरोप के कथित अन्य के लिए हैं प्रबल (देखें सामंती. अंत में कहते हैं, आलोचकों, कई मायनों अवधि सामंतवाद प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है विशिष्ट से वंचित यह, प्रमुख सिद्धांतकार��ं कुछ इतिहासकारों और राजनीतिक के लिए समाज को अस्वीकार समझ उपयोगी अवधारणा के लिए यह एक के रूप में. दूसरों को अपनी दिल की अवधारणा ले लिया है: एक प्रभु और उसके जागीरदार, सेवा के बदले में समर्थन की एक पारस्परिक व्यवस्था के बीच अनुबंध.
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सूरज प्रकाश हिंदी और गुजराती के लेखक और कथाकार हैं।
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उपन्यास - हादसों के बीच, देस बिराना, कहानी संग्रह - अधूरी तस्वीर, छूटे हुए घर, खो जाते हैं घर, मर्द नहीं रोते ,
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==परिचय== संपादित करें
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सूरज प्रकाश का जन्म उत्तराखंड के देहरादून में हुआ था। सूरज प्रकाश ने मेरठ विश्व विद्यालय से बी॰ए॰ की डिग्री प्राप्त की और बाद में उस्मानिया विश्वविद्यालय से एम ए किया। तुकबंदी बेशक तेरह बरस की उम्र से ही शुरू कर दी थी लेकिन पहली कहानी लिखने के लिए उन्हें पैंतीस बरस की उम्र तक इंतजार करना पड़ा। उन्होंने शुरू में कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं और फिर 1981 में भारतीय रिज़र्व बैंक की सेवा में बंबई आ गए और वहीं से 2012 में महाप्रबंधक के पद से रिटायर हुए। सूरज प्रकाश कहानीकार, उपन्यासकार और सजग अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं। 1989 में वे नौकरी में सज़ा के रूप में अहमदाबाद भेजे गये थे लेकिन उन्होंने इस सज़ा को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। तब उन्होंने लिखना शुरू ही किया था और उनकी कुल जमा तीन ही कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं। अहमदाबाद में बिताए 75 महीनों में उन्होंने अपने व्यक्तित्व और लेखन को संवारा और कहानी लेखन में अपनी जगह बनानी शुरू की। खूब पढ़ा और खूब यात्राएं कीं। एक चुनौती के रूप में गुजराती सीखी और पंजाबी भाषी होते हुए भी गुजराती से कई किताबों के अनुवाद किए। इनमें व्यंग्य लेखक विनोद भट्ट की कुछ पुस्तकों, हसमुख बराड़ी के नाटक ’राई नो दर्पण’ राय और दिनकर जोशी के बेहद प्रसिद्ध उपन्यास ’प्रकाशनो पडछायो’ के अनुवाद शामिल हैं। वहीं रहते हुए जॉर्ज आर्वेल के उपन्यास ’एनिमल फॉर्म’ का अनुवाद किया। गुजरात हिंदी साहित्य अकादमी का पहला सम्मान 1993 में सूरज प्रकाश को मिला था। वे इन दिनों मुंबई में रहते हैं। सूरज प्रकाश जी हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी भाषाएं जानते हैं। उनके परिवार में उनकी पत्नी मधु अरोड़ा और दो बेटे अभिजित और अभिज्ञान हैं। मधु जी समर्थ लेखिका हैं।
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==कार्यक्षेत्र== संपादित करें
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1987 में लेखन शुरू करके सूरज प्रकाश ने लगभग 50 कहानियां और दो उपन्यास लिखे हैं। उनके दो व्यंग्य संग्रह भी हैं। गुजराती से उन्होंने 8 और अंग्रेजी से 6 किताबों के अनुवाद किये हैं। बैंक की सेवा में रहते हुए उन्होंने हिंदी में बैंकिंग साहित्य तैयार कराने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उनके प्रयासों से पहली बार बैंकिंग से जुड़े विभिन्न विषयों पर हिंदी में राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार शुरू किये गये और उनमें प्रस्तुत आलेखों को संपादित करके पुस्तक रूप में प्रकाशित किये गये। भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा ये सेमिनार अभी भी नियमित रूप से आयोजित किये जाते हैं। बैंक के पुणे स्थित महाविद्यालय में अपनी तैनाती के दौरान सूरज प्रकाश ने बैंकरों के बीच साहित्य के प्रति रुचि जगाने के लिए कई प्रयास और प्रयोग किये। इनमें बैंकरों के बीच वरिष्ठ कथाकारों के कहानी पाठ, नाटकों के मंचन आदि शामिल हैं। गुजराती हिंदी साहित्य अकादमी से पहला सम्मान और महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी से दो बार सम्मानित।अनुवाद के क्षेत्र में सूरज प्रकाश ने बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। उन्होंने आत्मकथाओं के अनुवाद को अपनी प्राथमिकता बनाया और कई महत्वपूर्ण आत्मकथाओं के अनुवाद किये। चार्ल्स चैप्लिन की आत्मकथा, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा, ऐन फ्रैंक की डायरी, मिलेना और गुजराती से महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य नो प्रयोगो उनके कुछ उल्लखेनीय अनुवाद हैं। इनके अलावा नोबल पुरस्कार प्राप्त लेखकों की कहानियों के अनुवाद, एनिमल फार्म का अनुवाद और कुछेक दूसरे उपन्यासों के उनके किये गये अनुवाद बेहद पसंद किये गये हैं।इधर के बरसों में फेसबुक जैसे सशक्त सोशल मीडिया के आगमन के साथ सूरज प्रकाश ने अपनी कथाओं के लिए एक नयी ज़मीन तलाशी है और फेसबुक को आधार बना कर कई लंबी और सार्थक कहानियां दी हैं। वे शायद हिंदी के अकेले लेखक हैं जिन्होंने फेसबुक को आधार बना कर लगातार महत्वपूर्ण कहानियां दी हैं। उनकी कहानियां विभिन्न भाषाओं में अनूदित हैं। छोटे नवाब बड़े नवाब और डर कहानियों को दूरदर्शन पर दिखाया गया है। सूरज प्रकाश के लेखन पर तीन एमफिल हो चुकी हैं और उनके काम को कई शोध प्रबंधों में शामिल किया गया है।
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==सूरज प्रकाश की कुछ रचनाएँ== संपादित करें
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देस बिराना संपादित करें
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==मुख्य लेख : देस बिराना==
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देस बिराना सूरज प्रकाश का महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह एक ऐसे अकेले लड़के की कहानी है जो बचपन के एक छोटे से हादसे के कारण घर छोड़ देता है और आजीवन अपनी शर्तों पर अपनी तरह के घर की तलाश करता रहता है। उसका अपना घर ही अपना नहीं रहता और वह घर नाम की जगह की चाहत में बंबई और लंदन में भटकता रहता है। जो घर उसे मिलता है वह उस तरह का घर नहीं होता जो उसकी चाहत है। वह सोचता है कि जिदंगी भी हमारे साथ कैसे कैसे खेल खेलती है। हम बंद दरवाजों के बाहर खड़े होते हैं और भीतर खबर नहीं होती और कहीं और किन्हीं बंद दरवाजों के पीछे कोई हमारी राह देख रहा होता है और हमें ही खबर नहीं होती। 2000 में लिखे गये इस उपन्यास को बंबई की दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए काम करने वाली बंबई की संस्था नेशनल एसोसिएशन फॉर ब्लाइंड ने देश भर में फैले अपने सदस्यों के लिए ऑडियो उपन्यास के रूप मे रिकार्ड करवाया था। ये उपन्यास सूरज प्रकाश की वेबसाइट www.surajprakash.com पर ऑडियो रूप में भी उपलब्ध है।
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==प्रकाशित पुस्तकें== संपादित करें
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उपन्यास संपादित करें
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• हादसों के बीच ,• देस बिराना ,==कहानी-संग्रह== संपादित करें
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• अधूरी तस्वीर • छूटे हुए घर • खो जाते हैं घर • मर्द नहीं रोते • छोटे नवाब बड़े नवाब • संकलित कहानियां
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==व्यंग्य-संग्रह== संपादित करें
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• ज़रा संभल के चलो • दाढ़ी में तिनका
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==अंग्रेजी से अनुवाद== संपादित करें
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• ऐन फ्रेंक की डायरी • मिलेना • चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा • चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा • एनिमल फार्म • क्रानिकल ऑफ ए डैथ फोरटोल्ड
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==गुजराती से अनुवाद== संपादित करें
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• भूल चूक लेनी देनी • चेखव और बर्नार्ड शॉ • हसमुख बराड़ी का नाटक राई नो दर्पण राय • प्रकाशनो पडछायो • दिवा स्वप्न • मां बाप से • • महात्मा गांधी की आत्मकथा • संपादन • बंबई एक • कथा दशक • कथा लंदन • इसके अलावा बैंकिंग साहित्य से संबंधित 6 पुस्तकों का संपादन
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== सन्दर्भ == संपादित करें
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1. ऊपर जायें↑ पुस्तक.ऑर्ग2. ऊपर जायें↑ हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 पृ-
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• सूरज प्रकाश की रचनाएं • सूरज प्रकाश की रचनाएं • सूरज प्रकाश • सूरज प्रकाश
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बीज पैदा करनेवाले पौधे दो प्रकार के होते हैं: नग्न या विवृतबीजी तथा बंद या संवृतबीजी। सपुष्पक, संवृतबीजी, या आवृतबीजी एक बहुत ही बृहत् और सर्वयापी उपवर्ग है। इस उपवर्ग के पौधों के सभी सदस्यों में पुष्प लगते हैं, जिनसे बीज फल के अंदर ढकी हुई अवस्था में बनते हैं। ये वनस्पति जगत् के सबसे विकसित पौधे हैं। मनुष्यों के लिये यह उपवर्ग अत्यंत उपयोगी है। बीज के अंदर एक या दो दल होते हैं। इस आधार पर इन्हें एकबीजपत्री और द्विबीजपत्री वर्गों में विभाजित करते हैं। सपुष्पक पौधे में जड़, तना, पत्ती, फूल, फल निश्चित रूप से पाए जाते हैं।
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संवृतबीजी के सदस्यों की बनावट कई प्रकार की होती है, परंतु प्रत्येक में जड़, तना, पत्ती या पत्ती के अन्य रूपांतरित अंग, पुष्प, फल और बीज होते हैं। संवृतबीजी पौधों के अंगों की रचना तथा प्रकार निम्नलिखित हैं:
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पृथ्वी के नीचे का भाग अधिकांशत: जड़ होता है। बीज के जमने के समय जो भाग मूलज या मूलांकुर से निकलता है, उसे ही जड़ कहते हैं। पौधों में प्रथम निकली जड़ जल्दी ही मर जाती है और तने के निचले भाग से रेशेदार जड़े निकल आती हैं। द्विबीजपत्री में प्रथम जड़, या प्राथमिक जड़, सदा ही रहती है। यह बढ़ती चलती है और द्वितीय, तृतीय श्रेणी की जड़, सदा ही रहती है। यह बढ़ती चलती है और द्वितीय, तृतीय श्रेणी की जड़ की शाखाएँ इसमें से निकलती हैं। ऐसी जड़ को मूसला जड़ कहते हैं। जड़ों में मूलगोप तथा मूल रोम होते हैं, जिन के द्वारा पौधे मिट्टी से लवणों का अवशोषण कर बढ़ते हैं। खाद्य एवं पानी प्राप्त करने के अतिरिक्त जड़ पौधों में अपस्थानिक जड़ें भी होते हैं। कुछ पौधों में जड़े बाहर भी निकल आती हैं। जड़ के मध्य भाग में पतली कोशिका से बनी मज्जा रहती है किनारे में दारु तथा फ्लोयम और बाह्यआदिदारुक होते हैं। दारु के बाहर की ओर आदिदारु और अंदर की ओर अनुदारु होते हैं। इनकी रचना तने से प्रतिकूल होती है, संवहन ऊतक के चारों तरफ परिरंभ और बाहर अंत:त्वचा रहते हैं। वल्कुट तथा मूलीय त्वचा बाहर की तरफ रहते हैं।
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यह पृथ्वी के ऊपर के भाग का मूल भाग है, जिसमें अनेकानेक शाखाएँ, टहनियाँ, पत्तियाँ और पुष्प निकलते हैं। बीज के जमने पर प्रांकुल से निकले भाग को तना कहते हैं। यह धरती से ऊपर की ओर बढ़ता है। इससे निकलनेवाली शाखाएँ बहिर्जात होती हैं, अर्थात् जड़ों की शाखाओं की तरह अंत:त्वचा से नहीं निकलतीं वरन् बाहरी ऊतक से निकलती हैं। तने पर पत्ती, पर्णकलिका तथा पुष्पकलिका लगी होती है।
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संवृतबीजों में तने कई प्रकार पाए जाते हैं। इन्हें साधारणतया मजबूत तथा दुर्बल तनों में विभाजित किया जाता है। मजबूत तने काफी ऊँचे बढ़ते जाते हैं। जैसे ताड़ को कोडेक्स तना, या गाँठदार बाँस का कल्म तना इत्यादि। दुर्बल तने भी कई प्रकार के होते हैं, जैसे ट्रेलिंग या अनुगामी, क्रोपिंग इत्यादि। शाखा के तने से निकलने की रिति को "शाखा विन्यास" कहते हैं। अगर एक स्थान से मुख्य शाखा दो भागों में विभाजित हो जाए, तो इसे द्विभाजी विन्यास कहते हैं अन्यथा अगर मुख्य तने के किनारे से टहनियाँ निकलती रहे, तो इन्हें पार्श्व विन्यास कहते हैं। द्विभाजी विभाजन के भी कई रूप होते हैं, जैसे यथार्थ द्विविभाजन, या कुंडलनी, या वृश्चिकी । पार्श्व शाखाएँ या तो अनिश्चित रूप से बढ़ती चलती है, जिसे असीमाक्षी शाखा विन्यास कहते हैं, या वह जिसमें शाखाओं की वृद्धि रुक जाती है और जिसे समीमाक्षी विन्यास कहते हैं।
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तने का कार्य जड़ द्वारा अवशोषित जल तथा लवणों को ऊपर की ओर पहुँचाना है, जो पत्ती में पहुँचकर सूर्य के प्रकाश में संश्लेषण के काम में आते हैं। बने भोजन को तने द्वारा ही पोधे के हर एक भाग तक पहुँचाया जाता है। इसके अतिरिक्त तने पौधों को खंभे के रूप में सीधा खड़ा रखते हैं। ये पत्तियों को जन्म देकर भोजन बनाने तथा पुष्प को जन्म देकर जनन कार्य सम्पन्न करने में सहायक होते हैं। बहुत से तने भोजन का संग्रह भी करते हैं। कुछ तने पतले होने के कारण स्वयं सीधे नहीं उग पाते और अन्य किसी मजबूत आधार या अन्य वृक्ष से लिपटकर ऊपर बढ़ते चलते हैं। कुछ में तने काँटों में परिवर्तित हो जाते हैं। बहुत से पौधों में तने मिट्टी के नीचे उगते हैं और कई तने रूपविशेष धारण कर अलग अलग कार्य करते हैं, जैसे अदरक का परिवर्तित तना, जो खाया जाता है। इसे प्रकंद कहते हैं। आलू भी ऐसा ही तना है जिसे कंद कहते हैं। इन तनों पर भी कलिका रहती है, जो पादप प्रसारण के कार्य आती है। प्याज का खानेवाला भाग मिट्टी के नीचे रहनेवाला तना ही है, जिसे शल्क कंद कहते हैं। इसमें शल्कपत्र तथा अग्रस्थ कलिका दबी पड़ी रहती है। लहसुन, केना, बनप्याजी तथा अन्य कई एक एकबीजपत्री संवृतबीजी में ऐसे तने मिलते हैं। सूरन तथा बंडे का भी खानेवाला भाग भूमिग�� रहता है और यह भी शाखा का ही रूप है, जिसे घन कंद कहते हैं। तने का ऐसा भी रूपांतर कई पौधों में पाया जाता है, जिसका कुछ भाग भूमि के नीचे और कुछ भाग भूमि के ऊपर रहते हुए विशेष कार्य करता है, जैसे दूब घास में तने उर्पार भूस्तारी के रूप पृथ्वी पर पड़े रहते हैं और उनकी पर्वसंधि से जड़ मिट्टी में घुस जाती है। इसी से मिलते जुलते भूस्तारी प्रकार के तने होते हैं, जैसे झूमकलता, या चमेली इत्यादि। भूस्तारी तने जलकुंभी में, तथा अंत: भूस्तारी तने पुदीना में होते हैं।
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कुछ हवाई तने या स्तम्भ भी कई विशेष रूपों में परिवर्तित हो जाते हैं, जैसे नागफनी में चपटे, रस्कस में पत्ती के रूप में तथा कुछ पौधों में अन्य रूप धारण करते हैं।
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आंतरिक रचना में भी स्तम्भ के आकार काफी हद तक एक प्रकार के होते हैं, जिसमें एकबीजपत्री तथा द्विबीजपत्री केवल आंतरिक रचना द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं। स्तंभ में भी बहिर्त्वचा, वल्कुट तथा संवहन सिलिंडर होते हैं। एकबीजपत्री में संवहन पुल बंद अर्थात् गौण वृद्धि न करनेवाले एघा से रहित होता है तथा द्विबीजपत्री में गौण वृद्धि होती है, जो एक प्रकार की सामान्य रीति द्वारा ही होती है। कुछ पौधों में परिस्थिति के कारण, या अन्य कारणों से विशेष प्रकार से भी, गौण वृद्धि होती है।
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संवृतबीजी के पौधों में पत्तियाँ भी अन्य पौधों की तरह विशेष कार्य के लिये होती हैं। इनका प्रमुख कार्य भोजन बनाना है। इनके भाग इस प्रकार है : टहनी से निकलकर पर्णवृत होता है, जिसके निकलने के स्थान पर अनुपर्ण भी हो सकते हैं। पत्तियों का मुख्य भाग चपटा, फैला हुआ पर्णफलक है। इनमें शिरा कई प्रकार से विन्यासित रहती है। पत्तियों के आकार कई प्रकार के मिलते हैं। पत्तियों में छोटे छोटे छिद्र, या रंध्र, होते हैं। अनुपर्ण भी अलग अलग पौधों में कई प्रकार के होते हैं, जैसे गुलाब, बनपालक, स्माइलेक्स, इक्ज़ारा इत्यादि में। नाड़ीविन्यास जाल के रूप में जालिका रूपी तथा समांतर प्रकार का होता है। पहला विन्यास मुख्यत: द्विबीजीपत्री में और दूसरा विन्यास एकबीजपत्री में मिलता है। इन दोनों के कई रूप हो सकते हैं, जैसे जालिकारूप विन्यास आम, पीपल तथा नेनूआ की पत्ती में और समांतररूप विन्यास केला, ताड़, या केना की पत्ती में। शिराओं द्वारा पत्तियों का रूप आकार बना रहता है, जो इन्हें चपटी अवस्था में फैले रखने में मदद ��ेता है और शिराओं द्वारा भोजन, जल आदि पत्ती के हर भाग में पहुँचते रहते हैं। पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं। साधारण तथा संयुक्त, बहुत से संवृतबीजियों में पत्तियाँ विभिन्न प्रकार से रूपांतरित हो जाती हैं, जैसे मटर में ऊपर की पत्तियाँ लतर की तरह प्रतान का रूप धारण करती हैं, या बारबेरी में काँटे के रूप में, विगनोनियाँ में अंकुश की तरह और नागफनी, धतूरा, भरभंडा, भटकटइया में काँटे के रूप में बदल जाती हैं। घटपर्णी में पत्तियाँ सुराही की तरह हो जाती हैं, जिसमें छोटे कीड़े फँसकर रह जाते हैं और जिन्हें यह पौधा हजम कर जाता है। पत्तियों के अंदर की बनावट इस प्रकार की होती हैं कि इनके अंदर पर्णहरित, प्रकाश की ऊर्जा को लेकर, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड को मिलाकर, अकार्बनिक फ़ॉस्फ़ेट की शक्तिशाली बनाता है तथा शर्करा और अन्य खाद्य पदार्थ का निर्माण करता है।
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संवृतबीजी के पुष्प नाना प्रकार के होते हैं और इन्हीं की बनावट तथा अन्य गुणों के कारण संवृतबीजी का वर्गीकरण किया गया है। परागण के द्वारा पौधों का निषेचन होता है। निषेचन के पश्चात् भ्रूण धीरे धीरे विभाजित होकर बढ़ता चलता है। इसकी भी कई रीतियाँ हैं जिनका भारतीय वनस्पति विज्ञानी महेश्वरी ने कॉफी विस्तार से अध्ययन किया है। भ्रूण बढ़ते बढ़ते एक या दो दलवाले बीज बनाता है, परंतु उसके चारों तरफ का भाग अर्थात् अंडाशय, तथा स्त्रीकेसर का पूरा भाग बढ़कर फल को बनाता है। बीजों को ये ढँके रहते हैं। इसी कारण इन बीजों को आवृतबीजी या संवृतबीजी कहते हैं। फल भी कई प्रकार के होते हैं, जिनमें मनुष्य के उपयोग में कुछ आते हैं। सेब में पुष्पासन का भाग, अमरूद में पुष्पासन तथा फलावरण, बेल में बीजांडासन का भाग, नारियल में भ्रूणपोष का भाग खाया जाता है।
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संवृतबीजियों का वर्गीकरण कई वनस्पति-वर्गीकरण-वैज्ञानिकों द्वारा समय समय पर हुआ है। ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व थियोफ्रस्टस ने कुछ लक्षणों के आधार पर वनस्पतियों का वर्गीकरण किया था। भारत में बेंथम और हूकर तथा ऐंगलर प्रेंटल ने वर्गीकरण किया है। सभी ने संवृतबीजियों को एकबीजपत्री और द्विबीजपत्रियों में विभाजित किया है।
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पेटालयडी के अंतर्गत ऐसा एकबीजी कुल रखा जाता है जिसके पौधों के पुष्प में दलचक्र हों, जैसे केना, कमेलाइना, प्याज इत्यादि। स्पैडिसिफ्लोरी में स्पादीक्स् प्रकार का पुष्पक्रम पाया जाता है, जैस केला में। ग्लुमिफ्लोरी में मुख्य कुल ग्रामीनेऐ और साइप्रेसी है। ग्रैमिनी तो संसार का सर्वमान्य तथा उपयोगी कुल है। इसके सदस्य मुख्यत: मनुष्य तथा पालतू पशु, गाय, भैंस इत्यादि के आहार के रूप में काम आते हैं। जौ, गेहूँ, मक्का, बाजरा, ज्वार, धान, दूब, दीखान्थ्युम्, मूँज, पतलो, खस इसी कुल के सदस्य हैं। एकबीजपत्री के अन्य उदाहरण, ताड़, खजूर, ईख, बाँस, प्याज, लहसुन इत्यादि है।
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द्विबीजपत्री पौधों की तो कई हजार जातियाँ पाई जाती हैं। इनके अंतर्गत कई कुल हैं और प्रत्येक कुल में अनेक पेड़ पौधे हैं।
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संवृतजीवी पौधे अनेक रूपों में मनुष्य के काम आते हैं। कुछ संवृतवीजी पौधे तो खानेवाले अनाज हैं, कुछ दलहन, कुछ फल और कुछ शाक सब्जी। कुछ पौधे हमें चीनी प्रदान करते हैं तो कुछ से हमें पेय, कॉफी, चाय, फल नीबू प्राप्त होते हैं। कुछ से मदिरा बनाने के लिए अंगूर, संतरा, महुआ, माल्ट आदि मिलते हैं। वस्त्र के लिए कपास, जूट, औषधियों के लिए सर्पगंधा, सिंकोना, यूकेलिप्टस, भृंगराज, तुलसी, गुलबनफ़सा, आँवला इत्यादि हैं। इमारती लकड़ी टीक, साल एवं शीशम से, रंग नील, टेसू इत्यादि से और रबर हीविया, आर्टोकार्पस इत्यादि वृक्षों से प्राप्त होते हैं। वनस्पति जगत् का संवृतबीजी बड़ा व्यापक और उपयोगी उपवर्ग है। पृथ्वी के हर भाग में यह बहुतायत से उगता है।
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विधि किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है।
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विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवर्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देता है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है।
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विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि के विधान' का आशय 'विधाता द्वारा बनाये हुए कानून' से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है।
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आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है।
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कानून या विधि का मतलब है मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित और संचालित करने वाले नियमों, हिदायतों, पाबंदियों और हकों की संहिता। लेकिन यह भूमिका तो नैतिक, धार्मिक और अन्य सामाजिक संहिताओं की भी होती है। दरअसल, कानून इन संहिताओं से कई मायनों में अलग है। पहली बात तो यह है कि कानून सरकार द्वारा बनाया जाता है लेकिन समाज में उसे सभी के ऊपर समान रूप से लागू किया जाता है। दूसरे, ‘राज्य की इच्छा’ का रूप ले कर वह अन्य सभी सामाजिक नियमों और मानकों पर प्राथमिकता प्राप्त कर लेता है। तीसरे, कानून अनिवार्य होता है अर्थात् नागरिकों को उसके पालन करने के चुनाव की स्वतंत्रता नहीं होती। पालन न करने वाले के लिए कानून में दण्ड की व्यवस्था होती है। लेकिन, कानून केवल दण्ड ही नहीं देता। वह व्यक्तियों या पक्षों के बीच अनुबंध करने, विवाह, उत्तराधिकार, लाभों के वितरण और संस्थाओं को संचालित करने के नियम भी मुहैया कराता है। कानून स्थापित सामाजिक नैतिकताओं की पुष्टि की भूमिका भी निभाता है। चौथे, कानून की प्रकृति ‘सार्वजनिक’ होती है क्योंकि प्रकाशित और मान्यता प्राप्त नियमों की संहिता के रूप में उसकी रचना औपचारिक विधायी प्रक्रियाओं के ज़रिये की जाती है। अंत में कानून में अपने अनुपालन की एक नैतिक बाध्यता निहित है जिसके तहत वे लोग भी कानून का पालन करने के लिए मजबूर होते हैं जिन्हें वह अन्यायपूर्ण लगता है। राजनीतिक व्यवस्था चाहे लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, उसे कानून की किसी न किसी संहिता के आधार पर चलना पड़ता है। लेकिन, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बदलते समय के साथ अप्रासंगिक हो गये या न्यायपूर्ण न समझे जाने वाले कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है। कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिए नागरिकों को शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरुआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर ज़बरदस्त बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र और विधायी मूल्य-प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
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संविधानसम्मत आधार पर संचालित होने वाले उदारतावादी लोकतंत्रों में ‘कानून के शासन’ की धारणा प्रचलित होती है। इन व्यवस्थाओं में कानून के दायरे के बाहर कोई काम नहीं करता, न व्यक्ति और न ही सरकार। इसके पीछे कानून का उदारतावादी सिद्धांत है जिसके अनुसार कानून का उद्देश्य व्यक्ति पर पाबंदियाँ लगाना न हो कर उसकी स्वतंत्रता की गारंटी करना है। उदारतावादी सिद्धांत मानता है कि कानून के बिना व्यक्तिगत आचरण को संयमित करना नामुमकिन हो जाएगा और एक के अधिकारों को दूसरे के हाथों हनन से बचाया नहीं जा सकेगा। इस प्रकार जॉन लॉक की भाषा में कानून का मतलब है जीवन, स्वतंत्रता और सम्पत्ति की रक्षा के लिए कानून। उदारतावादी सिद्धांत स्पष्ट करता है कि कानून के बनाने और लागू करने के तरीके कौन-कौन से होने चाहिए। उदाहरणार्थ, कानून निर्वाचित विधिकर्त्ताओं द्वारा आपसी विचार-विमर्श के द्वारा किया जाना चाहिए। दूसरे, कोई कानून पिछली तारीख़ से लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस सूरत में वह नागरिकों को उन कामों के लिए दण्डित करेगा जो तत्कालीन कानून के मुताबिक किये गये थे। इसी तरह उदारतावादी कानून क्रूर और अमानवीय किस्म की सज़ाएँ देने के विरुद्ध होता है। राजनीतिक प्रभावों से निरपेक्ष रहने वाली एक निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना की जाती है ताकि कानून की व्यवस्थित व्याख्या करते हुए पक्षकारों के बीच उसके आधार पर फ़ैसला हो सके। मार्क्सवादियों की मान्यता है कि कानून के शासन की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी करने के नाम पर सम्पत्ति संबंधी अधिकारों की रक्षा करते हुए पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा के काम आती है। इसका नतीजा सामाजिक विषमता और वर्गीय प्रभुत्व को बनाये रखने में निकलता है। मार्क्स कानून को राजनीति और विचारधारा की भाँति उस सुपरस्ट्रक्चर या अधिरचना का हिस्सा मानते हैं जिसका बेस या आधार पूँजीवादी उत्पादन की विधि पर रखा जाता है। नारीवादियों ने भी कानून के शासन की अवधारणा की आलोचना की है कि वह लैंगिक निष्पक्षता पर आधारित नहीं है। इसीलिए न्यायपालिका और कानून के पेशे पर पुरुषों का कब्ज़ा रहता है। बहुसंस्कृतिवाद के पैरोकारों का तर्क है कि कानून असल में प्रभुत्वशाली सांस्कृतिक समूहों के मूल्यों और रवैयों की नुमाइंदगी ही करता है। परिणामस्वरूप अल्पसंख्यक और हाशियाग्रस्त समूहों के मूल्य और सरोकार नज़रअंदाज़ किये जाते रहते हैं।
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कानून और नैतिकता के बीच अंतर के सवाल पर दार्शनिक शुरू से ही सिर खपाते रहे हैं। कानून का आधार नैतिक प्रणाली में मानने वालों का विश्वास ‘प्राकृतिक कानून’ के सिद्धांत में है। प्लेटो और उनके बाद अरस्तू की मान्यता थी कि कानून और नैतिकता में नज़दीकी रिश्ता होता है। एक न्यायपूर्ण समाज वही हो सकता है जिसमें कानून नैतिक नियमों पर आधारित प्रज्ञा की पुष्टि करते हों। मध्ययुगीन ईसाई विचारक थॉमस एक्विना भी मानते थे कि इस धरती पर उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिए नेचुरल लॉ यानी ईश्वर प्रदत्त नैतिकताओं के मुताबिक कानून होने चाहिए। उन्नीसवीं सदी में बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा बढ़ने के कारण प्राकृतिक कानून का सिद्धांत निष्प्रभावी होता चला गया। कानून को नैतिक, धार्मिक और रहस्यवादी मान्यताओं से मुक्त करने की कोशिशें हुईं। जॉन आस्टिन ने ‘विधिक प्रत्यक्षतावाद’ की स्थापना की जिसका दावा था कि कानून का सरोकार किसी उच्चतर नैतिक या धार्मिक उसूल से न हो कर किसी सम्प्रभु व्यक्ति या संस्था से होता है। कानून इसलिए कानून है कि उसका पालन करवाया जाता है और करना पड़ता है। विधिक प्रत्यक्षतावाद की कहीं अधिक व्यावहारिक और नफ़ीस व्याख्या एच.एल.ए. हार्ट की रचना 'द कंसेप्ट ऑफ़ लॉ' में मिलती है। हार्ट कानून को नैतिक नियमों के दायरे से निकाल कर मानव समाज के संदर्भ में परिभाषित करते हैं। उनके मुताबिक कानून प्रथम और द्वितीयक नियमों का संयोग है। प्रथम श्रेणी के नियमों को 'कानून के सार' की संज्ञा देते हुए हार्ट कहते हैं कि उनका सम्बन्ध सामाजिक व्यवहार के विनियमन से है। जैसे, फ़ौजदारी कानून। द्वितीय श्रेणी के नियम सरकारी संस्थाओं को हिदायत देते हैं कि कानून किस तरह बनाया जाए, उनका किस तरह कार्यान्वयन किया जाए, किस तरह उसके आधार पर फ़ैसले किये जाएँ और इन आधारों पर किस तरह उसकी वैधता स्थापित की जाए। हार्ट द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रत्यक्षतावाद के सिद्धांत की आलोचना राजनीतिक दार्शनिक रोनॉल्ड ड्वॅर्किन ने की है। उनके अनुसार कानून केवल नियमों की संहिता ही नहीं होता और न ही आधुनिक विधि प्रणालियाँ कानून की वैधता स्थापित करने के लिए किसी एक समान तरीके का प्रावधान करती हैं।
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कानून और नैतिकता के बीच संबंध की बहस नाज़ियों के अत्याचारों को दण्डित करने वाले न्यूरेम्बर्ग मुकदमे में भी उठी थी। प्रश्न यह था कि क्या उन कामों को अपराध ठहराया जा सकता है जो राष्ट्रीय कानून के मुताबिक किये गये हों? इसके जवाब के लिए प्राकृतिक कानून की अवधारणा का सहारा लिया गया, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति मानवाधिकारों की भाषा में हुई। दरअसल कानून और नैतिकता के रिश्ते का प्रश्न बेहद जटिल है और गर्भपात, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफ़ी, टीवी और फ़िल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा, अपनी कोख किराए पर देने वाली माताओं और जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे मसलों के सदंर्भ में बार-बार उठती रहती है।
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1. एच.एल.ए. हार्ट, द कंसेप्ट ऑफ़ लॉ, क्लैरंडन प्रेस, ऑक्सफ़र्ड.
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2. रोनॉल्ड ड्वॉर्किन, लाज़ एम्पायर, कोलिंस, लंदन, 1986
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3. जे. रैज़, द अथॉरिटी ऑल लॉ, क्लैरंडन प्रेस, ऑक्सफ़र्ड
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4. ओ. डब्ल्यू. होम्स, द प्योर थियरी ऑफ़ लॉ, युनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस, बरकल.
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5. एच. कोलिंस, मार्क्सिज़म ऐंड लॉ, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफ़र्ड.
