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ऐसे सामान्य पाठक जो प्रमुख चुनिन्दा अंशों को ही पढ़ना चाहें, उनके लिए सर्वोत्तम संकलन है 'संकलित निबन्ध'
शर्मा जी पर केन्द्रित अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक प्रकाशित होते रहे हैं, जिनमें उपलब्ध और विशेष पठनीय हैं -
हिंदी जाति की अवधारणा रामविलास शर्मा के जातीय चिंतन का केंद्रीय बिंदु है। भारतीय साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन तथा वैश्विक साहित्य से अन्तर्क्रिया के द्वारा रामविलास जी ने साहित्य के जातीय तत्वों की प्रगतिशील भूमिका की पहचान की है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ॰ रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है।
इतिहास की समस्याओं से जूझना मानो उनकी पहली प्रतिज्ञा हो। वे भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने में जुटे रहे। उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आए हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गए हैं। वे लिखते हैं - ‘‘दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन अभियानों की सहस्त्राब्दी है।
इसी दौरान भारतीय आर्यों के दल इराक से लेकर तुर्की तक फैल जाते हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूँजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई है। जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है, उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ ही वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना है।
भुखमरी, अशिक्षा, अंधविश्‍वास और नए-नए रोग फैलाने वाली वर्तमान समाज व्यवस्था को बदलना है। इसके लिए भारत और उसके पड़ोसियों का सम्मिलित प्रयास आवश्‍यक है। यह प्रयास जब भी हो, यह अनिवार्य है कि तब पड़ोसियों से हमारे वर्तमान संबंध बदलेंगे और उनके बदलने के साथ वे और हम अपने पुराने संबंधों को नए सिरे से पहचानेंगे। अतीत का वैज्ञानिक, वस्तुपरक विवेचन वर्तमान समाज के पुनर्गठन के प्रश्‍न से जुड़ा हुआ है।’’
भारतीय संस्कृति की पश्चिम एशिया और यूरोप में व्यापकता पर जो शोधपरक कार्य रामविलासजी ने किया है, इस कार्य में उन्होंने नृतत्वशास्त्र, इतिहास, भाषाशास्त्र का सहारा लिया है। शब्दों की संरचना और उनकी उत्पत्ति का विश्‍लेषण कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आर्यों की भाषा का गहरा प्रभाव यूरोप और पश्चिम एशिया की भाषाओं पर है।
वे लिखते हैं - ‘‘सन्‌ 1786 में ग्रीक, लैटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था, ‘ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृद्ध है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारू रूप से परिष्कृत है।’ पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्‍वास किए बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्रोत से जन्मे हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है।
इसके बाद एक स्रोत भाषा की शाखाओं के रूप में जर्मन, स्लाव, केल्त आदि भाषा मुद्राओं को मिलाकर एक विशाल इंडो यूरोपियन परिवार की धारणा प्रस्तुत की गई। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने भारी प्रगति की है। अनेक नई-पुरानी भाषाओं के अपने विकास तथा पारस्परिक संबंधों की जानकारी के अलावा बहुत से देशों के प्राचीन इतिहास के बारे में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे इसी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की देन हैं। आरंभ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली स्रोत भाषा का गहरा संबंध भारत से है। यह मान्यता मार्क्स के एक भारत संबंधी लेख में भी है।’’
अँग्रेजों के प्रभुत्व से भारतीय जनता की मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने 1833 में लिखा था, ‘‘हम निश्‍चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के सज्जन निवासी राजकुमार साल्तिकोव के शब्दों में इटैलियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल हैं, जिनकी अधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अँग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्मों का उद्गम है और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरूप जाति में, प्राचीन यूनान का स्वरूप ब्राह्यण