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यह लेख आंग्ल-भारतीय गोलमेज सम्मेलन के बारे में है। डच-इन्डोनेशियाई गोलमेज सम्मेलन के लिए, डच-इन्डोनेशियाई गोलमेज सम्मेलन देखिये। गोलमेज के अन्य उपयोगों के लिए, कृपया गोलमेज देखें।
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नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया। अंग्रेज़ सरकार द्वारा भारत में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा के लिए 1930-32 के बीच सम्मेलनों की एक श्रृंखला के तहत तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किये गए थे। ये सम्मलेन मई 1930 में साइमन आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट के आधार पर संचालित किये गए थे। भारत में स्वराज, या स्व-शासन की मांग तेजी से बढ़ रही थी। 1930 के दशक तक, कई ब्रिटिश राजनेताओं का मानना था कि भारत में अब स्व-शासन लागू होना चाहिए। हालांकि, भारतीय और ब्रिटिश राजनीतिक दलों के बीच काफी वैचारिक मतभेद थे, जिनका समाधान सम्मलेनों से नहीं हो सका।
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पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए, इसी कारण अंतत: यह बैठक निरर्थक साबित हुई। यह आधिकारिक तौर पर जॉर्ज पंचम ने 12 नवम्बर 1930 को प्रारम्भ किया और इसकी अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री, रामसे मैकडॉनल्ड ने की। तीन ब्रिटिश राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व सोलह प्रतिनिधियों द्वारा किया गया। अंग्रेजों द्वारा शासित भारत से 57 राजनीतिक नेताओं और रियासतों से 16 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हालांकि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और व्यापारिक नेताओं ने सम्मलेन में भाग नहीं लिया। उनमें से कई नेता सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के कारण जेल में थे।
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जनवरी 1931 में गाँधी जी को जेल से रिहा किया गया। अगले ही महीने वायसराय के साथ उनकी कई लंबी बैठके हुईं। इन्हीं बैठकों के बाद गांधी-इरविन समझौते पर सहमति बनी जिसकी शर्तो में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना, सारे कैदियों की रिहाई और तटीय इलाकों में नमक उत्पादन की अनुमति देना शामिल था। रैडिकल राष्ट्रवादियों ने इस समझौते की आलोचना की क्योंकि गाँधी जी वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हासिल नहीं कर पाए थे। गाँधी जी को इस संभावित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल वार्ताओं का आश्वासन मिला था।
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एक अखिल भारतीय महासंघ बनाने का विचार चर्चा का मुख्य बिंदु बना रहा। सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी समूहों ने इस अवधारणा का समर्थन किया। कार्यकारिणी सभा से व्यवस्थापिका सभा तक की जिम्मेदारियों पर चर्चा की गई और बी.आर. अम्बेडकर ने अछूत लोगों के लिए अलग से राजनीतिक प्रतिनिधि की मांग की।यह वास्तव मे दलितो के लिए उपहार था। उनको भी इस प्रकार अंदेखा नहीं किया जा सकता था।
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दूसरा गोल मेज सम्मेलन 1931 के आखिर में लंदन में आयोजित हुआ। उसमें गाँधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे। गाँधी जी का कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती दी। मुस्लिम लीग का कहना था कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है। तीसरी चुनौती तेज-तर्रार वकील और विचारक बी आर अंबेडकर की तरफ़ से थी जिनका कहना था कि गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। लंदन में हुआ यह सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका इसलिए गाँधी जी को खाली हाथ लौटना पड़ा। भारत लौटने पर उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया।
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नए वायसराय लॉर्ड विलिंग्डन को गाँधी जी से बिलकुल हमदर्दी नहीं थी। अपनी बहन को लिखे एक निजी खत में विलिंग्डन ने लिखा था कि-
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बहरहाल, 1935 में नए गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट में सीमित प्रातिनिधिक शासन व्यवस्था का आश्वासन व्यक्त किया गया। दो साल बाद सीमित मताधिकार के आधिकार पर हुए चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त सफ़लता मिली। 11 में से 8 प्रांतों में कांग्रेस के प्रतिनिधि सत्ता में आए जो ब्रिटिश गवर्नर की देखरेख में काम करते थे। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के सत्ता में आने के दो साल बाद, सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू, दोनों ही हिटलर व नात्सियों के कड़े आलोचक थे। तदनुरूप, उन्होंने फ़ैसला लिया कि अगर अंग्रेज युद्ध समाप्त होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने पर राजी हों तो कांग्रेस उनके युद्द्ध प्रयासों में सहायता दे सकती है। सरकार ने उनका प्रस्ताव खारिज कर दिया। इसके विरोध में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने अक्टूबर 1939 में इस्��ीफ़ा दे दिया।
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पहले गोलमेज सम्मलेन से दूसरा गोलमेज सम्मेलन तीन प्रकार से भिन्न था। दूसरे सम्मलेन के प्रारम्भ होने तक:
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सम्मेलन के दौरान, गांधीजी मुस्लिम प्रतिनिधित्व और सुरक्षा उपायों पर मुसलमानों के साथ कोई समझौता नहीं कर पाए। सम्मेलन के अंत में रामसे मैकडोनाल्ड ने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के संबंध में एक सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की और उसमें यह प्रावधान रखा गया कि राजनीतिक दलों के बीच किसी भी प्रकार के मुक्त समझौते को इस निर्णय के स्थान पर लागू किया जा सकता है।
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गांधी ने अछूतों को हिन्दू समुदाय से अलग एक अल्पसंख्यक समुदाय का दर्ज़ा देने के मुद्दे का विशेष रूप से विरोध किया। उनका अछूतों के नेता बी.आर. अम्बेडकर के साथ इस मुद्दे पर विवाद हुआ। अंततः दोनों नेताओं ने इस समस्या का हल 1932 की पूना संधि द्वारा निकाला।
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मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के नाम से एक पृथक राष्ट्र की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया और उसे अपना लक्ष्य घोषित कर दिया। अब राजनीतिक भूदृश्य का्फ़ी जटिल हो गया था : अब यह संघर्ष भारतीय बनाम ब्रिटिश नहीं रह गया था। अब यह कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश शासन, तीन धुरियों के बीच का संघर्ष था। इसी समय ब्रिटेन में एक सर्वदलीय सरकार सत्ता में थी जिसमें शामिल लेबर पार्टी के सदस्य भारतीय आकांक्षाओं के प्रति हमदर्दी का रवैया रखते थे लेकिन सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल कट्टर साम्राज्यवादी थे। उनका कहना था कि उन्हें सम्राट का सर्वोच्च मंत्री इसलिए नहीं नियुक्त किया गया है कि वह ब्रिटिश साम्राज्य को टुकड़े-टुकड़े कर दें।
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1942 के वसंत में चर्चिल ने गाँधी जी और कांग्रेस के साथ समझौते का रास्ता निकालने के लिए अपने एक मंत्री सर स्टेप्फ़ार्ड क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स के साथ वार्ता में कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया कि अगर धुरी शक्तियों से भारत की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन कांग्रेस का समर्थन चाहता है तो वायसराय को सबसे पहले अपनी कार्यकारी परिषद् में किसी भारतीय को एक रक्षा सदस्य के रूप में नियुक्त करना चाहिए। इसी बात पर वार्ता टूट गई। जिस से कहीं राजनेतिक विचार बने।
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तीसरा और अंतिम सत्र 17 नवम्बर 1932 को प्रारम्भ हुआ। मात्र 46 प्रतिनिधियों ने इस सम्मलेन में भाग लिया क्योंकि अधिकतर मुख्य भारतीय राजनीतिक प्रमुख इस सम��मलेन में मौजूद नहीं थे। ब्रिटेन की लेबर पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस सत्र में भाग लेने से इनकार कर दिया।
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इस सम्मेलन में एक कॉलेज छात्र चौधरी रहमत अली ने विभाजित भारत के मुस्लिम भाग का नाम "पाकिस्तान" रखा। उसने पंजाब का 'पी' पंजाब, अफगान से 'ए', कश्मीर से 'कि', सिंध से "स" और बलूचिस्तान से "तान" लेकर यह शब्द बनाया। जिन्ना ने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया।
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सितंबर, 1931 से मार्च, 1933 तक, सैमुअल होअरे के पर्यवेक्षण में, प्रस्तावित सुधारों को लेकर प्रपत्र बनाया गया; जिसके आधार पर भारत सरकार का 1935 का अधिनियम बना।
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दिक्-काल या स्पेस-टाइम की संकल्पना, अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा उनके सापेक्षता के सिद्धांत में दी गई थी| उनके अनुसार तीन दिशाओं की तरह, समय भी एक आयाम है और भौतिकी में इन्हें एक साथ चार आयामों के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि वास्तव में ब्रह्माण्ड की सभी चीज़ें इस चार-आयामी दिक्-काल में रहती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं जब भिन्न वस्तुओं को इन सभी-आयामों का अनुभव अलग-अलग प्रतीत हो।
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दिक् और काल का संबध हमारे नित्य व्यवहार में इतना अधिक आता है कि इनके विषय में कुछ अधूरी सी किंतु दृढ़ धारणाएँ हमारे मन में बचपन से ही होना स्वाभाविक है। कवियों ने दिक् और काल की गंभीर, विशाल तथा सुंदर कल्पनाओं का वर्णन किया है। दर्शन में और पाश्चात्य मनोविज्ञान में भी इनके विषय में पुरातन काल से सोच विचार होता आ रहा है। कणाद के वैशेषिक दर्शन में आकाश, दिक् और काल की धारणाएँ सुस्पष्ट दी गई हैं और इनके गुणों का भी वर्णन किया गया है। इंद्रियजन्य अनुभवों से जो ज्ञान मिलता है उसमें दिक् और काल का संबंध अवश्य ही होता है। इस ज्ञान की यदि वास्तविकता समझा जाए तो दिक् और काल वस्तविकता से अलग नहीं हो सकते। प्रत्येक दार्शनिक संप्रदाय ने वस्तविकता, दिक् और काल, इनके परस्पर संबंधों की अपनी अपनी धारणाएँ दी हैं, जिनमें ऐकमत्य नहीं है। गणित में भी दिक् और काल का अप्रत्यक्ष रीति से संबंध आता है। अत: प्रतिष्ठित भौतिकी का विकास इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। भौतिकी के कुछ प्रायोगिक फल जब इन धारणाओं से विसंगत दिखाई देने लगे, तब ये धारणाएँ विचलित होने लगीं एवं आपेक्षितावाद ने दिक् और काल का नया स्वरूप स्थापित किया, जो अनेक प्रयोगों द्वारा प्रमाणित और फलत: अब सर्वसम्मत हो चुका है। दिक् तथा काल का यह नया स्वरूप केवल भिन्न ही नहीं वरन् समझने में भी अत्यंत कठिन है, क्योंकि इसके प्रतिपादन में विशिष्ट गणित का उपयोग आवश्यक होता है। अत: जहाँ-जहाँ दिक् तथा काल संबंध आता है उसका स्पष्टीकरण पहले स्थूल दृष्टि से, तत्पश्चात् सूक्ष्म दृष्टि से और अंत में भौतिकी की दृष्टि से करना अधिक सरल होगा।
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इंद्रियजन्य अनुभवों से जो दिक् के गुणों का प्रत्यय आता है, उससे दिक् के विभिन्न प्रकार माने जा सकते हैं। अनुभवों के बुद्धि पर जो परिणाम होते हैं उनका ���ृथक्करण करके धारणाएँ बनती हैं। इस प्रकार स्वानुभव से दिक् की जो धारणा बनती है उसे "स्व-दिक्' अथवा "व्यक्तिगत दिक्' कहा जाता है। इंद्रियजन्य अनुभवों में अनेक अनुभव समस्त व्यक्तियों के लिए समान होते हैं और ऐसे अनुभव जिस घटना से मिलते हैं, उसे "वास्तव' कहा जाता है। वास्तव घटनाओं के समुदायों से "वास्तविकता' की धारणा बनती है। इंद्रियों से दृष्टि, स्पर्श, ध्वनि, रस और गंध के अनुभव मिलते हैं, किंतु ये अनुभव सर्वदा विश्वास के योग्य होते हैं, ऐसा नहीं है। प्रकाशकीय संभ्रम तो सुप्रसिद्ध हैं ही। स्पर्श के भी संभ्रम व्यवहार में नित्य प्रतीत होते हैं, जैसे दो दाँतों के बीच की खोह जीभ को जितनी लगती है उससे कम छोटी उँगली को लगती है। प्राय: ऐसा ही प्रकार सब तरह के इंद्रियजन्य अनुभवों का होता है। अत: इन अपूर्ण अनुभवों से व्यक्तिगत दिक् की जो धारणा बनती है वह भ्रममूलक ही होती है। मापनदंड तथा अन्य उचित यंत्रों की सहायता से इंद्रियों की मर्यादित ग्राहकता बढ़ाई जा सकती है और इस प्रकार अनेक घटनाओं का भ्रमनिरसन हो सकता है। प्रयोगों में मापन करके दिक् की जो धारणा होती है उसे "भौतिक दिक् कहा जाता है। मापन के लिए मापनदंड का उपयोग किया जाता है।
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अनुभवों में दिक् का संबंध चार प्रकार से आता है और इन चारों प्रकारों पर विचार करके दिक् के गुणों की व्यावहारिक कल्पनाएँ बनती हैं। किसी वस्तु के स्थल का निर्देश जब वहाँ कहकर किया जाता है, तब दिक् के एक स्वरूप की कल्पना आती है और इसका अर्थ यह भी माना जाता है कि दिक् का अस्तित्व स्वतंत्र है। किसी वस्तु के स्थल का निर्देश अन्य वस्तु के "सापेक्ष' करने पर दिक् की "सापेक्ष स्थिति' में दूसरा स्वरूप दिखई देता है। दिक् का तीसरा स्वरूप वस्तुओं के "आकार' से मिलता है, जिससे दिक् की विभाज्यता की भी कल्पना की जा सकती है। आकाश की ओर देखने से दिक् की "विशालता' का चौथा स्वरूप दिखाई देता है। इन चार प्रकार के स्वरूपों से ही प्राय: दिक् के संबध में व्यावहारिक धारणाएँ बनती हैं और दिक् के गुण भी सूचित होते हैं।
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घटनाओं से प्राप्त इंद्रियजन्य अनुभवों का विचर किया जाए तो उनके दो प्रकार होते हैं। घटनाओं के स्थानभेद से दिक् की कल्पना होती है और उनके क्रम-भेद से काल की कल्पना होती है। इस प्रकार दिक् और काल हमारी विचारधारा में संदिग्ध रूप से प्र��ेश करते हैं। दिक् जैसा ही काल भी व्यक्तिगत होता है और प्रत्येक व्यक्ति की कालगणना स्वतंत्र तथा स्वेच्छ होती है। इतना ही नहीं, इस स्व-काल की गणना में भी परिवर्तन होता है और वह व्यक्ति के स्वास्थ्य, अवस्था इत्यादि स्थितियों पर निर्भर करता है, जैसे, किसी कार्य में मनुष्य मग्न हो तो काल तेजी से कटता है। अत: व्यक्तिगत अथवा स्व-काल विश्वास योग्य नहीं रहता। किसी प्राकृतिक घटना से - दिन और रात से - जो काल का मापन होगा वह व्यक्तिगत नहीं रहेगा और सब लोगों के लिए समान होगा। अत: ऐसे काल को सार्वजनिक काल कहा जाता है। दिन और रात काल के स्थूल विभाग हैं। इनके छोटे विभाग किए जाएँ तो व्यवहार में कालमापन के लिए वे अधिक उपयुक्त होते हैं। इसलिए प्रहर, घटिका, पल विपल अथवा घंटा, मिनट, सेकंड इत्यादि विभाग किए गए। सामान्यत: काल का मापन घड़ी से होता है।
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दिक् की भाँति काल के भी चार स्वरूप व्यवहार में दिखाई देते हैं। किसी घटना अथवा अनुभव से "कब?' प्रश्न उपस्थित होता है और इसका दिक् विषयक "कहाँ' से साम्य है। इस कल्पना से काल का अस्तित्व स्वतंत्र समझा जाता है। किसी घटना के काल के सापेक्ष दूसरी घटना का वर्णन करते समय काल का सापेक्ष स्वरूप दिखाई देता है। दो घटनाओं के बीच के काल से काल का जो स्वरूप दिखाई देता है वह दिक् के आकार से समान है। वैसे ही काल के अनादि, अनंत इत्यादि विशेषणों से काल की विशालता दिखाई दती है। दिक् तथा काल के चारों स्वरूपों को, या गुणों को कहिए, मिलाकर विचार करने पर इनके विषय में हमारी जो धारणाएँ बनती हैं उनको "स्व' या "व्यक्तिगत' अथवा "मनोवैज्ञानिक' दिक् और काल कहा जाता है।
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दिक् तथा काल की धारणाओं को निश्चित रूप देने के लिए उनका मापन करने के साधन आवश्यक होते हैं। दिक् के मापन के लिए दृढ़ पदार्थों के दंड, औजार तथा यंत्र उपयोग में लाए जाते हैं। इन उपकरणों से लंबाई, कोण, क्षेत्रफल, आयतन इत्यादि वस्तुओं के गुणों के मापन होते है। इन मापनों के समय बिंदु, रेखा, समतल इत्यादि की धारणाएँ बनती जाती हैं। जब अनेक पुनरावृत्तियों से ये धारणाएँ दृढ़ हो जाती हैं, तब बिंदु, रेखा, समतल इत्यादि का स्थान मौलिक होता है और भौतिक वस्तुएँ इन धारणाओं से दूर हो जाती हैं। अब इन धारणाओं की और यूक्लिडीय ज्यामिति की मौलिक धारणाओं की समानता स्पष्ट होगी। दृढ़ वस्तुओं को समाविष्ट करके दिक् के, अथवा वस्तुओं के, मापन से दिक् की जो धारणा होती है उसे ज्यामितीय अथवा यूक्लिडीय दिक् कहा जाता है। यह स्पष्ट है कि दिक् की इस धारणा से उसके जो गुण समझे जाते हैं वे केवल यूक्लिडीय ज्यामिति की परिभाषाओं, स्वयंसिद्ध और कल्पनाओं के ऊपर ही निर्भर होते हैं। दिक् की हमारी व्यावहारिक धारणा और मापन से निश्चित की हुई यह ज्यामितीय धारणा, क्रमश: हमारी स्थूल दृष्टि और सूक्ष्म दृष्टि के स्वरूप हैं।
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यूक्लिडीय ज्यामिति पर निर्धारित दिक् की यह धारणा यद्यपि स्वाभाविक दिखाई देती होगी, तथापि इसका विश्लेषण करने की आवश्यता है। यूक्लिडीय ज्यामिति में कुछ परिभाषाएँ तथा कुछ स्वयंसिद्ध तथ्य दिए हुए हैं और इनका तार्किक दृष्टि से विकास किया गया है। ये धारणाएँ केवल काल्पनिक और स्वतंत्र हैं। थोड़ा ही विचार करने पर यह स्पष्ट होगा कि यूक्लिडीय ज्यामिति का व्यवहार की वस्तुओं से कोई भी वास्तविक संबंध नहीं है। अपनी मूल कल्पनाओं को विकसित करते समय उनका परस्पर तर्कसंगत संबंध रखना और एक "काल्पनिक' गणित शास्त्र का निर्मांण करना, इतना ही इस ज्यामिति का मूल उद्देश्य था। इस उद्देश्य में यह ज्यामिति अत्यंत ही सफल रही। इस ज्यामिति का और भी विस्तार करके उसे "व्यावहारिक' बनाने के लिए "आदर्श दृढ़ वस्तु' की परिभाषा यह है कि इसके दो बिंदुओं का अंतर किसी भी परिस्थिति में उतना ही रहता है। मापन दंड अथवा अन्य औजारों का उपयोग इसी विशेषता पर निर्भर करता है। वस्तुत: इस प्रकार "आदर्श दृढ़ वस्तु' को समाविष्ट करने पर यूक्लिडीय ज्यामिति का स्वरूप बदल जाता है और उसको अब हम भौतिकी का एक विभाग समझ सकते हैं। किंतु व्यवहार में यूक्लिडीय ज्यामिति का यह परिवर्तन इस दृष्टि से नहीं देखा जाता। मापन करने पर व्यावहारिक वस्तुओं के मापन के लिए यूक्लिडीय ज्यामिति के सिद्धांत यथार्थ दिखाई देते हैं। इसलिए यूक्लिडीय ज्यामिति को "वास्तविक' समझा जाने लगा।
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व्यावहारिक अनुभव और यूक्लिडीय ज्यामिति का दृष्टि से न्यूटन ने अपनी दिक् और काल की धारणाएँ निश्चित रूप से प्रस्तुत की और प्रतिष्ठित भौतिकी का विकास प्राय: वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ तक इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। न्यूटन ने दिक् को स्वतंत्र सत्ता समझकर उसके गुण भी दिए। न्यूटन के अनुसार दिक् के गुण सर्व दिशाओं में तथा सर्व बिंदुओं पर समान ही हो���े हैं, अर्थात् दिक् समदिक्, समांग तथा एक समान है। अत: पदार्थों के गुण दिक् में सभी स्थानों पर समान ही होते हैं। दिक् अनंत है और न्यूटन के दिक् में लंबाई, काल तथा गति से अबाधित रहती है। काल के विषय में भी न्यूटन ने अपनी धारणा दी है और यह धारणा भी उस समय के भौतिकी के विकास के अनुसार ही थी। न्यूटन के अनुसार काल भी एक स्वतंत्र सत्ता है। काल का विशेष गुण यह है कि वह समान गति से सतत और सर्वत्र "बहता' है और किसी भी परिस्थिति का उसके ऊपर कोई भी परिणाम नहीं होता। काल भी अनंत है। सारांश में, न्यूटन के अनुसार दिक् तथा काल दोनों ही स्वतंत्र और निरपेक्ष सत्ताएँ होती हैं। न्यूटन आदि की यांत्रिकी इन्हीं धारणाओं पर निर्भर थी। यांत्रिकी में गति और त्वरण, इन दोनों के लिए दिक् और काल को निश्चित रूप देना आवश्यक था और उस समय तो इन धारणाओं में कोई भी त्रुटि दिखाई नहीं देती थी। वैसे ही भौतिकी में न्यूटन का इतना प्रभाव था कि इन धारणाओं पर शंका प्रदर्शित करना संभव नहीं था।
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बोल्याई, लोबातचेवस्की, रीमान इत्यादि गणितज्ञों ने यह सिद्ध किया कि यूक्लिडीय ज्यामिति के कुछ स्वयंतथ्यों में उचित परिवर्तन करने पर अयूक्लिडीय ज्यामितियों का निर्माण हो सकता है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियों के अनेक सिद्धांत यूक्लिडीय ज्यामिति के सिद्धांतों से भिन्न होते हैं, तथापि वे अयोग्य नहीं होते हैं। विशेषत: रीमान के अयूक्लिडीय ज्यामिति से यह स्पष्ट हुआ कि यूक्लिडीय ज्यामिति ही केवल मौलिक नहीं है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियाँ कल्पना करने में कठिन होती हैं, तथापि तर्कसम्मत होने से उनके फल अत्यंत रोचक तथा उपयुक्त होते हैं। इनमें तीन से अधिक विमितियों के दिक् की जो कल्पना होती है, उस दिक् की वक्रता की कल्पना विशेष रूप से उपयुक्त हुई।
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क्व भूतं क्व भविष्यद् वा वर्तमानमपि क्व वा | क्व देशः क्व च वा नित्यं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ||19- 3||
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देशकालविमुक्तोअस्मि दिगम्बरसुखोअस्म्यहम्| नास्ति नास्ति विमुक्तोअस्मि नकाररहितोअस्म्यहम् ||
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गर्भनिरोध को जन्म नियंत्रण और प्रजनन क्षमता नियंत्रण के नाम से भी जाना है ये गर्भधारण को रोकने के लिए विधियां या उपकरण हैं। जन्म नियंत्रण की योजना, प्रावधान और उपयोग को परिवार नियोजन कहा जाता है। सुरक्षित यौन संबंध, जैसे पुरुष या महिला निरोध का उपयोग भीयौन संचरित संक्रमण को रोकने में भी मदद कर सकता है। जन्म नियंत्रण विधियों का इस्तेमाल प्राचीन काल से किया जा रहा है, लेकिन प्रभावी और सुरक्षित तरीके केवल 20 वीं शताब्दी में उपलब्ध हुए। कुछ संस्कृतियां जान-बूझकर गर्भनिरोधक का उपयोग सीमित कर देती हैं क्योंकि वे इसे नैतिक या राजनीतिक रूप से अनुपयुक्त मानती हैं।
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जन्म नियंत्रण की प्रभावशाली विधियां पुरूषों मेंपुरूष नसबंदी के माध्यम से नसबंदी और महिलाओं में ट्यूबल लिंगेशन, अंतर्गर्भाशयी युक्ति और प्रत्यारोपण योग्य गर्भ निरोधकहैं।इसे मौखिक गोलियों, पैचों, योनिक रिंग और इंजेक्शनों सहित अनेकोंहार्मोनल गर्भनिरोधकोंद्वारा इसे अपनाया जाता है। कम प्रभावी विधियों में बाधा जैसे कि निरोध, डायाफ्रामऔर गर्भनिरोधक स्पंज और प्रजनन जागरूकता विधियां शामिल हैं। बहुत कम प्रभावी विधियां स्पर्मीसाइडऔर स्खलन से पहले निकासी। नसबंदी के अत्यधिक प्रभावी होने पर भी यह आम तौर पर प्रतिवर्ती नहीं है; बाकी सभी तरीके प्रतिवर्ती हैं, उन्हें जल्दी से रोका जा सकता हैं। आपातकालीन जन्म नियंत्रण असुरक्षित यौन संबंधों के कुछ दिन बाद की गर्भावस्था से बचा सकता है। नए मामलों में जन्म नियंत्रण के रूप में यौन संबंध से परहेज लेकिन जब इसे गर्भनिरोध शिक्षा के बिना दिया जाता है तो यहकेवल-परहेज़ यौन शिक्षा किशोरियों में गर्भावस्थाएँ बढ़ा सकती है।
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किशोरोंमें गर्भावस्था में खराब नतीजों के खतरे होते हैं। व्यापक यौन शिक्षा और जन्म नियंत्रण विधियों का प्रयोग इस आयु समूह में अनचाही गर्भावस्थाओं को कम करता है। जबकि जन्म नियंत्रण के सभी रूपों युवा लोगों द्वारा प्रयोग किया जा सकता है, दीर्घकालीन क्रियाशील प्रतिवर्ती जन्म नियंत्रण जैसे प्रत्यारोपण, आईयूडी, या योनि रिंग्स का किशोर गर्भावस्था की दरों को कम करने में विशेष रूप से फायदा मिलता हैं। प्रसव के बाद, एक औरत जो विशेष रूप से स्तनपान नहीं करवा रही है, वह चार से छह सप्ताह के भीतर दोबारा गर्भवती हो सकती है। जन्म नियंत्रण की कुछ विधियों को जन्म के तुरंत बाद शुरू किया जा सकता है, जबकि अन्य के लिए छह महीनों तक की देरी जरूरी होती है। केवल स्तनपान करवाने वाली प्रोजैस्टिन महिलाओं में ही संयुक्त मौखिक गर्भनिरोधकों के प्रयोग को ज्यादा पसंद किया जाता हैं। वे सहिलाएं जिन्हे रजोनिवृत्ति हो गई है, उन्हे अंतिम मासिक धर्म से लगातार एक साल तक जन्म नियंत्रण विधियां अपनाने की सिफारिश की जाती है।
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विकासशील देशों में लगभग 222 मिलियन महिलाएं ऐसी हैं जो गर्भावस्था से बचना चाहती हैं लेकिन आधुनिक जन्म नियंत्रण विधि का प्रयोग नहीं कर रही हैं। विकासशील देशों में गर्भनिरोध के प्रयोग से मातृत्व मृत्यु में 40% की कमी आयी है और यदि गर्भनिरोध की मांग को पूरा किया जाए तो 70% तक मौतों को रोका जा सकता है। गर्भधारण के बीच लम्बी अवधि से जन्म नियंत्रण व्यस्क महिलाओं के प्रसव के परिणामों और उनके बच्चों उत्तरजीविता में सुधार करेगा। जन्म नियंत्रण के ज्यादा से ज्यादा उपयोग से विकासशील देशों में महिलाओं की आय, संपत्तियों, वजन और उनके बच्चों की स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सभी में सुधार होगा। कम आश्रित बच्चों, कार्य में महिलाओं की ज्यादा भागीदारी और दुर्लभ संसाधनों की कम खपत के कारण जन्म नियंत्रण, आर्थिक विकास को बढ़ाता है।
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जन्म नियंत्रण विधियों में बाधा विधियां, हार्मोनल जन्म नियंत्रण, अंतर्गर्भाशयी उपकरण, नसबंदी और व्यवहार की विधियां शामिल हैं। इन्हे संभोग से पहले या इसके दौरान प्रयोग किया जा सकता है जबकि आपातकालीन जन्म नियंत्रण संभोग से कुछ दिन बाद तक प्रभावी रहता है। प्रभावशीलता को आम तौर पर उन महिलाओं के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है जो पहले साल दौरान दी गई विधि का इस्तेमाल करते हुए गर्भवती हुई हैं। और कभी-कभी उच्च प्रभावशीलता के साथ आजीवन असफलता की दर पर होती है, जैसे ट्यूबल लिंगेशन।
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सबसे प्रभावशाली विधियां वे होती हैं जो लंबे समय तक काम करें और जिनके लिए निरंतर स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकता न हो। सर्जिकल नसबंदी, प्रत्यारोपण योग्य हार्मोन और अंतर्गर्भाशयी उपकरण सभी की प्रथम वर्ष में असफलता दर 1% से भी कम हैं। हार्मोनल गर्भनिरोधक गोलियां, पैच या रिंग और रिंग लेक्टाटेश्नल रजोरोध विधि को यदि सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए, तो इनकी पहले साल की असफलता दर 1% से कम होगी। गलत इस्तेमाल के कारण विशिष्ट उपयोग के साथ प्रथम वर्ष में असफलता दर काफी ज्यादा, 3-9% की सीमा में हैं। अन्य विधियां जैसे कि प्रजनन जागरूकता, निरोध, डायाफ्राम और शुक्राणुनाशकों के सही प्रयोग से भी प्रथम वर्ष में असफलता दर बहुत ज्यादा है। जबकि जन्म नियंत्रण की सभी विधियों के कुछ संभावित प्रतिकूल प्रभाव हैं, इनका जोखिम गर्भावस्था से कम होता है। मौखिक गर्भनिरोधक, आईयूडी, प्रत्यारोपण और इंजेक्शन सहित जन्म नियंत्रण की कई विधियां बंद करने या हटाने के पश्चात, बाद के वर्ष दौरान गर्भावस्था की दर उनके जैसी हो जाती है जो जन्म नियंत्रण विधियों का उपयोग नहीं करते। वे महिलाएं जिनको कोई स्वास्थ्य समस्या है, जन्म नियंत्रण के कुछ और परीक्षणों की आवश्यकता पड़ सकती है। उन महिलाओं के लिए जो स्वस्थ हैं, उनको जन्म नियंत्रण गोलियां, इंजेक्शन या प्रत्यारोपण योग्य जन्म नियंत्रण और निरोध सहित जन्म नियंत्रण की कई विधियों के लिए चिकित्सा जांच की आवश्यकता नहीं होती। जन्म नियंत्रण शुरू करने से पहले पेडू की जांच, स्तन की जांच या रक्त जांच से परिणाम प्रभावित नहीं होते और इसलिए ये आवश्यक नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2009 में जन्म नियंत्रण की प्रत्येक विधि के लिए चिकित्सा योग्यता मानदंड की विस्तृत सूची प्रकाशित की।
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हार्मोनल गर्भनिरोधक अंडोत्सर्ग और निषेचन को रोक कर काम करते है। ये मौखिक गोलियां, प्रत्यारोपण त्वचा के नीचे, इंजेक्शन, पैच, आईयूडी और एक योनिक रिंग सहित अनेक भिन्न भिन्न रूपों में उपलब्धहैं। वर्तमान में ये केवल महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं। मौखिक जन्म नियंत्रण के दो प्रकार, संयुक्त मौखिक गर्भनिरोधक गोली और केवल प्रोजेस्टोजन गोली हैं। यदि ये गर्भावस्था के दौरान लिए जाएं तो न तो इनसे गर्भपात का जोखिम बढ़ता है न ही जन्म दोष होते हैं।
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संयुक्त हार्मोनल गर्भनिरोधक शिरापरक और धमनियों से रक्त के थक्के के साथ अधिक जोखिम जुड़ा होता हैं; हालांकि यह गर्भावस्था से जुड़े जोखिम से कम होता है। इस जोखिम के कारण, 35 वर्ष से ज्यादा की आयु की धूम्रपान करने वाली महिलाओं को इनका इस्तेमाल करने की सिफारिश नहीं की जाती। यौन इच्छा पर इनका प्रभाव किसी में ज्यादा या किसी में कम के साथ भिन्न- भिन्न होता है, लेकिन यह ज्यादातर प्रभावरहित रहते हैं। संयुक्त मौखिक गर्भ निरोधक डिम्बग्रंथि का कैंसर औ��� अन्तर्गर्भाशयकला का कैंसर के जोखिम को कम करते हैं और स्तन कैंसर के जोखिम को भी नहीं बदलते। वे अक्सर माहवारी के रक्तस्राव और ऐंठन को कम करते हैं। योनि रिंग में पाई गई एस्ट्रोजन की कम मात्रा एस्ट्रोजन उत्पादों की ज्यादा मात्रा से जुड़े स्तन की कोमलता मतली और सिरदर्द के जोखिम को कम करती है।
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केवल प्रोजेस्टिन गोलियां, इंजेक्शन और अंतर्गर्भाशयी युक्तियां खून के थक्कों के खतरे को नहीं बढ़ाते हैं और महिलाओं द्वारा अपनी नसों में पिछले रक्त के थक्कों के साथ प्रयोग किये जा सकते हैं। इंजेक्शन योग्य प्रारूप की बजाय धमनियों से खून के थक्कों के इतिहास वाली महिलाओं में गैर-हार्मोनल जन्म नियंत्रण या केवल प्रोजेस्टिन विधि का इस्तेमाल किया जाना चाहिए नहीं तो इंजेक्शन योग्य प्रारूप का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. केवल प्रोजेस्टिन गोलियां माहवारी के लक्षणों में सुधार कर सकती हैं और स्तनपान करवाने वाली महिलाएं भी इन्हे प्रयोग कर सकती है क्योंकि ये दूध उत्पति को प्रभावित नहीं करते। केवल प्रोजेस्टिन के उपयोग से अनियमित रक्तस्राव हो सकता है, कई उपयोगकर्ताओं ने माहवारी न आना की रिपोर्ट भी दी हैं। प्रोजेस्टिन, ड्रोस्पीरिनन और डेसोजेस्टर्ल एण्ड्रोजननिक दुष्प्रभाव को कम करते हैं, लेकिन खून के थक्कों का जोखिम बढ़ाते हैं और इसीलिए इन्हे प्राथमिकता नहीं दी जाती। इंजेक्शनयोग्य प्रोजेस्टिन की प्रथम वर्ष में असफलता दर विशिष्ट है, डेपो-प्रोवेरा जिनके आंकड़े 1% की सीमा से अधिक नहीं हैं। 6% तक के
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बाधा गर्भनिरोधक वे युक्तियां हैं जो भौतिक रूप से शुक्राणु को गर्भाशय में प्रवेश करने से रोक कर गर्भावस्था को रोकने का प्रयत्न करतें हैं। उनमें स्पर्मीसाइड के साथ पुरूष निरोध, महिला निरोध, डायाफ्राम और गर्भनिरोधक स्पंज शामिल हैं।
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विश्व स्तर पर निरोध जन्म नियंत्रण की सबसे साधारण विधि है।पुरूष निरोध को आदमी के उत्तेजित भाग लिंग पर पहना जाता है और यह लिंग से निकले शुक्राणुओं को यौन साथी के शरीर में प्रवेश करने से रोकता है। आधुनिक निरोध ज्यादातर लेटेक्स से बने होते हैं, लेकिन कुछ अन्य सामग्री जैसे पॉलीयूरेथेन या मेमने की आंत से बने होते हैं। महिला निरोध भी उपलब्ध हैं, ये ज्यादातर निटराइल, लेटेक्स या पॉलीयूरेथेन से बने होते हैं। पुरुष निरोध सस्ते, उपयोग करने में आसान ह���ते हैं और इनके कुछ प्रतिकूल प्रभाव हैं। जापान में लगभग 80% लोग जन्म नियंत्रण के लिए निरोध का उपयोग करते हैं, जबकि जर्मनी में इनकी संख्या लगभग 25% है,और अमेरिका में यह 18% है।
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स्पर्मीसाइड के साथ पुरुष निरोध और डायाफ्राम के इस्तेमाल की प्रथम वर्ष में असफल दरें क्रमशः 15% और 16% हैं। पूर्ण इस्तेमाल के साथ निरोध प्रथम वर्ष की 2% असफलता के साथ डायाफ्राम की प्रथम वर्ष की 6% असफलता दर से ज्यादा प्रभावशाली है। निरोध द्वारा कुछ यौन संचारित संक्रमण जैसे एचआईवी / एड्स के प्रसार को रोकने में मदद करने जैसे अतिरिक्त लाभ हैं।
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गर्भनिरोधक स्पंज स्पर्मीसाइड के साथ बाधा का सुमेल होता है। डायाफ्राम की तरह, वे संभोग से पूर्व योनि में लगाए जाते हैं और इन्हे प्रभावी बनाने के लिए ग्रीवा के ऊपर रखना चाहिए। पहले साल के दौरान विशिष्ट असफलता दरें इस पर निर्भर होती हैं कि महिला ने पहले बच्चे को जन्म दिया है या नहीं, जिन्होने जन्म दिया होता है उनमें 24% और न देने वाली महिलाओं में 12% होती हैं। स्पंज को संभोग से 24 घंटे पहले लगाया जा सकता है और इसके बाद कम से कम छह घंटे के लिए लगाया रखा जा सकता है। एलर्जी प्रतिक्रियाएं और अधिक गंभीर प्रतिकूल प्रभाव जैसे विषाक्त आघात सिंड्रोमबताए गए हैं।
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वर्तमान अंतर्गर्भाशयी उपकरण आमतौर पर ‘T-आकार के उपकरण’होते हैं जिनमें या तो तांबा या लेवोनरजेस्ट्रल होता है जो गर्भाशय में डाला जाता है। वे लंबे समय तक कार्यशील प्रतिवर्ती जन्म नियंत्रण का रूप होते हैं। कॉपर आईयूडी के साथ प्रथम वर्ष में असफलता दर लगभग 0.8% है जबकि लेवोनोरजेस्ट्रल आईयूडी की प्रथम वर्ष में असफलता दर 0.2% है। विभिन्न प्रकार की जन्म नियंत्रण विधियों में ज्यादातर उपभोक्ता जन्म नियंत्रण प्रत्यारोपण के परिणाम से संतुष्ट हैं।
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प्रमाण किशोरों में और उनमें प्रभावशीलता और सुरक्षा का समर्थन करता है जिनके बच्चे नहीं हैं। आईयूडी स्तनपान को प्रभावित नहीं करते और प्रसव के तुरंत बाद लगाए जा सकते हैं। उन्हें गर्भपातके तुरंत बाद भी प्रयोग किया जा सकता है। लम्बे समय तक उपयोग करने के बाद भी, एक बार हटाने पर, प्रजनन क्षमता तुरंत सामान्य हो जाती है। जबकि कॉपर आईयूडी माहवारी और रक्तस्राव बढ़ा सकते हैं और इसके परिमाणस्वरूप दर्दनाक ऐंठन हो सकती है। हार्मोनल आईयूडी, माहवारी रक्तस्राव को कम कर सकते हैं या माह���ारी को बंद कर सकते हैं। अन्य संभावित जटिलताओं में त्याग और संभवतः गर्भाशय छिद्ण शामिल हैं। ऐंठन का इलाज एनसेड से किया जा सकता है।
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साल 2007 से, आईयूडी विश्व भर के 180 मिलियन से अधिक उपभोक्ताओं के साथ सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाने वाला प्रतिवर्ती जन्म नियंत्रण का रूप है। अंतर्गर्भाशयी उपकरण का पिछला मॉडल पेडू का रोग के अधिक जोखिम से जुडा था; हालांकि लगाते समय जोखिम, यौन संचारित संक्रमणरहित महिलाओं में वर्तमान मॉडलों को प्रभावित नहीं करता।
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महिलाओं के लिए डिंबवाहनी बंधन तथा पुरुषों के लिए शुक्रवाहिकोच्छेदन, शल्यक्रिया नसबंदी के रूप में उपलब्ध है। इनके कोई महत्वपूर्ण दीर्घ-अवधि विपरीत प्रभाव उपलब्ध नहीं हैं तथा डिंबवाहनी डिंबग्रंथि कैंसर के जोखिम को कम करती है। शुक्रवाहिकोच्छेदन में डिंबवाहनी बंधन की तुलना में बारह गुना कम लघु अवधि जटिलताएं होती है। शुक्रवाहिकोच्छेदन के बाद अंडकोश की थैली में सूजन व दर्द हो सकता है जो आम तौर पर एक या दो सप्ताह में ठीक हो जाता है। डिंबवाहनी बंधन में जटिलताएं 1 से 2 प्रतिशत मामलों में आम तौर पर अवचेतक के कारण गंभीर जटिलताएं होती हैं। दोनो विधियों में से कोई भी यौन संक्रामक रोगों से सुरक्षा नहीं मिलती है।
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कुछ महिलाएं इस निर्णय से पछताती है: 30 बरस से अधिक वाली लगभग 5% और 30 बरस से कम वाली लगभग 20%। पुरुषों में नसबंदी के कारण पछतावा कम होता है ; युवा उम्र, छोटे बच्चे या बच्चे न होने पर तथा अस्थिर विवाह जोखिम को बढ़ाते हैं। एक सर्वेक्षण जो उन लोगो पर किया था जिनके बच्चे थे, उससे पता चला कि 9 प्रतिशत लोग यह कह रहे थे अगर उनको यह फिर कराना पड़ा तो वे फिर बच्चे नहीं पैदा करेंगे।
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हालांकि नसबंदी को एक स्थायी प्रक्रिया माना जाता है, लेकिन डिंबवाहनी खोलने या डिंबवाहनियों को फिर से जोड़ने या वासा डिफरेंशिया को फिर से जोड़ने के लिए शुक्रवाहिकोच्छेदन उलटाव का प्रयास करना संभव है। महिलाओं में यह परिवर्तन अक्सर पति के परिवर्तन के साथ जुड़ा है। डिंबवाहनी खुलवाने के बाद गर्भधारण की सफलता की दर 31 से 88 प्रतिशत तक है, अस्थानिक सगर्भता के जोखिम के बढ़ने जैसी जटिलताएं इसमें शामिल हैं। परिवर्तन की मांग करने वाले पुरुषों की दर लगभग 2 से 6% तक है। परिवर्तन की स्थिति में पुरुषों के पिता बनने की सफलता की दर 38 से 84% तक है; सफलता कीयह दर मूल प्रक्रिया त���ा परिवर्तन के बीच की अवधि पर निर्भर करती है। शुक्राणु निष्कर्षण के बाद इन विट्रो निषेचन भी पुरुषों में एक विकल्प हो सकता है।
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व्यवहारिक विधियों में समय को विनियमित करना या संभोग की ऐसी विधि का उपयोग करना जिसमें शुक्राणुओं को महिला के जनन मार्ग में जाने से रोकना शामिल है, इसे हर बार या अंडों की उपस्थिति के समय उपयोग किया जा सकता है। यदि सटीक तरह से उपयोग किया जाए तो पहले वर्ष में असफलता की दर लगभग 3.4% होती है, हालांकि यदि यही तरीके उपयोग न किया जाए तो यह दर 85% तक पहुंच सकती है।
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प्रजनन जागरूकता विधियों में मासिक धर्म चक्र के दिनों में सबसे अधिक उर्वर दिनों का निर्धारण शामिल होता है। प्रजनन क्षमता का निर्धारण करने वाली तकनीकों में echniques for determining fertility include monitoring आधार शरीर तापमान, गर्भाशय ग्रीवा के स्राव या चक्र के दिन शामिल हैं। उनमें आमतौर पर प्रथम-वर्ष विफलता दर 12 से 25 प्रतिशत के बीच होती है; सटीक उपयोग की स्थिति में पहले वर्ष की विफलता की दर जो कि 1 से 9 प्रतिशत तक होती है, इस बात पर निर्भर करती है कि वे किस प्रणाली का उपयोग किया जा रहा है। वह साक्ष्य जिस पर यह आकलन आधारित हैं, हालांकि कमजोर हैं क्योंकि इस परीक्षण में शामिल अधिकांश लोगों ने इनके उपयोग को पहले ही रोक दिया था। वैश्विक रूप से इसका उपयोग 3.6 प्रतिशत युगल करते हैं।
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यदि आधार शरीर तापमान तथा किसी अन्य प्रथामिक चिह्न दोनो पर आधारित हो तो विधि को सिम्प्टोथर्मल कहा जाता है। सिम्प्टोथर्मल विधि उपयोगकर्ताओं में आम तौर पर अनियोजित गर्भावस्था दरें 1 से 20 प्रतिशत के बीच होती हैं।
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स्खलन पूर्व लिंग को बाहर निकालना स्खलन पूर्व लिंग को बाहर निकालने का अभ्यास है। इस विधि में सबसे मुख्य जोखिम यह है कि पुरुष सही समय पर इसको सही तरीके से पूरा नहीं भी कर सकता है। पहले वर्ष की विफलता दर 4 प्रतिशत से 27 प्रतिशत तक हो सकती है जो कि आमतौर पर उपयोग पर आधारित है। कुछ चिकित्सा पेशेवर इसे जन्म नियंत्रण उपाय नहीं मानते हैं।
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स्खलन पूर्व तरल में शुक्राणु होने के संबंध में साक्ष्य बहुत कम हैं। जबकि कुछ अस्थायी शोधों में शुक्राणु नहीं मिले हैं, एक परीक्षण में 27 स्वयंसेवकों में से 10 में शुक्राणु मिले हैं। योनि से स्खलन पूर्व लिंग बाहर निकालने को 3 प्रतिशत युगलों द्वारा जन्म नियंत्रण विधि के रूप में उपयोग किया जाता है।
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कुछ समूह पूर्ण ��ौन संयम की वकालत करते हैं जिसका अर्थ समस्त यौन गतिविधियों से बचना है, जन्म नियंत्रण के संदर्भ में आम तौर पर इसे योनि संसर्ग से बचना है। संयम द्वारा गर्भधारण 100 प्रतिशत प्रभावी होता है; हालांकि जो संयम का उपयोग करते हैं वे पूरी तरह सभी यौन गतिविधियों से विमुख नहीं होते हैं और कई जनसंख्याओं में गैर सहमति यौनाचार से गर्भधारण के महत्वपूर्ण जोखिम हैं।
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केवल संयम- यौन शिक्षा किशोर गर्भधारण को कम नहीं करती है। व्यापक यौन शिक्षा दिये जाने वाले विद्यार्थियों की तुलना में उन किशोर से गर्भधारण दर अधिक होती है जिनको केवल संयम-शिक्षा दी जाती है।कुछ विशेषज्ञ इस बात की अनुशंसा करते हैं कि वे जो संयम को प्राथमिक विधि के रूप में उपयोग करते हैं उनके पास अतिरिक्त विधियां उपलब्ध रहती हैं ।बिना योनि के ] तथा मौखिक यौनाचार कभी कभार जन्म नियंत्रण साधन भी माने जाते हैं। जबकि वे आमतौर पर गर्भधारण से बचाते है, गर्भधारण फिर भी इंटरक्रूरल यौनाचार तथा अन्य प्रकार के योनि निकट लिंग यौनाचार से भी गर्भधारण हो सकता है जहां पर शुक्राणुओं को योनि के निकट निकाला जा सकता है और वे योनि के स्निग्धक तरलों के साथ जा सकते हैं।
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लैक्टेशन रजोरोध विधि में महिला का प्राकृतिक प्रसवोत्तर बांझपन शामिल है जो प्रसव के पश्चात होता है और जिसे स्तनपान से विस्तरित किया जा सकता है। इसमें आम तौर पर मासिक धर्म की अनुपस्थिति, नवजात को स्तनपान कराने तथा एक 6 माह से कम के बच्चे की उपस्थिति की आवश्यकता होती है। The विश्व स्वास्थ्य संगठन बताता है कि यदि नवजात के लिए स्तनपान ही एकमात्र आहार है तो प्रसव के 6 माह तक विफलता की दर 2 प्रतिशत तक है। परीक्षणों में विफलता की दर 0% से 7.5% तक है। पहले साल में विफलता की दर 4-7 प्रतिशत तक बढ़ती है और दो सालों में 13 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। स्तनपान कराने की विधि, नर्सिंग की जगह पर पंपिंग तथा पैसीफायर का उपयोग और ठोस आहार मिलकर विफलता दर को बढ़ाते हैं। वे लोग जो मात्र स्तनपान करा रहे हैं उनमें से 10 में प्रतिशत तीन माह पहले मासिक धर्म हो जाता है तथा 20 प्रतिशत में प्रसव के 6 माह के बाद होता है। वो लोग जो स्तनपान नहीं करते हैं, उनमें प्रसव के चार सप्ताह के बाद प्रजनन क्षमता वापस आ सकती है।
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आपातस्थिति जन्म नियंत्रण विधियां वे दवाएं या युक्तियां जिनको असुरक्षित संभोग के बाद गर्भधारण से बचने की आशा के साथ उपयोग किया जाता है। वे मूल रूप से डिंबोत्सर्जन या निषेचन की रोकथाम द्वारा काम करती हैं। कई सारे भिन्न-भिन्न विकल्प मौजूद हैं जिनमें उच्च खुराक जन्म नियंत्रण गोलियां, लेवेनोगेस्ट्रल, माइफप्रिस्टोन, यूलिप्रिस्टल तथा आईयूडी शामिल हैं। लेवेनोगेस्ट्रल गोलियां गर्भधारण के अवसरों को तब 70 प्रतिशत तक कम कर देती हैं जब असुरक्षित संभोग या निरोध की विफलता के पश्चात 3 दिनों के भीतर उनको ले लिया जाए। 5 दिनों के भीतर यूलिप्रिस्टल 85% तक गर्भधारण दर को कम करती हैं और लेवेनोगेस्ट्रल से थोड़ी अधिक प्रभावी हो सकती हैं। माइफप्रिस्टोन भी लेवेनोगेस्ट्रल से अधिक प्रभावी है जबकि कॉपर आईयूडी सबसे अधिक प्रभावी हैं। आईयूडी को संभोग के पांच दिनों बाद तक दाखिल किया जा सकता है और यह 99 प्रतिशत तक गर्भधारण को रोक सकती है । यह इनको आपातस्थिति गर्भनियंत्रण का सबसे प्रभावी उपाय बनाता है।
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महिलाओं को मॉर्निंग ऑफ्टर पिल्स पहले से देना, निरोद उपयोग करना, गर्भधारण दर या यौन जोखिम लेने संबंधी व्यवहार यौन संचरित संक्रमणों की दर को प्रभावित नहीं करते हैं। सभी विधियों में न्यूनतम पश्चप्रभाव होते हैं।
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दोहरी सुरक्षा उन विधियों का उपयोग करना है जो यौन संचरित संक्रमणों तथा गर्भधारण दोनो की रोकथाम करती हैं। यह मात्र गर्भनिरोधकों द्वारा या किसी अन्य जन्म नियंत्रण विधि या भेदक यौनसंपर्क से बच कर हो सकता है।यदि गर्भधारण गंभीर चिंता का विषय है तो दो विधियों का उपयोग उचित है और गर्भावस्था के दौरान होने वाले जन्म दोषों के उच्च जोखिम के कारण मुहासों से बचाव की दवा आइसोट्रेटिनॉएन लेने वालों को दो प्रकार के गर्भनिरोधकों की अनुशंसा की जाती है।
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An unrolled male latex condom
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A polyurethane female condom
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A diaphragm vaginal-cervical barrier, in its case with aquarter U.S. coin
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A contraceptive sponge set inside its open package
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Three varieties of birth control pills in calendar oriented packaging
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A transdermal contraceptive patch
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A NuvaRing vaginal ring
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A hormonal intrauterine device against a background showing placement in the uterus
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A split dose of two emergency contraceptive pills
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A CycleBeads, used for estimating fertility based on days since menstruation
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विकासशील देशों में गर्भनिरोधकों के उपयोग से जच्चा मृत्यु की संख्या में 40 प्रतिशत तक की कमी आयी है और यदि गर्भनिरोधकों की मांग को पूरा किया जा सकता तो यह संख्या 70 प्रतिशत तक हो सकती थी। ये लाभ गैरनियोजित गर्भधारण की संख्या को कम करके हासिल किये जाते हैं जिसके कारण असुरक्षित गर्भपात और उच्च जोखिम वाले गर्भधारण हुआ करते हैं।
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गर्भधारणों के बीच अवधि को बढ़ा कर गर्भनिरोधक, विकासशील देशों में बच्चे की उत्तरजीविता को भी बेहतर करते हैं। इस जनसंख्या में परिणाम तब और अधिक बुरे हो जाते हैं जब पिछली जचगी के 18 महीनों के भीतर माँ फिर से गर्भवती हो जाती है। गर्भपात के बाद एक और गर्भधारण में विलंब जोखिम को समाप्त नहीं करते नहीं दिखते तथा महिलाओं को इस स्थिति में तभी गर्भधारण की सलाह है जब वे तैयार हों।
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किशोर गर्भधारण विशेष रूप से कम उम्र की किशोरियां, समय पूर्व जन्म, जन्म के समय कम वजन तथा नवजात की मृत्यु जैसे गंभीर परिणामों के कारण अधिक खतरे में हैं। अमरीका में 15 से 19 वर्ष के बीचे वालों में गर्भधारण का 82 प्रतिशत पहले से नियोजित नहीं होता है। इस उम्र समूह में व्यापक यौन शिक्षा तथा गर्भनिरोधकों की उपलब्धता गर्भावस्था की दर में कमी करने में प्रभावी होती है।
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विकासशील दुनिया में जन्म नियंत्रण इसलिये आर्थिक विकास बढ़ाता है क्योंकि कम निर्भर बच्चों के कारण अधिक महिलाएं कार्यबल में शामिल हो पाती हैं। महिलाओं की आय, संपत्तियां, शरीर द्रव्यमान सूचकांक और उनके बच्चों की शिक्षा तथा शरीर द्रव्यमान सूचकांक, सभी मिलकर जन्म नियंत्रण को सुविधाजनक बनाते हैं। आधुनिक जन्म नियंत्रण उपायों के उपयोग के माध्यम से परिवार नियोजन सबसे अधिक लागत-प्रभावी स्वास्थ्य उपाय हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकलन के अनुसार प्रत्येक खर्च किये गये डॉलर से दो से लेकर छः डॉलर तक की बचत होती है। ये लागत बचत अनियोजित गर्भधारण को रोकने तथा यौन संचारित रोगों के विस्तार को रोकने से संबंधित हैं। जबकि सभी विधियां वित्तीय रूप से लाभदायक हैं लेकिन कॉपर IUDs का उपयोग अधिक बचत प्रदान करता है।
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2012 में अमरीका में सामान्य प्रसव में तथा शल्यक्रिया प्रसव में गर्भावस्था, प्रसव तथा नवजात की देखभाल का कुल व्यय क्रमशः $21,000 व $31,000 आता है। अधिकांश अन्य देशों में यह लागत आधी से भी कम है। 2011 में जन्मे बच्चे की 17 साल तक परवरिश पर एक औसत अमरीकी परिवार $235,000 व्यय करेगा।
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वैश्विक रूप से 2009 में विवाहितों में से लगभग 60 प्रतिशत ने परिवार नियोजन का उपयोग करके बच्चों को जन्म दिया है। विभिन्न विधियों को कितना अधिक उपयोग किया जाता है यह देशों में भिन्न-भिन्न है। विकसित देशो में सबसे आम विधि निरोध तथा मौखिक गर्भनिरोधक हैं, जबकि अफ्रीका में मौखिक गर्भनिरोधक तथा लातिन अमरीका व एशिया में नसबंदी है। विकासशील देशों में समग्र रूप से परिवार नियोजन का 35 प्रतिशत नसबंदी द्वारा है तथा 30 प्रतिशत IUDs से, 12 प्रतिशत मौखिक गर्भनिरोधकों द्वारा, 11 प्रतिशत निरोधों द्वारा तथा 4 प्रतिशत पुरुष नसबंदियों द्वारा होता है।
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विकासशील देशों में विकसित देशों की तुलना में महिलाओं द्वारा IDUs का उपयोग कम होता है, 2007 में 180 मिलियन से अधिक इनका उपयोग हुआ था। बच्चे जनने की उम्र में उर्वर अवस्था में यौन संबंधों से बचने का उपयोग 3.6 प्रतिशत महिलाएं करती है, जिसकी दर दक्षिण अमरीका में 20 प्रतिशत तक है। 2005 में 12 प्रतिशत जोड़े पुरुषों के लिये बने गर्भ-निरोधों का उपयोग कर रहे हैं जिसमें से विकसित देशों में यह दर अधिक है। पुरुषों के लिये बने गर्भ-निरोधों के उपयोग में 1985 से 2009 के बीच कमी देखी गयी है। उप-सहारा अफ्रीका में महिलाओं के बीच गर्भ-निरोधकों का उपयोग 1991 में 5 प्रतिशत से बढ़कर 2006 में 30 प्रतिशत तक पहुंच गया है।
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2012 में गर्भधारण करने में सक्षम उम्र की महिलाओं में से 57 प्रतिशत महिलाएं गर्भधारण करने से बचना चाहती हैं। हालांकि लगभग 222 मिलियन महिलाओं को परिवार नियोजन साधन नहीं मिल सके, इनमें से 53 मिलियन उप-सहारा अफ्रीका से तथा 7 मिलियन एशिया से थीं। इसके कारण प्रतिवर्ष 54 मिलियन अनियोजित गर्भधारण और 80,000 प्रसूति मौतें हुई हैं। धार्मिक तथा राजनीतिक कारणों कारणों के चलते भी कुछ देशों में कई महिलाएं गर्भ निरोधकों का उपयोग नहीं कर पाती हैं जबकि गरीबी भी एक कारण है। उप-सहारा अफ्रीका में प्रतिबंधित गर्भपात कानूनों के कारण, हर साल कई महिलाएं अनचाहे गर्भधारण अनधिकृत गर्भपात सेवा प्रदान करने वालों के पास चली जाती हैं जिसके कारण हर साल 2 से 4 प्रतिशत असुरक्षित गर्भपात होते हैं।
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1550 ईसा पूर्व के मिस्र के एबर्स पेपाइरस और 1850 ईसा पूर्व के काहुन पेपाइरस में परिवार नियोजन के कुछ आरंभिक दस्तावेजित वर्णन मिलते हैं जिसमें शहद तथा अकासिया की पत्तियों तथा लिंट की पत्तियों के योनि पर उपयोग द्वारा शुक्राणुओं को रोकने के बारे में बचाया गया है। प्राचीन मिस्री रेखाचित्र भी निरोधों के उपयोगो को दर्शाते हैं। बुक ऑफ जेनेसिस में योनि से बाहर स्खलन या कॉएटस इंट्रप्टस को परिवार नियोजन के एक साधन के रूप में बताया गया है जिसमें ओनान "अपने बीजों को बाहर गिराता है" जिससे कि उसके मृतक भाई की पत्नी तामार उसके बच्चे की माँ न बन सके। ऐसा विश्वास किया जाता है कि प्राचीन ग्रीस में सिल्फियम को परिवार नियोजन के लिये उपयोग किया जाता था, इसकी प्रभावशीलता और माँग के कारण ही यह विलुप्त हो गया। मध्यकालीन यूरोप में गर्भधारण को रोकने के किसी भी प्रयास को कैथोलिक चर्च द्वारा अनैतिक माना जाता था। यह माना जाता है कि उस समय की महिलाएं भी कई तरह के परिवार नियोजन साधनों का उपयोग करती थीं जैसे कि कॉटियस इंट्रप्टस और लिली की ज़ड़ या रुए को योनि में डालना । कैसानोवा ने इतावली नवजागरण के दौरान गर्भधारण रोकने के लिये भेड़ की खाल के उपयोग के बारे में बताया था हालांकि निरोध की उपलब्धता 20 वीं सदी तक आम नहीं थी। 1909 में रिचर्ड रिटर ने रेशम कीट की आंत की सहायता से पहली अंतर्गर्भाशयी युक्ति का निर्माण किया था जिसे अर्नेस्ट ग्राफेनबर्ग ने 1920 के अंत में जर्मनी में और अधिक विकसित किया तथा उसका विपणन किया। 1916 में मार्गरेट सैंगर ने अमरीका में पहला परिवार नियोजन क्लीनिक खोला जिसके कारण उनको गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद 1921 मे यूके में पहला क्लीनिक खुला जिसे मेरी स्टोप्स ने खोला था। गेगरी पिनकस और जॉन रॉक ने अमरीका की नियोजित अभिभावकत्व फेडरेशन की सहायता से पहली परिवार नियोजन गोलियों का 1950 में विकास किया जो 1960 में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हो गयीं। 1970 में प्रोस्टाग्लैंडीन अनुरूप तथा 1980 में मिफेप्रिस्टोन की उपलब्धता के साथ ही चिकित्सीय गर्भपात शल्यक्रिया वाले गर्भपात का विकल्प बन गया।
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मानवाधिकार समझौते अधिकांश सरकारों द्वारा परिवार नियोजन तथा गर्भनिरोधकों पर जानकारी तथा सेवाओं को प्रदान करना आवश्यक करते हैं। परिवार नियोजन सेवाओं के लिये राष्ट्रीय योजना का निर्माण, परिवार नियोजन प्राप्त करने में बाधा बनने वाले कानूनों से मुक्ति, आकस्मिक परिवार नियोजन के साथ यह सुनिश्चित करना कि सुरक्षित तथा प्रभावी परिवार नियोजन विधियों की विस्तृत श्रंखला उपलब्ध हो, यह भी सुनिश्चित करना कि उचित मूल्य पर प्रशिक्षित स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता तथा सुविधाएं प्रदान की जाएं तथा कार्यान्वित कार्यक्रमों की प्रक्रिया का निर्माण करना इसमें शामिल हैं। यदि सरकारें उपरोक्त उपाय करने में असफल रहती हैं तो इसे बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय संधि के दायित्वों का उल्लंघन माना जा��गा।
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संयुक्त राष्ट्र संघ ने “प्रत्येक महिला प्रत्येक बच्चा” आंदोलन की शुरुआत की जिससे कि महिलाओं की गर्भनिरधकों की जरूरतों को पूरा किया जा सके। इस पहल ने आधुनिक परिवार नियोजन के उपयोगकर्ताओं की संख्या को बढ़ाने का एक लक्ष्य निर्धारित किया है जो कि 2020 तक दुनिया के सबसे गरीब 69 देशों में 120 मिलियन महिलाओं को इसका उपयोगकर्ता बनाने का है। Additionally, they want to eradicate discrimination against girls and young women who seek contraceptives.
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परिवार नियोजन की नैतिकता को लेकर धर्मों के विचार भिन्न-भिन्न है।रोमन कैथोलिक चर्च कुछ मामलों में आधिकारिक रूप से केवल प्राकृतिक परिवार नियोजन को स्वीकार करता है, हालांकि कैथोलिकों की एक बड़ी संख्या जो विकसित देशों में निवास करती है, परिवार नियोजन के नए साधनों को स्वीकार करती है। प्रोटेस्टेंट्स में कई तरह के विचार है जिनमें सभी विधियों के लिए शून्य समर्थन से लेकर पूरा समर्थन तक के विचार शामिल हैं। यहूदी धर्म के विचार कठोर रुढ़िवादी संप्रदाय से अधिक शिथिल सुधारवादी संप्रदाय तक विविधतापूर्ण हैं। हिन्दू दोनो, प्राकृतिक तथा कृत्रिम गर्भनिरोध उपयोग कर सकते हैं।एक आम बौद्ध विचार यह है कि गर्भधारण से बचाव स्वीकार्य है जबकि गर्भधारण के पश्चात इसमें बाधा स्वीकार्य नहीं है।
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In इस्लाम में गर्भनिरोध-उपाय अनुमत हैं यदि वे स्वास्थ्य के लिए खतरा न हों हालांकि कुछ इसके उपयोग को निरुत्साहित करते हैं। कुरान गर्भ-निरोध की नैतिकता के बारे में कोई विशिष्ट कथन नहीं प्रस्तुत करती है लेकिन इसमें ऐसे कथन शामिल हैं जो बच्चे पैदा करनेको प्रोत्साहित करते हैं। यह कहा जाता है कि पैगम्बर मोहम्मद ने भी कहा था कि “शादी करो और बच्चे पैदा करो”।
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26 सितंबर विश्व गर्भ-निरोध दिवस है जो यौन तथा प्रजनन स्वास्थ्य के संबंध में जागरूकता बढ़ाने तथा शिक्षा को सुधारने के प्रति समर्पित है, जिसका लक्ष्य “एक ऐसी दुनिया जहां प्रत्येक गर्भधारण ऐच्छिक हो” है। इसका समर्थन सरकारों तथा अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ का समूह कर रहा है जिसमें एशिया पैसिफिक काउंसिल ऑन कॉन्ट्रासेप्शन, सेन्ट्रो लैटिनअमेरिकानो सालूद वाई मूजेर, यूरोपियन सोसाइटी ऑफ कॉन्ट्रासेप्शन एंड रीप्रोडक्टिव हेल्थ जर्मन फाउन्डेशन फॉर वर्ल्ड पॉप्यूलेशन, इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ पीडियाट्रिक एंड गाइनोकोलॉजी, इंटरनेशनल प्लान्ड पैरेन्टहुड फेडरेशन, म��री स्टोप्स इंटरनेशनल, पॉप्युलेशन सर्विसेस इंटरनेशनल, पॉप्युलेशन काउंसिल, यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट तथा वूमन डिलेवरशामिल है।
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यौन संबंधो तथा गर्भधारण को लेकर कई सारी आम भ्रांतियां प्रचिलित हैं। यौन संबंधों के बाद डाउचिंग, जन्म नियंत्रण का प्रभावी उपाय नहीं है। इसके अतिरिक्त यह कई स्वास्थ्य समस्याओं से भी जुड़ा है इसीलिए इसकी अनुशंसा नहीं की जाती है। महिलाएं पहली बार यौन संबंध बनाने पर और किसी भी यौन संबंध स्थिति में गर्भधारण कर सकती हैं। मासिक धर्म के दौरान गर्भ धारण करना संभव है, हालांकि यह बहुत अधिक संभव नहीं है।
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मौजूदा जन्म नियंत्रण विधियों में सुधार करने की आवश्यकता है, क्योंकि अनचाहा गर्भ धारण करने वाले लोगों में से आधे, जन्म नियंत्रण उपायों का उपयोग किये होते हैं। मौजूदा गर्भनिरोधक विधियों में से कई सारे परिवर्तनों पर अध्ययन किया जा रहा है, जिनमें बेहतर महिला निरोध, एक बेहतर डायाफ्राम, केवल प्रोजेस्टिन समाविष्ट पैच तथा एक प्रोजेस्टरोन वाली लंबी योनि रिंग शामिल है। यह योनि रिंग तीन या चार महीनों के लिए प्रभावी लगती है और दुनिया के कुछ हिस्सों में उपलब्ध है।
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योनि ग्रीवा के माध्यम से नसबंदी करने की कई विधियों पर अध्ययन किया जा रहा है। एक विधि में गर्भाशय में क्युनाक्रिन रखना शामिल है जिसके कारण दाग लगता है तथा बांध्यता उत्पन्न होती है। हालांकि यह प्रक्रिया कम खर्चीली है तथा इसके लिए शल्य क्रिया कौशल की आवश्यकता नहीं पड़ती है लेकिन दीर्घ अवधि में होने वाले विपरीत प्रभावों को लेकर कुछ चिंताएं हैं। एक और तत्व पॉलिडोकानोल है जो ठीक उसी तरह कार्य करता है, उस पर भी ध्यान दिया जा रहा है। एक युक्ति को 2002 में अमरीका में अनुमोदित किया गया था, जिसे एश्योर कहा जाता है और जो फिलोपिन ट्यूब में डाले जाने पर फैल जाती है तथा उसे अवरुद्ध कर देती है।
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पुरुषों में जन्म नियंत्रण साधनों में निरोध, पुरुष नसबंदी तथा योनि से बाहर स्खलन शामिल हैं। 25 से 75 प्रतिशत पुरुष जो कि यौन रूप से सक्रिय हैं अगर कोई हार्मोनल जन्म नियंत्रण उपलब्ध होता तो वे उसका उपयोग करते। कई सारे हार्मोनल व गैर-हार्मोनल विधियों पर प्रयोग चल रहे हैं, और कुछ शोध गर्भनिरोधक वैक्सीनों पर किये जा रहे हैं।
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एक प्रतिवर्ती शल्य प्रक्रिया के परीक्षण चल रहे हैं जिसका ��ाम मार्गदर्शन में शुक्राणुओं का प्रतिवर्ती निषेध है जिसमें डिफरेंस में डाइमेथिल सल्फॉक्साइड में स्टाइरीन मालेलिक एनहाइड्राइड नाम के पॉलीमर जेल को डाला जाता है। सोडियम बाईकार्बोनेट का एक इंजेक्शन इस तत्व को साफ कर देता है तथा प्रजनन क्षमता को पुनःस्थापित कर देता है। दूसरी एक इंट्रावास युक्ति है जिसमें यूरेथेन प्लग को डिफरेंस में रखा जाता है जिससे कि यह अवरुद्ध हो जाए। चयनात्मक एण्ड्रोजन रिसेप्टर मॉड्यूलेटर की तरह एंड्रोजेन तथा एक प्रोजेस्टिन का संयोजन आशाजनक दिखता है। अल्ट्रासाउंड तथा अंडाशयों को गर्म करने की विधियों पर प्राथमिक स्तर का अध्ययन हो रहा है।
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नपुंसक बनाना या अण्डकोष हटाना जिसमें कुछ प्रजनन अंगो को हटाना शामिल होता है आम तौर पर घरेलू पालतू जानवरों में जन्म नियंत्रण के लिए उपयोग किया जाता है। बहुत सारे जानवर आश्रयों में इनको स्वीकार करने के लिए इसे अनुबंध का हिस्सा बना कर रखा जाता है। बड़े जानवरों में इस शल्यक्रिया को बांध्यकरणकहा जाता है। जंगली जानवरों में जनसंख्या विस्तार के नियंत्रण के लिए शिकार के विकल्प के रूप में जन्म नियंत्रण को एक साधन के रूप में उपयोग किया जाता है। नसबंदी टीकों को विभिन्न जानवर जनसंख्याओं के लिए प्रभावी देखा गया है।
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बड़ोदरा गुजरात राज्य का तीसरा सबसे अधिक जनसन्ख्या वाला शहर है। यह एक शहर है जहा का महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय अपने सुंदर स्थापत्य के लिए जाना जाता है। वड़ोदरा गुजरात का एक महत्त्वपूर्ण नगर है। वड़ोदरा शहर, वडोदरा ज़िले का प्रशासनिक मुख्यालय, पूर्वी-मध्य गुजरात राज्य, पश्चिम भारत, अहमदाबाद के दक्षिण-पूर्व में विश्वामित्र नदी के तट पर स्थित है। वडोदरा को बड़ौदा भी कहते हैं।
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इसका सबसे पुराना उल्लेख 812 ई. के अधिकारदान या राजपत्र में है, जिसमें इसे वादपद्रक बताया गया है। यह अंकोत्तका शहर से संबद्ध बस्ती थी। इस क्षेत्र को जैनियों से छीनने वाले दोर राजपूत राजा चंदन के नाम पर शायद इसे चंदनवाटी के नाम से भी जाना जाता था। समय-समय पर इस शहर के नए नामकरण होते रहे, जैसे वारावती, वातपत्रक, बड़ौदा और 1971 में वडोदरा।
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इतिहास में शहर का पहला उल्लेख 812 ई. में इस क्षेत्र में आ कर बसे व्यापारियों के समय से मिलता है। वर्ष ई 1297 यह प्रान्त हिंदू शासन के अधिन हिंदूओ के वर्चस्व में था। ईसाई यूग के प्रारम्भ में यह क्षेत्र गुप्त साम्राज्य के अधीन था। भयंकर युद्ध के बाद, इस क्षेत्र पर चालुक्य वंश सत्ता में आया। अंत में, इस राज्य पर सोलंकी राजपूतों ने कब्जा कर लिया। इस समय तक मुस्लिम शासन भारत वर्ष में फैल रहा था और देखते ही देखते वडोदरा की सत्ता की बागडोर दिल्ली के सुल्तानों के हाथ आ गई। वडोदरा पर दिल्ली के सुल्तानों ने एक लंबे समय तक शासन किया, जब तक वे मुगल सम्राटों द्वारा परास्त नहीं किए गए। मुगलों की सबसे बड़ी समस्या मराठा शाशक थे जिन्होने ने धीरे-धीरे से लेकिन अंततः इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया और यह मराठा वंश गायकवाड़ की राजधानी बन गया। सर सयाजी राव गायकवाड़ तृतीय, इस वंश के सबसे सक्षम और लोकप्रिय शासक थे। उन्होने इस क्षेत्र में कई सरकारी और नौकरशाही सुधार किए, हालांकि ब्रिटिश राज का क्षेत्र पर एक बड़ा प्रभाव था। बड़ौदा भारत की स्वतंत्रता तक एक रियासत बना रहा। कई अन्य रियासतों की तरह, बड़ौदा राज्य भी 1947 में भारत डोमिनियन में शामिल हो गया।
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विश्वामित्री नदी के तट पर स्थित वडोदरा उर्फ बड़ौदा शहर भारत के सबसे बड़े महानगरीय शहरों में अठारहवें स्थान पर है। वडोदरा शहर वडोदरा जिले का प्रशासनिक मुख्यालय है और इसे उद्यानों का शहर, औद्योगिक राजधानी और गुजरात क��� तीसरे सबसे अधिक आबादी वाले शहर से भी जाना जाता है। इसकी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं के कारण, जिले को संस्कारी नगरी के रूप में जाना जाता है। कई संग्रहालयों और कला दीर्घाओं, उद्योगों की इस आगामी हब और आईटी के साथ पर्यटकों का पसंदीदा स्थल है। राजा चन्दन के शासन के समय में वडोदरा को 'चन्द्रावती' के नाम से जाना जाता था और बाद में 'वीरक्षेत्र' ने उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में बड़े पैमाने पर निर्माण प्रयास किया और तब इस शहर का शहरी रूप सामने आया। कई बड़े पैमाने पर निर्माण बड़ौदा में उन छह दशकों के दौरान ही किये गये, जिसमे विशाल लक्ष्मी विला पैलेस, बड़ौदा कॉलेज और कलाभवन, न्याय और अन्य मंदिर, माण्डवी टावर, पार्क और फाटक, एवं विश्वामित्र नदी पर बना एक पुल। गायकवाड़ पूना के मराठा क्षत्रिय कुल ‘मात्रे’ के वंशज थे। कहा जाता है कि सत्रहवीं सदी में एक समृद्ध किसान नंदाजी ने गायों की रक्षा के लिये अपना उपनाम गाय-कैवार रख लिया था। फिर यह उपनाम इस परिवार में गायकवाड़ में सरलीकृत हो गया। 1725 में पिलाजी गायकवाड़ ने एक दमनकारी मुगल राज्यपाल के चंगुल से बड़ौदा "बचाया" और व्यवस्था बहाल की। माना जाता है कि पिलाजी ने मुगलों और पेशवाओं से गुजरात की रक्षा के लिए अपना जीवन खो दिया। सयाजीराव गायकवाड़ 1853 में, कलवाना गाँव जो की वड़ोदरा से लगभग 500 किमी. दूर था के एक मामूली गायकवाड़ किसान परिवार में पैदा हुए थे। मई 1875 में मातुश्री जमनाबाई साहेब, जो की खांडेराव गायकवाड़ की विधवा थी, उन्होंने सयाजीराव गायकवाड़ को गोद ले लिया और सयाजीराव एक किसान से राजकुमार बन गए।
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भारतीय रियासतों के ब्रिटिश रेजिडेंट का कर्तव्य होता था की वे इस रियासतों में ब्रिटिश हितों की रक्षा सुनिश्चित करें, इसके लिए स्थानीय शासकों को अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करने से बेहतर रास्ता क्या हो सकता था। सयाजीराव के अंग्रेज़ जीवनी लेखक स्टेनली राइस और एडवर्ड सेंट क्लेयर वीडेन ने इस बात की पुष्टि की है कि यह युवा राजकुमार किताबों और नये विचारों का भूखा था। इनके भारतीय शिक्षक दीवान सर टी माधव और दादाभाई नैरोजी, जो बाद में ब्रिटिश संसद के लिए चुने जाने वाले पहले भारतीय थे और 3 बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, और और इनके अंग्रेजी शिक्षक एफ. ए. एच. इलियट ने इस युवा भारतीय राजकुमार की साहित्य और कला के लिए प्यार की ��्रशंशा की है। सयाजीराव पर मैसूर के राजा महाराजा चमराजेंद्र वाड्यार का भी काफी प्रभाव था। वाड्यार ने यूरोपीय आर्किटेक्ट और योजनाकारों की मदद से मैसूर का बड़े पैमाने पर शहरीकरण किया था, जिन्होंने बाद में वड़ोदरा के विकास में भी योगदान किया।
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शिक्षा और वास्तुकला के क्षेत्र में सयाजीराव की गहरी रूचि होने के कारण इन्होने 1906 में और 1910 में अमेरिका और यूरोप की यात्रायें की। 1906 में अपनी पहली अमेरिका यात्रा के दौरान वह एक अफ़्रीकी-अमेरिकी समाज सुधारक बुकर टी वाशिंगटन से मिले, जिन्होंने दस्ता से निकलकर हैम्पटन संस्थान, वर्जीनिया से अपनी शिक्षा पूरी की थी और वे टस्केगी संस्थान, अलबामा के संस्थापक भी थे। अपनी अमेरिका की दोनों यात्राओं के दौरान सयाजी राव ने वाशिंगटन, डीसी, फिलाडेल्फिया, शिकागो, डेन्वर, और सैन फ्रांसिस्को का मुख्य रूप से संग्रहालयों, कला दीर्घाओं, और पुस्तकालयों का दौरा किया। 1923 में अपनी यूरोप की यात्रा के दौरान सयाजीराव ने राजा विक्टर एमैनुअल और बेनिटो मुसोलिनी से मुलाकात की। सयाजीराव प्रथम विश्व युद्ध के बाद इटली और रोम की युद्ध के बाद बनी इमारतों, स्टेडियमों, पार्कों और चौड़ी सड़कों से बहुत प्रभावित थे। अपनी इन यात्राओं के दौरान सयाजीराव को विश्वास हो गया की शिक्षा सभी सुधारों का आधार है। उनके इस विश्वास ने उन्हें वड़ोदरा में अनिवार्य मुफ्त प्राथमिक शिक्षा और एक राज्य समर्थित मुफ्त सार्वजनिक पुस्तकालय प्रणाली लागू करने के लिए प्रेरित किया। वे उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए राज्य का समर्थन देने के लिए भी प्रतिबद्ध थे।
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सयाजीराव ने अपनी वस्तु दृष्टि को लागु करने के लिए ब्रिटिश इंजीनियरों आर.एफ. चिसॅाम और मेजर आर.एन मंट को राज्य आर्किटेक्ट के रूप में भर्ती किया, और अपनी राजधानी के सार्वजनिक भवनों के रखरखाव के लिए एक संरक्षक नियुक्त भी नियुक्त किया। उनके प्रमुख कामों में लक्ष्मी विला पैलेस, कमति बाग, और रेजीडेंसी शामिल हैं, जिन पर अरबी शैली का प्रभाव देखा जा सकता है। चिसॅाम और मंट के कामो का प्रभाव बाद में एडवर्ड लुटियन के दिल्ली के वास्तुकला के कामों पर देखा जा सकता है। इस विश्वास के साथ कि, भारत के औद्योगिक विकास के बिना प्रगति नहीं कर सकता है सयाजीराव ने पुराने ईंट और मोर्टार के उद्योग के स्थान पर, स्टील और कांच के नये उद्योगो��� को मंजूरी दी।
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बड़ौदा के आधुनिकीकरण और शहरीकरण का आधार बना, बड़ौदा कॉलेज और कला स्कूल कलाभवन की स्थापना, जिसने इंजीनियरिंग और वास्तुकला के साथ कला पर भी जोर दिया। इन संस्थानों पर अमेरिकी टस्केगी संस्थान और यूरोप के स्टाटलीचेस बॉहॉस जैसे संस्थानों के विचारों का प्रभाव था। पश्चिमी विचारों ने सयाजीराव के बाद भी बड़ौदा को प्रभावित करना जारी रखा। 1941 में, हरमन गोएत्ज़, एक जर्मन प्रवासी, ने बड़ौदा संग्रहालय के निदेशक का पदभार संभाल लिया। गोएत्ज़ ने समकालीन भारतीय कला का समर्थन किया और बड़ौदा में दृश्य कला शिक्षा को बढ़ावा देने के संग्रहालय का इस्तेमाल किया। महाराजा फतेसिंहराव संग्रहालय 1961 में लक्ष्मी विला पैलेस परिसर में स्थापित किया गया था, जिस वर्ष गुजरात राज्य बनाया गया था।
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बड़ौदा भारत कि स्वतंत्रता तक एक राजसी राज्य बना रहा। कई अन्य रियासतों की तरह, बड़ौदा राज्य भी 1947 में भारत डोमिनियन में शामिल हो गया।
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वड़ोदरा में स्थित महाराजा गायकवाड़ विश्वविद्यालय गुजरात का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है एवं लक्ष्मी विला पैलेस स्थापत्य का एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण है। वड़ोदरा में कई बड़े सार्वजानिक क्षेत्र के उद्यम गुजरात स्टेट फर्टिलाइजर्स एंड केमिकल्स, इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड और गुजरात एल्कलीज एंड केमिकल्स लिमिटेड स्थापित हैं। यहाँ पर अन्य बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां जैसे, भारी जल परियोजना, गुजरात इंडस्ट्रीज पावर कंपनी लिमिटेड, तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम और गैस प्राधिकरण इंडिया लिमिटेड भी हैं। वड़ोदरा की निजी क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों में स्थापित विनिर्माण इकाइयां जैसे; जनरल मोटर्स, लिंडे, सीमेंस, आल्सटॉम, ABB समूह, TBEA, फिलिप्स, पैनासोनिक, FAG, स्टर्लिंग बायोटेक, सन फार्मा, L&T, श्नाइडर और आल्सटॉम ग्रिड, बोम्बर्डिएर और GAGL, Haldyn ग्लास, HNG ग्लास और पिरामल ग्लास फ्लोट आदि शामिल हैं।
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1960 के दशक में गुजरात की राजधानी बनने के लिए बड़ौदा की साख, अपने संग्रहालयों, पार्कों दिया, खेल के मैदानों, कॉलेजों, मंदिरों, अस्पतालों, उद्योग, प्रगतिशील नीतियों, और महानगरीय जनसंख्या के कारण सबसे प्रभावशाली थी। परन्तु बड़ौदा के राजसी विरासत और गायकवाड़ों के मराठा मूल से होने के कारण इस शहर को लोकतांत्रिक भारत में एक राज्य की राजधानी के रूप में स्थापित होने से रोका।
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सन 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसँख्या 4,165,626 है।
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नरेन्द्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने दो लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों-वड़ोदरा और वाराणसी से चुनाव लड़ा और दोनो जगह से जीत हासिल की।
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वडोदरा का लंबा इतिहास इसके कई महलों, द्वारों, उद्यानों और मार्गों से परिलक्षित होता है। यहाँ सयाजीराव गायकवाड़ विश्वविद्यालय तथा अन्य शैक्षणिक व सांस्कृतिक संस्थान हैं, जिनमें इंजीनियरिंग संकाय, मेडिकल कॉलेज, होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज, वडोदरा बायोइंफ़ॉर्मेटिक्स सेंटर, कला भवन तथा कई संग्रहालय शामिल हैं।
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इस शहर का एक प्रमुख स्थान बड़ौदा संग्रहालय और चित्र दीर्घा है, जिसकी स्थापना बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़ ने 1894 में उत्कृष्ट कलाकृतियों के प्रतिनिधि संग्रह के रूप में की थी। इसके भवन का निर्माण 1908 से 1914 के बीच हुआ और औपचारिक रूप से 1921 में दीर्घा का उद्घाटन हुआ। इस संग्रहालय में यूरोपीय चित्र, विशेषकर जॉर्ज रोमने के इंग्लिश रूपचित्र, सर जोशुआ रेनॉल्ड्स तथा सर पीटर लेली की शैलियों की कृतियाँ और भारतीय पुस्तक चित्र, मूर्तिशिल्प, लोक कला, वैज्ञानिक वस्तुएँ व मानव जाति के वर्णन से संबंधित वस्तुएँ प्रदर्शित की गई हैं। यहाँ इतालवी, स्पेनिश, डच और फ्लेमिश कलाकारों की कृतियाँ भी रखी गई हैं।
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इस शहर में उत्पादित होने वाली विभिन्न प्रकार की वस्तुओं में सूती वस्त्र तथा हथकरघा वस्त्र, रसायन, दियासलाई, मशीनें और फ़र्नीचर शामिल हैं।
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वडोदरा एक रेल और मार्ग जंक्शन है तथा यहाँ एक हवाई अड्डा भी है।
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वडोदरा ज़िला 7,788 वर्ग किमी में फैला हुआ है, जो नर्मदा नदी से माही नदी तक विस्तृत है। यह लगभग पूर्व बड़ौदा रियासत की राजधानी के क्षेत्र या ज़िले के बराबर ही है। कपास, तंबाकू तथा एरंड की फलियाँ यहाँ की नक़दी फ़सलें हैं। स्थानीय उपयोग और निर्यात के लिए गेहूँ, दलहन, मक्का, चावल, तथा बाग़ानी फ़सलें उगाई जाती हैं।
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2001 की जनगणना के अनुसार वड़ोदरा शहर की जनसंख्या 13,06,035 व ज़िले की कुल जनसंख्या 36,39,775 है।
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शाहरुख़ ख़ान, जिन्हें अक्सर शाहरुख ख़ान के रूप में श्रेय दिया जाता है और अनौपचारिक रूप में एसआरके नाम से सन्दर्भित किया जाता, एक भारतीय फ़िल्म अभिनेता है। अक्सर मीडिया में इन्हें "बॉलीवुड का बादशाह", "किंग ख़ान", "रोमांस किंग" और किंग ऑफ़ बॉलीवुड नामों से पुकारा जाता है। ख़ान ने रोमैंटिक नाटकों से लेकर ऐक्शन थ्रिलर जैसी शैलियों में 75 हिन्दी फ़िल्मों में अभिनय किया है। फिल्म उद्योग में उनके योगदान के लिये उन्होंने तीस नामांकनों में से चौदह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते हैं। वे और दिलीप कुमार ही ऐसे दो अभिनेता हैं जिन्होंने साथ फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार आठ बार जीता है। 2005 में भारत सरकार ने उन्हें भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया।
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अर्थशास्त्र में उपाधी ग्रहण करने के बाद इन्होंने अपने करियर की शुरुआत 1980 में रंगमंचों व कई टेलिविज़न धारावाहिकों से की और 1992 में व्यापारिक दृष्टि से सफल फ़िल्म दीवाना से फ़िल्म क्षेत्र में कदम रखा। इस फ़िल्म के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर प्रथम अभिनय पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके पश्चात् उन्होंने कई फ़िल्मों में नकारात्मक भूमिकाएं अदा की जिनमें डर, बाज़ीगर और अंजाम शामिल है। वे कई प्रकार की भूमिकाओं में दिखें व भिन्न-भिन्न प्रकार की फ़िल्मों में कार्य किया जिनमे रोमांस फ़िल्में, हास्य फ़िल्में, खेल फ़िल्में व ऐतिहासिक ड्रामा शामिल है।
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उनके द्वारा अभिनीत ग्यारह फ़िल्मों ने विश्वभर में 100 करोड़ का व्यवसाय किया है। ख़ान की कुछ फ़िल्में जैसे दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे, कुछ कुछ होता है, देवदास, चक दे! इंडिया, ओम शांति ओम, रब ने बना दी जोड़ी और रा.वन अब तक की सबसे बड़ी हिट फ़िल्मों में रही है और कभी खुशी कभी ग़म, कल हो ना हो, वीर ज़ारा ।
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वेल्थ रिसर्च फर्म वैल्थ एक्स के मुताबिक किंग ख़ान पहले सबसे अमीर भारतीय अभिनेता बन गए हैं। फर्म ने अभिनेता की कुल संपत्ति 3660 करोड़ रूपए आंकी थी लेकिन अब 4000 करोङ बताई जाती है।
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ख़ान के माता पिता पठान मूल के थे| उनके पिता ताज मोहम्मद ख़ान एक स्वतंत्रता सेनानी थे और उनकी माँ लतीफ़ा फ़ातिमा मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान की पुत्री थी|
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ख़ान के पिता हिंदुस्तान के विभाजन से पहले पेशावर के किस्सा कहानी बाज़ार से दिल्ली आए थे, हालांकि उनकी माँ रावल��िंडी से आयीं थी| ख़ान की एक बहन भी हैं जिनका नाम है शहनाज़ और जिन्हें प्यार से लालारुख बुलाते हैं| ख़ान ने अपनी स्कूली पढ़ाई दिल्ली के सेंट कोलम्बा स्कूल से की जहाँ वह क्रीड़ा क्षेत्र, शैक्षिक जीवन और नाट्य कला में निपुण थे| स्कूल की तरफ़ से उन्हें "स्वोर्ड ऑफ़ ऑनर" से नवाज़ा गया जो प्रत्येक वर्ष सबसे काबिल और होनहार विद्यार्थी एवं खिलाड़ी को दिया जाता था| इसके उपरांत उन्होंने हंसराज कॉलेज से अर्थशास्त्र की डिग्री एवं जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन की मास्टर्स डिग्री हासिल की|
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अपने माता पिता के देहांत के उपरांत ख़ान 1991 में दिल्ली से मुम्बई आ गए| 1991 में उनका विवाह गौरी ख़ान के साथ हिंदू रीति रिवाज़ों से हुआ| उनकी तीन संतान हैं - एक पुत्र आर्यन और एक पुत्री सुहाना |व पुत्र अब्राहम।
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"मैं एक हिंदू से विवाहित हूं, मेरे बच्चों को दोनों धर्मों के साथ लाया जा रहा है, जब मैं ऐसा महसूस करता हूं तो मैं नमाज पढ़ता हूं। लेकिन अगर मेरा धर्म चार विवाहों की अनुमति देता है, तो भी मैं इसमे विश्वास नहीं करना चाहूंगा। कई अन्य चीजें भी प्रासंगिकता खो चुकी हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कुरान से पूछताछ कर रहा हूं। मैं नमाज को पांच बार पढ़ने के संदर्भ में धार्मिक नहीं हूं लेकिन मैं इस्लामी हूं। मैं इस्लाम के सिद्धांतों पर विश्वास करता हूं और मेरा मानना है कि यह एक अच्छा धर्म है और एक अच्छा अनुशासन। मैं लोगों को यह जानना चाहता हूं कि इस्लाम न केवल एक कट्टरपंथी, या मूल रूप से अलग, नाराज व्यक्ति है, या जो केवल जिहाद करता है। मैं लोगों को यह जानना चाहता हूं कि जिहाद का वास्तविक अर्थ है अपनी खुद की हिंसा और कमजोरी को दूर करने के लिए। यदि आवश्यकता हो, तो इसे हिंसक तरीके से दूर करें। "
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ख़ान ने अभिनय की शिक्षा प्रसिद्द रंगमंच निर्देशक बैरी जॉन से दिल्ली के थियेटर एक्शन ग्रुप में ली| वर्ष 2007 में जॉन ने अपने पुराने शिष्य के बारे में कहा,
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" The credit for the phenomenally successful development and management of Shah Rukh's career goes to the superstar himself."
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ख़ान ने अपना कैरियर 1988 में दूरदर्शन के धारावाहिक "फ़ौजी" से प्रारम्भ किया जिसमे उन्होंने कोमान्डो अभिमन्यु राय का किरदार अदा किया| उसके उपरांत उन्होंने और कई धारावाहिकों में अभिनय किया जिनमे प्रमुख था 1989 का "सर्कस", जिसमे सर्कस में काम करने वाले व्यक्तियों के जीवन का वर्णन किया गया था और जो अज़ीज़ मिर्ज़ा द्वारा निर्देशित था| उस ही वर्ष उन्होंने अरुंधति राय द्वारा लिखित अंग्रेज़ी फ़िल्म "इन विच एनी गिव्स इट दोज़ वंस" में एक छोटा किरदार निभाया| यह फ़िल्म दिल्ली विश्वविद्यालय में विद्यार्थी जीवन पर आधारित थी|
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अपने माता पिता की मृत्यु के उपरांत 1991 में ख़ान नई दिल्ली से मुम्बई आ गये| बॉलीवुड में उनका प्रथम अभिनय "दीवाना" फ़िल्म में हुआ जो बॉक्स ऑफिस पर सफल घोषित हुई| इस फ़िल्म के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर की तरफ़ से सर्वश्रेष्ठ प्रथम अभिनय का अवार्ड मिला| उनकी अगली फ़िल्म थी "दिल आशना है" जो नही चली।1993 की हिट फ़िल्म "बाज़ीगर" में एक हत्यारे का किरदार निभाने के लिए उन्हें अपना पहला फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला। उस ही वर्ष में फ़िल्म "डर" में इश्क़ के जूनून में पागल आशिक़ का किरदार अदा करने के लिए उन्हें सरहाया गया। इस वर्ष में फ़िल्म "कभी हाँ कभी ना" के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर समीक्षक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरूस्कार से भी सम्मानित किया गया| 1994 में ख़ान ने फ़िल्म "अंजाम" में एक बार फिर जुनूनी एवं मनोरोगी आशिक़ की भूमिका निभाई और इसके लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरूस्कार भी प्राप्त हुआ।
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1995 में उन्होंने आदित्य चोपड़ा की पहली फ़िल्म "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" में मुख्य भूमिका निभाई। यह फ़िल्म बॉलीवुड के इतिहास की सबसे सफल और बड़ी फिल्मों में से एक मानी जाती है। मुम्बई के कुछ सिनेमा घरों में यह 12 सालों से चल रही है। इस फ़िल्म के लिए उन्हें एक बार फिर फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार हासिल हुआ।
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1996 उनके लिए एक निराशाजनक साल रहा क्यूंकि उसमे उनकी सारी फिल्में असफल रहीं। 1997 में उन्होंने यश चोपड़ा की दिल तो पागल है, सुभाष घई की परदेस और अज़ीज़ मिर्ज़ा की येस बॉस जैसी फिल्मों के साथ सफलता के क्षेत्र में फिर कदम रखा।
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वर्ष 1998 में करण जोहर की बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म कुछ कुछ होता है उस साल की सबसे बड़ी हिट घोषित हुई और ख़ान को चौथी बार फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार हासिल हुआ। इसी साल उन्हें मणि रत्नम की फ़िल्म दिल से में अपने अभिनय के लिए फ़िल्म समीक्षकों से काफ़ी तारीफ़ मिली और यह फ़िल्म भारत के बाहर काफ़ी सफल रही।
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अगला वर्ष उनके लिए कुछ ख़ास लाभकारी नही रहा क्यूंकि उ��की एक मात्र फ़िल्म, बादशाह, का प्रदर्शन स्मरणीय नही रहा और वह औसत व्यापार ही कर पायी| सन 2000 में आदित्य चोपड़ा की मोहब्बतें में उनके किरदार को समीक्षकों से बहुत प्रशंसा मिली और इस फ़िल्म के लिए उन्हें अपना दूसरा फ़िल्मफ़ेयर समीक्षक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला| उस ही साल आई उनकी फ़िल्म जोश भी हिट हुई। उस ही वर्ष में ख़ान ने जूही चावला और अज़ीज़ मिर्ज़ा के साथ मिल कर अपनी ख़ुद की फ़िल्म निर्माण कम्प्नी, 'ड्रीम्ज़ अन्लिमिटिड', की स्थापना की। इस कम्प्नी की पहली फ़िल्म फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी, जिसमे ख़ान और चावला दोनों ने अभिनय किया, बॉक्स ऑफिस पे जादू बिखेरने में असमर्थ रही। कमल हसन की विवादग्रस्त फ़िल्म हे राम में भी ख़ान ने एक सहयोगी भूमिका निभाई जिसके लीये उन्हें समीक्षकों ने सराहा हालांकि यह फ़िल्म भी असफल श्रेणी में रही।
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सन 2001 में ख़ान ने करण जोहर के साथ अपनी दूसरी फ़िल्म कभी खुशी कभी ग़म की, जो एक पारिवारिक कहानी थी और जिसमें अन्य भी कई सितारे थे। यह फ़िल्म उस वर्ष की सबसे बड़ी हिट फिल्मों की सूची में शामिल थी। उन्हें अपनी फ़िल्म अशोका, जो की ऐतिहासिक सम्राट अशोक के जीवन पर आधारित थी, के लीये भी प्रशंसा मिली लेकिन यह फ़िल्म भी नाकामियाब रही। सन् 2002 में ख़ान ने संजय लीला भंसाली की दुखांत प्रेम कथा देवदास में मुख्य भूमिका अदा की जिसके लिए उन्हें एक बार फिर फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार दिया गया। यह शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास पर आधारित तीसरी हिन्दी फ़िल्म थी।
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अगले साल ख़ान की दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं, चलते चलते और कल हो ना हो। चलते चलते एक औसत हिट साबित हुई लेकिन कल हो ना हो, जो की करण जोहर की तीसरी फ़िल्म थी, राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही बाज़ारों में काफ़ी कामियाब रही। इस फ़िल्म में ख़ान ने एक दिल के मरीज़ का किरदार निभाया जो मरने से पहले अपने चारों ओर खुशियाँ फैलाना चाहता है और इस अदाकारी के लिये उन्हें सरहाया भी गया।
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2004 ख़ान के लिये एक और महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस साल की उनकी पहली फ़िल्म थी फ़राह ख़ान निर्देशित मैं हूँ ना, जो ख़ान द्वारा सह-निर्मित भी थी। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर एक बड़ी हिट सिद्ध हुई। उनकी अगली फ़िल्म थी यश चोपड़ा कृत वीर-ज़ारा, जो उस साल की सबसे कामयाब फ़िल्म थी और जिसमे ख़ान को अपने अ���िनय के लिये कई अवार्ड और बहुत प्रशंसा मिली। उनकी तीसरी फ़िल्म थी आशुतोष गोवारिकर निर्देशित स्वदेश, जो दर्शकों को सिनेमा-घरों में लाने में तोह सफल ना हो सकी लेकिन उसमें ख़ान के भारत लौटे एक अप्रवासी भारतीय की भूमिका को सरहाया गया और ख़ान ने अपना छठवाँ फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार जीता।
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सन 2005 में उनकी एकमात्र फ़िल्म पहेली बॉक्स ऑफिस पर असफल रही हाला की उसमे ख़ान के अभिनय को सरहाया गया| 2006 में ख़ान एक बार फिर करण जोहर की फ़िल्म कभी अलविदा ना कहना में देखे गये जो एक अतिनाटकीय फ़िल्म थी। इस फ़िल्म ने भारत में तोह सफलता प्राप्त की ही, साथ ही साथ यह विदेश में सबसे सफल हिन्दी फ़िल्म भी बन गई। उस ही वर्ष ख़ान ने 1978 की हिट फ़िल्म डॉन की रीमेक डॉन में भी अभिनय किया जो एक बड़ी हिट सिद्ध हुई।
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2007 में ख़ान की दो फिल्में आई है - चक दे! इंडिया और ']। चक दे! इंडिया में ख़ान भारतीय महिला हॉकी टीम के कोच के किरदार में नज़र आते हैं जिनका लक्ष्य है भारत को विश्व कप दिलवाना। इस किरदार की लिये ख़ान को समीक्षकों से तोह खासी प्रशंसा मिली ही है साथ ही साथ यह फ़िल्म एक विशाल हिट भी सिद्ध हुई है। 2007 की दूसरी फ़िल्म ओम शांति ओम में भी नज़र आए ये फराह ख़ान की शाहरुख़ ख़ान के साथ दूसरी फ़िल्म है। इसमें ख़ान ने दोहरी भूमिका निभाई। पहला किरदार ओम एक जूनियर कलाकार है और एक हादसे में मारा जाता है और दूसरा एक नामी अभिनेता ओम कपूर है। ये फ़िल्म भी 2007 की एक सफल फ़िल्म थी।
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'चार्ली' शर्मा
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काली
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तलियार ख़ान
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'जुग'ख़ान
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द बीटल्स 1960 का एक अन्ग्रेज़ी रॉक बैन्ड था जिसका निर्माण लिवरपूल में किया गया था। जॉन लेनन, पॉल मेकारटनि, जोर्ज हैरिसन और रिंगो स्टार के साथ वे व्यापक प्रभावशाली कलाकार के रूप मे माने जाते है।1950 के दशक के रॉक एन्ड ऱोल के शैलि मे शुरु किया था और उस्के बाद बीटल्स ने कई सारे शैलियों के साथ प्रयोग किया। पॉप गाथगीत से साइकेडेलिक् रॉक को लेकर वह अक्सर शास्त्रीय ततवो को अपनाकर, अभिनव तारीके से इन ततवो को अपने संगीत मे शामिल करते।
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1960 के काल मे बीटल्स को बहुत लोकप्रियता मिलि। जब वह "बीटलमेनिया" के रूप मे उभरे। लेकिन जैसे उन्के गीत लेखन कि व्रिधि हुइ वे सामाजिक और सांस्कृतिक क्रितियो के द्वारा अपने आदर्शें के अवतार के रूप से माना जाने लगे।1960 मे सथापित हुए बीटल्स ने अप्नि ख्याति लिवरपूल और हैम्बर्ग मे कल्ब खोल्कर तीन साल कि अवधि मे लोकप्रियताअर्जित कि। प्रबन्धक बरायन एप्स्तटाईण एक पेशवर अधिनियम मे डाला और निर्माता जार्ज मार्टीन उन्के संगीत की क्शम्ता बडाई। 1962 मे "लव मी डू: उन्का पहला हिट होने के बाद ब्रिटेन मे प्रसिधि हासिल की। वे "बीटल्मैनिया" के नाम से माने जाने लगे।
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वह उप्नाम "फैब फोर" के रूप से माने जाने लगे। जल्दि 1964 मे प्रमुख अन्तरासश्ट्ऱीय सितारे बन गए जो अमेरिका पॉप बाज़ार के "ब्रिटीश आक्रमण" के संयुक्त बने। पर 1प65 से बीटल्स कई प्रभावशालि एल्बम बनाए जैसे रबर सोल, रिवाल्वर, सार्जिट पेपर्स लोनली हार्टस कल्ब बैन्ड, द बीटल्स और अभय रोड । 1970 मे उन्के टूट्ने के बाद वे एकल वयवसाय का आनन्द लिया। लेनन को दिसम्बर 1980 मे गोलि मार दिया गया और हैरिसन को नवम्बर 2011 मे फेफड़ों के कैनसर के कारण म्र्त्यु हो गई। मेकारटनि और स्टार, बाकी सदस्य अपने संगीत को जारि रखा।
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RIAA के अनुसार बीटल्स प्रमाणीत इकाइयो के साथ, सयुन्क्त रज्य अमेरिका मे सब्से ज़्यादा बिक्ने वाला बैन्ड था। वे ब्रिटिश चार्ट पर अधिक सन्ख्या मे सबसे अवल एलब्म था। 2008 मे समुह के सबसे सफल "हाट 100" कलाकारो मे बिलबोर्ड पत्रिका की सूची मे सबसे उपर रहे। 2014 के रूप मे वे सबसे अधिक सन्ख्या मे एक 20 के साथ हाट 100 चार्ट पर रेकार्ड पकडा रखा। वे दस ग्रैमी पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ मूल स्कोर के लिए एक अकादमि पुरस्कार और 15 इवोर नोवेलो पुरस्कार प्राप्त किए है।सामुस्टोनहिक रूप से 20वी सदि के 100 सबसे प्रभाव्शालि लोगो की टाइम पत्रिका के स��्कलन मे शामिल है। वे EMI रिकार्ड्स मे अरसे से ज़्यादा इकाइयों की बिक्री के आकलन के साथ मे इतिहास मे अधिक बिकने वाला बैन्ड है। 2004 मे रोलिंग स्टोन सभी समय के महान्तम कलाकार के रूप मे बीटल्स स्थान पर रहे।
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प्रभाव्
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बीटल्स के सबसे पहले प्रभाव है एल्विस प्रैसलि, कार्ल पार्किन्स, लिटिल रिचर्ड और चक बैरी है। 1962 मे जब् बीटल्स लिटिल रिचर्ड के साथ स्टार कल्ब, हैमबर्ग, अप्रैल से मई मे उन्होने सलाह दी कि वह अपने गीत के लिये उचित प्रविधि का प्रदर्शन करे। प्रेस्ली के लिये लेनन ने कहा "मैने जब तक एल्विस को सुना, तब तक मुझे वास्तव मे कुछ भि प्रभावित न हिआ, अगर एलिस न होता तो बीटल्स भी न होता।"
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अन्य प्रारम्भिक प्रभाव थे जैसे कि बडि होली, एडी कोकरान, रॉय और्बिसन और एवर्लि ब्रदर्स थे। वह अक्सर बॉब डिलन और फ्रैन्क ज़ैपा के गीत सहित को सुन्ने के द्वरा नए संगीत गाते और गीतात्मक रास्ते खोजने लगते। हैरिसन ने 1966, भारत मे 6 सप्ताह के समय के लिये रवि शनकर के साथ अध्ययन किया था। बैन्ड के बाद के वर्षों के दौरान उनके संगीत मे रवि शनकर के विकास का महत्व्पूर्ण प्रभाव था।
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"ऱोल्लिङ स्टोनेस" नामक पत्रिक के पूर्व एसोसिएट एडीटर ने बीटल्स की तुलना पिकास्सो से की, जो "कलाकार अपने समय के दबाव तोड्कर कुछ नयी कला को प्राप्त किया जो अद्वितीय और मूल था। लोकप्रिय संगीत के प्रपत्र में कोई भी इत्ना क्रान्तिकारी, इत्ना रच्नात्मक, इत्ना विशिष्ट नही हो सक्ता।" अमेरिका के खिलाफ अन्ग्ग्रेज़ी आक्रमण रचाने के साथ साथ वे विश्व स्तर पर प्रभावशाली घटना बन गये थे।
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उन्के संगीत नवाचारों और व्यावसायिक सफलता ने दुनिया के कई संगीतकारों को प्रेरणा दी। कई कलाकारों ने बीटल्स के प्रभाव को स्वीकार किया है और बीटल्स से लिये गये उन्के संगीत को सफल्ता मिली है। रडियो पर उन्के आगमन ने एक नया युग स्थापित किया; 1986 में न्यू योर्क के "WABC" रेडियो स्टेशन के प्रोग्रामिंग निदेशक ने अपने रडियो को कोई भी बीटल्स के पेहले का संगीत बजाने से मना कर दिया था। वे आधूनिक संगीत के प्राथमिक नवीन आविष्कारों कहलाये जाते थे। "द शिया स्टेडिअम शो" में लगभग 55600 लोग आये, जिस्से उन्होने अप्ना 1965 का नोर्थ अमेरिका संगीत यात्रा को शुरु किया, जो उस समय का सब्से बडा संगीत कार्यक्रम माना गया; स्पिट्ज़ इस घटना को इस तरह से वर्णन करते हैं - "यह बडी सफलता है। इसे संग���त कार्यक्रम के व्यापार में एक बडा कदम है।" उनके वस्त्र और ज़्यादातर उन्के केश्विन्यास का अनुकरण, जो विद्रोह का एक निशान बन गया, ने वैश्विक फैशन को प्रभावित किया, ऐसा गोल्ड ने कहा।
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गोल्ड के अनुसार, बीटल्स ने लोगों के संगीत का मज़ा लेने क तरीका बदल दिया था और इन लोगों ने अपने जीवन में बीटाल्स की भूमिका का अनुभाव किया। जो "बीटलमेनिया" से शुरु हुअ था, इस समुह की लोकप्रीयता धीरे धीरे दशक की सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों का अवतार बन गयी। 1960 के जवाबी संस्कृति के आइकॉन होने की वजह से वे बोहेमियनिस्म और सक्रियता जैसे अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में उत्प्रेरक माने जाते थे और महिला मुक्ति, समलैंगिक मुक्ति और पर्यावरणवाद के मामलो में उन्होने अप्न हाथ बढाया। पीटर लवेज़्ज़ोलि के अनुसार, 1966 के "यीशु से ज़्यादा लोकप्रीय" विवाद के बाद, बीटल्स को यह सहि लगा कि उन्हे सही चीज़े कहिनी चाहिये और वे ज्ञान का संदेश और उच्च चेतना फैलाने का प्रयोग करने लगे।
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1965 में, रानी एलिज़बेथ 2 ने लेनन, मेकारटनि, हैरिसन और स्टार को "मेम्बर्स ऑफ़ द ऑर्डेर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पाइर" में नियुक्त किया। "लेट इट बी" नामक चलचित्र को 1971 अकादमी पुरस्कार "बेस्ट ओरिजिनल सांग स्कोर" से सम्मनित किया गया था। 7 ग्राम्मी पुरस्कार और 15 ईवोर नोवेल्लो पुरस्कार के विजेता, बीटल्स को 6 डाइमन्ड एलबम, 24 मल्टि प्मेटिनम एलबम, 39 प्मेटिनम एलबम और 45 गोल्ड एलबम से अमेरिका में सम्मानित किया गया है। इंग्लैंड में, बीटल्स के नाम 4 मल्टि प्मेटिनम एलबम, 4 प्मेटिनम एलबम, 8 गोल्ड एलबम और 1 सिल्वर एलबम हैं। 1988 में उन्हे "रॉक एंड रोल हॉल ऑफ फेम" में शामिल किया गया था।
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इतिहास के सबसे सर्वश्रेष्ठ विक्रय बैन्ड, बीटल्स ने 60 करोड और 100 करोड से अधिक इकाइयों को बेचा है। उन्के पास दुनिया के दूसरे बैन्ड से ज़्यादा नुम्बर एक एलबम ब्रिटिश चार्ट्स पर हैं और इंग्लैंड में 2 करोड से ज़्यादा गानो को बेचा है। 2004 में, "रोल्लिन्ग स्टोन" नामक पत्रिका ने बीटल्स को दुनिया के सबसे सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पद सौंपा। "टाइम" पत्रिका के "20 सदी के 100 प्रमुख प्रभावशाली लोग" के भाग में बीटल्स को सामुहिक रूप मे शामिल किया गया था। 2014 में उन्हें "ग्राम्मी लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार" से सम्मनित किया गया था।
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कंकनी या टेनोफोरा अपृष्ठवंशी जंतुओं का एक छोटा संघ है जो कुछ ही समय पहले तक आंतरगुही समुदाय से घनिष्ठ संबंध के कारण उसी के उपसमुदाय के अंतर्गत रखा जाता था। इसके सभी सदस्य समुद्री स्वतंत्रजीवी, स्वतंत्र रूप से तैरनेवाले तथा बहुत ही पारदर्शी होते हैं। ये बहुविस्तृत हैं और उष्ण भागों में बहुतायत से पाए जाते हैं।
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इनको सामन्यत: 'समुद्री अखरोट' या 'कंकत-गिजगिजिया' कहते हैं। पहला नाम आकार के कारण तथा दूसरा उसके पारदर्शी तथा कोमल होने और उनपर कंकत जैसे चलांगों के कारण है। ये 'कंघियाँ' शरीर पर लाक्षणिक रूप से आठ पंक्तियों में स्थित होती हैं। कुछ जातियाँ फीते जैसी चपटी भी होती हैं, जैस 'रति-वलय', जिसकी लंबाई 6 इंच से लेकर 4 फुट तक होती है।
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इस समुदाय के साधारण लक्षण निम्नलिखित हैं :
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1. शरीर के द्विअरीय विधि से उदग्र अक्ष पर संमित होता है;
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2. शरीर के निर्माण में दो मुख्य स्तरों–बहिर्जनस्तर तथा अंतर्जनस्तर का होना, किंतु साथ ही इनके बीच में बहुविकसित मध्यश्लेष का स्तर होना, जिसमें अनेक कोशिकाएँ होती हैं। इन कोशिकाओं का पृथक्करण बहुत प्रारंभिक अवस्था में हो जाता है जिससे इसको अधिकांश लेखक एक अलग स्तर मध्यचर्म मानते हैं। इस प्रकार कंकनी समुदाय त्रिस्तरीय कहा जा सकता है। मध्यचर्म की कोशिकाओं से पेशीय कोशिकाएँ बनती हैं।
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3. समुदाय में शरीर विखंडित नहीं होता।
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4. शरीर बहुत कुछ गोलाकार या लंबी नाशपाती जैसा होता हैं, किंतु कुछ सदस्य चपटे भी होते हैं। शरीर के ऊपरी तल पर पक्ष्म-कोशिकाओं से बनी 'कंघियों' की आठ पंक्तियाँ होती हैं। ये ही इन जीवों के चलांग हैं।
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5. सुच्यंग अथवा डंक सर्वथा अनुपस्थित रहते हैं।
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6. पाचक अंगों के अंतर्गत मुख, 'ग्रसनी', आमाशय तथा शाखित नलिकाएँ रहती हैं।
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7. स्नायु संस्थान आंतरगुही की भाँति फैला हुआ और जाल जैसा तथा मुख की विपरीत दिशा में स्थित्यंग नामक संवेदांग की उपस्थिति होती है।
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8. ये जीव द्विलिंगी होते हैं; जननकोशिकाओं का निर्माण अंतर्जनस्तर से, कंकनीपंक्तियों के नीचे, होता है।
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9. परिवर्धन सरल तथा बिना किसी डिंभ की अवस्था और पीढ़ियों के एकांतरण से होता है।
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इसके अतिरिक्त अधिकांश कंकनियों में दो ठोस, लंबी स्पर्शिकाएँ होती हैं, जो प्रत्येक पार्श्व में स्थित एक अंधी थैली से निकलती हैं। इन स्पर्शिकाओं पर कुछ विचित्र कोशिकाएँ होती हैं जिनको ��ॉलोब्लास्ट कहते हैं। प्रत्येक कॉलोब्लास्ट से एक प्रकार का लसदार द्रव निकलता है और इसमें कुंतलित कमानी के आकार की एक संकोची धागे जैसी रचना होती है, जो शिकार से लिपट जाती है और उसे पकड़ने में सहायक होती है।
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कंकनी की संरचना का कुछ ज्ञान पार्श्वक्लोम के संक्षिप्त वर्णन से हो जाएगा। यह प्राय: गोल होता है और इसका व्यास लगभग 3/4 इंच होता है। इसका मुख एक ओर स्थित होता है तथा उपलकोष्ठ मुख की विपरीत दिशा में रहता है। इन दो ध्रुवों के बीच, एक दूसरे से लगभग बराबर दूरी पर, आठ कंकनी पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पंक्तियाँ सामान्य धरातल से कुछ ऊपर उठी हुई होती है और प्रत्येक का निर्माण अनेक बेड़ी, कंघी जैसी रचना से होता है। अंत में प्रत्येक कंघी स्वयं अनेक जुड़े हुए रोमाभ से बनती है। इन रोमाभों की गति में सामंजस्य होने से जंतु में गति होती है और वह मुख को आगे की ओर रखकर चलनक्रिया करते हैं। स्थित्यंग की ओर दो अंधी थैलियों में से प्रत्येक से एक अंगक निकलता है जो बहुधा छह इंच लंबा होता है। तैरते समय अधिकतर ये रचनाएँ पीछे की ओर घिसटती रहती हैं। इनपर असंख्य कॉलोब्लास्ट होते हैं जिनकी सहायता से यह जीव छोटे जंतुओं का शिकार करता है।
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मुख का संबंध ग्रसनी या मुखाग्र से होता है जहाँ पाचन क्रिया होती है। इसके आगे आमाशय होता है जिससे पाचक नलिकाएँ एक विशेष योजना के अनुसार निकलती हैं। इनके अतिरिक्त आमाशय और भी संवेदांग की ओर बढ़ता है और अंत में उससे चार नलिकाएँ निकलती हैं जिनमें से दो संवेदांग के इधर-उधर उत्सर्जन छिद्रों द्वारा बाहर खुलती हैं। वास्तव में इन छिद्रों से अपचित भोजन बाहर निकलता है।
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संवेदांग की रचना में रोमाभों के चार लंबे गुच्छे भाग लेते हैं और उनके बीच एक गोल पथरीला कण, या स्थितिकण, होता है। समस्त रचनाएँ एक अर्ध गोल आवरण से ढकी होती हैं। स्टैटोसिस्ट का संबंध जंतु के संतुलन से, अर्थात् गुरुत्वाकर्षण के संबंध में प्राणी की स्थिति से, होता है। संभवत: उसके द्वारा किसी प्रकार रोमाभों की गति में सामंजस्य भी उत्पन्न होता है।
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कंकनी का विभाजन दो वर्गो या उपवर्गो में किया जाता है–टेंटाकुलाटा तथा न्यूडा । इनका विवरण इस प्रकार है :
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इसमें साधारणत: दो लंबी स्पर्शिकाएँ पाई जाती हैं। इसमें चार गण होते हैं :
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साइडिपिडा –इनमें शरीर गोल होता है तथा दो स्पशिकाएँ पाई जाती हैं। ये बहुधा शाखित होती हैं और अपनी थैलियों में वापस की जा सकती हैं; जैस पार्श्वक्लोम तथा काचकुड्म में।
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सपालि इनमें शरीर कुछ अंडाकार तथा चिपटा होता है। स्पर्शिकाएँ बिना थैलियों या आवरण के होती हैं और मुख के इधर-उधर एक जोड़ा मौखिक पिंडक होता है; जैसे काचर उर्वशी और ।
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मेखला –इनमें शरीर चिपटा, लंबा, फीते जैसा होता है, दो या अधिक अविकसित स्पर्शिकाएँ होती हैं और कई छोटी पार्श्वीय स्पर्शिकाएँ ; जैसे सेस्टम वेनेरिस जो दो इंच चौड़ा और लगभग तीन फुट लंबा होता है, उष्ण प्रदेशों में पाया जाता है और टेढ़े-मेढ़े ढंग से चलता है।
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प्लैटिक्टीनिया–इनमें शरीर उदग्र अक्ष में चिपटा होता है और इस प्रकार रेंगने के लिए संपरिवर्तित हो जाता है; जैसे सीलोप्लेना, टेनोप्लेना ।
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इनमें स्पर्शिकाओं का अभाव रहता है, शरीर थैली या टोपी जैसा होता है, मुख चौड़ा होता है और ग्रसनी बहुत बड़ी होती है। इस वर्ग में एक ही गुण हैं :
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बिरोइडी –इसके जंतु बहुभक्षी, शंक्वाकार शरीरवाले होते हैं। ये पार्श्वीय अक्ष में कुछ चिपटे होते हैं। इस गण की मुख्य जाति बेरोई है, जो संसार भर में पाई जाती है। यह कुछ गुलाबी होती है और लगभग 8 इंच तक ऊँची हो सकती है।
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जंतुसंसार में कंकनी की स्थिति तथा अन्य समुदायो से उनके संबंध के विषय में जंतु शास्त्रवेताओं के बीच पर्याप्त मतभेद है। कुछ लक्षणों के आधार पर इनका संबंध आंतरगुहियों से स्पष्ट है, जैसे देहगुहा का अभाव, संमिति की प्रकृति, श्लेषाभीय मध्यश्लेष, विस्तृत नाड़ीजाल, शाखित पाचक गुहा इत्यादि। कई लेखकों ने इसका संबंध जलीयक वर्ग के चलछत्रिक गण से जोड़ने का प्रयत्न किया है। यह स्थापना तथ्यपूर्ण जान पड़ती है। इसके अतिरिक्त कुछ लक्षणों के कारण साइफोज़ोआ और ऐंथोज़ोआ से भी इसका संबंध जान पड़ता है, किंतु साथ ही इस समुदाय में कुछ ऐसे लक्षण भी देखे जाते हैं जिनके कारण यह सभी आंतरगुहियों से पृथक दिखाई पड़ता है–जैसे पेशीय तंतुओं की दशा, कोलोब्लास्ट कोशिकाओं की उपस्थिति, कंकनी पंक्तियों की उपस्थिति आदि। संभव यही जान पड़ता है कि कंकनी समुदाय आंतरगुहियों के किसी बहुत प्रारंभिक पूर्वज से, जो ट्रेकिलाइनी जैसा था, उत्पन्न होकर अलग हो गया है।
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लैंग के अनुसार कंकनी से ही द्विसंमित जंतुओं का उद्भव हुआ जिनमें से मुख्य हैं पर्णचिपिट । किंतु इस मत की पुष्टि में जो तथ्य दिए गए हैं वे बहुत विश्वसनीय नहीं जान पड़ते। संभावना यही है कि विशेषीकरण के कारण यह समुदाय जंतुओं की एक प्रकार की छोटी बंद शाखा है, यद्यपि इसके अध्ययन से यह पता चलता है कि द्विस्तरीय जंतुओं से त्रिस्तरीय जंतुओं का उद्भव किस प्रकार हुआ।
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सिख धर्मपर एक श्रेणी का भाग
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गुरू हरगोबिन्द सिखों के छठें गुरू थे।साहिब की सिक्ख इतिहास में गुरु अर्जुन देव जी के सुपुत्र गुरु हरगोबिन्द साहिब की दल-भंजन योद्धा कहकर प्रशंसा की गई है। गुरु हरगोबिन्द साहिब की शिक्षा दीक्षा महान विद्वान् भाई गुरदास की देख-रेख में हुई। गुरु जी को बराबर बाबा बुड्डाजी का भी आशीर्वाद प्राप्त रहा। छठे गुरु ने सिक्ख धर्म, संस्कृति एवं इसकी आचार-संहिता में अनेक ऐसे परिवर्तनों को अपनी आंखों से देखा जिनके कारण सिक्खी का महान बूटा अपनी जडे मजबूत कर रहा था। विरासत के इस महान पौधे को गुरु हरगोबिन्द साहिब ने अपनी दिव्य-दृष्टि से सुरक्षा प्रदान की तथा उसे फलने-फूलने का अवसर भी दिया। अपने पिता श्री गुरु अर्जुन देव की शहीदी के आदर्श को उन्होंने न केवल अपने जीवन का उद्देश्य माना, बल्कि उनके द्वारा जो महान कार्य प्रारम्भ किए गए थे, उन्हें सफलता पूर्वक सम्पूर्ण करने के लिए आजीवन अपनी प्रतिबद्धता भी दिखलाई।
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बदलते हुए हालातों के मुताबिक गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा भी ग्रहण की। वह महान योद्धा भी थे। विभिन्न प्रकार के शस्त्र चलाने का उन्हें अद्भुत अभ्यास था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब का चिन्तन भी क्रान्तिकारी था। वह चाहते थे कि सिख कौम शान्ति, भक्ति एवं धर्म के साथ-साथ अत्याचार एवं जुल्म का मुकाबला करने के लिए भी सशक्त बने। वह अध्यात्म चिन्तन को दर्शन की नई भंगिमाओं से जोडना चाहते थे। गुरु- गद्दी संभालते ही उन्होंने मीरी एवं पीरी की दो तलवारें ग्रहण की। मीरी और पीरी की दोनों तलवारें उन्हें बाबा बुड्डाजीने पहनाई। यहीं से सिख इतिहास एक नया मोड लेता है। गुरु हरगोबिन्दसाहिब मीरी-पीरी के संकल्प के साथ सिख-दर्शन की चेतना को नए अध्यात्म दर्शन के साथ जोड देते हैं। इस प्रक्रिया में राजनीति और धर्म एक दूसरे के पूरक बने। गुरु जी की प्रेरणा से श्री अकाल तख्त साहिब का भी भव्य अस्तित्व निर्मित हुआ। देश के विभिन्न भागों की संगत ने गुरु जी को भेंट स्वरूप शस्त्र एवं घोडे देने प्रारम्भ किए। अकाल तख्त पर कवि और ढाडियोंने गुरु-यश व वीर योद्धाओं की गाथाएं गानी प्रारम्भ की। लोगों में मुगल सल्तनत के प्रति विद्रोह जागृत होने लगा। गुरु हरगोबिन्दसाहिब नानक राज स्थापित करने में सफलता की ओर बढने लगे। जहांगीर ने गुरु ह���गोबिन्दसाहिब को ग्वालियर के किले में बन्दी बना लिया। इस किले में और भी कई राजा, जो मुगल सल्तनत के विरोधी थे, पहले से ही कारावास भोग रहे थे। गुरु हरगोबिन्दसाहिब लगभग तीन वर्ष ग्वालियर के किले में बन्दी रहे। महान सूफी फकीर मीयांमीर गुरु घर के श्रद्धालु थे। जहांगीर की पत्नी नूरजहांमीयांमीर की सेविका थी। इन लोगों ने भी जहांगीर को गुरु जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया। बाबा बुड्डाव भाई गुरदास ने भी गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया। जहांगीर ने केवल गुरु जी को ही ग्वालियर के किले से आजाद नहीं किया, बल्कि उन्हें यह स्वतन्त्रता भी दी कि वे 52राजाओं को भी अपने साथ लेकर जा सकते हैं। इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को बन्दी छोड़ दाता कहा जाता है। ग्वालियर में इस घटना का साक्षी गुरुद्वारा बन्दी छोड़ है। अपने जीवन मूल्यों पर दृढ रहते गुरु जी ने शाहजहां के साथ चार बार टक्कर ली। वे युद्ध के दौरान सदैव शान्त, अभय एवं अडोल रहते थे। उनके पास इतनी बडी सैन्य शक्ति थी कि मुगल सिपाही प्राय: भयभीत रहते थे। गुरु जी ने मुगल सेना को कई बार कड़ी पराजय दी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने अपने व्यक्तित्व और कृत्तित्वसे एक ऐसी अदम्य लहर पैदा की, जिसने आगे चलकर सिख संगत में भक्ति और शक्ति की नई चेतना पैदा की। गुरु जी ने अपनी सूझ-बूझ से गुरु घर के श्रद्धालुओं को सुगठित भी किया और सिख-समाज को नई दिशा भी प्रदान की। अकाल तख्त साहिब सिख समाज के लिए ऐसी सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरा, जिसने भविष्य में सिख शक्ति को केन्द्रित किया तथा उसे अलग सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान प्रदान की। इसका श्रेय गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ही जाता है।
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गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी बहुत परोपकारी योद्धा थे। उनका जीवन दर्शन जन-साधारण के कल्याण से जुडा हुआ था। यही कारण है कि उनके समय में गुरमतिदर्शन राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुंचा। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के महान संदेश ने गुरु-परम्परा के उन कार्यो को भी प्रकाशमान बनाया जिसके कारण भविष्य में मानवता का महा कल्याण होने जा रहा था।
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गुरु जी के इन अथक प्रयत्नों के कारण सिख परम्परा नया रूप भी ले रही थी तथा अपनी विरासत की गरिमा को पुन:नए सन्दर्भो में परिभाषित भी कर रही थी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब की चिन्तन की दिशा को नए व्यावहारिक अर्थ दे रहे थे। वास्तव में यह उनकी आभा और शक्ति का प्रभाव था। गुरु जी के व्यक्तित्व और कृत्तित्वका गहरा प्रभाव पूरे परिवेश पर भी पडने लगा था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी ने अपनी सारी शक्ति हरमन्दिरसाहिब व अकाल तख्त साहिब के आदर्श स्थापित करने में लगाई। गुरु हरगोबिन्दसाहिब प्राय: पंजाब से बाहर भी सिख धर्म के प्रचार हेतु अपने शिष्यों को भेजा करते थे।
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गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने सिक्ख जीवन दर्शन को सम-सामयिक समस्याओं से केवल जोडा ही नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवन दृष्टि का निर्माण भी किया जो गौरव पूर्ण समाधानों की संभावना को भी उजागर करता था। सिख लहर को प्रभावशाली बनाने में गुरु जी का अद्वितीय योगदान रहा।
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गुरु जी कीरतपुर साहिब में ज्योति-जोत समाए। गुरुद्वारा पातालपुरीगुरु जी की याद में आज भी हजारों व्यक्तियों को शान्ति का संदेश देता है। भाई गुरुदास ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब की गौरव गाथा का इन शब्दों में उल्लेख किया है: पंज पिआलेपंजपीर छटम्पीर बैठा गुर भारी, अर्जुन काया पलट के मूरत हरगोबिन्दसवारी,
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चली पीढीसोढियांरूप दिखावनवारो-वारी,
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दल भंजन गुर सूरमा वडयोद्धा बहु-परउपकारी॥सिखों के दस गुरू हैं।
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गुरु हरगोबिंद साहिब जी जब कश्मीर की यात्रा पर थे तब उनकी मुलाकात माता भाग्भरी से हुई थी जिन्होंने पहली मुलाकात पर उनसे पूछा कि क्या आप गुरु नानक देव जी हैं क्योंकि उन्होंने गुरु नानक देव जी को नहीं देखा था। उन्होंने गुरु नानक देव जी के लिए एक बड़ा सा चोला बनाया था जिसमे 52 कलियाँ थी ये चोला उन्होंने उनके बारे में सुनकर कि उनका शरीर थोडा भारी है ये वस्त्र थोडा बड़ा बनाया था। माता की भावनाओं को देखते हुए गुरु साहिब ने ये चोला उनसे लेकर पहन लिया। गुरु साहिब जब ग्वालियर के किले से मुक्त किये गए तो उन्होंने यही चोला पहन रखा था जिसकी 52 कलियों को पकड़ कर किले की जेल में बंद सारे 52 राजा एक एक कर बाहर आ गए, तभी से गुरु हरगोबिन्द साहिब जी "दाता बन्दी छोड़" कहलाये।
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गुरु नानक देव · गुरु अंगद देव · गुरु अमर दास · गुरु राम दास · गुरु अर्जुन देव · गुरु हरगोबिन्द · गुरु हर राय · गुरु हर किशन · गुरु तेग बहादुर · गुरु गोबिंद सिंह
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इतिहास · रामानन्द · बाबा फ़रीद · भगत कबीर • इतिहास · गुरुद्वारा · हरिमन्दिर साहिब · ख़ालसा · खंडा · साहित्य · संगीत · नाम · स्थल · राजनीति · सतगुरु · सिख · वाहेगुरु · पंजाब का इतिहास · सरदार · तख़्त · सिख रत्न · इ��्लाम · आलोचना
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1971 का भारत-पाक युद्ध के बाद भारत के शिमला में एक संधि पर हस्ताक्षर हुए। इसे शिमला समझौता कहते हैं। इसमें भारत की तरफ से इंदिरा गांधी और पाकिस्तान की तरफ से ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो शामिल थे। यह समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच दिसम्बर 1971 में हुई लड़ाई के बाद किया गया था, जिसमें पाकिस्तान के 93000 से अधिक सैनिकों ने अपने लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी के नेतृत्व में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान को बंगलादेश के रूप में पाकिस्तानी शासन से मुक्ति प्राप्त हुई थी। यह समझौता करने के लिए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो अपनी पुत्री बेनज़ीर भुट्टो के साथ 28 जून 1972 को शिमला पधारे। ये वही भुट्टो थे, जिन्होंने घास की रोटी खाकर भी भारत से हजार साल तक जंग करने की कसमें खायी थीं।28 जून से 1 जुलाई तक दोनों पक्षों में कई दौर की वार्ता हुई परन्तु किसी समझौते पर नहीं पहुँच सके। इसके लिए पाकिस्तान की हठधर्मी ही मुख्य रूप से जिम्मेदार थी। तभी अचानक 2 जुलाई को लंच से पहले ही दोनों पक्षों में समझौता हो गया, जबकि भुट्टो को उसी दिन वापस जाना था। इस समझौते पर पाकिस्तान की ओर से बेनजीर भुट्टो और भारत की ओर से इन्दिरा गाँधी ने हस्ताक्षर किये थे। यह समझना कठिन नहीं है कि यह समझौता करने के लिए भारत के ऊपर किसी बड़ी विदेशी ताकत का दबाव था। इस समझौते से भारत को पाकिस्तान के सभी 93000 से अधिक युद्धबंदी छोड़ने पड़े और युद्ध में जीती गयी 5600 वर्ग मील जमीन भी लौटानी पड़े। इसके बदले में भारत को क्या मिला यह कोई नहीं जानता। यहाँ तक कि पाकिस्तान में भारत के जो 54 युद्धबंदी थे, उनको भी भारत वापस नहीं ले सका और वे 41 साल से आज भी अपने देश लौटने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।अपना सब कुछ लेकर पाकिस्तान ने एक थोथा-सा आश्वासन भारत को दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर सहित जितने भी विवाद हैं, उनका समाधान आपसी बातचीत से ही किया जाएगा और उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाया जाएगा। लेकिन इस अकेले आश्वासन का भी पाकिस्तान ने सैकड़ों बार उल्लंघन किया है और कश्मीर विवाद को पूरी निर्लज्जता के साथ अनेक बार अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाया है। वास्तव में उसके लिए किसी समझौते का मूल्य उतना भी नहीं है, जितना उस कागज का मूल्य है, जिस पर वह समझौता लिख�� गया है।इस समझौते में भारत और पाकिस्तान के बीच यह भी तय हुआ था कि 17 दिसम्बर 1971 अर्थात् पाकिस्तानी सेनाओं के आत्मसमर्पण के बाद दोनों देशों की सेनायें जिस स्थिति में थीं, उस रेखा को ”वास्तविक नियंत्रण रेखा“ माना जाएगा और कोई भी पक्ष अपनी ओर से इस रेखा को बदलने या उसका उल्लंघन करने की कोशिश नहीं करेगा। लेकिन पाकिस्तान अपने इस वचन पर भी टिका नहीं रहा। सब जानते हैं कि 1999 में कारगिल में पाकिस्तानी सेना ने जानबूझकर घुसपैठ की और इस कारण भारत को कारगिल में युद्ध लड़ना पड़ा।
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जुलफिकार अली भुट्टो ने 20 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति का पदभार संभाला। उन्हें विरासत में एक टूटा हुआ पाकिस्तान मिला। सत्ता सभांलते ही भुट्टो ने यह वादा किया कि वह शीघ्र ही बांग्लादेश को फिर से पाकिस्तान में शामिल करवा लेंगे। पाकिस्तानी सेना के अनेक अधिकारियों को देश की पराजय के लिए उत्तरदायी मान कर बरखास्त कर दिया गया।
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कई महीने तक चलने वाली राजनीतिक-स्तर की बातचीत के बाद जून 1972 के अंत में शिमला में भारत-पाकिस्तान शिखर बैठक हुई। इंदिरा गांधी और भुट्टो ने अपने उच्चस्तरीय मंत्रियों और अधिकारियों के साथ उन सभी विषयों पर चर्चा की जो 1971 के युद्ध से उत्पन्न हुए थे। साथ ही उन्होंने दोनों देशों के अन्य प्रश्नों पर भी बातचीत की। इन में कुछ प्रमुख विषय थे युद्ध बंदियों की अदला-बदली, पाकिस्तान द्वारा बांग्लादेश को मान्यता का प्रश्न, भारत और पाकिस्तान के राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाना, व्यापार फिर से शुरू करना और कश्मीर में नियंत्रण रेखा स्थापित करना। लम्बी बातचीत के बाद भुट्टो इस बात के लिए सहमत हुए कि भारत-पाकिस्तान संबंधों को केवल द्विपक्षीय बातचीत से तय किया जाएगा। शिमला समझौते के अंत में एक समझौते पर इंदिरा गांधी और भुट्टो ने हस्ताक्षर किए। इसके प्रावधान निम्न्तः है -
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इनमें यह प्रावधान किया गया कि दोनों देश अपने संघर्ष और विवाद समाप्त करने का प्रयास करेंगे और यह वचन दिया गया कि उप-महाद्वीप में स्थाई मित्रता के लिए कार्य किया जाएगा। इन उद्देश्यों के लिए इंदिरा गांधी और भुट्टो ने यह तय किया कि दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत करेंगे और किसी भी स्थिति में एकतरफा कार्यवाही करके कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। वे एक दूसरे के विरूद्घ न त�� बल प्रयोग करेंगे, न प्रादेशिक अखण्डता की अवेहलना करेंगे और न ही एक दूसरे की राजनीतिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप करेंगे।दोनों ही सरकारें एक दूसरे देश के विरूद्घ प्रचार को रोकेंगी और समाचारों को प्रोत्साहन देंगी जिनसे संबंधों में मित्रता का विकास हो।दोनों देशों के संबंधों को सामान्य बनाने के लिए : सभी संचार संबंध फिर से स्थापित किए जाएंगे 2 आवागमन की सुविधाएं दी जाएंगी ताकि दोनों देशों के लोग असानी से आ-जा सकें और घनिष्ठ संबंध स्थापित कर सकें 3 जहां तक संभव होगा व्यापार और आर्थिक सहयोग शीघ्र ही फिर से स्थापित किए जाएंगे 4 विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में आपसी आदान-प्रदान को प्रोत्साहन दिया जाएगा।स्थाई शांतिं के हित में दोनों सरकारें इस बात के लिए सहमत हुई कि 1 भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाएं अपने-अपने प्रदेशों में वापस चली जाएंगी। 2 दोनों देशों ने 17 सितम्बर 1971 की युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा के रूप में मान्यता दी और 3 यह तय हुआ कि इस समझौते के बीस दिन के अंदर सेनाएं अपनी-अपनी सीमा से पीछे चली जाएंगी।यह तय किया गया कि भविष्य में दोनों सरकारों के अध्यक्ष मिलते रहेंगे और इस बीच अपने संबंध सामान्य बनाने के लिए दोनों देशों के अधिकारी बातचीत करते रहेंगे।
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भारत में शिमला समझौते के आलोचकों ने कहा कि यह समझौता तो एक प्रकार से पाकिस्तान के सामने भारत का समर्पण था क्योंकि भारत की सेनाओं ने पाकिस्तान के जिन प्रदेशों पर अधिकार किया था अब उन्हें छोड़ना पड़ा। परंतु शिमला समझौते का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि दोनों देशों ने अपने विवादों को आपसी बातचीत से निपटाने का निर्णय किया। इसका यह अर्थ हुआ कि कश्मीर विवाद को अंतरराष्ट्रीय रूप न देकर, अन्य विवादों की तरह आपसी बातचीत से सुलझाया जाएगा।
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शंघाई चीनी जनवादी गणराज्य का सबसे बड़ा नगर है। यह देश के पूर्वी भाग में यांग्त्ज़े नदी के डेल्टा पर स्थित है। यह अर्थव्यवस्था और जनसंख्या दोनों ही दृष्टि से चीन का सबसे बड़ा नगर है। यह देश की चार नगरपालिकाओं में से एक है और उसी स्तर पर है जिसपर कि चीन का कोई अन्य प्रान्त।
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नगर सीमा के भीतर की जनसंख्या 93 लाख है और पूरी नगरपालिका में 1 करोड़ 81 लाख लोग रहते हैं। 1 जनवरी, 2006 की स्थिति तक यहां 1 करोड़ 37 लाख स्थाई निवासी और 44 लाख अस्थाई निवासी थे जिनके पास रहने का वैध परमिट था। इसके अतिरिक्त यहां 30 लाख लोग अवैध रूप से भी रहते है।
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शंघाई पहले मछुआरों का एक गाँव था, पर प्रथम अफ़ीम युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने इस स्थान पर अधिकार कर लिया और यहां विदेशियों के लिए एक स्वायत्तशासी क्षेत्र का निर्माण किया, जो 1930 तक अस्तित्व में रहा और जिसने इस मछुआरों के गाँव को उस समय के एक बड़े अन्तर्राष्ट्रीय नगर और वित्तीय केन्द्र बनने में सहायता की।
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1949 में साम्यवादी अधिग्रहण के बाद उन्होंने विदेशी निवेश पर रोक लगा दी और अत्यधिक कर लगा दिया। 1992 से यहां आर्थिक सुधार लागू किए गए और कर में कमी की गई, जिससे शंघाई ने अन्य प्रमुख चीनी नगरों जिनका पहले विकास आरम्भ हो चुका था जैसे शेन्झेन और गुआंग्झोऊ को आर्थिक विकास में पछाड़ दिया। 1992 से ही यह महानगर प्रतिवर्ष 9-15% की दर से वृद्धि कर रहा है, पर तीव्र आर्थिक विकास के कारण इसे चीन के अन्य क्षेत्रों से आने वाले अप्रवासियों और समाजिक असमनता की समस्या से इसे जुझना पड़ रहा है।
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इस महानगर को आधुनिक चीन का ध्वजारोहक नगर माना जाता है और यह चीन का एक प्रमुख सांस्कृतिक, व्यवसायिक और औद्योगिक केन्द्र है। 2005 से ही शंघाई का बन्दरगाह विश्व का सर्वाधिक व्यस्त बन्दरगाह है। पूरे चीन और शेष दुनिया में भी इसे भविष्य के प्रमुख महानगर के रूप में माना जाता है।शंघाई चीन की चार प्रत्यक्ष-नियंत्रित नगरपालिका और दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, 2014 की तुलना में 24 मिलियन से अधिक की आबादी है। यह विश्व के सबसे व्यस्त कंटेनर बंदरगाह के साथ एक वैश्विक वित्तीय केंद्र और परिवहन केंद्र है। यांग्त्ज़ी नदी डेल्टा में स्थित यह पूर्वी चीन तट के मध्य भाग में यांग्त्ज़ी नदी के मुहाने के दक्षिण किनारे पर स्थित है। नगरपालिका उत्तर, दक्षिण और पश्चिम में जिआंगसू और झेजिया���ग के प्रांतों की सीमाओं को लेकर है और पूर्वी चीन सागर द्वारा पूर्व में घिरा है।
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एक प्रमुख प्रशासनिक, शिपिंग और व्यापारिक शहर के रूप में, 1 9वीं शताब्दी में अपने अनुकूल बंदरगाह स्थान और आर्थिक क्षमता की व्यापार और मान्यता के कारण शंघाई का महत्व बढ़ गया। पहला अफ़ीम युद्ध में चीन पर ब्रिटिश जीत के बाद यह पांच संधि बंदरगाहों में से एक था, जो विदेशी व्यापारों के लिए खुला था। बाद में 1842 नानकींग की संधि और व्हामपोआ की 1844 संधि ने शंघाई अंतर्राष्ट्रीय निपटान और फ्रेंच रियायत की स्थापना की अनुमति दी। इसके बाद शहर चीन और दुनिया के अन्य हिस्सों के बीच वाणिज्य केंद्र के रूप में विकसित हुआ और 1 9 30 के दशक में एशिया-प्रशांत क्षेत्र का प्राथमिक वित्तीय केंद्र बन गया। हालांकि, 1 9 4 9 में मुख्य भूमि का कम्युनिस्ट पार्टी अधिग्रहण के साथ, व्यापार अन्य समाजवादी देशों तक सीमित था, और शहर का वैश्विक प्रभाव में गिरावट आई है। 1 99 0 के दशक में, देंग जियाओपिंग द्वारा शुरू किये गये आर्थिक सुधारों ने शहर की तीव्र पुन: विकास, शहर की वित्त और विदेशी निवेश की वापसी का समर्थन किया।
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शंघाई को मुख्य भूमि चीन की उभरती अर्थव्यवस्था की "प्रदर्शनी" के रूप में वर्णित किया गया है; इसके लुजियाज़ूई क्षितिज के लिए प्रसिद्ध है, और संग्रहालयों और ऐतिहासिक इमारतों, जैसे द बुंद के साथ, साथ ही साथ सिटी भगवान मंदिर और यू गार्डन
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विषय वस्तु 1 नाम2 इतिहास2.1 प्राचीन इतिहास2.2 इंपीरियल इतिहास2.3 प्रारंभिक आधुनिक इतिहास2.4 आधुनिक इतिहास3 भूगोल3.1 जलवायु4 सिटीस्केप5 राजनीति6 प्रशासनिक प्रभाग7 अर्थव्यवस्था8 जनसांख्यिकी9 धर्म10 शिक्षा11 परिवहन11.1 सार्वजनिक परिवहन11.2 सड़कें11.3 रेलवे11.4 एयर12 वास्तुकला13 पर्यावरण13.1 पार्क और रिसॉर्ट्स13.2 पर्यावरण संरक्षण13.3 वायु प्रदूषण और सरकारी प्रतिक्रिया14 संस्कृति14.1 भाषा14.2 संग्रहालय14.3 सिनेमा14.4 कला14.5 फैशन15 मीडिया16 खेल17 अंतर्राष्ट्रीय संबंध18 यह भी देखें19 सन्दर्भ20 आगे पढ़ने21 बाहरी लिंकनाम शहर के नाम के दो चीनी पात्रों हैं और 海, जिसका अर्थ है "अपॉन द सागर"। इस नाम की सबसे प्रारंभिक घटना 11 वीं शताब्दी के गाने राजवंश से की जाती है, इस समय उस क्षेत्र में एक नदी संगम और शहर के नाम से एक शहर था। ऐसे विवाद हैं कि नाम कैसे ठीक समझा जाना चाहिए, लेकिन चीनी इतिहासकारों ने निष्कर्ष निकाला है कि तांग राजवंश के दौरान शंघाई शाब्दिक समुद्र पर था।
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शंघाई आधिकारिक तौर पर चीनी में 沪 संक्षिप्त रूप है, सूज़ौ के मुंह के लिए 沪 a, का एक चौथा - या पांचवीं शताब्दी का नाम क्रीक जब यह महासागर में मुख्य नाली था। यह चरित्र नगर निगम में आज जारी सभी मोटर वाहन लाइसेंस प्लेटों पर दिखाई देता है।
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शंघाई के लिए एक अन्य वैकल्पिक नाम शेंन या शेंन्चेंग है, जो लॉर्ड चौसन से है, तीसरी सदी के ईसा पूर्व उत्तराधिकारी और चू राज्य के प्रधान मंत्री, जिसका मकसद आधुनिक शंघाई में शामिल था। शंघाई Shenhua एफ.सी. जैसे खेल टीमों और शंघाई में अखबार अक्सर उनके नामों में शेन का उपयोग करते हैं और शेन बाओ
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हूटिंग शंघाई का दूसरा नाम था। 751 ई। में, मध्य-तांग राजवंश के दौरान, आधुनिक दिवस के शंघाई में पहले काउंटी-स्तरीय प्रशासन, आधुनिक दिवस के सोंगियांग में हुटिंग काउंटी की स्थापना हुई थी। आज, हुटिंग शहर में चार सितारा होटल के नाम के रूप में दिखाई देती है।
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शहर में अंग्रेज़ी में विभिन्न उपनाम भी हैं, जिनमें "पर्ल ऑफ़ द ओरिएंट" और "पेरिस ऑफ द ईस्ट" भी शामिल है।
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इतिहास मुख्य लेख: शंघाई का इतिहासयह भी देखें: शंघाई, शंघाई अंतर्राष्ट्रीय निपटान, शंघाई फ्रांसीसी रियायत और ग्रेटर शंघाई योजना की समय सीमाप्राचीन इतिहास वसंत और शरद ऋतु अवधि के दौरान, शंघाई क्षेत्र वू राज्य से था, जो कि यू के राज्य पर कब्जा कर लिया गया था, जिसे बदले में चू की साम्राज्य पर कब्जा कर लिया गया था। वारिंग राज्यों की अवधि के दौरान, शंघाई चू के लॉर्ड चौसने के मस्तिष्क का हिस्सा था, जो वारिंग राज्यों के चार लॉर्ड्स में से एक था। उन्होंने हुआंगपु नदी के उत्खनन का आदेश दिया इसका पूर्व या काव्य नाम, चनसन नदी, ने शंघाई को "शेन" का अपना उपनाम दिया। शंघाई क्षेत्र में रहने वाले मछुआरों ने एक मछली पकड़ने के उपकरण का निर्माण किया, जिसे हू कहा जाता है, जो पुराने शहर के उत्तर सूज़ौ क्रीक के आउटलेट में अपना नाम दे दिया और शहर के लिए एक सामान्य उपनाम और संक्षिप्त नाम बन गया।
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इंपीरियल इतिहास सांग राजवंश के दौरान शंघाई को एक गांव से बाजार में तब्दील कर दिया गया था
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अनहुइ · फ़ूज्यान · गान्सू · गुआंगदोंग · गुइझोऊ · हाइनान · हेबेई · हेइलोंगजियांग · हेनान · हूबेई · हूनान · जिआंगसू · जिआंगशी · जीलिन · लियाओनिंग · चिंगहई · शान्शी · शानदोंग · शन्शी · सिचुआन · युन्नान · झेजियांग
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गुआंगश�� · भीतरी मंगोलिया · निंगशिया · तिब्बत · शिंजियांग
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बीजिंग · चोंग्किंग · शंघाई · तिआन्जिन
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हांगकांग · मकाऊ
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इलियड या ईलियद — प्राचीन यूनानी शास्त्रीय महाकाव्य है, जो यूरोप के आदिकवि होमर की रचना मानी जाती है। इसका नामकरण ईलियन नगर के युद्ध के वर्णन के कारण हुआ है। समग्र रचना 24 पुस्तकों में विभक्त है और इसमें 15,693 पंक्तियाँ हैं। इलियड में ट्राय राज्य के साथ ग्रीक लोंगो के युद्ध का वर्णन है। इस महाकाव्य में ट्राय के विजय और ध्वंस की कहानी तथा युनानी वीर एकलिस के वीरत्व की गाथाएं हैं।
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संक्षेप में इस महाकाव्य की कथावस्तु इस प्रकार है : ईलियन के राजा प्रियम के पुत्र पेरिस ने स्पार्टा के राजा मेनेलाउस की पत्नी परम सुंदरी हेलेन का उसके पति की अनुपस्थिति में अपहरण कर लिया था। हेलेन को पुन: प्राप्त करने तथा ईलियन को दंड देने के लिए मेनेलाउस और उसके भाई आगामेम्नन ने समस्त ग्रीक राजाओं और सामंतों की सेना एकत्र करके ईलियन के विरुद्ध अभियान आरंभ किया। परंतु इस अभियान के उपर्युक्त कारण और उसके अंतिम परिणाम, अर्थात् ईलियन के विध्वंस का प्रत्यक्ष वर्णन इस काव्य में नहीं है। इसका आरंभ तो ग्रीक शिविर में काव्य के नायक एकिलीज के रोष से होता है। अगामेम्नन ने सूर्यदेव अपोलो के पुजारी की पुत्री को बलात्कारपूर्वक अपने पास रख छोड़ा है। परिणामत: ग्रीक शिविर में महामारी फैली हुई है। भविष्यद्रष्टा काल्कस ने बतलाया कि जब तक पुजारी की पुत्री को नहीं लौटाया जाएगा तब तक महामारी नहीं रुकेगी। अगामेम्नन बड़ी कठिनाई से इसके लिए प्रस्तुत होता है पर इसके साथ ही वह बदले में एकिलीज़ के पास से एक दूसरी बेटी ब्रिसेइस को छीन लेता है। एकिलीज़ इस अपमान से क्षुब्ध और रुष्ट होकर युद्ध में न लड़ने की प्रतिज्ञा करता है। वह अपनी मीरमिदन सेना और अपने मित्र पात्रोक्लस के साथ अपने डेरों में चला जाता है और किसी भी मनुहार को नहीं सुनता। परिणामत: युद्ध में अगामेम्नन के पक्ष की किरकिरी होने लगती है। ग्रीक सेना भागकर अपने शिविर में शरण लेती है। परिस्थितियों से विवश होकर अगामेम्नन एकिलीज़ के पास अपने दूत भेजता है और उसके रोष के निवारण के लिए बहुत कुछ करने को तैयार हो जाता है। परंतु एकिलीज़ का रोष दूर नहीं होता और वह दूसरे दिन अपने घर लौट जाने की घोषणा करता है। पर वास्तव में वह अगामेम्नन की सेना की दुर्दशा देखने के लिए ठहरा रहता है। किंतु उसका मित्र पात्रोक्लस अपने पक्ष की इस दुर्दशा को देखक��� को देखकर खीझ उठता है और वह एकिलीज़ से युद्ध में लड़ने की आज्ञा प्राप्त कर लेता है। एकिलीज़ उसको अपना कवच भी दे देता है और अपने मीरमिदन सैनिकों को भी उसके साथ युद्ध करने के लिए भेज देता है। पात्रोक्लस ईलियन की सेना को खदेड़ देता है पर स्वयं अंत में वह ईलियन के महारथी हेक्तर द्वारा मार डाला जाता है। पात्रोक्लस के निधन का समाचार सुनकर एकिलीज़ शोक और क्रोध से पागल हो जाता है और अगामेम्नन से संधि करके नवीन कवच धारण कर हेक्तर से अपने मित्र का बदला लेने युद्ध क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है। एकिलीज़ से युद्ध आरंभ करते ही पासा पलट जाता है। वह हेक्तर को मार डालता है और उसके पैर को अपने रथ के पिछले भाग से बाँधकर उसके शरीर को युद्धक्षेत्र में घसीटता है जिससे उसका सिर घूल में लुढ़कता चलता है। इसके पश्चात् पात्रोक्लस की अंत्येष्टि बड़े ठाट बाट के साथ की जाती है। एकिलीज़ हेक्तर के शव को अपने शिविर में ले आता है और निर्णय करता है कि उसका शरीर खंड-खंड करके कुत्तों को खिला दिया जाए। हेक्तर का पिता ईलियन राजा प्रियम उसके शिविर में अपने पुत्र का शव प्राप्त करने के लिए उपस्थित होता है। उसके विलाप से एकिलीज़ को अपने पिता का स्मरण हो आता है और उसका क्रोध दूर हो जाता है और वह करुणा से अभिभूत होकर हेक्तर का शव उसके पिता को दे देता है और साथ ही साथ 12 दिन के लिए युद्ध भी रोक दिया जाता है। हेक्तर की अंत्येष्टि के साथ ईलियद की समाप्ति हो जाती है।
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कुछ हस्तलिखित प्रतियों में ईलियद के अंत में एक पंक्ति इस आशय की मिलती है कि हेक्तर की अंत्येष्टि के बाद अमेज़न नामक नारी योद्धाओं की रानी पैंथेसिलिया प्रियम की सहायता के लिए आई। इसी संकेत के आधार पर स्मर्ना के क्विंतुस नामक कवि ने 14 पुस्तकों में ईलियद का पूरक काव्य लिखा था। आधुनिक समय में श्री अरविंद घोष ने भी अपने जीवन की संध्या में मात्रिक वृत्त में ईलियन नामक ईलियद को पूर्ण करनेवाली रचना का अंग्रेजी भाषा में आरंभ किया था जो पूरी नहीं हो सकी। नवम पुस्तक की रचना के मध्य में ही उनकी चिरसमाधि की उपलब्धि हो गई।
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ईलियद में जिस युग की घटनाओं का उल्लेख है उसको वीरयुग कहते हैं। श्लीमान और डेफैल्ट को ट्राय नगर की खुदाई के पश्चात् इस युग की सत्यता निर्विवाद सिद्ध हो चुकी थी। ई.पू. 13वीं और 13 शताब्दियाँ इस युग का काल मानी जाती हैं। पर ईलियद के रचनाकाल की सीमाएँ ई.पू. नवीं और सातवीं शताब्दियाँ हैं। होमर की रचनाओं से संबंध रखनेवाली समस्याएँ अत्यंत जटिल हैं। एक समय होमर के अस्तित्व तक पर संदेह किया जाने लगा था। पर अब स्थिति अधिक अनुकूल हो चली है, यद्यपि अब भी होमर के महाकाव्य एक विकासक्रम की चरम परिणति माने जाते हैं जिनमें एक लोकोत्तर प्रतिभा का कौशल स्पष्ट लक्षित होता है।
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ईलियद में महाकाव्य की दृष्टि से सरलता और कविकर्म का अभूतपूर्व सामंजस्य है। नीति की दृष्टि से असाधारण काम और क्रोध के विध्वंसकारी परिणाम का प्रदर्शन जैसा इस काव्य में हुआ हे वैसा अन्यत्र मुश्किल से मिलेगा। इसके पुरुष पात्रों में अगामेम्नन, एकिलीज़, पात्रोक्लस, मेनेलाउस, प्रियम, पेरिस और हेक्तर उल्लेखनीय हैं। स्त्री पात्रों में हेलेन, हेकुबा, आंद्रोमाको इत्यादि महान हैं। युद्ध में मनुष्य और देवता सभी भाग लेते हैं, कहीं मनुष्य गुणों में देवताओं से ऊँचे उठ जाते हैं तो कहीं देवता लोग मानवीय दुर्बलताओं के शिकार होते दृष्टिगोचर होते हैं एवं परिहास के पात्र बनते हैं। भारतीय महाकाव्यों के साथ ईलियद की अनेक बातें मेल खाती हैं, जिनमें हेलेन का अपहरण और ईलियन का दहन सीता-हरण और लंकादहन से स्पष्ट सादृश्य रखते हैं। संभवत: इसी कारण मेगस्थनीज़ को भारत में होमर के महाकाव्यों के अस्तित्व का भ्रम हुआ था।
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होमर के अनुवाद बहुत हैं परंतु उसका अनुवाद, जैसा प्रत्येक उच्च कोटि की मौलिक रचना का अनुवाद हुआ करता है, एक समस्या है। यदि अनुवादक सरलता पर दृष्टि रखता है तो होमर के कवित्व को गँवा बैठता है और कवित्व को पकड़ना चाहता है तो सरलता काफूर हो जाती है।
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इस महाकाव्य का यूरोप की हर भाषा में अनुवाद हुआ है। पद्य और गद्य दोनों में अनेक अनुवाद हुए हैं। कई भारतीय भाषाओं में भी 'इलियड' तथा 'ओडिसी' दोनों के अनुवाद हुए हैं। बांग्ला में एक से अधिक अनुवाद हो चुके हैं। प्रख्यात कवि माइकेल मधुसूदन दत्त द्वारा इलियड का बांग्ला में किया गया पहला परंतु अधूरा अनुवाद 1941 ईस्वी में प्रकाशित हुआ। योगेंद्रनाथ काव्यविनोद ने इलियड का पद्यानुवाद 1902-08 ई0 और गद्यानुवाद 1911 ईस्वी में प्रकाशित करवाया था। कालांतर में इलियड और ओडिसी के बंगला में और भी कई अनुवाद हुए। तमिल में भी अनुवाद हो चुका है।
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'इलियड' का प्रथम हिन्दी अनुवाद 2012 ई0 में प्रकाशित हुआ। एक उत्तम अनुवाद के लिए आवश्यक परिश्रम करके अनुवादक रमेश चंद्र सिन्हा ने यह कार्य संपन्न किया। यूनानी साहित्य, मिथक, इतिहास, धर्म और दर्शन के अध्ययन में अनेक वर्ष लगाकर इलियड का हिन्दी गद्यानुवाद संपन्न हुआ है।
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This is an oil painting of the Goddess Thetis dipping her son Achilles into the River Styx, which runs through Hades. In the background, the ferryman Charon can be seen taking the dead across the river in his boat. The scene was painted by Peter Paul Rubens around 1625.
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This is a fresco of Paris abducting Helen by force. It is painted on a wall inside a villa in Venice, Italy.
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This is a drawing of the Greeks leaving their hiding place inside the Trojan Horse in order to attack Troy. The drawing is based on an oil painting by Henri Motte.
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डॉ॰ रामविलास शर्मा आधुनिक हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार, विचारक एवं कवि थे। व्यवसाय से अंग्रेजी के प्रोफेसर, दिल से हिन्दी के प्रकांड पंडित और महान विचारक, ऋग्वेद और मार्क्स के अध्येता, कवि, आलोचक, इतिहासवेत्ता, भाषाविद, राजनीति-विशारद ये सब विशेषण उन पर समान रूप से लागू होते हैं।
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उन्नाव जिला के ऊँचगाँव सानी में जन्मे डॉ॰ रामविलास शर्मा ने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया और वहीं अस्थाई रूप से अध्यापन करने लगे। 1940 में वहीं से पी-एच.डी. की उपाधि में प्राप्त की। 1943 से आपने बलवंत राजपूत कालेज, आगरा में अंग्रेजी विभाग में अध्यापन किया और अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे। 1971-74 तक कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिन्दी विद्यापीठ, आगरा में निदेशक पद पर रहे। 1974 में सेवानिवृत्त हुये।
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डॉ॰ रामविलास शर्मा के साहित्यिक जीवन का आरंभ 1934 से होता है जब वह सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के संपर्क में आये। इसी वर्ष उन्होंने अपना प्रथम आलोचनात्मक लेख 'निरालाजी की कविता' लिखा जो चर्चित पत्रिका 'चाँद' में प्रकाशित हुआ। इसके बाद वे निरंतर सृजन की ओर उन्मुख रहे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ॰ रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है।
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इनमें से अनेक पुस्तकों के संशोधित-परिवर्द्धित संस्करण बाद में प्रकाशित हुए हैं, उन्हें ही पढ़ना चाहिए। ये सभी पुस्तकें अब राजकमल, वाणी, किताबघर, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, साहित्य अकादेमी एवं साहित्य भंडार प्रकाशनों से प्रकाशित हैं।
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ऐसे सामान्य पाठक जो प्रमुख चुनिन्दा अंशों को ही पढ़ना चाहें, उनके लिए सर्वोत्तम संकलन है 'संकलित निबन्ध'
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शर्मा जी पर केन्द्रित अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक प्रकाशित होते रहे हैं, जिनमें उपलब्ध और विशेष पठनीय हैं -
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हिंदी जाति की अवधारणा रामविलास शर्मा के जातीय चिंतन क��� केंद्रीय बिंदु है। भारतीय साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन तथा वैश्विक साहित्य से अन्तर्क्रिया के द्वारा रामविलास जी ने साहित्य के जातीय तत्वों की प्रगतिशील भूमिका की पहचान की है।
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ॰ रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है।
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इतिहास की समस्याओं से जूझना मानो उनकी पहली प्रतिज्ञा हो। वे भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने में जुटे रहे। उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आए हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गए हैं। वे लिखते हैं - ‘‘दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन अभियानों की सहस्त्राब्दी है।
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इसी दौरान भारतीय आर्यों के दल इराक से लेकर तुर्की तक फैल जाते हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूँजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई है। जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है, उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ ही वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना है।
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भुखमरी, अशिक्षा, अंधविश्वास और नए-नए रोग फैलाने वाली वर्तमान समाज व्यवस्था को बदलना है। इसके लिए भारत और उसके पड़ोसियों का सम्मिलित प्रयास आवश्यक है। यह प्रयास जब भी हो, यह अनिवार्य है कि तब पड़ोसियों से हमारे वर्तमान संबंध बदलेंगे और उनके बदलने के साथ वे और हम अपने पुराने संबंधों को नए सिरे से पहचानेंगे। अतीत का वैज्ञानिक, वस्तुपरक विवेचन वर्तमान समाज के पुनर्गठन के प्रश्न से जुड़ा हुआ है।’’
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भारतीय स���स्कृति की पश्चिम एशिया और यूरोप में व्यापकता पर जो शोधपरक कार्य रामविलासजी ने किया है, इस कार्य में उन्होंने नृतत्वशास्त्र, इतिहास, भाषाशास्त्र का सहारा लिया है। शब्दों की संरचना और उनकी उत्पत्ति का विश्लेषण कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आर्यों की भाषा का गहरा प्रभाव यूरोप और पश्चिम एशिया की भाषाओं पर है।
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वे लिखते हैं - ‘‘सन् 1786 में ग्रीक, लैटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था, ‘ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृद्ध है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारू रूप से परिष्कृत है।’ पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्वास किए बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्रोत से जन्मे हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है।
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इसके बाद एक स्रोत भाषा की शाखाओं के रूप में जर्मन, स्लाव, केल्त आदि भाषा मुद्राओं को मिलाकर एक विशाल इंडो यूरोपियन परिवार की धारणा प्रस्तुत की गई। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने भारी प्रगति की है। अनेक नई-पुरानी भाषाओं के अपने विकास तथा पारस्परिक संबंधों की जानकारी के अलावा बहुत से देशों के प्राचीन इतिहास के बारे में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे इसी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की देन हैं। आरंभ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली स्रोत भाषा का गहरा संबंध भारत से है। यह मान्यता मार्क्स के एक भारत संबंधी लेख में भी है।’’
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अँग्रेजों के प्रभुत्व से भारतीय जनता की मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने 1833 में लिखा था, ‘‘हम निश्चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के सज्जन निवासी राजकुमार साल्तिकोव के शब्दों में इटैलियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल हैं, जिनकी अधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अँग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्मों का उद्गम है और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरूप जाति में, प्राचीन यूनान का स्वरूप ब्राह्यण म��ं प्रतिबिंबित है।’’
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डॉ॰ रामविलास शर्मा मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय संदर्भों का मूल्यांकन करते हैं, लेकिन वे इन मूल्यों पर स्वयं तो गौरव करते ही हैं, साथ ही अपने पाठकों को निरंतर बताते हैं कि भाषा और साहित्य तथा चिंतन की दृष्टि से भारत अत्यंत प्राचीन राष्ट्र है। वे अँग्रेजों द्वारा लिखवाए गए भारतीय इतिहास को एक षड्यंत्र मानते हैं।
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उनका कहना है कि यदि भारत के इतिहास का सही-सही मूल्यांकन करना है तो हमें अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना होगा। अँग्रेजों ने जान-बूझकर भारतीय इतिहास को नष्ट किया है। ऐसा करके ही वे इस महान राष्ट्र पर राज कर सकते थे। भारत में व्याप्त जाति, धर्म के अलगाव का जितना गहरा प्रकटीकरण अँग्रेजों के आने के बाद होता है, उतना गहरा प्रभाव पहले के इतिहास में मौजूद नहीं है। समाज को बाँटकर ही अँग्रेज इस महान राष्ट्र पर शासन कर सकते थे और उन्होंने वही किया भी है।
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पुरस्कारों में प्राप्त राशियों को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। उन राशियों को हिन्दी के विकास में लगाने को कहा।
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2012-2013 रामविलास शर्मा का जन्म-शताब्दी वर्ष था। रामविलास शर्मा के ऊपर अपना व्याख्यान देते हुये वीर भारत तलवार ने कहा था कि रामविलास शर्मा की मृत्यु ने हिन्दी मीडिया को झकझोर कर रख दिया था। वे कहते हैं-
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इससे हम रामविलास शर्मा की लोकप्रियता और उनके जाने से हुए क्षति दोनों का अनुमान लगा सकते हैं।
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पौधों में परिसंचरण तंत्र का अर्थ है-किसी पौधे के द्वारा अवशोषित या निर्मित पदार्थों का पौधे के अन्य सभी हिस्सों तक पहुंचाना। पौधों में जल और खनिजों को उसके अन्य हिस्सों में तक पहुंचाने की जरूरत पड़ती है। पौधों को पत्तियों में बने भोजन को भी पौधे के अन्य हिस्सों तक पहुंचाने की जरूरत पड़ती है। पौधे शाखायुक्त होते हैं, ताकि उन्हें प्रकाशसंश्लेषण हेतु कार्बन डाइऑक्साइड और ऑक्सीजन प्रसरण के माध्यम से हवा से सीधे मिल सकें।
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पौधों को, प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया के माध्यम से भोजन निर्मित करने के लिए पानी की और प्रोटीन के निर्माण के लिए खनिजों की जरूरत पड़ती है। इसलिए, पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से जल और खनिज को अवशोषित करते हैं और पौधे के तने, पत्तियों, फूलों आदि अन्य हिस्सों में इसे पहुंचाते हैं। जाइलम ऊतक के दो प्रकार के तत्वों अर्थात जाइलम वाहिकाओं और वाहिनिकाओं से होकर ही जल एवं खनिजों को पौधों की जड़ों से उसकी पत्तियों तक पहुंचाया जाता है।
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जाइलम वाहिकाएँ एक लंबी नली होती हैं, जो अंतिम सिरों पर जुड़ी हुई मृत कोशिकाओं से मिलकर बनी होती हैं। ये एक निर्जीव नली होती है, जो पौधे की जड़ों से होती हुई प्रत्येक तने और पत्ती तक जाती है। कोशिकाओं की अंतिम सिरे टूटे हुए होते हैं, ताकि एक खुली हुई नली बन सके।
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जाइलम वाहिकाओं मेंसाइटोप्लाज्म या नाभिक नहीं होता और वाहिकाओं की दीवारें सेल्यूलोज या लिग्निन से बनी होती हैं। जल और खनिजों के परिसंचरण के अतिरिक्त जाइलम वाहिकाएँ तने को मजबूती प्रदान कर उसे ऊपर की ओर बनाए रखती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लिग्निन बहुत सख्त और मजबूत होता है। लकड़ी लिग्निन युक्त जाइलम वाहिकाओं से ही बनती है। जाइलम वाहिकाओं की कोशिका भित्ति में गड्ढे होते हैं, जहां लिग्निन जमा नहीं हो पाता। या तो जाइलम वाहिकाएँ या फिर जाइलम वाहिकाएँ और वाहिनिकाएँ दोनों, पुष्पीय पौधों में जल का परिसंचरण करती हैं।
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बिना पुष्प वाले पौधों में वाहिनिकाएँ ही एक मात्र ऐसे ऊतक होते हैं, जो जल का परिसंचरण करते है। वाहिनिकाएँ मृत कोशिकाएं होती हैं,और इसकी भित्ति लिग्निन युक्त होती हैं और इसमें खुले हुए सिरे नहीं पाये जाते हैं। ये लंबी, पतली और तंतु के आकार वाली कोशिकाएं होती हैं। इनमें गड्ढ़े पाये जाते हैं जिनके जरिए ही एक वाहिनिका से दूसरे वाहिनि���ा में पानी का परिसंचरण होता है। सभी पौधों में वाहिनिकाएँ पायी जाती हैं।
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==एक पौधे में जल और खनिजों परिसंचरण प्रक्रिया को समझने से पहलेनिम्नलिखित महत्वपूर्ण शब्दों काअर्थ जानना आवश्यक है==
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पौधे के जड़ की कोशिकाओं की बाहरी परत को बाह्यत्वचा कहते हैं। बाह्यत्वचाकी मोटाई एक कोशिका के बराबर होती है।
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किसी पौधे के संवहन ऊतकों के आसपास उपस्थित कोशिकाओं की परत अंतःत्वचाकहलाती है। यह कोर्टेक्स की सबसे भीतरी परत होती है।
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यह जड़ में बाह्यत्वचाऔर अंतःत्वचा के बीच में पाया जाने वाला हिस्सा होता है।जड़ीय/रूट जाइलमः यह जड़ों में उपस्थित जाइलम ऊतक है, जोकि जड़ के केंद्र में उपस्थित होता है।बाह्यत्वचा, रूट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा जड़ों के रोम और रूट जाइलम के बीच स्थित होते हैं। इसलिए, जड़ों के रोम द्वारा मिट्टी से अवशोषित जल सबसे पहले बाह्यत्वचा, रुट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा से होकर गुजरता है और फिर अंत में रूट जाइलम में पहुंचता है।इसके अलावा, मिट्टी में खनिज भी पाये जाते हैं। पौधे मिट्टी से इन खनिजों को अकार्बनिक, जैसे-नाइट्रेट और फॉस्फेट, के रूप में लेते हैं। मिट्टी से मिलने वाले खनिज जल में घुलकर जलीय घोल बनाते हैं। इसलिए जब जल जड़ों से पत्तियों तक ले जाया जाता है,तो खनिज भी पानी में घुल जाते हैं और वे भी जल के साथ पत्तियों तक पहुंच जाते हैं।
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जड़ों के रोम मिट्टी से खनिज घुले जल को अवशोषित कर लेते हैं। जड़ों के रोम मिट्टी के कणों के बीच मौजूद जल की परत के साथ सीधे संपर्क में होता है। खनिज युक्त जल जड़ों के रोम में जाता है और परासरण की प्रक्रिया के माध्यम से कोशिकाओं से होता हुआ बाह्यत्वचा, रुट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा और रूट जाइलम में पहुंचता है।पौधे के जड़ की जाइलम वाहिकाएँ तने की जाइलम वाहिकाओं से जुड़ी होती है। इसलिए जड़ की जाइलम वाहिकाओं से जल तने की जाइलम वाहिकाओं में जाता है और फिर पौधे के डंठल से होते हुए पौधे की पत्तियों तक पहुंचता है। प्रकाशसंश्लेषण क्रिया में पौधे सिर्फ एक से दो प्रतिशत पानी का ही प्रयोग करते हैं, बाकी जल जलवाष्प के रूप में वायु में शामिल हो जाता है।जाइलम वाहिकाएँ जल अवशोषितकरती हैंपौधे के शीर्ष पर दबाव कम रहता है, जबकि पौधे के निचले हिस्से में दबाव अधिक होता है। पौधे के शीर्ष पर दबाव के कम होने की वजह वाष्पोत्सर्जन है। चूंकि ���ौधे के शीर्ष पर दबाव कम होता है, इसलिए जल जाइलम वाहिकाओं से पौधे की पत्तियों में संचरित होता है।पौधे की पत्तियों से होने वाला वाष्पीकरण ‘वाष्पोत्सर्जन’ कहलाता है। पौधे की पत्तियों पर छोटे–छोटे छिद्र होते हैं, जिन्हें ‘स्टोमेटा’ कहते हैं। इसके माध्यम से ही जल वाष्प बन कर वायु में चला जाता है। यह जाइलम वाहिकाओं के शीर्ष का दबाव कम कर देता है और पानी उसमें संचरित होता है।भोजन और अन्य पदार्थों का परिवहनप्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया में एक पौधे की पत्तियों में तैयार होने वाला भोजन उसके अन्य हिस्सों जैसे तनों, जडों, शाखाओं आदि में पहुंचाया जाता है। ये भोजन एक प्रकार की नली के जरिए पौधों के अलग–अलग हिस्सों में पहुंचता है, ये नली ‘फ्लोएम’ कहलाती है। पौधे की पत्तियों से भोजन का पौधे के अन्य हिस्सों में भेजा जाना ‘स्थानान्तरण’ कहलाता है। पत्तियों द्वारा बनाया जाने वाला भोजन सरल शर्करा के रूप में होता है। फ्लोएम पौधे के सभी हिस्सों में मौजूद होता है।फ्लोएम में चालनी नलिकाएँ पायी जाती हैंफ्लोएम एक लंबी नली होती है। कई जीवित कोशिकाएं अंतिम सिरों पर एक दूसरे से जुड़कर इनका निर्माण करती हैं। फ्लोएम की जीवित कोशिकाएं ‘चालनी नलिकाएँ’ कहलाती हैं। फ्लोएम में कोशिकाओं की अंतिम भित्ति पर चालनी पट्टियाँ पायी जाती हैं, जिनमें छोटे–छोटे छिद्र बने होते हैं। इन्हीं छिद्रों से होकर फ्लोएम नलिका के सहारे भोजन संचरित होता है। चालनी नलिकाओं में साइटोप्लाज्म तो होता है, लेकिन कोई केंद्रक नहीं होता है। प्रत्येक चालनी नलिका कोशिका के साथ एक और कोशिका पायी जाती है, जिसमें केंद्रक और कई अन्य कोशिकांग उपस्थित होते हैं। चालनी नलिकाओं की कोशिका भित्ति में सेल्यूलोज होता है, लेकिन लिग्निन नहीं पाया जाता है।
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==पौधों में भोजन के परिसंचरण कीप्रक्रिया==एटीपी से मिली ऊर्जा का प्रयोग कर पौधों की पत्तियों में बना भोजन फ्लोएम ऊतक की चालनी नलिकाओं में प्रवेश करता है। उसके बाद परासरण की प्रक्रिया द्वारा शर्करा युक्त जल चालनी नलिका में प्रवेश करता है। इससे फ्लोएम ऊतक में दबाव बढ़ता है। फ्लोएम ऊतक में बना उच्च दबाव पौधे के निम्न दबाव वाले अन्य सभी हिस्सों में भोजन पहुंचाने का काम करता है। इस प्रकार फ्लोएम ऊतक के माध्यम से पौधे के सभी हिस्सों में भोजन पहुंचाया जाता है।
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भारत में जैव प्रौद्योगिकी विभाग, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्रक के विकास के लिए शीर्ष प्राधिकरण है। इसकी स्थापना देश में विभिन्न जैव प्रौद्योगिकीय कार्यक्रमों और क्रियाकलापों की योजना बनाने संवर्धन करने और समन्वयन करने के लिए की गई है। यह राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाओं, विश्वविद्यालयों और विभिन्न क्षेत्रकों में अनुसंधान बुनियादों, जो जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित है, के लिए सहायता अनुदान की सहायता प्रदान करने के लिए नोडल एजेंसी है।
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1986 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत बायोटेक्नोलॉजी विभाग की अलग से स्थापना करने से भारत में आधुनिक जीवविज्ञान और जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में विकास को नई शक्ति मिली है। 10 वर्षों से अधिक के अपने अस्तित्व में आने से, विभाग ने देश में जैवप्रौद्योगिकी के विकास में गति तथा प्रोत्सहान प्रदान किया है। कई अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं, प्रदर्शनियों और अवसंरचनात्मक सुविधाओं के सृजन के द्वारा इस क्षेत्र में एक साफ व्यवहार्य प्रभाव दिखाई देता है। विभाग ने प्रमुख कृषि, स्वास्थ्य देखरेख, पशु विज्ञान, पर्यावरण और उद्योग में प्रमुख क्षेत्रों में जैवप्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग और वृद्धि करने में महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त की हैं।
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कृषि, स्वास्थ्य देखरेख, पर्यावरण और उद्योग में जैवप्रौद्योगिकी से संबंधित विकास का प्रभाव पहले ही दिखाई देता है और अब उत्पादों और प्रक्रियाओं पर इसके प्रयत्न किए जा रहे हैं। 5000 से अधिक प्रकाशन, 4000 पोस्ट-डाक्टोरल विद्यार्थी, उद्योगों को कई प्रौद्योगिकियां हस्तांतरित की गई हैं और यू एस पेटेन्ट सहित पेटेन्टों का दखिल किया गया है को सन्तुलित शुरूआत के रूप में विचार किया जा सकता हैं। बायोटेकेलॉजी विभाग विश्वविद्यालयों और अन्य राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की विद्यमान विशेषज्ञता का उपयोग करने के लिए प्रति वर्ष 5000 से अधिक वैज्ञानिकों के साथ अन्योन्यक्रिया कर रहा है। एक बहुत सुदृढ समीक्षा और निगरानी प्रक्रियाओं का विकास किया गया है। जैवप्रौद्योगिकी अनुप्रयोग परियोजनाओं का विकास करने के लिए, प्रमाणीकृत प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन करने के लिए और राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों में मानव संसाधन का ��्रशिक्षण देने के लिए राज्य की विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषदों के द्वारा राज्य सरकारों के साथ घनिष्ठ अन्योन्यक्रिया की जा रही है। गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा पश्चिम बंगाल, हरियाणा, पंजाब, जम्मू व कश्मीर, मिजोरम, आंध्रप्रदेश और उत्तर प्रदेश क्षेत्रों के साथ कार्यक्रमों को बनाया गया है। मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में जैवप्रौद्योगिकी अनुप्रयोग केन्द्रों को पहले ही शुरू किया जा चुका है।
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विभाग की एक मुख्य विशेषता यह है कि विभिन्न कार्यक्रमों और गतिविधियों की पहचान करने, फारमूलेशन करने, क्रियान्वयन और निगरानी करने के लिए कई तकनीकी कार्यदलों, सलाहकार समितियों और व्यक्तिगत विशेषज्ञों के द्वारा देश के वैज्ञानिक समुदाय को गहन रूप से शामिल करना है।
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भारत में आधुनिक जीवविज्ञान और जैवप्रौद्योगिकी के पहचान किए गए क्षेत्रों में अनुसंधान ाौर विकास में दशक से अधिक संगठित प्रयत्नों ने अच्छे परिणाम दिए हैं। प्रयोगशाला स्तर पर प्रमाणित प्रौद्योगिकियों को उन्नत किया गया है। खोजों की पेटेंटिंग, उद्योगों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और उद्योग के साथ नजदीकी अन्योन्यक्रिया ने जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान को नई दिशा प्रदान की है। कीट और रोग प्रतिरोध पर बल देते हुए पादपों में पराजीनी अनुसंधान, पोषकता क्षमता, रेशमकीट जीनोम विश्लेषण, मानव आनुवंशिक विकृतियों का आण्विक जीवविज्ञान, मस्तिष्क अनुसंधान, पादप जीनोम अनुसंधान, विकास, संचारी रोगों के लिए नैदानिक किटें और टीकों का मूल्यांकन और व्यापारीकरण, खाद्य जैवप्रौद्योगिकी, जैवविविधता संरक्षण और जैवपूर्वेक्षण, अनु.जाति, अनु. जनजाति, ग्रामीण क्षेत्रों, महिलाओं और विभिन्न राज्यों पर आधारित सूक्ष्म प्रवर्धन पार्कों की स्थापना करना और जैवप्रौद्योगिकी आधारित विकास को बढावा देने के लिए कार्य शुरू किए गए हैं।
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पराजीनी पादपों, पुनर्योगज टीकों और औषधों के लिए आवश्यक मार्गनिर्देशों को भी बनाया गया है। स्वदेशी क्षमताओं का एक सुदृढ अाधार बनाया गया है। अगली सहस्त्राब्दि में सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नई खोजों और अनुप्रयोगों दोनों के लिए प्रमुख अनुसंधान और व्यापारीकरण के प्रयत्न किए जाएंगे।
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विभाग की मुख्य जिम्मेदारियां निम्नलिखित हैं :-
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विभाग जैवप्रौद्योगिक��� के क्षेत्रों में विभिन्न कार्यक्रमों और अनुसंधान व विकास परियोजनाओं के साथ कार्य करता है। गतिविधि का ब्यौरा नीचे दिया गया है। कृपया विभिन्न कार्यक्रमों को देखने के लिए नोडल अधिकारियों को किल्क करें।
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विभाग के पास सात स्वायत्त संस्थाएं हैं जिनके लिए चिकित्सा, कृषि और औद्योगिक जैव प्रौद्योगिकी के विभिन्न पहलुओं पर कार्य करना अनिवार्य कर दिया गया है ये निम्नलिखित हैं, इनके साथ ही, इनकी आधिकारिक वेबसाइट भी लिखित हैं :-
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जबकि विभाग में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम जो जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्रक के विकास के लिए कार्य करते हैं, निम्नलिखित हैं :-
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विभाग निम्नलिखित के विस्तृत क्षेत्रों में जैव-प्रौद्योगिकी के विकास और अनुप्रयोग में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर रहा है :-
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ऐसे प्रयासों को अनुपूरित करने और जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्रक में बड़ी मात्रा में निवेश आकर्षित करने के लिए विभाग अनेकानेक नीतिगत पहलें और उपाय समय-समय पर कर रहा है। इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण 'राष्ट्रीय जैव-प्रौद्योगिकी विकास कार्यनीति' की घोषणा है यह समग्र नीतिगत ढांचे के रूप में है ताकि जैव प्रौद्योगिकी उद्योग को बढ़ाया जा सके। यह उन भंडारों को लेता है जो भविष्य के लिए पूरा किया जाता और ढांचा प्रदान करता है, जिसके अंतर्गत कार्य नीतियां और विशिष्ट कार्य क्षेत्रक को संवर्धित करने के लिए करने की आवश्यकता है। इस नीति का लक्ष्य कृषि और खाद्य जैव-प्रौद्योगिकी, औद्योगिक जैव-प्रौद्योगिकी, उपचारात्मक और चिकित्सा जैव-प्रौद्योगिकी पुनरुत्पादक और जातिगत दवाइयों, नैदानिक जैव-प्रौद्योगिकी जैव अभियंता, नैनो जैव प्रौद्योगिकी, विनिर्माण और जैव प्रक्रियान्वयन, अनुसंधान सेवाओं, जैव संसाधनों, पर्यावरण और बौद्धिक सम्पदा कानून के क्षेत्रों में उन्नति के मार्ग प्रशस्त करना है।
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नीतिगत ढांचे के मुख्य उद्देश्य हैं :-
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जैव प्रौद्योगिकी पार्क और जैव प्रौद्योगिकी ऊष्मायित्र की स्थापना तथा विभिन्न राज्यों और संगठनों में प्रशिक्षण एवं पायलट परियोनजाओं की स्थापना जैव प्रौद्योगिकी शुरू करने वाली कम्पनियों के लिए उत्कृष्ट माहौल प्रदान करती है। इसके तहत युवा उद्यमियों को वित्तीय/युक्तिगत सहायता प्रदान करने की योजनाएं हैं, जो जैव प्रौद्योगिकी उद्यो�� में अधिक पूंजी कम करने की स्थिति में नहीं हैं परन्तु उनके पास विकास, डिजाइन और नए जैव प्रौद्योगिकी उत्पाद और प्रक्रियन्वयनों की जैव प्रौद्योगिकीय ऊष्मायित्र और पायलट स्तर की सुविधाओं का उपयोग करके पूर्ण बनाने की क्षमताएं हैं। कुछ मौजूदा जैव प्रौद्योगिकी पार्क/ऊष्मायित्र केन्द्रों और पायलट परियोजनाएं निम्नलिखित हैं :-
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'राष्ट्रीय जैव संसाधन विकास बोर्ड ' की स्थापना विभाग के अंतर्गत की गई है ताकि अनुसंधान और विकास तथा जैव संसाधनों का स्थायी उपयोगिता विशेषकर नए उत्पादों और प्रक्रियाओं के विकास के लिए जैव-प्रौद्योगिकी और संबंधित वैज्ञानिक तरीकों के प्रभावी अनुप्रयोग के लिए विस्तृत नीतिगत ढांचे का निर्णय किया जा सके। बोर्ड जैव विज्ञान के आधुनिक उपकरणों का उपयोग करते हुए त्वरित अनुसंधान और विकास के माध्यम से राष्ट्र की आर्थिक सम्पन्नता के लिए वैज्ञानिक कार्य योजना का विकास करना चाहता है। बोर्ड के क्रियाकलापों की सहायता करने के लिए एक राष्ट्रीय संचालन समिति का गठन किया गया है।
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एनबीडीबी ने तीन प्राथमिकता क्षेत्रों की पहचान कर ली हैं क्योंकि :-
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जैव प्रौद्योगिकी में अंतरराष्ट्रीय सहयोग विभाग की मुख्य ताकत है, भारत के साथ सहयोग में इच्छुक असंख्य देश नवीकरण कर रहे हैं। इनका अनुशीलन ज्ञानाधार का विस्तार करने और विशेषज्ञता विकसित करने के लिए महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में किया जा रहा है, जो देश में अनुसंधान और विकास में गति को तेज करेगा। हालिया समय में जैव-प्रौद्योगिकी में अंतरराष्ट्रीय सहयोग में स्थायी प्रगति हुई है जिसके परिणाम स्वरूप अनेकानेक महत्वपूर्ण अनुसंधान परियोजनाएं, उत्पाद और प्रौद्योगिकी आए हैं। डेनमार्क और फिनलैंड के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए हैं और प्रस्ताव के लिए संयुक्त आहवान जारी किए गए हैं। जैव-प्रौद्योगिकी और जैव विज्ञानी विज्ञान अनुसंधान परिषद यूके के साथ संयुक्त परियोजनाओं को भी निधियन किया गया है। विभाग में क्रमश: कृषि और कृषि खाद्य कनाडा और राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र कनाडा के साथ दो ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं। एनआईएच, यूएसए के साथ अनुसंधान संबंधी विजन पर नया करार और गर्भ निरोधक अनुसंधान और विकास कार्यक्रम यूएसए पर भी हस्ताक्षर किए गए हैं। जर्मनी, मंगोलिया, सिंगापुर, श्रीलंका, स्वीटरलैंड यूके और यूएसए के साथ चालू द्विपक्षीय सहयोग का अनुशीलन किया गया है। साइप्रस, नार्वे, स्वीडन, यूक्रेन और ईयू के साथ द्विपक्षीय पारस्परिक क्रिया आरंभ किए जा चुके हैं। सार्क देशों के बीच सहयोग सहित बहुपक्षीय सहयोग का भी अनुशीलन किया गया है।
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इन सबके परिणामस्वरूप भारत विश्व के नक्शे पर जैव प्रौद्योगिकी केन्द्र के रूप में उभर कर सामने आया है और इसे मनपसंद निवेश स्थान के रूप में देखा जा रहा है। आण्विक जीव विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी में विकास के कारण समाज की आर्थिक खुशहाली पर सराहनीय प्रभाव पड़ा है। भारतीय जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्रक उभरते व्यापार अवसरों के लिए वैश्विक परिदृश्य में आ रहा है और नवपरिवर्तनीय दवाइयों, कृषि में अधिक उत्पादकता और पोषक वृद्धि एवं पर्यावरण रक्षा सहित मूल्यवर्धन के लिए बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने की अपार क्षमत रखता है। तथापि, अनेकानेक सामाजिक चिंताएं हैं, जिनका समाधान करना देश की जैव प्रौद्योगिकी नवपरिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है, जैसाकि जैव संसाधनों का संरक्षण करना और उत्पादों और प्रक्रियाओं की सुरक्षा आदि सुनिश्चित करना। तदनुसार सरकार और निजी क्षेत्रक दोनों को जन समुदाय को शिक्षित करने और हितों की रक्षा करने में तथा उनके लिए आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के लाभों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना है।
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जैव प्रौद्योगिकी की वैश्विक पहचान, त्वरित रूप से उभरती, व्यापक विस्तार वाली प्रौद्योगिकी के रूप में हुई है। यह विज्ञान का अग्रणी क्षेत्र है जो राष्ट्र की वृद्धि और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसका आशय किसी भी प्रौद्योगिकीय अनुप्रयोग से है जो जैव-विज्ञानी रूपों का उपयोग करता और प्रणालियों का प्रयोग करता है वह भी नियंत्रण योग्य तरीके से, जिससे कि नए और उपयोगी उत्पादों और प्रक्रियाओं का उत्पादन किया जा सके तथा विद्यमान उत्पादों को परिवर्तित किया जा सके। यह न केवल मानव जाति को लाभ पहुंचाना चाहता है अपितु अन्य जीव रूपों को भी जैसा कि सूक्ष्म जीव। यह पर्यावरण में हानिकारक हाइड्रोकार्बन कम करके, प्रदूषण नियंत्रण करके अनुकूल पारिस्थितिकी संतुलन कायम रखने में सहायता करता है।
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भारत में, जैव प्रौ���्योगिकी तेजी से विकसित होता ज्ञान आधारित क्षेत्रकों में एक है। इसे शक्तिशाली समर्थकारी प्रौद्योगिकी माना गया है जो कृषि, स्वास्थ्य देखभाल, औद्योगिक प्रक्रियान्वयन और पर्यावरणीय स्थायित्व में क्रांति ला सकता है। आज कल इसका बढ़ता प्रयोग विभिन्न किस्म की फसलों के विकास और विशिष्ट रूप से विकसित किस्मों केलिए किया जाता है, नए भेषजीय उत्पाद, रसायन, सौंदर्य प्रसाधनों, उर्वरक का आधिक्य, वृद्धि वर्धक, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, स्वास्थ्य देखभाल के उपकरण और पर्यावरण से संबंधित तत्व आदि। भारतीय जैव-प्रौद्योगिकी वर्ग ने वैश्विक मंच पर त्वरित वृद्धि की है। काफी बड़ी संख्या में उपचारिक जैव प्रौद्योगिकीय औषध हैं और टीके हैं, जिनका देश में उत्पादन और विपणन किया जा रहा है और मानव जाति की अपार सहायता की जा रही है। क्षेत्रक ने 1.07 बिलियन डॉलर का राजस्व अर्जित किया जिसने वर्ष 2005-06 में 36.55 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की।
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भारत की पहचान वृद्धि जैव विविधता देश के रूप में हुई है। जैव प्रौद्योगिकी देश की विविध जैव-विज्ञानी संसाधनों को आर्थिक सम्पन्नता और रोजगार के अवसरों में परिवर्तित करने के लिए मार्ग प्रदान करता है। अनेकानेक कारक हैं जो जैव-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशिष्ट क्षमता विकसित करने के लिए प्रेरणा सृजित करते हैं। वे हैं : वैज्ञानिक मानव संसाधन का विशाल भंडार अर्थात वैज्ञानिकों और अभियंताओं का एक मजबूत समूह, किफायती विनिर्माण क्षमताएं, अनेक राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाएं, जिसमें हजारों वैज्ञानिकों को रोजगार मिला हुआ है, जैव विज्ञान में अकादमी उत्कृष्टता के केन्द्र, अनेकानेक मेडिकल कॉलेज, शैक्षिक और प्रशिक्षण संस्थान, जो जैव प्रौद्योगिकी में डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करते हैं, जैव-सूचना विज्ञान और जीव विज्ञानी विज्ञान, असरदार औषध और भेषज उद्योग, तथा तेजी से विकसित होती उपचारात्मक क्षमताएं।
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गृह विज्ञान शिक्षा की वह विधा है जिसके अन्तर्गत पाक शास्त्र, पोषण, गृह अर्थशास्त्र, उपभोक्ता विज्ञान, बच्चों की परवरिश, मानव विकास, आन्तरिक सज्जा, वस्त्र एवं परिधान, गृह-निर्माण आदि का अध्ययन किया जाता है।
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ऐतिहासिक रूप से जब बालकों को कृषि या 'शॉप' आदि की शिक्षा दी जाने लगी तो बालिकाओं के लिये इस विषय के शिक्षण की आवश्यकता महसूस की गयी।
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जैसा कि नाम से ही पता चलता है, गृह विज्ञान का संबंध गृह यानी कि घर से हैं। आम तौर पर लोग समझते हैं कि गृह विज्ञान घर की देखभाल और घरेलू सामान की साज-संभाल का विषय है। लेकिन उनका ऐसा समझना केवल आंशिक रूप से सत्य है। गृह विज्ञान का क्षेत्र काफी विस्त त और विविधता भरा है। इसका दायरा ‘घर’ की सीमा से कहीं आगे तक निकल जाता है और यह केवल खाना पकाने, कपडे़ धोने-संभालने, सिलाई-कढ़ाई करने या घर की सजावट आदि तक सीमित नहीं रह जाता। वास्तव में केवल यही एक ऐसा विषय है जो युवा विद्यार्थियों को उनके जीवन के दो महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों के लिए तैयार करता है - घर तथा परिवार की देखभाल और अपने जीवन में कैरिअर अथवा पेशे के लिए तैयारी। आजकल महिला तथा पुरुष दोनों ही घर तथा परिवार की जिम्मेदारियां समान रूप से निभाते हैं तथा अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए उपलब्ध संसाधनों के बेहतर उपयोग की तैयारी में भी बराबर की सहभागिता निभाते हैं।
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गृह विज्ञान अथवा घर के विज्ञान का संबंध आप से, आपके घर से, आपके परिवार के सदस्यों से तथा आपके संसाधनों से जुड़ी सभी चीजों से है। इसका उद्देश्य है - आपके संसाधनों के प्रभावशाली तथा वैज्ञानिक उपयोग द्वारा आपको तथा आपके परिवार के सदस्यों को भरपूर संतुष्टि प्रदान करना।
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गृह विज्ञान का अर्थ है, आपके संसाधनों के प्रभावशाली प्रबंधन की कला तथा एक ऐसा विज्ञान, जो एक घर को स्वस्थ तथा सानंद बनाए रखने और आवश्यकता पड़ने पर एक सफल पेशे के चुनाव में आपकी मदद करे।
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गृह विज्ञान आपको चीजों को उपयोग करने की कला सिखाता है, जिससे कि चारों और एक संपूर्ण सुव्यवस्था, सुंदरता और आंदमयी वातावरण के निर्माण में सहायता मिलती है। इसके साथ ही यह घर की देखभाल से संबंधित वैज्ञानिक जानकारियां भी प्रदान करता है। इसे हम एक उदाहरण के द्वारा आसानी से समझ सकते हैं- गृह विज्ञान शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों के बारे में जानकारी प्रदान करता है तथा साथ ही उनके कार्यों के बारे में भी बताता है। यह एक ’विज्ञान’ है। और जब आप इन्हीं आवश्यक पोषक तत्त्वों से भरपूर भोजन को अपने परिवार को आकर्षक ढंग से परोसते हैं तो यह एक ’कला’ है।
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विज्ञान और कला का यह समन्वय आपके जीवन के हर क्षेत्र में काम आता है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -
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गृह विज्ञान के विविध क्षेत्रों की पढ़ाई करने के बाद आप अपने संसाधनों का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं। यदि ऐसा करते हुए आपको किसी प्रकार की समस्या पेश आती है, तो गृह विज्ञान उसे हल करने के लिए आपको सही दिशा निर्देश देगा। ऐसा करके आप एक प्रभावशाली व्यक्ति बनते हैं। इस ज्ञान का उपयोग आप अपने घर और जीवन के विकास में कर सकते हैं। आप और आपके परिवार के सदस्य अपनी दक्षताओं के उपयोग से अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार लाकर ज्यादा संतुष्टि का अनुभव कर सकते हैं। जब आप अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम होंगे तभी वे भी घर और बाहर दोनों तरफ की जिम्मेदारियों का निर्वाह कर पाने में सक्षम होंगे।
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समय, ऊर्जा, दक्षता आदि कुछ अन्य संसाधन हैं, जो प्रबंधन में सहायक होते हैं और इसमें गृह विज्ञान आपकी बहुत मदद करता है।
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आजकल ज्यादातर महिलाएं कामकाजी हैं, जो या तो काम करने के लिए घर से बाहर जाती हैं, या वे घर पर ही रह कर अपना स्वयं का कोई रोजगार चलाती हैं। इसके फलस्वरूप घर की जिम्मेदारियों में पुरूषों की सहभागिता भी बढ़ी है। चूंकि हमारे समाज में परंपरागत रूप से पुरूष धर के कार्यों में बहुत क्रियाशील नहीं होते, इसलिए उन्हें इस व्यवस्था में ढलने में काफी परेशानी का अनुभव होता है। ऐसे में उन्हें घर की विभिन्न पक्षों के बारे में जानने तथा घर को सुंदर बनाने तथा सही तरीके से चलाने का हुनर सीखने की आवश्यकता होती है। गृह विज्ञान ही एक मात्र ऐसा विषय है, जो युवाओं को एक सफल गृहस्थ बनने, एक जिम्मेदार नागरिक और एक अच्छे माता-पिता बनने में सहायक पूर्वाभ्यास और आवश्यक सूचनांए उपलब्ध कराता है।
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हालांकि गृह विज्ञान शिक्षा के काफी विस्त त क्षेत्र में कार्य कर रहा है, किंतु आज भी इस विषय को लेकर आम आदमी के मन में भ्रम की स्थिति बनी हुई है। और यह भ्रम की स्थिति केवल इसलिए बनी हुई है कि लोग सोचते हैं कि वे जो सम्मान और दर्जा प्राप्त करना चाहते हैं वह सब दे पाने में गृह विज्ञान सक्षम नहीं है।
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भ्रान्ति - गृह विज्ञान केवल खाना पकाने, कपड़े धोने और सिलाई-कढ़ाई के कामों तक सीमित है- आम लोगों की धारणा है कि इसमें सिर्फ यही सब बातें पढ़ाई-सिखाई जाती है। इसलिए युवा लड़कियों के माता-पिता बड़ी आसानी से उन्हें यह विषय पढ़ाने के लिए तैयार हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि यह उन्हें बाद के जीवन में जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में सहायक सिद्ध होगा।
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सच्चाई - खाना पकाना, कपड़े धोना और रखना तथा कढ़ाई-बुनाई तो गृह विज्ञान के अंतर्गत पढ़ाया जाने वाला एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा है। दरअसल इसके द्वारा हम अपने जीवन से जुड़ी सभी आधारभूत बातें सीखते हैं- कि हमारा शरीर कैसे कार्य करता है, कि हमें स्वस्थ रहने के लिए किस प्रकार के आहार की आवश्यकता होती है, कि अपनी तथा वातावरण की स्वच्छता के लिए किन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है, कि हमें बीमारियों से बचने के लिए क्या करना चाहिए तथा जब हम तथा हमारे आत्मीय जन बीमार हों, तो किस प्रकार का प्रबंधन करना चाहिए आदि। इसमें हम घर के विविध कार्यों में उपयोग होने वाले कपड़ों के चुनाव के बारे में सीखते हैं। बच्चे हमारे जीवन का एक अभिन्न अंगृहैं। हम सभी चाहते हैं कि उनका सुरक्षित और समुचित विकास हो। इस पाठ्यक्रम में हम सीखते हैं कि जन्म के पूर्व और बाद बच्चों का विकास किस प्रकार होता है और एक अच्छे तथा जिम्मेदार नागरिक के रूप में उनके विकास में हम क्या भूमिका निभा सकते हैं। इसके अलावा हम समय, ऊर्जा तथा पैसे जैसे अपने संसाधनों का प्रबंधन भी सीखते हैं, जिससे कि उनके अधिकाधिक उपयोग से अधिक संतुष्टि का अनुभव करते हैं।
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भ्रान्ति- गृह विज्ञान का संबंध केवल लड़कियों से है - बहुत से लोग यह समझते हैं कि गृह विज्ञान केवल घर से संबंधित कार्यों की शिक्षा देता है, इसलिए इसे केवल लड़कियों को ही पढ़ना चाहिए।
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सच्चाई- आज महिलाएं तथा पुरुष दोनों घर की जिम्मेदारियों का बराबर साझा करते हैं, क्योंकि आज हमारे समाज की बनावट में काफी परिवर्तन आया है। आज संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवारों में बदलने लगे हैं। ऐसे में घर की जिम्मेदारियों को पति और पत्नी को खुद ही संभालना पड़ता है। अधिकांश महिलाएं घर से बाहर काम पर जाने लगी हैं, इसलिए पुरूषों को घर की जिम्मेदारियों के बारे में अधिक से अधिक शिक्षा की जरूरत बढ़ी है। और इन सारी बातों की तैयारी अथवा पूर्वाभ्यास केवल गृह विज्ञान में ही एक विषय के रूप में मिल सकती है। यही कारण है कि आज अनेक युवा पुरुष इस विषय को पढ़ने की तरफ उन्मुख हुए हैं।
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भ्रान्ति- इसे तो अपनी मां/दादी मां से भी सीखा जा सकता है - लोग सोचते हैं कि गृह विज्ञान में पढ़ाई जाने वाली बातें तो इतनी आसान है कि उन्हें घर में अपनी मां/दादी मां से भी आसानी से सीखा जा सकता है। इसके लिए एक विषय के रूप में गृह विज्ञान की पढ़ाई करने की आवश्यकता नहीं है।
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सच्चाई- यह सच है कि लड़कियां घर की बहुत सारी बातें अपनी मां या दादी को काम करते देख कर सीखती हैं, लेकिन इतना भर ही पर्याप्त नहीं होता। बहुत से काम ऐसे हैं, जो परंपरागत रूप में घरों में चलते चले आ रहे हैं, लेकिन लोगों को उनका वैज्ञानिक आधार नहीं पता है। उदाहरण के लिए अचार को ही लीजिए। सभी जानते हैं कि अचार को तेल की परत से ढकना पड़ता है, लेकिन जब आप उनसे पूछेंगे कि ऐसा क्यों किया जाता है, तो आपकी मां इसे नहीं समझा पाएंगी। लेकिन जब आप गृह विज्ञान की पढ़ाई करेंगे, तो यह आपको बता देगा कि तेल अचार के तत्वों को हवा से खराब होने से बचाता है। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हर किसी के जीवन में मिल जाएंगे। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जो काम हम करते हैं यदि हम उसके बारे में यह जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं तो वह काम आसान हो जाता है।
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भ्रान्ति - गृह विज्ञान की पढ़ाई कैरिअर निमार्ण में सहायक नहीं है - ज्यादातर लोगों का यह भी सोचना है कि गृह विज्ञान चूंकि घर के भीतर किए जाने वाले कार्यों के बारे में शिक्षा देता है, इसलिए कैरिअर की द ष्टि से यह अनुपयोगी है। यदि कोई युवा रोजी-रोटी कमाना चाहता है तो उसे कोई ’गंभीर’ विषय पढ़ना चाहिए।
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सच्चाई - गृह विज्ञान युवा लड़के तथा लड़कियों दोनों के लिए रोजगार के अनेक अवसर उलब्ध कराता है। विद्यालय में गृह विज्ञान के एक विषय के रूप में अध्ययन से बहुत सारे रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकते हैं। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि अन्य विषयों की तरह ही इस विषय की भी आगे तक पढ़ाई जारी रखें और किसी एक विशेष क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त करें। अस्पतालों में डाइटीशियन के रूप में, बुटीक में फैशन डिजाइनर के रूप में, होटलों में परिचारक/परिचारिका अथवा रिसेप्शनिस्ट के रूप में, स्कूलों/कॉलेजों में अध्यापक/अध्यापिका आदि के रूप में गृह विज्ञान की पढ़ाई करके प्राप्त होने वाले रोजगार के कुछ आम अवसर हैं। गृह विज्ञान की पढ़ाई के बाद आप काफी अच्छी आय वाली और संतोषजनक नौकरियां प्राप्त कर सकते हैं।
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गृह विज्ञान के मुख्य रूप से पांच अंग हैं। ये निम्नलिखित हैं-
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आज यह विज्ञान इतना विकसित हो चुका है कि इसके प्रत्येक अंग के अपने उप-विभाग भी विकसित हो चुके हैं। ये उप-विभाग निम्नलिखित हैं-
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भारतीय स्त्रियों को कुशल आधुनिक गृहिणी बनाने के लिए तैयार किये गये पाठ्यक्रम को गृह-विज्ञान की संज्ञा दी जाती है। इसे अमेरिका में प्रचलित घरेलू अर्थशास्त्र और ब्रिटेन में प्रचलित घरेलू विज्ञान की शिक्षण सामग्री के मेल-जोल से तैयार किया गया है। इस पाठ्यक्रम में घरेलू अर्थशास्त्र, कढ़ायी-बिनायी-सिलायी, शिशुओं का लालन-पालन, नैतिक शिक्षा तथा गृह कार्यों में व्यवस्था एवं स्वच्छता जैसे विषय शामिल किये जाते हैं। गृह-विज्ञान के आलोचक इसे स्त्रियों को परिचित और सीमित घरेलू भूमिका में बाँधे रखने, पितृसत्ता कायम रखने और स्त्रियों को राजनीतिक रूप से निष्क्रिय बनाये रखने का षड़यंत्र मानते हैं। दूसरी तरफ़ गृह-विज्ञान को भारतीय घर के दायरे में एक शुरुआती सीमा तक आधुनिकता और राष्ट्रवाद का वाहक भी माना जाता है। अपने समय में अनेक नारीवादी संगठनों ने भारत में गृह-विज्ञान को स्त्री-अधिकारों के साथ जोड़ कर देखा है। इस विमर्श में घर को विशिष्ट रूप से एक नारीवादी इकाई माना गया है। यह विमर्श मानता है कि गृह-विज्ञान द्वारा स्त्रियों को नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों और आधुनिकतम जानकारी द्वारा परिवार-निर्माण का अधिकार मिलता है। इस तरह गृह-विज्ञान आधुनिकता के घरेलू पक्ष की परिभाषा के एक घटक के तौर पर उभरता है जिसके केंद्र में वह प्रशिक्षित स्त्री है जिसके हाथ में पूरे परिवार के शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास का दायित्व सौंपा गया है।
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औपनिवेशिक काल में स्त्री-समानता और अधिकारों के लिए संघर्ष भी चल रहा था और उसके साथ ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था बनाये रखने के लिए धर्म, परम्परा और स्थापित सामाजिक व्यवस्था का हवाला देकर स्त्रिओं को हाशिये पर बनाये रखने की मुहिम भी जारी थी। इसी जद्दोजहद के बीच स्त्रियों को आधुनिक शिक्षा से जोड़ने के प्रयास किये गये, लेकिन उन्हें पुरुषों के समान शिक्षित करने में भारी अड़चनें थीं। इसी दौरान भारतीय स्त्रियों को उनके परिवेश के अनुरूप ही शिक्षित करने के लिए गृह-विज्ञान का पृथक अध्ययन क्षेत्र बनाया गया। गृह-विज्ञान में स्त्रियों को बेहतर गृहिणी बनाने के साथ एक शिक्षित नागरिक के रूप में विकसित करने का आदर्श भी शामिल था। ब्रिटिश प्रशासन ने भी इस क्षेत्र में पहल ली। गृह-विज्ञान के अध्यापन के लिए स्त्री-अध्यापकों को प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम शुरू किया गया। प्रशासन ने भारतीय समाज- सुधारकों के साथ मिल कर सबसे पहले विधवा स्त्रियों को इस प्रशिक्षण के लिए चुना। प्रशिक्षण के उपरांत ये स्त्रियाँ आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बन सकती थीं। प्रशासन विधवाओं की स्थिति सुधारने के लिए आवश्यक समाज- सुधार जैसे कार्यक्रमों को पुरातनपंथी समाज के भारी विरोध के कारण स्थगित करने का इच्छुक भी था। स्त्री-अध्यापकों के प्रशिक्षण के आरम्भिक दौर में अधिकतर औरतें ईसाई समुदाय या ग़ैर-ब्राह्मण समाज से थीं। लेकिन उच्च वर्ण के कुछ प्रमुख भारतीय समाज सुधारकों ने अपने परिवार की स्त्रियों को भी इस प्रशिक्षण में भाग लेने के लिए उत्साहित किया। यूरोपियन माध्यमिक स्कूलों में गृह-विज्ञान के अध्यापन को लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक नये शिक्षण व प्रशिक्षण संस्थान स्थापित किये गये। गृह-विज्ञान को वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करने के लिए इसके प्रशिक्षण को प्रायोगिक एवं व्यावहारिक बनाते हुए शिक्षण-सामग्री में विज्ञान के बुनियादी सिद्धांतों का समावेश किया गया।
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भारत में स्त्री-अधिकारों के लिए सार्वजनिक तौर पर अभियान चलाने का श्रेय ब्रह्म समाज के अग्रणी नेता देवेन्द्र नाथ ठाकुर की पुत्री और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बहन स्वर्ण कुमारी देवी को जाता है। उन्होंने 1882 में कलकत्ता में विधवाओं और ग़रीब स्त्रियों को आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनाने के लिए प्रशिक्षण देने की शुरुआत की थी। इसी प्रकार पण्डिता रमाबाई सरस्वती ने पुणे में आर्य स्त्री समाज और शारदा सदन के माध्यम से स्त्रियों को रोज़गार दिलाने के लिए प्रशिक्षित करने का कार्यक्रम चलाया था। 1910 में स्वर्ण कुमारी देवी की पुत्री सरला देवी चौधरानी ने केवल स्त्रियों के लिए भारत स्त्री मण्डल की स्थापना करके स्त्रियों को उनके घर पर ही शिक्षित करने का अभियान चलाया था। बीसवीं सदी के आरम्भ में स्त्रियों को शिक्षा प्रदान करने में युरोपियन मिशनरी एवं भारतीय समाज-सुधारक स��से आगे थे। लेकिन अधिकतर स्त्रियों की शिक्षा अनौपचारिक तौर पर उनके घर पर निजी शिक्षकों के द्वारा दी जाती थी। दरअसल ज़्यादातर सुधारक स्त्रियों की शिक्षा को उनके घरेलू दायित्वों से जोड़ना चाहते थे ताकि वे अपने परिवार-कुटुम्ब के लालन-पालन व जीवन शैली में गुणात्मक सुधार ला सकें। इस प्रकार की शिक्षा के लिए गृह-विज्ञान को सर्वोत्तम विषय माना गया। गृह-विज्ञान को भारतीय समाज में 'घर' की परिकल्पना के आदर्श स्वरूप को स्थापित करने और गृह-विज्ञान में प्रशिक्षित स्त्रियों को आदर्श पत्नी-माँ-गृह लक्ष्मी की भूमिका के वाहक की तरह पेश किया गया। गृह-विज्ञान ने भारतीय ‘घर’ को एक ऐसी प्रयोगशाला बना दिया जिसके दायरे में परिवार एवं समाज में व्यापक सुधारों के अभियान का आरम्भ हो सकता था। इसके साथ ही गृह-विज्ञान को प्रबुद्ध-सम्भ्रांत भारतीयों में स्वीकार्य बनाने के लिए इसे एक ऐसे माध्यम के रूप में प्रस्तुत किया गया जो भारतीय स्त्रियों को उनके अपने घर में सम्माननीय स्थान दिलाने और व्यापक समाज-सुधार में स्त्रियों को केंद्रस्थ करने में कारगर भूमिका निभा सकता था।
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गृह-विज्ञान का विचार उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन में प्रचारित की जा रही आदर्श स्त्री-छवि के अनुकूल भी बैठता था। गाँधी द्वारा आंदोलन का नेतृत्व सँभालने के बाद आम भारतीय स्त्रियों ने भी बड़ी संख्या में इसमें हिस्सा लेना शुरू किया। गाँधी ने स्त्रियों को जोड़ने के लिए माँ-पत्नी-बहन की आदर्श निःस्वार्थ छवि का दोहन किया। इसी तरह हिंदू राष्ट्रवादी व्याख्या में भी भारत भूमि को भारत माता के रूप में निरूपित किया गया। तमिलनाडु में भी तमिल भाषा के आंदोलन में तमिल भाषा व तमिल राष्ट्रीयता को माँ के रूप में दर्शाया गया। तमिल अस्मिता के पुनरुद्धार और तमिल गौरव के मातृ रूप में प्रदर्शन के प्रचारकों ने स्त्रियों को गृह स्वामिनी और मातृ शक्ति के रूप में बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप न केवल आत्मसम्मान आंदोलन में स्त्रियों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया, बल्कि तमिलनाडु के सामान्य लोगों में भी स्त्री-शिक्षा के प्रति जागरूकता विकसित हुई। तमिल आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व ने भी स्त्रियों के लिए ऐसे सुधारों की हिमायत की जिनके द्वारा पत्नी व माँ की भूमिका को प्रभावकारी बनाया जा सके।
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गृह-विज्ञान के भारतीयकरण और इसके प्रसार में कुछ भारतीय स्त्रियों ने प्रमुख भूमिका निभायी। धोंडो केशव कर्वे के विधवा आश्रम से संबंधित पार्वती बाई आठवले 1918 में अमेरिका यात्रा पर गयीं जहाँ उन्होंने देखा कि घरेलू कार्य में वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग किस तरह भारत के लिए भी बेहद लाभप्रद हो सकता है। इसी प्रकार बड़ौदा के प्रधानमंत्री की पुत्री हंसा मेहता ने भी 1920-21 के दौरान अमेरिका में घरेलू अर्थशास्त्र के प्रशिक्षण का अध्ययन किया और वापस लौटकर महाराज सैयाजी राव विश्वविद्यालय में एक स्त्री महाविद्यालय की स्थापना की जिसमें गृह-विज्ञान पाठ्यक्रम का प्रारूप अमेरिकन विशेषज्ञ ऐन गिलक्रिस्ट स्ट्रांग ने तैयार किया। स्ट्रांग की 1931 में प्रकाशित पुस्तक 'डोमेस्टिक साइंस फ़ॉर हाई स्कूल इन इण्डिया' लम्बे समय तक भारतीय गृह-विज्ञान की सबसे मानक पाठ्य पुस्तक मानी जाती रही। भारतीय स्त्री संगठन ने भी गृह-विज्ञान के अनौपचारिक प्रशिक्षण का कार्यक्रम चलाया और इससे संबंधित जानकारी के प्रसार के लिए एक पत्रिका स्त्रीधर्म का प्रकाशन किया। इसमें अमेरिका से प्रकाशित जर्नल ऑफ़ होम इकॉनॉमिक्स के लेख प्रकशित किये जाते थे। तमिलनाडु के मद्रास शहर में अनेक देवदासियों को समाज में पुनर्वासित करने के उद्देश्य से गृह-विज्ञान का प्रशिक्षण दिया गया ताकि वे घरेलू कर्मचारी की तरह काम में लगाई जा सकें। 1926 में भारतीय स्त्री संगठन की कुछ सदस्यों ने राजनीतिक स्वतंत्रता के स्थान पर स्त्रियों की शिक्षा को अपना प्राथमिक उद्देश्य माना और भारतीय स्त्री संगठन छोड़ कर अखिल भारतीय स्त्री सम्मलेन स्थापित किया। इस नये समूह ने स्त्रियों को गृह-विज्ञान में प्रशिक्षित करने के लिए 1932 में दिल्ली में लेडी इरविन कॉलेज की स्थापना की।
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भारतीय स्त्री संगठन की एक संस्थापक सदस्य मालती पटवर्धन ने स्त्रीधर्म पत्रिका में गृह-विज्ञान के प्रचार के साथ ही स्त्रियों की सामाजिक समस्याओं, जैसे रोज़गार, स्त्री-अधिकारों से संबंधित कानूनी-संवैधानिक परिवर्तन, पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार के विखंडन जैसे विषयों को प्रमुखता से उठाया।
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आप किसी बेकरी, बुटीक या डे केयर सेंटर में कार्य करके वेतन भोगी कर्मचारी बन सकते हैं। परंतु यदि आप स्वंय की बेकरी, बुटीक या डे केयर सेंटर चलाते हैं तब आप स्वरोज़गार व्यक्ति कहलाएंगे। जब आप लघु उद्यम के रूप में किसी आय के साधन को अपनाते हैं तब आप उद्यमी कहलाएंगे। स्कूल स्तर पर गृह विज्ञान विषय का अध्ययन करने के बाद आप वेतन भोगी कर्मी, स्वरोज़गार या उद्यमी बनने के कई अवसर प्राप्त कर सकते हैं।
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उच्चतर माध्यमिक स्तर पूरा करने के बाद वेतन भोगी कर्मी, स्वरोज़गार और उद्यमी बनने के संभावित रोज़गार के अवसर नीचे दिये गये हैं-
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काश्यपसंहिता कौमारभृत्य का आर्ष व आद्य ग्रन्थ है। इसे 'वृद्धजीवकीयतन्त्र' भी कहा जाता है। महर्षि कश्यप ने कौमारभृत्य को आयुर्वेद के आठ अंगों में प्रथम स्थान दिया है। इसकी रचना ईसापूर्व 6ठी शताब्दी में हुई थी। मध्ययुग में इसका चीनी भाषा में अनुवाद हुआ।
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कश्यप संहिता आयुर्वेद की अत्यन्त प्राचीन संहिता है और सभी आयुर्वेदीय संहिता ग्रन्थों में प्राचीन है। यह संहिता नेपाल में खंडित रूप में मिली है। उनका समय 600 ईसापूर्व माना गया है। वर्तमान में प्राप्त काश्यप संहिता अपने में पूर्ण है। महर्षि कश्यप द्वारा प्रोक्त इस विशाल आयुर्वेद का कालक्रम से प्रचार-प्रसार जब कम होने लगा तो ऋचिक मुनि के पचंवर्षीय पुत्र जीवक ने इस विशाल काश्यप संहिता को संक्षिप्त करके हरिद्वार के कनखल में समवेत विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया। उपस्थित विद्वानों ने उसे बालभाषित समझकर अस्वीकार कर दिया। तब बालक जीवक ने वहीं उनके सामने गंगा की धारा में डुबकी लगायी। कुछ देर के बाद गंगा की धारा से जीवक अतिवृद्ध के रूप में निकले। उन्हें वृद्ध रूप में देख, चकित विद्वानों ने उन्हें 'वृद्धजीवक' नाम से अभिहित किया और उनके द्वारा प्रतिपादित उस आयुर्वेद तन्त्र कों ‘वृद्धजीवकीय तन्त्र’ के रूप में मान्यता दी।
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काश्यपसंहिता की विषयवस्तु को देखने से मालूम होता है कि इसकी योजना चरकसंहिता के समान ही है। यह नौ 'स्थानों' में वर्णित है-
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इनमें बालकों की उत्पत्ति, रोग-निदान, चिकित्सा, ग्रह आदि का प्रतिशेध, तथा शारीर, इन्द्रिय व विमानस्थान में कौमारभृत्य विषयक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। सभी स्थानों में बीच-बीच में कुमारों के विषय में जो प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गये हैं इससे संहिता की विशिष्टता झलकती है।
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काश्यपसंहिता में कुमारभृत्य के सम्बन्ध में नवीन तथ्यों को बताया गया है, जैसे दन्तोत्पत्ति, शिशुओं में मृदुस्वेद का उल्लेख, आयुष्मान बालक के लक्षण, वेदनाध्याय में वाणी के द्वारा अपनी वेदना न प्रकट कने वाले बालकों के लिए विभिन्न चेष्टाओं के द्वारा वेदना का परिज्ञान, बालकों के फक्क रोग में तीन पहियों वाले रथ का वर्णन, लशुन कल्प के विभिन्न प्रयोगों का वर्णन, तथा रेवतीकल्पाध्याय में जातहारिणियों का विशिष्ट वर्णन।
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1. सूत्र स्थान - 30 अध्याय
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2. निदान स्थान - 8 अध्याय
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3. वि��ान स्थान - 8 अध्याय
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4. शारीर स्थान - 8 अध्याय
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5. इन्द्रिय स्थान - 12 अध्याय
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6. चिकित्सा स्थान - 30 अध्याय
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7. सिद्ध स्थान - 12 अध्याय
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8. कल्प स्थान - 12 अध्याय
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9. खिलभाग - 80 अध्याय
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इस तरह संपूर्ण काश्यप संहिता में 8 स्थान, खिलभाग और 200 अध्याय है।
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कश्यप या काश्यप के नाम से तीन संहिताएँ मिलती हैं :
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काश्यप शब्द गोत्रवाची भी है; मूल ऋषि का नाम कश्यप प्रतीत होता है। मत्स्य पुराण में मरीच के पुत्र कश्यप को मूल गोत्रप्रवर्तक कहा गया है; परंतु आगे चलकर कश्यप मारीच भी कहा है। चरकसंहिता में कश्यप पृथक लिखकर 'मारीचिकाश्पौ' यह लिखा है । इसमें मारीच कश्यप का विशेषण है। इसी प्रकार चरक के एक पाठ में 'काश्यपो भृंगु:' यह पाठ आया है । इसमें काश्ययप गोत्रोत्पन्न भृगु का उल्लेख है। इस प्रकार काश्यप शब्द जहाँ गोत्रवाची है, वहाँ व्यक्तिवाची भी मिलता है।
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वृद्धजीवकीय तंत्र में 'इति ह स्माह कश्यप:' या 'इत्याह कश्यप:', 'इति कश्यप:', 'कश्यपोऽब्रवीत्' आदि वचन मिलते हैं, इससे इनका आचार्य होना स्पष्ट हैं। कहीं पर कश्यप के लिए मारीच शब्द भी आया है। । इससे स्पष्ट होता है कि मारीच कश्यप शब्द के लिए ही आया है। अनुमान होता है, मारीच का पुत्र कश्यप था, जिससे आगे कश्यप गोत्र चला।
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गालव ऋषि गुरुदक्षिणा में घोड़ों को देने के लिए काशीपति दिवादास के पास गए थे; मार्क में उनको हिमालय की तराई में मारीच कश्यप का आश्रम मिला था । कश्यप संहिता में भी कश्यप का स्थान गंगाद्वार में बताया गया है। ।
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कश्यप ने आयुर्वेद का अध्ययन आयुर्वेद परंपरा में इंद्र से किया था। कश्यप संहिता में वृद्ध कश्यप के मत का भी उल्लेख मिलता है । इसके आगे ही अपना मत दिखाने के लिए 'कश्यपोऽब्रवीत्' पाठ है। इससे प्रतीत होता है कि वृद्ध कश्यप और संहिताकार कश्यप भिन्न व्यक्ति हैं। ऋक् सर्वानुक्रम में कश्यप और काश्यप के नाम से बहुत से सूक्त आए हैं। इनमें कश्यप को मरीचिपुत्र कहा है ।
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इस प्रकार से कश्यप का संबंध मारीच से है। संभवत: इसी मारीच कश्यप ने कश्यपसंहिता की रचना की है।
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महाभारत में तक्षक-दंश-उपाख्यान में भी कश्यप का उल्लेख आता है। इन्होंने तक्षक से काटे अश्वत्थ को पुनर्जीवित करके अपनी विद्या का परिचय दिया था । डल्हण ने काश्यप मुनि के नाम से उनका एक वचन उद्धृत किया है, जिसके अनुसार शिरा आदि में अग्निकर्म निषिद्ध है। माधवनिदान की मधुकोष टीका में भी वृद्ध काश्यप के नाम से एक वचन विष प्रकरण में दिया है। ये दोनों कश्यप पूर्व कश्यप से भिन्न हैं। संभवत: इनको गोत्र के कारण कश्यप कहा गया है। अष्टांगहृदय में भी कश्यप और कश्यप नाम से दो योग दिए गए हैं। ये दोनों योग उपलब्ध कश्यपसंहिता से मिलते हैं ।
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काश्यपसंहिता में समस्त आयुर्वेदीय विषयों का प्रश्नोत्तर रूप में निरूपण किया गया हैं। शिष्यों के प्रश्नों का उत्तर महर्षि विस्तार से देते है। शंका-समाधान की शैलीमें दुःखात्मक रोग, उनके निदान, रोगों का परिहार और रोग-परिहार के साधन, औषध इन चारों विषयों का भली भांति इसमें प्रतिपादन किया गया है। मानव के पुरूषार्थ-चतुष्टक की सिद्धि में स्वस्थ शरीर ही मुख्य साधन है, शारीरिक और मानसिक रोगों से सर्वथा मुक्त शरीर ही स्वस्थ कहलाता है। अतः निरोग रहने या आरोग्य प्राप्त करने के लिये उपर्युक्त रोग, निदान, परिहार और साधन - इन चारों का सम्यक् प्रतिपादन मुख्यतः आयुर्वेदशास्त्र में किया जाता है।
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1. प्रस्तुत संहिता कौमार्यभृत्य की प्रमुख संहिता है। बालकों में होने वाले समस्त रोगों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
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2. बालकों के उत्पन्न होने से लेकर, दन्तोद्भव, युवावस्था तक के सभी संस्कार एवं ग्रहबाधा चिकित्सा तथा अन्य रोगों का विस्तृत वर्णन है।
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3. गर्भिणीय प्रकरण, दुष्प्रजातीय एवं धात्री परिचय एवं परीक्षा का विस्तृत वर्णन है।
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4. स्तन्य से सम्बन्धित समस्त रोग एवं उसके निवारणार्थ चिकित्सा का वर्णन है।
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5. पंचकर्म अध्याय के अंतरगत बालकों में करने वाले पंचकर्मों, पूर्वकर्मों तथा शल्य कर्मों का विशिष्ट व्यवस्था की गई है।
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6. बालको में होने वाले फक्क रोग की चिकित्सा तथा तीन पहिया रथ का निर्माण, उपयोग सर्वप्रथम इसी संहिता में प्राप्त है।
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7. विषम ज्वर के विभिन्न भेदों की लक्षण एवं चिकित्सा का वर्णन है।
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8. बालकों के विभिन्न अंगो में होने वाली वेदना को बालको की चेष्टा के द्वारा अनुमान लगाने का वर्णन है।
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9. कल्पस्थान में औषधि द्रव्य लहसुन का वर्णन एवं लहसुन-कल्प का विशेष वर्णन इस संहिता की विशिष्टता है।
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10. कल्प स्थान में ही युष, यवांगु आदि का प्रयोग, मधुर आदि रसों का एवं वातादि दोषो का विस्तृत वर्णन मिलता है।
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प्रत्येक युद्ध में जो राज्य एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध करते हैं, वे "युद्धरत" राज्य कहे जाते हैं। जो राज्य किसी ओर से नहीं लड़ते अथवा युद्ध में कोई भाग नहीं लेते, वे तटस्थ राज्य कहे जाते हैं। अत: तटस्थता वह निप्पक्ष अथवा तटस्थ रहने का भाव है, जो युद्ध में सम्मिलित न होनेवाले तीसरे राज्य युद्धरत दोनों पक्ष के राज्यों के प्रति धारण करते हैं और युद्धरत राज्य इस भाव को अपनी मान्यता प्रदान करते हैं। निष्पक्षता अथवा तटस्थता का यह भाव तटस्थ राज्यों और युद्धरत राज्यों के बीच कुछ कर्तव्यों और कुछ अधिकारों की सृष्टि करता है।
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प्राचीन युग में तटस्थता का प्रचलन नहीं था। उन दिनों यदि कोई युद्ध छिड़ता था तो युद्धरत दोनों राज्यों के अतिरिक्त अन्य तीसरे राज्यों को इस बात का चुनाव करना पड़ता थ कि वे इन दो में से किस पक्ष में सम्मिलित हों। वे एक के मित्र बन जाते थे और दूसरे के शुत्रु। मध्यकालीन युग में कोई भी राज्य इस प्रकार की घोषणा कर सकता था कि वह युद्धरत दो पक्षों में से किसी एक ही पक्ष की सहायता कर सकता था। 17वीं शताब्दी में अंतर्राष्ट्रीय विधान में तटस्थता को एक संस्था रूप में स्थान प्राप्त हुआ, यद्यपि उस समय वह अपनी शैशवावस्था में ही थी और अपना वर्तमान स्वरूप प्राप्त काने के लिये उसे दीर्ध काल की असवश्यकता थी। 18वीं शताब्दी में पहुँचकर ही सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक, दोनों रूपों में यह बात मान्य हो सकी कि तटस्थ राज्यों का यह कर्तव्य है कि वे तटस्थ या निष्पक्ष रहें और युद्धरत राज्यों का यह कर्तव्य है कि वे तटस्थ राज्यों के अधिकारक्षेत्र का संमान करें।
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सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ। उस समय कई राज्यों ने यह घोषणा की कि वे तटस्थ रहेंगें। इस प्रकार की घोषणा करनेवाले राज्यों में संयुक्त राज्य अमरीका भी था। परंतु अक्टूबर, 1916 में अमरीका भी युद्ध में सम्मिलित हो गया।
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युद्ध का अंत होने पर राष्ट्रसंघ के अनुबंधन ने तटस्थता के परंपरागत नियम की समाप्ति कर दी। उक्त अनुबंध की धारा 10 के अनुसार राष्ट्रसंघ के सदस्यों ने सभी सदस्य राज्यों की क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता का आदर करना स्वीकार किया।
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सितंबर, 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने पर तटस्थता का परंम्परागत नियम अस्थायी रूप से पुनरुज्जीवित हुआ। संयुक्त राज्य अमरीका तथा क��� अन्य देशों ने पुन: ऐसी घोषणा की कि वे इस युद्ध में तटस्थ रहेंगे। जर्मनी ने इनमें से अधिकांश राज्यों की तटस्थता का उल्लंघन किया। अपने तटस्थताकाल में भी अमरीका ने उधारपट्टा कानून बनाकर मित्र शक्तियों को इस बहाने सहायता प्रदान की कि इन देशों की सुरक्षा स्वयं अमरीका की सुरक्षा के लिये आवश्यक है। यह प्रश्न विवादग्रस्त रहा है कि जिन दिनों अमरीका प्राबिधिक रूप में तटस्थ था, उन दिनो उसका ऐसा आचरण क्या उचित था?
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द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के उपरांत सन् 1945 में जब संयुक्त राष्ट्रसंघ का अधिकारपत्र स्वीकृत हुआ तो उसने वैधानिक रूप में तटस्थता का अंत कर दिया। उस अधिकारपत्र में ऐसे राज्यों के पृथक् वैधानिक अस्तित्व की कोई व्यवस्था नहीं है। उसके अनुसार कोई भी राज्य ऐसे किसी युद्ध में स्वेच्छया तटस्थ नहीं रह सकता जिसके संबंध में सुरक्षा परिषद् ने किसी विशेष राज्य को शांति भंग करने का अथवा अग्राक्रमण करने का अपराधी पाया है और जिसके लिये संयुक्त राष्ट्रसंघ ने अपने सदस्य राष्ट्रों का आवाहन किया है कि वे उक्त राज्य के विरुद्ध सैनिक कारवाई करें।
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शाश्वत तटस्थता - शाश्वत अथवा चिरस्थायी तटस्थता उन राज्यों की तटस्थता है, जो विशेष संधियों द्वारा स्वीकार कर लेते है जैसे, स्विट्जरलैंड की तटस्थता।
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स्वेच्छाप्रेरित और परंपरागत तटस्थता - यदि कोई राज्य स्वेच्छा से तटस्थ रहता है और किसी संधि द्वारा अपने को तटस्थ नहीं बनाता, तो उसकी तटस्थता स्वेच्छाप्रेरित तटस्थता है। दूसरी ओर, यदि कोई राज्य ऐसी संधि करता है कि युद्ध छिड़ने पर वह तटस्थ रहेगा, तो उसकी तटस्थता परंपरागत अथवा व्यवहारसिद्ध तटस्थता कही जायगी।
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सशस्त्र तटस्थता- यदि कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ के अधिकारक्षेत्र का उपयोग करने का प्रयत्न करता है और वह तटस्थ राज्य अपनी तटस्थता की रक्षा के लिए सैनिक कार्यवाही करता है तो ऐसी तटस्थता की रक्षा के लिए सैनिक कारवाई करता है तो ऐसी तटस्थता "सशस्त्र तटस्थता" कही जायगी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बेलजियम, हालैंड और स्विट्जरलैंड की तटस्थता ऐसी ही सशस्त्र तटस्थता भी। कारण, उस समय ये राज्य अपनी सेनाओं को युद्ध के लिए सतत प्रस्तुत रखते थे।
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संपूर्ण और संप्रतिबंध तटस्थता- उस राज्य की तटस्थता "सप्रतिबंध तटस्थता" मानी जायगी, जो यों तो तटस्थ रहता है, पर प्रत्यक्ष अथव��� अप्रत्यक्ष रूप से दो में से किसी एक युद्धरत पक्ष को किसी प्रकार की सहायता प्रदान करता है। दूसरी और, उन राज्यों की तटस्थता "संपूर्ण तटस्थता" मानी जायगी जो किसी भी युद्धरत राज्य को किसी भी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नहीं करते।
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1. युद्धरत राज्यों के प्रति निष्पक्षता का भाव रखना।
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2. तटस्थ राज्य के व्यापारियों द्वारा नाकेबंदी और वर्जित माल के आवागमन संबंधी नियमों को भंग करने पर कोई युद्धरत राज्य उन्हें दंड देने के अपने अधिकार का प्रयोग करे तो उसमें अपनी सम्मति प्रदान करना।
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1. तटस्त राज्यों के निष्पक्षता संबंधी भाव के अनुकूल उनके प्रति व्यवहार करना।
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2 शत्रुराज्य के प्रति तटस्थ राज्यों के व्यापार-वाणिज्य संबंधी अथवा अन्य जो संबंध हों, उन्हे न दबाना।
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यदि कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य की तटस्थता भंग करने का प्रयत्न करें, तो वह तटस्थ राज्य सदैव ही अपनी रक्षा के लिए शस्त्र उठा सकता है और उसका यह बलप्रयोग शत्रुता का कार्य नहीं माना जाएगा।
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किसी भी तटस्थ राज्य को, अपने प्रदेश के भीतर से होकर किसी भी युद्धरत राज्य को अपनी सेना, युद्धसामग्री अथवा अन्य रसद आदि निकाल ले जाने की, अनुमति नहीं देनी चाहिए। परंतु वह अपने समुद्रतटीय क्षेत्र से युद्धरत राज्यों के युद्धपोतों को वहाँ से होकर निकल जाने दे सकता है। इन युद्धपोतों को वहाँ से होकर निकल जाने दे सकता है। इन युद्धपोतों को अपने बंदरगाहों से बहिष्कृत करने की उसे आवश्यकता नहीं। किंतु इस प्रकार तटस्थ राज्यों से होकर निकलते समय युद्धरत राज्य के युद्धपोतों को ऐसा कोई शत्रु कार्य नहीं करना चाहिए जिससे शत्रु राज्य के युद्ध पोतों को कोई हानि पहुँचे। युद्धरत राज्यों को तटस्थ राज्यों के समुद्री तट अथवा उनके अपने बंदरगाहों को आधार बनाकर शत्रुराज्य के विरुद्ध आक्रमणात्मक कार्रवाई नहीं करनी चाहिए।
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युद्धरत राज्य के सैनिक तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र से होकर निकल जाने की चेष्टा करें तो उन्हे बलपूर्वक पीछे हटा देना चाहिए। यदि वे तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र में प्रवेश करने में सफल हो जाएँ तो तटस्थ राज्य को चाहिए कि वह उनके शस्त्र रखवाकर उन्हें नजरबंद कर ले। जहाँ तक युद्धबंदियों का प्रश्न है, किसी भी तटस्थ राज्य में प्रवेश करते ही, अपने वहाँ प्रवेश करने के कारण ही वे मुक्त जो जाते हैं। परंतु तटस्थ राज्य का कर्तव्य है कि वह उन्हें अपनी सेना में जाकर पुन: काम करने की अनुमति न प्रदान करें।
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तटस्थता के उल्लंघन अंतर्राष्ट्रीय अपराध माने जाते हैं, फिर इसके नियमों का उल्लंघन चाहे कोई तटस्थ राज्य किसी युद्धरत राज्य के विरुद्ध करे, चाहे कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य के विरुद्ध करे। इन उल्लंघनों का तुरंत प्रतिकार होना चाहिए। जिस पक्ष पर अत्याचार किया गया हो, वह अत्याचारी पक्ष से क्षतिपूर्ति की माँग कर सकता है। पीड़ित राज्य अत्याचारी राज्य के विरुद्ध युद्ध भी कर सकता है।
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तटस्थ राज्य की संपत्ति पर बलात् अधिकार कर लेने के संबंध में जो कानून है, उसके आज के प्रचलित अर्थ के अनुसार, किसी भी युद्धरत राज्य को आक्रमण अथवा सुरक्षा के लिये आवश्यक होने पर तटस्थ राज्य की संपत्ति का उपयोग करने अथवा उसे नष्ट कर देने का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार का प्रयोग तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र के भीतर भी किया जा सकता है, शत्रुप्रदेश के अंतर्गत भी किया जा सकता है और खुले समुद्र के भीतर भी। युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य को कोई सेवा करने के लिये बाध्य नहीं कर सकता, यों स्वेच्छा से वह कोई सेवा कर दे तो दूसरी बात है। युद्धरत राज्य तटस्थ राज्य की संपत्ति का उपयोग करे अथवा उसे नष्ट कर दे तो युद्धरत राज्य को उसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी।
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खाता-बही या लेजर उस मुख्य बही को कहते हैं जिसमें पैसे के लेन-देन का हिसाब रखा जाता है। आजकल यह कम्पयूटर-फाइल के रूप में भी होती है। खाता बही में सभी लेन-देन को खाता के अनुसार लिखा जाता है जिसमें डेबित और क्रेडित के के दो अलग-अलग कॉलम होते हैं।
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लेखांकन का एक उद्देश्य सुगमता से यह निश्चित करना है व्यापारी को अपने लेनदारों को क्या देना है, उसे अपने देनदारों से क्या लेना है, उसके व्यय और आय कय है इत्यादी। यह भी स्पष्ट है कि यह जानकारी केवल रोजनामचे में सौदों के लिखने मात्र से ही तुरन्त प्राप्त नहीं हो सकती। माना कि एक व्यक्ति यह जानना चाहता है कि उसे 'क' से क्या लेना अथवा देना है तो उसे 'क' से सम्बन्धित प्रविष्टियों को ढ़ूंढने के लिए पूरा रोजनामचा देखना पड़ेगा क्योंकि उसने उससे कई बार माल खरीदा होगा और कई बार उसे धन दिया होगा। यदि यही तरीका अपने साथ व्यवहार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति या फर्म के साथ अपनी स्थिति मालूम करने के लिए प्रयोग में लाया जाय तो वही खाते लिखने का उद्देश्य अंतशः ही प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त इसका अर्थ होगा समय, उर्जा, एवं धन की व्यर्थ बरवादी। अतः प्रत्येक व्यक्ति अथवा फर्म से सम्बन्धित सभी प्रविष्टियों को एक साथ लिखने के लिए कोई त्वरित साधन प्राप्त करना चाहिए। यह सब प्रविष्टियों को एक और पुस्तक में, जिसे खताबही कहते हैं, एकत्रित और संक्षिप्त करके किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति से सम्बन्धित उन सभी प्रविष्टियों को जो अब तक रोजनामचे में विखरी पड़ी थी एक जगह एकत्रित एवं संक्षिप्त किया जाता है।
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बाटलीबॉय के अनुसार खाताबही खातों की मुख्य पुस्तक है और इसी पुस्तक में सारे व्यापारिक लेन-देन अन्त में विभाजित होकर अपने-अपने खातों में स्थान प्राप्त करते हैं।
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पीकल्स के अनुसार, ‘खाताबही खातों की सबसे महत्त्वपूर्ण पुसतक है और सहायक पुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की मंजिल है। यह अनिवार्यतः तीन प्रकार के खातों का संग्रह है - वास्तविक, व्यक्तिगत तथा नाममात्र । उपर्युक्त विवेचन से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि खातावही प्रथम प्रविष्टि की पुस्तक नहीं है क्योंकि कोई भी प्रविष्टि सीधी इस प्रस्तक में नहीं की जाती है। प्रविष्टि सर्वप्रथम सहायक पुस्तकों में की जाती है। यह प्रमुख महत्त्व की पुसतक है। इसमें वयवहार में होने वाले सब सौदों से सम्बन्धित खाते होते हैं। यद्यपि ऐसा कोई पक्का नियम नहीं है तथापि साधारणतया खाताबही के एक पृष्ठ में एक ही खाता होता है। ऐसा अशुद्धियों एवं पूरी लिखावट के भद्देपन को दूर करने के लिए किया जाता है।
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यदि खातों की संख्या बहुत अधिक हो तो एक ही खाताबही में सब खातों को रखना संभव नहीं हो सकता। ऐसी दशा में बही को कई विभागों अथवा परिणामों में विभाजित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए रोकड़ बही खाताबही का ही एक उपविभाजन हैं। इसमें रोकड़ के सौदे लिखे जाते हैं।
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खाताबही को विभाजित करने का एक-तरीका उसे व्यक्तिग और अव्यक्तिगत या साधारण खाताबही में विभाजित करना है। व्यक्तिगत खाताबही को आगे विक्रय खाताबही के खाते में उपविभाजित किया जा सकता है। इसी प्रकार से खाताबही को भी वास्तविक खाताबही और नाम मात्र खाताबही में उपविभाजित किया जा सकता है। कभी-कभी पूंजी खाता और आहरण खाता रखने के लिए निजी खाताबही रखी जाती है। परन्तु कम्पनी में ऐसी कोई खाताबही नहीं रखी जाती है।
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यह नोट किया जाना चाहिए कि खाताबही को उपविभाजित करने की केवल अकेली उपरोक्त विधि ही नहीं है। विभाजित करने की विधियां प्रत्येक के के हालात पर निर्भर करती है। प्रत्येक खाताबही के आरम्भ में अभिसूचक होता है। सामान्यता यह वर्णात्मक अभिसूचक होता है। अभिसूचक का एक पृष्ठ वर्णमाला के एक अक्षर के लिए नियत कर दिया जाता है और जो नाम जिस अक्षर से आरम्भ होते हैं वे उस अक्षर के लिए नियत पृष्ठ पर लिख दिए जाते हैं। अभिसूचक में प्रत्येक खाते के सामने खाताबही के उस पृष्ठ की संख्या लिख दी जाती है जिस पर वह खाता खोला गया है।
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व्यापार में खाताबही के कई प्रारूप मिलते हैं। सर्वसामान्य प्रारूप में तिथि, सौदे का विवरण, पृष्ठांक और धनराशि के लिए स्तम्भ होते हैं। व्यापारिक आवश्यकताओं के अनुरूप अतिरिक्त घन-राशि स्तम्भ जोड़े जा सकते हैं। प्रारूप का एक वैकल्पिक रूप, जिसे बैंको और कुछ व्यवसायिक संस्थाओं मे अपाना जाता है, वह है जिसके खाताबही के पूरे पृष्ठ को छह स्तम्भों में बांट दिया जाता है। ये स्तम्भ हैं -
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इस वैकल्पिक प्रारूप का लाभ यह है कि प्रत्येक सौदे के उपरान्त खाते का शेष अपने आप निकाला जा सकता है शेष ज्ञात करने के लिए वर्ष की समाप्ति तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती हैं।
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रोजनामचे एवं अन्य सहायक पुस्तको से खाताबही में प्रविष्टियां करने की प्रक्रिया को खतौनी कहा जाता है। रोजनामचे एवं अन्य सहायक पुस्तकों में दी गई प्रविष्टियों के लिए आधार बनाती है। खतौनी के कार्य के लिए विशेष कुशलता की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि यह सामान्य प्रकार का कार्य है।
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प्रविष्टियों के रोजनामचे में लिखने के पश्चात् खाताबही में खताया जाना चाहिए। अन्य सहायक पुस्त्कों की खतौनी से रोजनामचे की खतौनी आसान है। रोजनामचे के डेबिट पक्ष के धन-राशि स्तम्भ में लिखी गई धनराशि को खाताबही में सम्बन्धित खाते के क्रेडिट पक्ष मे खताया जाता है और क्रेडिट पक्ष के धन-राशि स्तम्भ में लिखी गई धनराशि को खाताबही में सम्बन्धित खाते के क्रेडिट पक्ष में खताया जाता है। खाताबही के विवरण स्तम्भ में खातों के नाम अदल-बदल कर दिए जाते हैं - रोजनामचे के उस खाते का नाम जिसमें कि धन-राशि डेबिट की गई है। खाताबही में दूसरे खाते के क्रेडिट पक्ष के विवरण स्तम्भ में लिखा जाएगा। इसी प्रकार से इसका विपरीत भी सही है। यह निम्नलिखित उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है।
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खाताबही में प्रत्येक लेनदार का एक अलग खाता खोला जाता है। प्रत्येक क्रय की धन-राशि उससे सम्बन्धित व्यक्तिगत खाते में साधारणतया प्रतिदिन क्रेडिट की जाएगी। इस पुस्तक की द्वि-प्रविष्टि कुल क्रयों का आवधिक योग के क्रय खाते में डेबिट करने से पूर्ण होगी।
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खाता पुस्तक में प्रत्येक देनदार का एक अलग खाता खोलना होगा। साधारणतया उधार बिक्रि को वैयक्ति खाते में प्रतिदिन खताया जाता है। ग्राहकों के वैयक्ति खाते को विक्रय की धनराशि से डेबिट किया जाएगा। विक्रय खाता उधार बिक्री के मासिक योग से क्रेडिट किया जाएगा। इस प्रकार इस पुस्तक की द्वि-प्रविष्टि पूर्ण की जाएगी।
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खातबही में उस प्रत्येक व्यक्ति, जिसे माल लौटाया गया है, को ‘डेबिट किया जाता है और महीने के अन्त में वापसियों के आवधिक योग को खाताबही में क्रय वापसी खाते में क्रेडिट किया जाता है।
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उस प्रत्येक ग्राहक को जो माल लौटाता है, क्रेडिट किया जाता है और महीने के अन्त में विक्रय-वापसी पुस्तक के योग के विक्रय-वापसी खाते को डेबिट किया जाता है।
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रोकड़ की सभी मदों को खाताबही में खाताबही में खताया जाता है। रोकड़ बही के डेबिट पक्ष में लिखी सभी प्राप्तियों को सम्बन्धित खातों के क्रेडिट में ‘रोकड़ से’, बैंक से’, ‘छूट से’ लिखकर खताया जा���ा है। रोकड़ बही के क्रेडिट पक्ष में लिखे गये सभी भुगतानों को सम्बन्धित खातों के डेबिट में ‘रोकड से’, ‘छूट से’, बैंक से’ लिखकर खताया जाता है। रोकड़ बही के डेबिट पक्ष के छूट सत्म्भ के योग को खाताबही में छूट खाते के डेबिट पक्ष में लिखा जाता है। क्योंकि मदें व्यक्तिगत खातों के क्रेडिट पक्ष में खताई जाती है। मदों को व्यक्तिगत खातों के डेबिट में खताई जाने की वजह से रोकड़ बही के क्रेडिट पक्ष के छूट स्तम्भ के योग को खाताबही में छूट खाते के क्रेडिट पक्ष में लिखा जाता है।
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उस व्यक्ति, जिससे विनमय-विपत्र मिला है, का खाता विपत्र की धन-राशि से क्रेडिट कर दिया जाता है। प्राप्त विपत्रों के मासिक योग से खाताबही में प्राप्य-विनिमय-विपत्र खाता डेबिट किया जाता है।
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उस व्यक्ति, जिसको विपत्र दिया जाता है, का खाता विपत्र की धन-राशि से डेबिट किया है। देय विपत्रों के मासिक योग से खाताबही में देय विनिमय विपत्र खाते को क्रेडिट किया जाता है।
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आवधिक अन्तराल पर खुदरा रोकड़ बही के वैश्लेषक स्तम्भों द्वारा दर्शाए गए खुदरा व्ययों के विश्लेषण की जनरल प्रविष्टि की जाती है। प्रत्येक नाम मात्र के खाते को उसके सम्बिन्ध योग से डेबिट किया जाता है और खुदरा रोकड़ खात अवधि में किए गए कुल खुदरा व्ययों की से क्रेडिट किया जात है।
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यह पता लगाने के लिए कि एक विषेश व्यक्ति से क्या लेना है या एक विषेश व्यक्ति को क्या देना है, उसके व्यक्तिगत खाते का शेष निकालना आवश्यक है। इस प्रक्रिया को खाते बन्द करना कहते हैं।
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एक खाते का शेष निकालने के लिए उसके दोनों पक्षों का योग लगाया जाता है। यदि दोनों पक्ष बराबर नहीं होते, तो दोनों पक्षों को बराबर करने के लिए अन्तर की कमी वाले पक्ष में लिख दिया जाता है। कमी वाले पक्ष में लिखने के लिए जो अन्तर इस प्रकार प्राप्त किया जाता है उसे उस खाते का शेष कहते हैं।
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यदि डेबिट पक्ष का योग क्रेडिट पक्ष के योग से अधिक है तो शेष को श्ठल ठंसंदबम बधकश्लिख कर क्रेडिट पक्ष लिख दिया जाता है। ऐसी दशा में उस शेष को डेबिट शेष कहा जाता है। दूसरे वर्ष के आरम्भ में इस शेष को खाता खोलने समय श्ठल इंसंदबम इधकश्लिख कर डेबिट पक्ष में लिख दिया जाता है। इसी प्रकार से यदि क्रेडिट पक्ष का योग डेबिट पक्ष के योग से अधिक है तो शेष को श्ठल इंसंदबम इधकश्लिखकर क्रेडिट पक्ष में लिख दिया जाता है। इस शेष को क्रेडिट शेश काहा जाता है।
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वास्तविक खाते व्यापार की सम्पत्तियों को दर्शाते हैं। इस खातों के शेष चिट्ठे की तिथि पर व्यापार के अधिकार वाली सम्पत्तियों की धन-राशि ज्ञात करने के लिए निकाले जाते हैं। इनका शेष भी उसी प्रकार निकाला जाता है। जिस प्रकार व्यक्तिगत खातों का शेष निकाला जाता है। यह नोट किया जाना चाहिए कि वास्तविक खातों का शेष हमेशा डेबिट ही होता है या कोई शेष नहीं होता अर्थात् उनका शेष कभी भी क्रेडिट शेष नहीं हो सकता।
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नाम मात्र खाते व्यापार के व्ययों, हानियों आयों तथा लाभों से सम्बन्ध रखते हैं। इनका शेष नहीं निकाला जाता है। वस्तुतः इन्हें व्यापार खाते अथवा लाभ-हानि खाते में स्थानान्तरित करके बन्द कर दिया जाता है।
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टिप्पणी
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खातों का शेष निकालते हुए या उसको बन्द करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि दोनों पक्षों का जोड़ एक सीध में लिखा जाए। यदि खातों में केवल एक ही प्रविष्टि है तो जोड़ लगाना आनावश्यक है। प्रविष्टि के नीचे खीची दोहरी रेखा का तात्पर्य यह होगा कि वह प्रविष्टि ही स्वयं का जोड़ है। इसी प्रकार यदि एक खाते की दोनों ओर समान धन-राशि वाली एक-एक प्रविष्ट है तो भी जोड़ लगाना अनावश्यक होगा।
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सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट,
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धुंडिराज गोविन्द फालके उपाख्य दादासाहब फालके वह महापुरुष हैं जिन्हें भारतीय फिल्म उद्योग का 'पितामह' कहा जाता है।
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दादा साहब फालके, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे, शौकिया जादूगर थे। कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। प्रिंटिंग के जिस कारोबार में वह लगे हुए थे, 1910 में उनके एक साझेदार ने उससे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया। उस समय इनकी उम्र 40 वर्ष की थी कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था। उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर ‘ईसामसीह’ पर बनी एक फिल्म देखी। फिल्म देखने के दौरान ही फालके ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है। उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी। उनके पास सभी तरह का हुनर था। वह नए-नए प्रयोग करते थे। अतः प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के चलते प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करनेवाले वह पहले व्यक्ति बने।
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उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। फिर दिन में 20 घंटे लगकर प्रयोग किये। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिये । उनके अपने मित्र ही उनके पहले आलोचक थे। अतः अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई। फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को एक समय में एक फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। इस तरह से बनी अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त करने में वह सफल रहे।
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फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वह इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। इन्होंने ‘राजा हरिशचंद्र’ बनायी। चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अतः सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी। अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े। महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे । होटल का एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की। शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे । छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में यह रिलीज की गई। पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, अतः यह फिल्म जबरदस्त हिट रही।
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फालके के फिल्मनिर्मिती के प्रयास तथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म 'हरिश्चंद्राची फॅक्टरी' 2009 में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया।
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दादासाहब फालके का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फालके है और इनका जन्म महाराष्ट्र के नाशिक शहर से लगभग 20-25 किमी की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर में 30 अप्रैल 1870 ई. को हुआ था। इनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और मुम्बई के एलफिंस्तन कालेज में प्राध्यापक थे। इस कारण दादासाहब की शिक्षा-दीक्षा मुम्बई में ही हुई। 25 दिसम्बर 1891 की बात है, मुम्बई में 'अमेरिका-इंडिया थिएटर' में एक विदेशी मूक चलचित्र "लाइफ ऑफ क्राइस्ट" दिखाया जा रहा था और दादासाहब भी यह चलचित्र देख रहे थे। चलचित्र देखते समय दादासाहब को प्रभु ईसामसीह के स्थान पर कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम इत्यादि महान विभूतियाँ दिखाई दे रही थीं। उन्होंने सोचा क्यों नहीं चलचित्र के माध्यम से भारतीय महान विभूतियों के चरित्र को चित्रित किया जाए। उन्होंने इस चलचित्र को कई बार देखा और फिर क्या, उनके हृदय में चलचित्र-निर्माण का अंकुर फूट पड़ा।
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उनमें चलचित्र-निर्माण की ललक इतनी बड़ गई कि उन्होंने चलचित्र-निर्माण संबंधी कई पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन किया और कैमरा लेकर चित्र खीं��ना भी शुरु कर दिया।जब दादासाहब ने चलचित्र-निर्माण में अपना ठोस कदम रखा तो इन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जैसे-तैसे कुछ पैसों की व्यवस्था कर चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरणों को खरीदने के लिए दादासाहब लंदन पहुँचे। वे वहाँ बाइस्कोप सिने साप्ताहिक के संपादक की मदद से कुछ चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरण खरीदे और 1912 के अप्रैल माह में वापस मुम्बई आ गए। उन्होने दादर में अपना स्टूडियो बनाया और फालके फिल्म के नाम से अपनी संस्था स्थापित की। आठ महीने की कठोर साधना के बाद दादासाहब के द्वारा पहली मूक फिल्म "राजा हरिश्चंन्द्र" का निर्माण हुआ। इस चलचित्र के निर्माता, लेखक, कैमरामैन इत्यादि सबकुछ दादासाहब ही थे। इस फिल्म में काम करने के लिए कोई स्त्री तैयार नहीं हुई अतः लाचार होकर तारामती की भूमिका के लिए एक पुरुष पात्र ही चुना गया। इस चलचित्र में दादासाहब स्वयं नायक बने और रोहिताश्व की भूमिका उनके सात वर्षीय पुत्र भालचन्द्र फालके ने निभाई। यह चलचित्र सर्वप्रथम दिसम्बर 1912 में कोरोनेशन थिएटर में प्रदर्शित किया गया। इस चलचित्र के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में "भस्मासुर मोहिनी" और "सावित्री" बनाई। 1915 में अपनी इन तीन फिल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए। लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई। कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर 1937 में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम सवाक फिल्म "गंगावतरण" बनाई। दादासाहब ने कुल 125 फिल्मों का निर्माण किया। 16 फ़रवरी 1944 को 74 वर्ष की अवस्था में पवित्र तीर्थस्थली नासिक में भारतीय चलचित्र-जगत का यह अनुपम सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया। भारत सरकार उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष चलचित्र-जगत के किसी विशिष्ट व्यक्ति को 'दादा साहब फालके पुरस्कार' प्रदान करती है।
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दादासाहब नें 19 साल के लंबे करियर में कुल 95 फिल्में और 27 लघु फिल्मे बनाईं।
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तुकोजीराव होल्कर प्रथम अहिल्याबाई होल्कर का सेनापति था तथा उसकी मृत्यु के बाद होल्करवंश का शासक बन गया था। दूरदर्शिता के अभाव तथा प्रबल महत्वाकांक्षावश इसने महादजी शिन्दे से युद्ध मोल लिया था तथा अंततः पूर्णरूपेण पराजित हुआ था।
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बाजीराव प्रथम के समय से ही 'शिन्दे' तथा 'होल्कर' मराठा साम्राज्य के दो प्रमुख आधार स्तंभ थे। राणोजी शिंदे एवं मल्हारराव होलकर शिवाजी महाराज के सर्वप्रमुख सरदारों में से थे, लेकिन इन दोनों परिवारों का भविष्य सामान्य स्थिति वाला नहीं रह पाया। राणोजी शिंदे के सभी उत्तराधिकारी सुयोग्य हुए जबकि मल्हारराव होलकर की पारिवारिक स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो गयी। उनके पुत्र खंडेराव के दुर्भाग्यपूर्ण अंत के पश्चात अहिल्याबाई होल्कर के स्त्री तथा भक्तिभाव पूर्ण महिला होने से द्वैध शासन स्थापित हो गया। राजधानी में नाम मात्र की शासिका के रूप में अहिल्याबाई होल्कर थी तथा सैनिक कार्यवाहियों के लिए उन्होंने तुकोजी होलकर को मुख्य कार्याधिकारी बनाया था। कोष पर अहिल्याबाई अपना कठोर नियंत्रण रखती थी तथा तुकोजी होलकर कार्यवाहक अधिकारी के रूप में उनकी इच्छाओं तथा आदेशों के पालन के लिए अभियानों एवं अन्य कार्यों का संचालन करता था। अहिल्याबाई भक्ति एवं दान में अधिक व्यस्त रहती थी तथा सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप सेना को उन्नत बनाने पर विशेष ध्यान नहीं दे सकी। तुकोजी होलकर अत्यधिक महत्वाकांक्षी परंतु अविवेकी व्यक्ति था। आरंभ में मराठा अभियानों में वह महाद जी के साथ सहयोगी की तरह रहा। तब तक उसकी स्थिति भी अपेक्षाकृत सुदृढ़ रही। बालक पेशवा माधवराव नारायण की ओर से बड़गाँव तथा तालेगाँव के बीच ब्रिटिश सेना की पराजय, रघुनाथराव के समर्पण तथा मराठों की विजय में महादजी के साथ तुकोजी होलकर का भी अल्प परंतु संतोषजनक भाग था।
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सन् 1780 में तुकोजी महादजी से अलग हो गया। उसके बाद महादजी ने राजनीतिक क्षेत्र में भारी उन्नति प्राप्त की तथा तुकोजी का स्थान काफी नीचा हो गया। वस्तुतः तुकोजी में दूरदर्शिता का अभाव था। वह अपने अधीनस्थ व्यक्तियों एवं सचिवों के हाथ की कठपुतली की तरह था। विशेषतः उसके सचिव नारोशंकर का उस पर अनर्गल प्रभाव था। इन्हीं कारणों से अहिल्याबाई का मुख्य कार्यवाहक होने के बावजूद स्वयं अहिल्याबाई उस पर अधिक विश्वास न���ीं करती थी। लालसोट के संघर्ष के बाद 1787 में महादजी द्वारा सहायता भेजे जाने के अनुरोध पर नाना फडणवीस ने पुणे से अली बहादुर तथा तुकोजी होलकर को भेजा था; परंतु एक तो इन दोनों ने पहुँचने में अत्यधिक समय लगाया और फिर पहुँचकर भी महादजी से वैमनस्य उत्पन्न कर लिया। तुकोजी जीते गये प्रांतों में हिस्सा चाह रहा था और स्वभावतः महादजी का कहना था कि यदि हिस्सा चाहिए तो पहले विजय हेतु व्यय किये गये धन को चुकाने में भी हिस्सा देना चाहिए। राजपूत संघ द्वारा उत्पन्न महादजी के कष्टों को दूर करने के स्थान पर तुकोजी ने उनके शत्रुओं का पक्ष लिया तथा महादजी के प्रयत्नों को निर्बल बनाने में योगदान दिया। वस्तुतः तुकोजी मदिरा-व्यसनी सैनिक मात्र था। प्रशासन के कार्यों में मुख्यतः वह अपने षड्यंत्रकारी सचिव नारों गणेश के हाथों का खिलौना बनकर ही रह गया था। अहिल्याबाई तथा तुकोजी जो प्रायः समवयस्क थे कभी समान मतवाले होकर नहीं रह पाये। अहिल्याबाई ने तुकोजी को पदच्युत करने का भी प्रयत्न किया परंतु उनके परिवार में कोई अन्य व्यक्ति ऐसा था भी नहीं जो कि सेना का नियंत्रण संभाल सकता। अतः कोष पर अहिल्याबाई की पकड़ बनी रही और सैनिक अभियानों में तुकोजी होलकर को भुखमरी की स्थिति तक का सामना करना पड़ा।
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तुकोजी होल्कर के चार पुत्र थे-- काशीराव, मल्हारराव, विठोजी तथा यशवंतराव। इनमें से प्रथम दो औरस पुत्र थे तथा अंतिम दो अनौरस । परंतु ये सभी मदिरा-व्यसनी और नीच प्रकृति के थे। मदिरापान करके उन्मुक्त होकर चिल्लाते हुए ये एक दूसरे के गले पकड़ लेते थे। सन् 1791 में महादजी ने अपना उत्तर भारतीय कार्य सफलतापूर्वक संपन्न कर लिया तथा सफलता एवं वैभव के शिखर पर आसीन होकर दक्षिण लौटे। होल्कर के उपभोग के लिए कोई वास्तविक सत्ता या कार्यक्षेत्र रह नहीं गया था। इससे तुकोजी होलकर के साथ अहिल्याबाई भी काफी निराश हुई तथा महादजी के प्रति ये दोनों ईर्ष्या-ग्रस्त हो गये।
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अगस्त 1790 में महादजी ने मथुरा में विधिपूर्वक उस शाही फरमान को ग्रहण करने के लिए उत्सव किया, जिसके द्वारा वे साम्राज्य के सर्व सत्ता प्राप्त एकमात्र राज्य प्रतिनिधि नियुक्त किये गय थे। भव्य दरबार का प्रबंध किया गया था। तुकोजी को छोड़कर इस दरबार में समस्त सामंत उपस्थित हुए। तुकोजी ने इस दरबार में भाग लेना अस्वीकार कर के एक प्रकार से महा��जी का सार्वजनिक अपमान किया था।
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तुकोजी लगातार पेशवा की आज्ञाओं को भी नजरअंदाज कर रहा था तथा 1792 में शिंदे के विरुद्ध उसने सरदारों को भी उभारा। परिणामस्वरूप महादजी ने उसका सर्वनाश करने का निश्चय किया। 8 अक्टूबर 1792 को महादजी की ओर से गोपाल राव भाऊ ने सुरावली नामक स्थान पर होलकर पर आकस्मिक आक्रमण किया। अनेक सैनिक मारे गए परंतु खुद तुकोजी होलकर बंदी होने से बच गया। यद्यपि बापूजी होलकर तथा पाराशर पंत के प्रयत्न से इस प्रकरण में समझौता हो गया, परंतु इंदौर में अहिल्याबाई तथा तुकोजी के उद्धत पुत्र मल्हारराव द्वितीय को यह अपमानजनक लगा। बाहरी दुनिया से अनभिज्ञ होने के कारण अहिल्याबाई ने मल्हारराव के रण में अधिकारपूर्वक जाने देने के उद्धत प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। उसने मनचाही सेना तथा धन लेकर अपने पिता के शिविर में पहुँचकर समझौते तथा बापूजी एवं पाराशर पंत के परामर्श का उल्लंघन कर महादजी के बिखरे अश्वारोहियों पर आक्रमण आरंभ कर दिया। गोपालराव द्वारा समाचार पाकर महादजी ने आक्रमण का आदेश दे दिया।
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लाखेरी में हुए इस युद्ध के बारे में माना गया है कि इतना जोरदार युद्ध उत्तर भारत में कभी नहीं हुआ था। होल्कर के अश्वारोही दल की संख्या लगभग 25,000 थी। उनके साथ करीब 2,000 डुड्रेनेक की प्रशिक्षित पैदल सेना थी, जिसके पास 38 तोपें थीं। महादजी के प्रतिनिधि गोपालराव 20,000 अश्वारोही, 6,000 प्रशिक्षित पैदल तथा फ्रेंच शैली की उन्नत 80 हल्की तोपें लेकर होल्कर के सामने डट गया। प्रथम टक्कर 27 मई 1793 को हुई तथा निर्णायक युद्ध 1 जून 1793 को हुआ। महादजी के अनुभवसिद्ध प्रबंधक जीवबा बख्शी तथा दि बायने की चतुर रण शैली के कारण होल्कर की समस्त सेना का लगभग सर्वनाश हो गया। उद्धत मल्हारराव सड़क किनारे एक तालाब के पास मदिरा के नशे में अचेत पकड़ा गया।
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तुकोजी होल्कर का अहंकार चूर्ण हो गया और वह इंदौर लौट गया। 'रस्सी जल गयी परंतु ऐंठन नहीं गयी'। लौटते हुए उसने शिंदे की राजधानी उज्जैन को निर्दयतापूर्वक लूटकर अपनी प्रतिशोध-भावना को शांत किया।
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उक्त घटना के बाद तुकोजी प्रायः शांत रहा। 1795 में निजाम के विरुद्ध मराठों के खरडा के युद्ध में अत्यंत वृद्धावस्था में उसने भाग लिया था। 1795 ई0 में अहिल्याबाई का देहान्त हो जाने पर तुकोजी ने इंदौर का राज्याधिकार ग्रहण किया। अपनी अंतिम अवस्था में तुकोजी पुणे में ही रहा। अपने अविनीत पुत्रों तथा विभक्त परिवार का नियंत्रण करने में वह असमर्थ रहा। 15 अगस्त 1797 को पुणे में ही तुकोजी का निधन हो गया।
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उत्तराखण्ड के नैनीताल ज़िले में स्थित हल्द्वानी राज्य के सर्वाधिक जनसँख्या वाले नगरों में से है। इसे "कुमाऊँ का प्रवेश द्वार" भी कहा जाता है।
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भाभर क्षेत्र, जहां हल्द्वानी स्थित है, प्राचीन काल में एक अभेद्य जंगल माना जाता था। दलदल भूमि, अत्यधिक गर्मी, महीनों तक चलने वाली बारिश, जंगली जानवर, विभिन्न प्रकार के रोग, और परिवहन के कोई साधन नहीं होने के कारण यहां कभी भी बड़ी संख्या में लोग नहीं बसे। यही वजह है कि इस क्षेत्र में कोई ऐतिहासिक मानव-बस्तियां होने का उल्लेख नहीं हैं।
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मुग़ल इतिहासकारों ने इस बात का उल्लेख किया है की 14 वीं शताब्दी में एक स्थानीय शाशक, ज्ञान चन्द, जो चन्द राजवंश से सम्बंधित था, दिल्ली सल्तनत पधारा और उसे भाभर-तराई तक का क्षेत्र उस समय के सुलतान से भेंट स्वरुप मिला। बाद में मुग़लों द्बारा पहाड़ों पर चढ़ाई करने का प्रयास किया गया, लेकिन क्षेत्र की कठिन पहाड़ी भूमि के कारण वे सफल नहीं हो सके। कीर्ति चंद के राज से पहले यह क्षेत्र स्थानीय सरदारों के अधीन भी रहा।
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16वीं शताब्दी की शुरुआत में, इस क्षेत्र में बुक्सा जनजाति के लोग बसने लगे थे। हल्दु के वनों की प्रचुरता के कारण इस क्षेत्र को बाद में हल्दु वनी कहा जाने लगा। दक्षिण में तराई क्षेत्र में भी उस समय घने जंगलों का समावेश था, और यहां मुगल बादशाह अक्सर शिकार खेलने आया करते थे।
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सन् 1816 में गोरखाओं को परास्त करने के बाद गार्डनर को कुमाऊँ का आयुक्त नियुक्त किया गया। बाद में जॉर्ज विलियम ट्रेल ने आयुक्त का पदभार संभाला और 1834 में हल्दु वनी का नाम हल्द्वानी रखा। ब्रिटिश अभिलेखों से हमें ये ज्ञात होता है कि इस स्थान को 1834 में एक मण्डी के रूप में उन लोगों के लिए बसाया गया था जो शीत ऋतु में भाभर आया करते थे। प्राचीन शहर मोटा हल्दु में स्थित था, और उस समय वहां केवल घास के घर थे। 1850 के बाद ही ईंट के घरों का निर्माण शुरू हो पाया। 1831 में नगर का पहला अंग्रेजी माध्यमिक विद्यालय स्थापित किया गया था।
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सन् 1856 में सर हेनरी रैम्से ने कुमाऊँ के आयुक्त का पदभार संभाला। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस क्षेत्र पर थोड़े समय के लिये रोहिलखण्ड के विद्रोहियों ने अधिकार कर लिया। तत्पश्चात सर हेनरी रैम्से द्वारा यहाँ मार्शल लॉ लगा दिया गया और 1858 तक इस क्षेत्र को विद्रोहियों से मुक्त करा लिया गया। वो रोहिल्ला, जिन पर हल्द्वानी पर हमला करने का आरोप लगा था, नैनीताल के फांसी गधेरा में अंग्रेजों द्वारा फांसी पर चढ़ा दिये गये थे। इसके बाद सन् 1882 में रैम्से ने नैनीताल और काठगोदाम को सड़क मार्ग से जोड़ दिया। सन् 1883-84 में बरेली और काठगोदाम के बीच रेलमार्ग बिछाया गया। 24 अप्रैल, 1884 के दिन पहली रेलगाड़ी लखनऊ से हल्द्वानी पहुंची और बाद में रेलमार्ग काठगोदाम तक बढ़ा दिया गया।
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1891 तक अलग नैनीताल ज़िले के बनाने से पहले तक हल्द्वानी कुमांऊ ज़िले का भाग था जिसे अब अल्मोड़ा ज़िले के नाम से जाना जाता है। 1885 में टाउन अधिनियम लागू होने के बाद 1 फरवरी, 1897 को हल्द्वानी को नगरपालिका घोषित किया गया। सन् 1899 में यहां तहसील कार्यालय खोला गया था, जब यह भाभर का तहसील मुख्यालय बनाया गया। भाभर नैनीताल ज़िले के चार भागों में से एक था, और कुल 4 क़स्बों और 511 ग्रामों के साथ 1901 में इसकी कुल जनसँख्या 93,445 थी और ये 3,313 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ था।
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सन् 1901 में यहाँ की जनसँख्या 6,624 थी और आगरा व अवध के सयुंक्त प्रान्त के नैनीताल ज़िले के भाभर क्षेत्र का मुख्यालय हल्द्वानी में ही स्थित था। भाभर क्षेत्र का मुख्यालय के साथ ही ये कुमाऊँ मण्डल और नैनीताल ज़िले की शीत कालीन राजधानी भी हुआ करता था। सन् 1901 में आर्य समाज भवन और 1902 में सनातन धर्मं सभा का निर्माण किया गया। सन् 1904 में हल्द्वानी की नगर पालिका को रद्द कर इसे "अधिसूचित क्षेत्र" की श्रेणी में रख दिया गया था। 1907 में हल्द्वानी को क़स्बा क्षेत्र घोषित किया गया। शहर का पहला अस्पताल 1912 में खुला।
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1918 में हल्द्वानी ने कुमाऊं परिषद के दूसरे सत्र की मेजबानी की। पंडित तारा दत्त गैरोला रायबहादुर के नेतृत्व में 1920 में रॉलेट एक्ट और कुली-बेगार के विरोध में विरोध प्रदर्शन किया गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान भी 1930 और 1934 के बीच शहर में कई जुलूस निकाले गए थे। 1940 के हल्द्वानी सम्मेलन में ही बद्री दत्त पाण्डेय ने संयुक्त प्रांत में कुमाऊं के पहाड़ी इलाकों को विशेष दर्जा देने के लिए आवाज़ उठाई थी।
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1947 में जब भारत ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र हुआ तब हल्द्वानी एक मध्यम आकार का शहर था और इसकी आबादी लगभग 25,000 थी। शहर का 1950 में विद्युतीकरण किया गया था। नागा रेजिमेंट की दूसरी बटालियन, जिसे हेड हंटर के नाम से भी जाना जाता है, 11 फरवरी 1985 को हल्द्वानी में ही स्थापित की गई थी। ह���्द्वानी ने उत्तराखंड आंदोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई।
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जब 1837 में हल्द्वानी की स्थापना की गई थी, तो ज्यादातर इमारतें मोटा हल्दु के आसपास थीं। शहर धीरे-धीरे उत्तर की ओर वर्तमान बाजार और रेलवे स्टेशन की ओर विकसित होता गया। हल्द्वानी बाजार से 4 किमी दूर दक्षिण में गोरा पड़ाव नामक क्षेत्र है। 19 वीं सदी के मध्य में यहाँ एक ब्रिटिश कैंप हुआ करता था जिसके नाम पर इस क्षेत्र का नाम पड़ा। विकास प्राधिकरण की अनुपस्थिति के कारण 2000 के दशक की शुरूआत में बिना किसी नियमन के, संकीर्ण सड़कों के साथ ही, दर्जनों कालोनियों की स्थापना हुई। 31 अक्टूबर 2005 को उत्तराखंड सरकार द्वारा उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
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हल्द्वानी के गौलापार क्षेत्र में 9 मई 2017 को हल्द्वानी आईएसबीटी के निर्माण के दौरान 40 मानव कंकाल और 300 'कब्र-जैसी संरचनाएं' पाई गई। इन मानव अस्थि अवशेषों के बारे में विशेषग्यों का मानना था कि ये बरेली के रोहिला सरदारों के हो सकते हैं जो 1857 में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हुए थे। एक और मत यह भी था कि ये अवशेष किसी महामारी, मलेरिया या अकाल के दौरान काल कवलित हो गये लोगों के भी हो सकते हैं। लेकिन जांच में पता चला है कि नरकंकाल केवल एक से डेढ़ साल पुराने थे।
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अल्मोड़ा · उत्तरकाशी · उधम सिंह नगर · चमोली गढ़वाल · चम्पावत · टिहरी गढ़वाल · देहरादून · पिथौरागढ़ · पौड़ी गढ़वाल · बागेश्वर · रुद्रप्रयाग · हरिद्वार
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यह पन्ना हिन्दी भाषा के कवि-सम्मेलन के लिए बनाया गया है। उर्दू कवि सम्मेलन के लिए मुशायरा पृष्ठ देखें।
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कवि सम्मेलन भारतीय संस्कृति में लोक परंपरागत जनसंचार माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित है। मनोरंजन और लोकशिक्षण के समन्वय की यह विधा वास्तव में साहित्य, संस्कृति तथा भाषा का संगम है। श्रृंगार, ओज तथा हास्य कवि सम्मेलन के प्रमुख रस हैं। गीत, ग़ज़ल, मुक्तछंद, दोहा, घनाक्षरी, आल्हा तथा रोला छंद कवि सम्मेलनों में पढ़ी जाने वाली कविताओं में प्रमुखता से दिखाई देते हैं।कवि सम्मेलन में अलग-अलग रस के कवि एकत्रित होकर काव्यपाठ करते हैं। त्वरित टिप्पणियाँ तथा बतरस के साथ जुड़कर कविता श्रोताओं का ज्ञानवर्द्धन करने के साथ साथ मनोरंजन का भी कार्य करती है।
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कहे कवि कविता से,
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तुम मेरी जीवन आधार।
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तुम से ही अस्तित्व मेरा,
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तुमसे मेरा संसार ॥
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कवियों का संसार में एक अलग महत्व है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं में एक कवि है। यह इतिहास उन महान कवियों का सम्मान करता है। जो संसार को ढेरों ज्ञान से भर गये। जो स्वयं का भविष्य रचता है, वह भी एक कवि है। मैं स्वयं को उस पहलू पर न पहुँचा सकी। जिस पहलू पर एक कवि होता है। मेरा परिचय—अनुराधा त्रिपाठी
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कवि सम्मेलन का इतिहास बहुत पुराना है। इसलिए कवि-सम्मेलनों के आरम्भ की तिथि ज्ञात करना सम्भव नहीं है। परन्तु 1920 में पहला वृहद कवि सम्मेलन हुआ था जिसमें कई कवि और श्रोता था। उसके बाद कवि सम्मेलन भारतीय संस्कृति का अभिन्न भाग बन गया। आज भारत ही नहीं, वरन पूरे विश्व में कवि सम्मेलनों का आयोजन बड़े पैमाने पर होता है। भारत में स्वतंत्रता के बाद से 80 के दशक के आरम्भिक दिनों तक कवि सम्मेलनों का 'स्वर्णिम काल' कहा जा सकता है। 80 के दशक के उत्तरार्ध से 90 के दशक के अंत तक भारत का युवा बेरोज़गारी जैसी कई समस्याओं में उलझा रहा। इसका प्रभाव कवि-सम्मेलनों पर भी हुआ और भारत का युवा वर्ग इस कला से दूर होता गया। मनोरंजन के नए उपकरण जैसे टेलीविज़न और बाद में इंटरनेट ने सर्कस, जादू के शो और नाटक की ही तरह कवि सम्मेलनों पर भी भारी प्रभाव डाला। कवि सम्मेलन सख्यां और गुणवत्ता, दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होते चले गए। श्रोताओं की संख्या में भी भारी गिरावट आई। इसका मुख्य कारण यह था कि विभ्न्न समस्याओं से घिरे युवा दोबारा कवि-सम्मेलन की ओर नहीं लौटे। साथ ही उन दि���ों भीड़ में जमने वाले उत्कृष्ट कवियों की कमी थी। लेकिन नई सहस्त्राब्दी के आरम्भ होते ही युवा वर्ग, जो कि अपना अधिकतर बचा हुआ समय इंटरनेट पर गुज़ारता था, कवि सम्मेलन को पसन्द करने लगा। इंटरनेट के माध्यम से कई कविताओं की वीडियो उस वर्ग तक पहुंचने लगी। युवाओं ने नय वीडियो तलाशना, उन्हें इंटरनेट पर अपलोड करना, डाउनलोड करना और आपस में बांटना आरम्भ किया। लगभग पांच वर्षों के भीतर लाखों युवा कवि सम्मेलनों को पसन्द करने लगे। इस पीढ़ी की कवि सम्मेलनों की ओर ज़ोरदार वापसी का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है, कि यू-ट्यूब नामक वेबसाईट पर एक कवि की प्रस्तुति को साढे मांच लाख से भी अधिक लोगों ने अब तक देखा है।
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2004 से ले कर 2010 तक का काल हिन्दी कवि सम्मेलन का दूसरा स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है। श्रोताओं की तेज़ी से बढती हुई संख्या, गुणवत्ता वाले कवियों का आगमन और सबसे बढ़ के, युवाओं का इस कला से वापस जुड़ना इस बात की पुष्टि करता है। पारम्परिक रूप से कवि सम्मेलन सामाजिक कार्यक्रमों, सरकारी कार्यक्रमों, निजी कार्यक्रमों और गिने चुने कार्पोरेट उत्सवों तक सीमित थे। लेकिन इक्कईसवीं शताब्दी के आरम्भ में शैक्षिक संस्थाओं में इसकी बढती संख्या प्रभावित करने वाली है। जिन शैक्षिक संस्थाओं में कवि-सम्मेलन होते हैं, उनमें आई आई टी, आई आई एम, एन आई टी, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन और अन्य संस्थान शामिल हैं। उपरोक्त सूचनाएं इस बात की तरफ़ इशारा करती है, कि कवि सम्मेलनों का रूप बदल रहा है।
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हिन्दी प्रेमी पूरी दुनिया में हिन्दी कवि सम्मेलन आयोजित करवाते हैं। विश्व का कोई भी भाग आज कवि सम्मेलनों से अछूता नहीं है। भारत के बाद सबसे अधिक कवि सम्मेलन आयोजित करवाने वाले देशों में अमरीका, दुबई, मस्कट, सिंगापोर, ब्रिटेन इत्यादि शामिल हैं। इनमें से अधिकतर कवि सम्मेलनों में भारत के प्रसिद्ध कवियों को आमंत्रित किया जाता है। भारत में वर्ष भर कवि सम्मेलन आयोजित होते रहते हैं। भारत में कवि सम्मेलन के आयोजकों में सामाजिक संस्थाएं, सांस्कृतिक संस्थाएं, सरकारी संस्थान, कार्पोरेट और शैक्षिक संस्थान अग्रणी हैं। पुराने समय में सामाजिक संस्थान सबसे ज़्यादा कवि-सम्मेलन करवाते थे, लेकिन इस सहस्त्राब्दी के शुरूआत से शैक्षिक संस्थानों ने सबसे ज़्यादा सम्मेलन आयोजित किए हैं।
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कवि सम्मेलनों के आयोजन के ढंग में भी भारी बदलाव आए हैं। यहां तक कि अब कवि सम्मेलन इंटरनेट पर भी बुक किए जाते हैं।
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कवि सम्मेलन के पारम्परिक रूप में अब तक बहुत अधिक बदलाव नहीं देखे गए हैं। एक पारम्परिक कवि सम्मेलन में अलग अलग रसों के कुछ कवि होते हैं और एक संचालक होता है। कवियों की कुल संख्या वैसे तो 20 या 30 तक भी होती है, लेकिन साधरणत: एक कवि सम्मेलन में 7 से 12 तक कवि होते हैं। 2005 के आस पास से कवि सम्मेलन के ढांचे में कुछ बदलाव देख्ने को मिले। अब तो एकल कवि सम्मेलन भी आयोजित किए जाते हैं । एक पारम्परिक कवि सम्मेलन में कवि मंच पर रखे गद्दे पर बैठते हैं। मंच पर दो माईकें होती हैं- एक वह, जिस पर खड़े हो कर कवि एक एक कर के कविता-पाठ करते हैं और दूसरा वो, जिसके सामने संचालक बैठा रहता है। संचालक सर्वप्रथम सभी कवियों का परिचय करवाता है और उसके बाद एक एक कर के उन्हें काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित करता है। इसका क्रम साधारणतया कनिष्ठतम कवि से वरिष्ठतम कवि तक होता है।
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कवि सम्मेलन मंचों पर अब तक हज़ारों कवि धाक जमा चुके हैं, लेकिन उनमें से कुछ ऐसे हैं जिनको मंच पर अपनी प्रस्तुति के लिए सदा याद किया जाएगा। उनमें से रामधारी सिंह 'दिनकर', सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',हरिवंश राय बच्चन, श्याम नारायण पाण्डेय, दामोदर स्वरूप 'विद्रोही', महादेवी वर्मा, काका हाथरसी, शैल चतुर्वेदी, बालकवि बैरागी, स्वर्गीय राजगोपाल सिंह, स्वर्गीय डॉ0 उर्मिलेश शंखधार, डा सुरेन्द्र शर्मा, उदय प्रताप सिंह, स्वर्गीय ओम प्रकाश आदित्य, स्वर्गीय हुल्लड़ मुरादाबादी, स्वर्गीय अल्हड़ बीकानेरी, स्वर्गीय नीरज पुरी, माया गोविन्द, प्रदीप चौबे, इंदिरा इंदु, माया गोविंद, प्रभा ठाकुर, स्वर्गीया मधुमिता शुक्ला, आशीष अनल, दुर्गादान गौड़, मधुप पाण्डेय, हरिओम पँवार, सूर्यकुमार पांडेय,दिनेश चन्द्र पाण्डेय, जगदीश सोलंकी, अरुण जैमिनी, विनय विश्वास, विष्णु सक्सेना, संजय झाला, विनीत चौहान, डॉ सरिता शर्मा, डॉ कीर्ति काले, सुरेंद्र दुबे, डॉसुनील जोगी, गजेंद्र सोलंकी, प्रवीण शुक्ल, डॉ सुमन दुबे, आश करण अटल, महेंद्र अजनबी, वेदप्रकाश वेद, स्वर्गीय ओम व्यास 'ओम' डॉ0 कुमार विश्वास, संपत सरल, शैलेश लोढ़ा, चिराग़ जैन, पवन दीक्षित, रमेश मुस्कान, तेज नारायण शर्मा, अर्जुन सिसोदिया, गजेंद्र प्रियांशु, सचिन अग्रवाल, मनीषा शुक्ला, संदीप शर्मा, राहुल व्यास, मनवीर मधुर, वीनू महेंद्र, कृष्णमित्र, स्वर्गीय शरद जोशी, स्वर्गीय आत्मप्रकाश शुक्ल, स्वर्गीय भारत भूषण, स्वर्गीय रमई काका, स्वर्गीय रामवतार त्यागी, स्वर्गीय देवल आशीष, घनश्याम अग्रवाल आदि अग्रणी हैं।
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पद्मभूषण गोपालदास नीरज, संतोष आनंद, पद्मश्री सुरेंद्र शर्मा,दिनेश चन्द्र पाण्डेय, पद्मश्री अशोक चक्रधर,दिनेश चन्द्र पाण्डेय, डॉ कुँवर बेचैन, डॉ हरिओम पँवार, सोम ठाकुर, सत्यनारायण सत्तन, माहेश्वर तिवारी, ममता कालिया ,पद्मश्री सुनील जोगी, अरुण जैमिनी, संपत सरल, कुमार विश्वास, रचना अग्रवाल, शैलेश लोढ़ा, महेंद्र अजनबी, बालकवि बैरागी, किशन सरोज, चिराग़ जैन
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https://www.youtube.com/watch?v=MkW7UPBVOSw
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निर्देशांक: 25°53′N 86°36′E / 25.88°N 86.6°E / 25.88; 86.6
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सहरसा भारत के बिहार प्रान्त का एक जिला एवं शहर है। जिले के रूप में सहरसा की स्थापना 1 अप्रैल 1954 को हुई थी जबकि 2 अक्टुबर 1972 से यह कोशी प्रमण्डल का मुख्यालय है। यहाँ कन्दाहा में सूर्य मंदिर एवं प्रसिद्ध माँ तारा स्थान महिषी ग्राम में स्थित है। प्राचीन काल से यह स्थान आदि शंकराचार्य तथा यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ के लिए भी विख्यात रहा है।द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री बिहार श्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल का जन्मस्थल ।
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यहाँ ब्राह्मणों का एक संगठन है जिसका नाम आज़ाद युवा विचार मंच है। यह संगठन ज़रूरतमन्दों को रक्त प्रदान करता है । इसके अतिरिक्त मंच स्वच्छता अभियान और धार्मिक प्रतिमाओं की सफ़ाई में भी आगे है।
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सहरसा मिथिला राज्य का हिस्सा था| बाद में मिथिला मगध साम्राज्य के विस्तारवाद का शिकार हो गया। बनमनखी-फारबिसगंज रोड पर सिकलीगढ में एवं किशनगंज पुलिस स्टेशन के पास मौर्य स्तंभ मिलने से यह बात प्रमाणित है। 1956 में प्रसिद्ध इतिहासकार आर के चौधुरी के निर्देशन में हो रहे खुदाई के दौरान गोढोघाट एवं पटौहा में आहत सिक्के मिले हैं। मगध साम्राज्य में बिम्बिसार के समय बौद्ध धर्म के राजधर्म बनने पर यहाँ भी बौद्ध प्रभाव बढने लगा। जिले का बिराटपुर, बुधियागढी, बुधनाघाट, पितहाही और मठाई जैसी जगहों पर बौद्ध चिह्न मिले हैं। 7वीं सदी में जब आदि शंकराचार्य भारत भ्रमण पर निकलकर शास्त्रार्थ द्वारा हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना करने लगे तब उनका आगमन सहरसा जिले के महिषी ग्राम में हुआ। कहा जाता है जब आदि शंकराचार्य ने यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान मंडन मिश्र को हरा दिया तब उनकी पत्नी, जो कि एक विदुषी थीं, ने उन्हे चुनौती दी तथा शंकराचार्य को पराजित कर दिया।
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सहरसा जिला कोशी प्रमंडल एवं जिला का मुख्यालय शहर है। इसके उत्तर में मधुबनी एवं सुपौल, दक्षिण में खगड़िया, पूर्व में मधेपुरा एवं पश्विम में दरभंगा और समस्तीपुर जिला स्थित है। जिले का कुल क्षेत्रफल 1,661.3 वर्ग कि0मी0 है। नेपाल की ओर से आने वाली नदियों में प्रायः हर साल आने वाली बाढ और भूकंप जैसी भौगोलिक आपदाओं से प्रभावित होता रहा है। बाढ के दिनों में नाव दुर्घटना से प्रतिवर्ष दर्जनों लोग काल के गाल में समा जाते हैं। वर��ष 2008 में कोशी बाँध टूटने से उत्पन्न बाढ लाखों लोगों के लिए तबाही एवं मौत का पर्याय बन गयी।
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2001 की जनगणना के अनुसार इस जिला की कुल जनसंख्या 15,06,418 है जिसमें शहरी क्षेत्र तथा देहाती क्षेत्र की जनसंख्या क्रमश: 1,24,015 एवं 13,82,403 है।
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सहरसा जिले के अंतर्गत 2 अनुमंडल एवं 10 प्रखंड हैं।
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मिथिलान्तार्गत कोशी एवं धर्ममूला नदी के बीच अवस्थित एक छोटा सा गाँव कन्दाहा की पुण्यमयी धराधाम धराधाम में अवस्थित संपूर्ण विश्व की अद्वितीय सुर्यमूर्ती जो कि द्वापर युगीन है, की एक अनोखी गाथा है | सर्वप्रथम इस प्राचीन धरोहर को संजोकर रखनेवाला कन्दाहा गाँव का प्राचीन नाम कंदर्पदहा था, जिसका शाब्दिक अर्थ है- कंदर्प का जहां दहन हुआ हो| पुराणों के अनुसार श्री शिवजी के द्वारा कामदेव का दहन इसी कन्दाहा की धरती पर किया गया था ,अतः इस जगह का नाम कंदर्पदहा पड़ा जो कालांतर में कन्दाहा में परिणत हो गया |
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मूर्तिपरिचय:-
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कन्दाहा की सूर्यमूर्ति प्रथम राशि मेष की है, जिसका प्रमाण सिंहाशन पर मेष का चिन्ह होना है | पांच फीट की सूर्यमूर्ति आठ फीट के सिंहाशन में सात घोड़ों के रथ पर अपनी दोनों पत्नियाँ, संज्ञा एवं छाया, जिनको विभिन्न पुरानों में विभिन्न नाम दिया गया है, के साथ विराजमान हैं, जिसका संचालन सारथी अरुण कर रहें हैं, साथ hi बाएं भाग में संवत्सर चक्र भी विद्यमान है | भगवन सूर्य के दो हाथ हैं ,जिसमें कमल का फूल दृष्टिगोचर होता है ,जिसमे बायाँ हाथ मुग़ल आतताइयों द्वारा खंडित कर दिया गया था | सिंहाशन की अद्भुत कलाकृति तो देखते ही बनता है | सूर्यमूर्ति के दायें भाग में अष्टभुज गणेश एवं बाएं भाग में शिवलिंग और सामने श्री सुर्ययंत्र रखा हुआ है | गर्भगृह के द्वार पर चौखट पर उत्कीर्ण कलाकृति एवं लिपि भी अपने आप में बेमिशाल है |लेकिन दुर्भाग्यवश सभी मूर्तियों को मुगलों द्वारा कुछ न कुछ क्षति पहुचाई गयी है |
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स्थापना:-
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पुराणों के अनुसार द्वापर युग में श्री कृष्ण की पटरानी जाम्बवती के पुत्र साम्ब अतीव सुन्दर थे जिनके द्वारा श्री कृष्ण से मिलने आये महर्षि दुर्वाशा का तिरस्कार कर दिया गया और क्रोधित महर्षि दुर्वाषा साम्ब को कुष्ठ रोग से रूपक्षीण होने का श्राप दे बैठे |अब संपूर्ण यदुवंशी परिवार व्यथित हो गए | दैवयोग से नारद जी के आने पर उनके द्वारा साम्ब से सूर्य का तप करने को कहा गया और तत्पश्चात
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साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के किनारे सूर्य का कठोर ताप किया और जिसके फलस्वरूप भगवान् सूर्य प्रसन्न होकर उन्हें रोगमुक्त कर दिए| रोगमुक्त करने के साथ ही भगवान् भास्कर ने साम्ब को बारहों राशि में सूर्यमूर्ति की स्थापना का आदेश भी दिया | इसी क्रम में प्रथम मेष राशि के सूर्य की स्थापना हेतु तत्कालीन ज्योतिषियों की गणना के द्वारा श्री शिवजी की तपस्थली इसी कन्दाहा गाँव का चयन हुआ और द्वापर युग में श्रीकृष्ण पुत्र साम्ब के द्वारा कन्दाहा में प्रथम राशि मेष के सूर्य की स्थापना हुई और ऋषि मुनियों द्वारा युगांतर से इनकी पूजा होती आ रही है |
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युगों बाद चौदहवीं सदी में जब मिथिला राज्य के क्षितिज पर ओईनवार वंशीय ब्राह्मण भवसिंहदेव राजा के रूप में उदित हुए और और दैवयोग से रोगग्रस्त हो गए तो उनके दरबारपंडित पंडित बेचू झा की सलाह पर सूर्य भगवान् का पूजन एवं अनुष्ठान आरम्भ हुआ ,इस क्रम में महाराजा द्वारा सूर्यमंदिर के प्रांगन में अवस्थित सूर्य-कूप के औषधीय गुण संपन्न जल से स्नान एवं सेवन किया गया जिससे महाराज पूर्ण स्वस्थ हो गए एवं सुयोग्य दो पुत्र नरसिंहदेव एवं हरिसिंहदेव को प्राप्त कर अत्यंत हर्षित होकर जीर्ण पड़े मंदिर का जीर्णोद्धार एवं मूर्ती की पुनर्स्थापना कर भगवान् आदित्य के नाम से अपना नाम जोड़कर भवदित्य सूर्य का नाम दिया और तब से भवादित्य सूर्य के नाम से कंदहा में भगवान् सूर्य की पूजा अर्चना होने लगी | कंदहा गाँव सहरसा मुख्यालय से पश्चिम 12 किमी पर सतरवार चौक से तीन किमी उत्तर पक्की सड़क से जुड़ा हुआ है जहाँ हजारों भक्तजन आते है और भगवान् भास्कर की पूजा अर्चना कर मनचाहा फल पाते हैं | महाभारत और सूर्य पुराण के अनुसार इस सूर्य मंदिर का निर्माण 'द्वापर युग' में हो चुका था। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान कृष्ण के पुत्र 'शाम्ब' किसी त्वचा रोग से पीड़ित थे जो मात्र यहाँ के सूर्य कूप के जल से ठीक हो सकती थी। यह पवित्र सूर्य कूप अभी भी मंदिर के निकट अवस्थित है। इस के पवित्र जल से अभी भी त्वचा रोगों के ठीक होने की बात बताई जाती है। यह सूर्य मंदिर सूर्य देव की प्रतिमा के कारण भी अद्भुत माना जाता है। मंदिर के गर्भ गृह में सूर्य देव विशाल प्रतिमा है, जिसे इस इलाके में ' बाबा भावादित्य' के नाम से जाना जाता है। प्रतिमा में सूर्य देव की दोनों पत्नियों 'सं��्य' और 'kalh' को दर्शाया गया है। साथ ही 7 घोड़े और 14 लगाम के रथ को भी दर्शाया गया है। इस प्रतिमा की एक बड़ी विशेषता यह है कि यह बहुत ही मुलायम काले पत्थर से बनी है। यह विशेषता तो कोणार्क एवं देव के सूर्य मंदिरों में भी देखने को नहीं मिलती। परन्तु सबसे अद्भुत एवं रहस्यमयी है मंदिर के चौखट पर उत्कीर्ण लिपि जो अभी तक नहीं पढ़ी जा सकी है। परन्तु दुर्भाग्य से इस प्रतिमा को भी औरंगजेब काल में अन्य अनेक हिन्दू मंदिरों की तरह ही क्षतिग्रस्त कर दिया गया। इसी कारण से प्रतिमा का बाँया हाथ, नाक और जनेऊ का ठीक प्रकार से पता नहीं चल पाता है। इस प्रतिमा के अन्य अनेक भागों को भी औरंगजेब काल में ही तोड़कर निकट के सूर्य कूप में फेंक दिया गया था, जो 1985 में सूर्य कूप की खुदाई के बाद मिले हैं।1985 के बाद यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन आ गया। पुरातत्व विभाग ने मंदिर की देख रेख के लिए एक कर्मचारी को नियुक्त कर रखा है। परन्तु सरकार की तरफ से इस मंदिर के जीर्णोधार एवं विकास के प्रति उपेक्षा ही बरती गयी है। वह तो यहाँ के कुछ ग्रामीणों की जागरूकता एवं सहयोग के कारण मंदिर अपने वर्तमान स्वरुप में मौजूद है। इनमे नुनूं झा एवं जयप्रकाश वर्मा समेत अनेक ग्रामीणों का सहयोग सराहनीय रहा है।इस मंदिर को बिहार सरकार के तरफ से प्रथम सहयोग तब मिला जब अशोक कुमार सिंह पर्यटन मंत्री बने। उन्होंने इस मंदिर के विकाश के लिए 2003 में 300000 रु0 का अनुदान दिया। परन्तु यह रकम मंदिर के विकास के लिए प्रयाप्त नहीं थी। फिर भी इस रकम से मंदिर परिसर को दुरुस्त किया गया। साथ ही मुख्य द्वार का निर्माण हो सका। परन्तु अभी भी इस मंदिर एवं इस पिछड़े गाँव के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकि है, जिससे कि इस अद्भुत मंदिर की गिनती बिहार के मुख्य पर्यटन स्थल के रूप में हो सके।
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सड़क और रेल माग दोनो से ये जुडा़ हुआ है । यह राष्ट्रीय और राज्य सड़क मार्ग से भी जुड़ा हुआ है। सहरसा भारतीय रेलमार्ग की बड़ी लाइन द्वारा देश की राजधानी दिल्ली, कोलकाता, अमृतसर ,रांची जैसे बड़े शहरों से जुड़ा हुआ है। भारत की सबसे पहली गरीब रथ ट्रैन तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा सहरसा से ही चलायी गयी थी।
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शिक्षा एवं चिकित्सा
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यहाँ शिक्षा के लिये बहुत सारी निजी और सरकारी स्कूल और कॉलेज है।
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केंद्रीय विद्यालय सहरसा
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जवाहर नवोदय विद्यालय, ���रियाही
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राजकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, सहरसा
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राजकीय पॉलिटेक्निक महाविद्यालय, सहरसा
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बी एन एम होमियोपैथी महाविद्यालय एवं हॉस्पिटल ,सहरसा
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मंडन भारती एग्रीकल्चर महाविद्यालय, अगवानपुर
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लार्ड बुद्धा कोसी मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, बैजनाथपुर
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श्री नारायण मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, सहरसा
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ए एन एम एंड सदर अस्पताल, सहरसा
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मेगन डेनिस फ़ॉक्स, एक अमेरिकी अभिनेत्री और मॉडल है। उसने अपने अभिनय कॅरियर की शुरूआत, सन् 2001 में कई छोटी-छोटी टेलीविज़न और फ़िल्मी भूमिकाओं से की और होप ऐंड फ़ेथ में एक आवर्ती भूमिका निभाई. सन् 2004 में, कंफ़ेशंस ऑफ़ ए टीनेज ड्रामा क्वीन में एक भूमिका से उसने अपने फ़िल्मी कॅरियर की शुरूआत की. सन् 2007 में, उसने ट्रांसफ़ॉर्मर्स नामक धमाकेदार फ़िल्म में शिया लाबेयोफ़ अभिनीत पात्र की माशूका, मिकाएला बेंस के रूप में अभिनय किया जो उसकी ब्रेकआउट भूमिका बनी और उसे टीन चॉइस अवार्ड्स के विभिन्न नामांकन दिलवाए. फ़ॉक्स ने सन् 2009 में इस फ़िल्म की अगली कड़ी, Transformers: Revenge of the Fallen में अपनी इस भूमिका की आवृति की. सन् 2009 के अंत में, उसने जेनीफ़र'स बॉडी नामक फ़िल्म में नाममात्र के मुख्य पात्र के रूप में अभिनय किया।
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फ़ॉक्स को एक यौन प्रतीक माना जाता है और वह बार-बार पुरुषों के मैगज़ीन की "हॉट" सूचियों में दिखती है। उसे मैक्सिम मैगज़ीन के वर्ष 2007, 2008 और 2009 में प्रत्येक वर्ष की हॉट 100 की सूची में क्रमशः #18, #16 और #2 पर सूचीबद्ध किया गया जबकि FHM के पाठकों ने उसे वर्ष 2008 की "दुनिया की सबसे कामुक महिला" चुना. उसे सन् 2008 में मूवीफ़ोन की "द 25 हॉटेस्ट एक्टर्स अंडर 25" की सूची में प्रथम स्थान प्रदान किया गया। सन् 2004 में, फ़ॉक्स ने बेवर्ली हिल्स 90210 फ़ेम के ब्रायन ऑस्टिन ग्रीन के साथ कथित तौर पर होप ऐंड फ़ेथ के सेट पर मिलने के बाद उससे मिलने लगी. उस वक़्त से दोनों, बनते-बिगड़ते संबंध कायम किए हुए हैं।
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फ़ॉक्स, आयरिश, फ्रांसीसी और मूल अमेरिकी वंश की वंशज है और उसका जन्म ओक रिज, टेनेसी में डार्लिन टोनाचियो और फ्रैंकलिन फ़ॉक्स के यहां हुआ था जिसने अपने उपनाम से एक "x" निकाल दिया. उसकी एक बड़ी बहन है। फ़ॉक्स के माता-पिता का तलाक़ उस वक़्त हुआ जब वह छोटी थी और उसका एवं उसकी बहन का पालन-पोषण, उसकी मां और उसके सौतेले पिता ने किया। उसने कहा कि दोनों बहुत "सख्त" थे और इसलिए उसे किसी को अपना प्रेमी बनाने की अनुमति नहीं थी। वह अपनी मां के साथ तब तक रही जब तक कि उसने खुद को सहारा देने के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था नहीं कर ली.
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फ़ॉक्स ने किंग्स्टन, टेनेसी में पांच साल की उम्र में नाटक और नृत्य में अपने प्रशिक्षण की शुरूआत की. उसने वहां सामुदायिक केंद्र में एक नृत्य कक्षा में भाग लिया और किंग्स्टन एलिमेंटरी स्कूल के गायक-दल और कि��ग्स्टन क्लिपर्स के तैराकी-दल में शामिल हो गई। 10 साल की उम्र में, सेंट पीटर्सबर्ग, फ़्लोरिडा जाने के बाद, फ़ॉक्स ने अपना प्रशिक्षण ज़ारी रखा. जब वह 13 साल की हुई, तब फ़ॉक्स ने हिल्टन हेड, साउथ कैरोलिना में वर्ष 1999 के अमेरिकन मॉडलिंग ऐंड टैलेंट कॉन्वेंशन में कई पुरस्कार जीतने के बाद मॉडलिंग शुरू की. फ़ॉक्स ने अपने माध्यमिक विद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए मॉर्निंगसाइड अकेडमी नामक एक निजी ईसाई विद्यालय में दाखिला लिया और उसने सेंट लुसी वेस्ट सेंटेनियल हाई स्कूल में अपनी उच्च विद्यालय की शिक्षा पूरी की, यद्यपि वह उस समय 17 साल की थी फिर भी कॉरेसपोंडेंस के माध्यम से उसे विद्यालय से उत्तीर्ण कर दिया गया।
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फ़ॉक्स ने अपनी शिक्षा-काल के बारे में बहुत विस्तार से बताया है कि माध्यमिक विद्यालय में, उसे बहुत डराया-धमकाया जाता था और "चटनी की पुड़ियों की छिनतई" से बचने के लिए वह दोपहर का भोजन गुसलखाने में जाकर करती थी। उसने कहा कि उसकी समस्या, उसकी खूबसूरती नहीं थी बल्कि वह "हमेशा लड़कों के साथ अच्छी तरह से घुल-मिल जाती" थी और यही बात "कुछ लोगों को बुरी लग जाती थी". फ़ॉक्स ने उच्च विद्यालय के बारे में भी बताया कि वह कभी लोकप्रिय नहीं हुई और उसने यह भी बताया कि "सब मुझसे नफ़रत करते थे और मैं बिलकुल अलग-थलग रहती थी, मेरे दोस्त सिर्फ पुरुष ही होते थे, मेरा व्यक्तित्व बहुत आक्रामक था और इसीलिए लडकियां मुझे पसंद नहीं करती थी। मेरी पूरी ज़िंदगी में मेरी सिर्फ एक ही सबसे अच्छी सहेली थी". उसी साक्षात्कार में, वह ज़िक्र करती है कि उसे विद्यालय से नफ़रत थी और वह "औपचारिक शिक्षा के प्रति ज्यादा आस्थावान" कभी नहीं हुई है और इसीलिए "मुझे जो शिक्षा मिल रही थी, वह मुझे अप्रासंगिक लगी. यही वजह है कि मैं इन सबसे छुटकारा पाना चाहती थी".
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16 साल की उम्र में, फ़ॉक्स ने वर्ष 2001 की फ़िल्म, होलीडे इन द सन में बिगड़ी उत्तराधिकारिणी ब्रायना वॉलेस और एलेक्स स्टीवर्ट के प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपना पहला अभिनय प्रस्तुत किया। इस फ़िल्म को सीधे DVD में 20 नवम्बर 2001 को रिलीज़ किया गया। अगले वर्ष, फ़ॉक्स ने टीवी श्रृंखला, ऑसियन ऐव में आयोन स्टार के रूप में सबसे मुख्य भूमिका निभाना शुरू किया। यह श्रृंखला दो सत्रों, वर्ष 2002 से 2003 तक चली और एक घंटे वाले 122 एपिसोडों में फ़ॉक्स दिखाई दी. सन् 2002 में भी, व्हाट आइ लाइक अ���ाउट यू में उसने अतिथि-कलाकार की भूमिका निभाई और "लाइक ए वर्जिन " एपिसोड में दिखाई दी. सन् 2003 में बैड बॉयज़ II में वह एक अविख्यात अतिरिक्त कलाकार थी। सन् 2004 में, टू ऐंड ए हाफ़ मेन के "कैमेल फ़िल्टर्स ऐंड फेरोमोंस" एपिसोड में फ़ॉक्स ने अतिथि-कलाकार की भूमिका निभाई. उसी वर्ष, कंफ़ेशंस ऑफ़ ए टीनेज ड्रामा क्वीन में फ़ॉक्स ने अपना पहला फ़िल्मी अभिनय प्रस्तुत किया जिसमें उसने लोला के प्रतिद्वंद्वी, कार्ला सैंटी की सहायक भूमिका निभाते हुए लिंडसे लोहान के विपरीत सह-अभिनय किया। सन् 2004 में ही, फ़ॉक्स ने ABC सिटकॉम होप ऐंड फ़ेथ में नियमित भूमिका में अभिनय किया जिसमें निकोल पैगी की जगह, उसने सिडनी शानोस्की की भूमिका निभाई. फ़ॉक्स, सत्र 2 से 3 तक, सन् 2006 में कार्यक्रम के रद्द होने तक, 36 एपिसोडों में दिखाई दी.
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सन् 2007 में, फ़ॉक्स ने खिलौने और कार्टून की कहानी के उसी नाम पर आधारित, ट्रांसफ़ॉर्मर्स नामक वर्ष 2007 की लाइव-एक्शन फ़िल्म में मिकाएला बेंस की मुख्य महिला कलाकार की भूमिका प्राप्त की. फ़ॉक्स ने शिया लाबेयोफ़ के पात्र, सैम विटविकी के माशूका की भूमिका निभाई. फ़ॉक्स को "ब्रेकथ्रू परफ़ॉर्मेंस" की श्रेणी में एक MTV मूवी अवार्ड के लिए नामांकित किया गया और उसे "चॉइस मूवी एक्ट्रेस: एक्शन एडवेंचर", "चॉइस मूवी: ब्रेकआउट फिमेल" और "चॉइस मूवी: लिपलॉक" की श्रेणी में तीन टीन चॉइस अवार्ड के लिए भी नामांकित किया गया। फ़ॉक्स ने ट्रांसफ़ॉर्मर्स की दो और अगली कड़ियों के लिए अनुबंध पर हस्ताक्षर किया है। जून 2007 में, फ़ॉक्स ने जेफ़ ब्रिज्स, साइमन पेग और किर्स्टन डंस्ट अभिनीत हाउ टु लोस फ्रेंड्स & एलियनेट पीपल में एक छोटी भूमिका निभाई. उसने सिडनी यंग की माशूका, सोफी माएस की भूमिका निभाई. फ़िल्म का प्रीमियर 3 अक्टूबर 2008 को हुआ और इसे एक बॉक्स-ऑफ़िस विफलता माना गया। सन् 2008 में, फ़ॉक्स को रुमर विलिस के साथ व्होर में लॉस्ट पात्र के रूप में देखा गया। फ़िल्म, युवा आशावान किशोरियों के एक समूह के इर्द-गिर्द घूमती है जो अभिनय के क्षेत्र में अपना कॅरियर बनाने की आशा लेकर हॉलीवुड में आई हैं लेकिन पाती हैं कि उन्होंने इस व्यवसाय के बारे में जैसी कल्पना की थी, उससे कहीं अधिक कठिन है। फ़िल्म को 20 अक्टूबर 2008 को रिलीज़ किया गया।
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फ़ॉक्स ने ट्रांसफ़ॉर्मर की अगली कड़ी, Transformers: Revenge of the Fallen में मिकाएला बेंस के रूप में अपनी भूमिक��� दोहराई.Transformers: Revenge of the Fallen ट्रांसफ़ॉर्मर्स की अगली कड़ी के फिल्मांकन के समय फ़ॉक्स की प्रस्तुति को लेकर कुछ विवाद उठ खड़े हुए जब फ़िल्म के निर्देशक, माइकल बे ने अभिनेत्री को 10 पाउंड प्राप्त करने का आदेश दिया. ट्रांसफ़ॉर्मर्स: रिवेंज ऑफ़ द फ़ॉलेन का प्रीमियर, 8 जून 2009 को टोक्यो, जापान में हुआ। दुनिया भर में इस फ़िल्म को 24 जून 2009 को रिलीज़ किया गया। फ़ॉक्स ने जेनीफ़र'स बॉडी में शीर्षक पात्र के रूप में अपनी पहली मुख्य भूमिका निभाई जिसे अकेडमी अवार्ड जीतने वाले पटकथा-लेखक डियाब्लो कोडी ने लिखा था। उसने एक राक्षस के कब्ज़े में रहने वाली जेनीफ़र चेक नामक एक नीच-लड़की प्रोत्साहन-अग्रणी की भूमिका निभाई जो मिनेसोटा के एक कृषिगत शहर में लड़कों को खाने लगती है। अमांडा सेयफ़्रिएड और ऐडम ब्रोडी द्वारा सह-अभिनीत इस फ़िल्म को 18 सितम्बर 2009 को रिलीज किया गया।
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अप्रैल 2009 में, फ़ॉक्स ने जोनाह हेक्स का फिल्मांकन शुरू किया जिसमें वह लीला, बंदूक चलाने वाली एक सुंदरी और जोनाह हेक्स की माशूका की भूमिका निभाएगी. फ़िल्म अभी निर्माणाधीन है और इसे 18 जून 2010 को रिलीज़ किए जाने के लिए नियत किया गया है। इस फ़िल्म के सितारे, जोश ब्रोलिन और विल अर्नेट हैं और फ़ॉक्स ने फ़िल्म में एक कैमियो की भूमिका निभाई. वर्ष 2009 के अप्रैल महीने के शुरू में, फ़ॉक्स ने आने वाली वर्ष 2011 की फ़िल्म, द क्रॉसिंग में मुख्य महिला कलाकार के रूप में अभिनय करने के लिए हस्ताक्षर किया। यह फ़िल्म एक युवा युगल के बारे में हैं जो मेक्सिको में अपनी छुट्टियों के दौरान नशीले पदार्थों की तस्करी वाली एक योजना में फंस जाते हैं। मार्च 2009 में, वेराइटी ने ख़बर दी कि फ़ैदम नामक हास्य पुस्तकों के फ़िल्म रूपांतरण में ऐस्पेन मैथ्यू की मुख्य भूमिका में अभिनय करने के लिए फ़ॉक्स को निर्धारित किया गया जिसे वह ब्रायन ऑस्टिन ग्रीन के साथ सह-निर्मित भी करेगी. फ़ैदम अभी निर्माणाधीन है।
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फ़ॉक्स ने द टाइम्स के साथ एक साक्षात्कार के दौरान एक रोल मॉडल बनने के विषय में कहा है कि: "यह इस बात पर निर्भर करता है कि एक रोल मॉडल के बारे में आपका विचार क्या है," और उसने यह कहते हुए अपनी बात को ज़ारी रखा कि, "एक रोल मॉडल के बारे में आपका विचार यदि किसी ऐसे व्यक्ति से संबंधित है जो आपके बच्चों को यह उपदेश देता है कि शादी से पहले यौन-सम्भोग करना गलत है और अपशब्द क��ना गलत है और महिलाओं को ऐसा या वैसा होना चाहिए तो मैं कोई रोल मॉडल नहीं हूं. लेकिन यदि आप चाहते हैं कि आपकी लडकियां खुद को ताकतवर और बुद्धिमान समझें और स्पष्टवादी बनें और उन्हें जो सही लगता है, वे उसके लिए लड़ें तो हां, मैं उस तरह की रोल मॉडल बनना चाहती हूं." फ़ॉक्स ने उसी साक्षात्कार में अपने टाइप-कास्ट बनने के विषय में कहा कि: टाइपकास्ट होना क्या है? आकर्षक? वह कितना बुरा है?" उसे लगता है कि इस तरह से टाइप-कास्ट बनना कोई बुरी बात नहीं है और इसे खुशामदी होना मानती है। उसे इस बात पर भी भरोसा है कि इससे उसे एक फ़ायदा है क्योंकि लोग उससे यह उम्मीद नहीं करेंगे कि वह सामान्य आकर्षक से अधिक बने और जब वह एक अच्छा प्रदर्शन प्रस्तुत करती है तो लोग हैरान होंगे. फ़ॉक्स ने एक ऐसे पात्र की भूमिका निभाने की इच्छा व्यक्त की है जो मिकाएला बेंस से कम कामुक हो जिसकी भूमिका वह ट्रांसफ़ॉर्मर्स फ़िल्म श्रृंखला में निभाती है।
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फ़ॉक्स ने मीडिया का एक लोकप्रिय विषय बनने के बारे में कहा कि, यद्यपि वह जेनीफ़र ऐनिस्टन, ब्रिटनी स्पीयर्स या लिंडसे लोहान जैसी स्तर की नहीं है, इसलिए उसे यह कठिन लगता है और उसने यह भी कहा कि ऐसा भी समय आया है जब लोगों ने उसके आस-पास होने से किनारा कर लिया है क्योंकि वे मीडिया की सुर्ख़ियों में नहीं आना चाहते हैं। "मुझे इस तरह से व्यवहार करने और खुद को संभालने की ज़रूरत है जिससे लोग मुझे गंभीरतापूर्वक लेने पर मज़बूर हो जाएंगे," उसने कहा, " आप कामुक और बुद्धिमान हो सकती हैं और आपको गंभीरतापूर्वक लिया जा सकता है या आप कामुक हो सकती हैं और हर रात आप क्लबों में रह सकती हैं और आपको नहीं लिया जा सकता है" लेकिन इसीलिए वह "पूरी तरह से बेसुध" नहीं हुई है। फ़ॉक्स ने अपनी "पूर्णतया अज्ञात" छवि से एक जानी-मानी हस्ती तक की प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के सफ़र के बारे में भी बताया: "मुझे निश्चित रूप से लगता है कि मैंने बहुत ख़राब तैयारी की थी; मेरा मतलब है कि मुझे नहीं मालूम है यदि कोई कभी पीछे बैठता है या चला जाता है, 'अब वह समय आ गया है जब मुझे लगता है कि मुझे एक जानी-मानी हस्ती बन जाना चाहिए,' – लेकिन मुझे निश्चित रूप से लगता है कि यह समय से पहले है। मेरा मतलब है, मैं एक फिल्म में थी जिसे लोगों ने देखा है।"
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फ़ॉक्स की तस्वीर कई मैगज़ीनों के आवरण पृष्ठ पर छपी है। सन् 2007 में वह मैक्सिम में दिखाई दी और सन् 2008 में उसे प्रदर्शित करने वाली पत्रिकाओं की सूची में वृद्धि हो चुकी थी जिसमें कोस्मो गर्ल, पॉ प्रिंट, जैक, FHM और GQ शामिल थे। सन् 2009 में, इस सूची में शामिल है - USA वीकेंड, एस्क्वायर, एम्पायर, मैक्सिम, GQ, एंटरटेनमेंट वीकली और ELLE . फ़ॉक्स को साक्षात्कार मैगज़ीनों के "कल के भावी सितारों" में दिखने वाले हॉलीवुड चेहरों में #17 पर श्रेणीत, मैक्सिम मैगजीन के वर्ष 2008 के हॉट 100 की सूची में #16 पर श्रेणीत, FHM मैगजीन के "वर्ष 2006 के विश्व के 100 सबसे कामुक महिलाओं" की सूची में #68 पर नामित, मैक्सिम मैगजीन के वर्ष 2007 के हॉट 100 की सूची में #18 पर श्रेणीत, सन् 2008 में मूवीफ़ोन के '25 से कम उम्र वाले 25 सबसे कामुक कलाकारों' की सूची में #1 पर श्रेणीत और सन् 2009 में मैक्सिम के वर्ष 2009 के हॉट 100 की सूची में #2 पर श्रेणीत किया गया। FHM के पाठकों ने सन् 2008 में उसे "विश्व की सबसे कामुक महिला" चुना.
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जुलाई 2009 के अन्तिमी दौर में, मीडिया के कुछ हिस्सों में फ़ॉक्स के अति-प्रदर्शन के कारण पुरुषों की कई वेबसाइटों ने उसका बहिष्कार किया। AOL के पुरुष ब्लॉग असाइलम ने 4 अगस्त 2009 को "ए डे विदाउट मेगन फ़ॉक्स" नाम दिया और वादा किया कि यह साइट इस दिन उसका उल्लेख या उसे प्रदर्शित नहीं करेगी; उन्होंने पुरुषों के अन्य साइटों को इसी रवैये की नक़ल करने के लिए कहा और कई ने इसका पालन किया। "सुनो, हमलोग मेगन को बहुत पसंद करते हैं," दबैचलरगाइ.कॉम के एरिक रोजेल ने न्यूयॉर्क डेली न्यूज़ को बताया. "वह हमारी साइटों में और अधिक लोगों के ध्यान को आकर्षित करने के लिए ज़िम्मेदार है — सिर्फ एक सफ़ेद टी-शर्ट में गलियों में घूमते हुए फोटो खिंचवाकर — अन्य किसी जिन्दा हस्ती की तुलना में. अब समय आ गया है कि किसी दूसरी युवा अभिनेत्री पर भी थोड़ा ध्यान दिया जाए." इसके ज़वाब में, फ़ॉक्स ने नाइलन नामक मैगजीन को सितम्बर 2009 के एक साक्षात्कार में बताया कि "ट्रांसफ़ॉर्मर्स " को लेकर होने वाले "मीडिया के हमलों" के परिणामस्वरूप उसे मीडिया और अधिक विस्तृत स्वागत-सत्कार प्राप्त हुआ। "मैं एक फ़िल्म का हिस्सा थी जो निश्चित रूप से 700 मिलियन डॉलर की कमाई करना चाहता था इसलिए उनलोगों ने अपनी सितारों से मीडिया को अति-संतृप्त कर दिया," उसने कहा. "मेरे कभी कुछ भी वैध करने से पहले मैं नहीं चाहती कि लोग मुझ पर पूरी तरह से आसक्त हो जाए."
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11 सितम्बर 2009 को, ट्रांसफ़ॉर्मर्स के कर्मी सदस्यों की एक अहस्ताक्षरित चिट्ठी ने माइकल बे की उसके ख़िलाफ फ़ॉक्स द्वारा कथित तौर पर लागाए गए आरोपों से उसकी रक्षा की क्योंकि फ़ॉक्स ने उस पर आरोप लगाया था जो उसके सेट पर के आचरण से संबंधित था जिसमें उसकी तुलना एडोल्फ़ हिटलर से की गई थी। चिट्ठी में यह आरोप है कि फ़ॉक्स, सेट पर के लोगों के साथ काम करने को लेकर बहुत नाखुश है और नमकहराम आचरण के कई आरोप लगाती हैं जो उसके सार्वजनिक व्यक्तित्व से भिन्न है। बे ने फ़ॉक्स की रक्षा की और कहा है कि वह चिट्ठी को "माफ़" नहीं करता है। ट्रांसफ़ॉर्मर्स में काम करने वाले एंथनी स्टेइनहार्ट नामक एक निर्माण सहायक ने भी उसके बचाव में आगे आते हुए कहा कि उसने कभी भी "...मिस फ़ॉक्स को अशिष्टता करते या लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते या काम के वक़्त कोई लापरवाही करते नहीं देखा".
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फ़ॉक्स की तुलना अक्सर अभिनेत्री एंजेलिना जोली से की जाती है और मीडिया ने उसे "अगली एंजेलिना जोली" नाम दिया है। फ़ॉक्स के तुलना जोली से इसलिए की जाती है क्योंकि प्रत्येक के पास "टैटू का भंडार" है और प्रत्येक की प्रतिष्ठा "अंतर्निर्मित यौन-प्रतीक" के रूप में है। फ़ॉक्स ने टिपण्णी की कि मीडियो की तरफ से इन तुलनाओं में रचनात्मकता की कमी है और ये तुलनाएं सिर्फ इसलिए है क्योंकि उसके और जोली के काले बाल और टैटू हैं और दोनों ने एक्शन फिल्मों में काम किया है। कई अपुष्ट अफवाहें थी कि अगली लारा क्रॉफ्ट फ़िल्म में फ़ॉक्स जोली की जगह लेने वाली थी। फ़ॉक्स ने इन तुलनाओं के बारे में यह भी कहा कि: "मैं टैटू वाली एक श्यामला हूं, मैं अपशब्द कहती हूं और मैंने पहले भी यौन के बारे में चर्चा की है। मैंने इसके बारे में मज़ाक किया जिसे लोगों ने अपमानजनक समझ लिया इसीलिए वे हमेशा मेरी तुलना उससे करना चाहते हैं।" फ़ॉक्स ने कहा है कि ऐसी बात नहीं है कि उसे जोली से मिलने का मौका नहीं मिला बल्कि उसने कोशिश की है कि वह "उससे दूर रहे क्योंकि मुझे डर है" क्योंकि "वह एक शक्तिशाली व्यक्ति है और मुझे यकीन है कि वह मुझे जिन्दा खा जाएगी". फ़ॉक्स ने कहना ज़ारी रखा और टिप्पणी किया कि "मुझे यकीन है कि उसे कुछ पता नहीं है कि मैं कौन हूं. लेकिन यदि मैं उसकी जगह होती, तो मैं ऐसा करती, 'कमबख्त यह कौन बदतमीज़ छोकरी है जो ट्रांसफ़ॉर्मर्स में थी और जो मुझसे बराबरी करने चली है?' मैं उससे मिलना नहीं चाहती हूं. मुझे शर्मिंदा होना पड़ जाएगा.
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फ़ॉक्स के बदन पर ज्ञात रूप से आठ टैटू हैं जिनमें से उसके निचले होंठ पर उसके पूर्व-मंगेतर का नाम "Brian" और उसकी दायीं अग्रबाहू पर मेरिलीन मोनरो के चेहरे का एक चित्र है। फ़ॉक्स के दाएं कंधे पर एक दूसरा टैटू भी है जिसमें लिखा है, We will all laugh at gilded butterflies" जिसे विलियम शेक्सपीयर की नाट्य रचना किंग लियर से उधृत की गई है, उसकी बायीं अंदरूनी कलाई पर यिन और यांग का एक टैटू, उसकी पसली के बायीं तरफ एक कविता है जिसमें लिखा है "there once was a little girl who never knew love until a boy broke her HEART" और उसकी गर्दन पर "शक्ति" शब्द के लिए प्रयुक्त होने वाले एक चीनी शब्द का टैटू है। फ़ॉक्स के दाएं टखने के ऊपर पैर के निचले भाग के अन्दर की तरफ एक पांच बिन्दुओं वाले सितारे से आच्छादित एक अर्द्ध चंद्राकार चांद भी है। फ़ॉक्स के पास यही एकमात्र ऐसा टैटू हैं जो रंगा हुआ है।
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फ़ॉक्स ने कहा कि उसके पास मेरिलिन मोनरो टैटू है क्योंकि "वही सबसे पहली व्यक्ति है जिसे मैं टीवी पर देखा, जैसे, मेरे जन्म के बाद मेरे होश संभालने पर. हर बार मैं उसकी आवाज़ सुनती थी जिस वक़्त मैं बड़ी हो रही थी या जब भी मैं रोती थी। मुझे पता नहीं क्यों, पर छुटपन से ही मेरे अपने सिद्धांत थे" और इसलिए फ़ॉक्स ने हमेशा उसके प्रति "समानुभूति व्यक्त" की है। फ़ॉक्स ने अपने यिन/यांग टैटू को हटाने में रुचि दिखाई थी और इसके बारे में उसने टिपण्णी की थी कि टैटू कलाकार ने "इसे ठीक से नहीं बनाया" क्योंकि उस पर मारिजुआना का असर था; हालांकि, फ़ॉक्स ने अभी भी अगस्त 2009 तक उस टैटू को रखा है। फ़ॉक्स ने अपने टैटूओं के बारे में कहा है कि जब वह एक टैटू लगवाती है तब "वह ऐसे किसी व्यक्ति को 'भाड़ में जाओ" कहती है जो मुझे ऐसा नहीं करने के लिए कहते हैं।"
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फ़ॉक्स, अभिनेता ब्रायन ऑस्टिन ग्रीन के साथ वर्ष 2004 से ही जुड़ी हुई है जिससे वह होप ऐंड फ़ेथ के सेट पर पहली बार मिली थी। सन् 2006 में, दोनों में सगाई हो गई लेकिन दोनों ने कहा कि उनकी शादी करने की कोई योजना नहीं थी। ख़बर मिली कि इस युगल ने जुलाई 2008 और फ़रवरी 2009 को अपने संबंध समाप्त कर लिए थे; हालांकि, फ़ॉक्स और ग्रीन दोनों ने इन दोनों मौकों पर इस बात की पुष्टि की कि दोनों के संबंध अभी भी कायम है। 15 जून 2009 को, Transformers: Revenge of the Fallen के UK प्रीमियर में, फ़ॉक्स ने बयान दिया कि वह अकेली थी; हालांकि, उसे बाद में ग्रीन के साथ देखा गया और मीडिया की ख़बर है कि दोनों में फिर से संबंध कायम हो गया है। ग्रीन, सैटरडे नाइट लाइव के सीज़न 35 के प्रीमियर एपिसोड में SNL डिजिटल शॉर्ट "मेगन'स रूममेट" में भी देखा गया जिसकी मेजबानी फ़ॉक्स ने की.
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फ़ॉक्स की जेनीफ़र ब्लैंक, केलन रुड, जेनीफ़र'स बॉडी के सह-कलाकार अमांडा सेयफ़्रिएड, माइकल बिएहं और ट्रांसफ़ॉर्मर्स के सह-कलाकार शिया लाबेयोफ़ के साथ अच्छी दोस्ती है। वह हास्य पुस्तकों, ऐनिमे और वीडियो गेम दोनों की प्रशंसक है और कहा है कि कला में उसकी रुचि की शुरुआत 12 साल की उम्र में हुई जब वह कार्टून नेटवर्क पर ऐडल्ट स्विम के दौरान ऐनिमेटेड कार्यक्रम देखती थी। फ़ॉक्स का पसंदीदा कलाकार, माइकल टर्नर है जिसके फ़ैदम हास्य को वह एक पुराने जूनून के रूप में वर्णित करती है। फ़ॉक्स के पास दो कुत्ते हैं जिसमें से एक पोमेरानियन है जिसका नाम, घटिया-प्रतीक सिड विसियस के नाम पर पड़ा. फ़ॉक्स ने खुलेआम बयान दिया है कि उसने नशा किया है और इसलिए इसका मतलब है कि वह जानती है कि वह उन्हें पसंद नहीं करती है और यह भी कहती है कि वह ऐसे कुछ लोगों को जानती है जो नशा नहीं करते हैं जिसमें वह खुद भी शामिल है। फ़ॉक्स ने खुलेआम कहा है कि वह मारिजुआना के वैधीकरण का समर्थन करती है और कहती है कि वह इसे नशा नहीं मानती है और इसलिए एक जोड़ी पुड़िया खरीदने की कतार में वह सबसे आगे खड़ी होगी.
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सितम्बर 2008 में, फ़ॉक्स ने उभयलिंगी होने का संकेत दिया; GQ मैगज़ीन में दिए गए एक साक्षात्कार में उसने कहा कि जब वह 18 साल की थी तब उसे एक महिला अपसारक से प्यार हो गया और वह उससे संबंध कायम करना चाहती थी। उसने इस अनुभव का प्रयोग अपनी आस्था को प्रतिपादित करने के लिए किया कि "सभी मनुष्यों का जन्म दोनों लिंगों के प्रति आकर्षित होने की क्षमता के साथ हुआ है" और इसके अलावा उसने ओलिविया विल्ड और जेना जेमसन में अपनी दिलचस्पी दिखाई. मई 2009 में, उसने अपने उभयलिंगी होने की पुष्टि की. ELLE के जुलाई 2009 अंक में, हालांकि, उसने बयान दिया कि उसने अपसारक के साथ अपने संबंध की घटनाओं को किसी तरह विकृत कर दिया और कहा कि उसने अपने अतीत के कुछ ख़ास पुरुष लेखकों के "एक प्रवर्धक संस्करण" प्रदान किया है। "वे लड़के हैं; उनके साथ बड़ी आसानी से खेला जा सकता है," उसने कहा. "मैं कहानियां सुनाती हूं और उन्हें अपने हाथ से खाना खिला चुकी हूं. इसमें से सब सच नहीं है। वास्तव में, इसमें से अधिकांश बकवास है।" फ़ॉ���्स ने कहा, "मैं कभी यह नहीं कहा कि वह मेरी प्रेमिका थी! मैं सिर्फ इतना कहा कि मैं उससे प्यार करती थी और मैंने उसे प्यार किया। वास्तविक कहानी और भी गंभीर है। यह कोई कामुक, मज़ेदार, काल्पनिक कहानी नहीं है। लेकिन वह ऐसी कहानी नहीं है जिसे आप GQ को सुनाते हैं।" 15 जून 2009 को, ट्रांसफ़ॉर्मर्स: रिवेंज ऑफ़ द फ़ॉलेन के UK प्रीमियर के अवसर पर, फ़ॉक्स ने चेरिल कोल के साथ स्थापित किए गए एक संक्षिप प्रेम और कोल के टैटूओं के प्रति अपनी चाहत का खुलासा किया। जून 2009 में एक प्रस्तुति के दौरान, द काइल ऐंड जैकी ओ शो पर, उसने बयान दिया कि पुरुष कोरियाई पॉप गायक रेन में उसकी दिलचस्पी है।
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इसके अलावा फ़ॉक्स ने अपनी असुरक्षा और आत्म-क्षति का खुलासा भी किया है। वह यह भी मानती है कि उसमें आत्मसम्मान की भावना बहुत कम है।
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इसके अलावा, फ़ॉक्स को उड़ान के दौरान डर लगता है; उसने कहा कि उसमें यह डर तब पैदा हुआ जब वह 20 की हुई. विमान में चढ़ने के दौरान डरावने आघात से बचने के उद्देश्य से उसने कुछ तरीके ढूंढ निकाले है और ऐसे मौके पर वह ख़ास तौर पर ब्रिटनी स्पीयर्स के गाने सुनकर अपने आपको शांत बनाए रखती है। इसके अलावा, उसने पुरुषों के प्रति अपने अविश्वास की भावना को भी व्यक्त किया है। "मैं उन्हें बिलकुल पसंद या उनपर बिलकुल विश्वास नहीं करती," फ़ॉक्स ने बयान दिया.
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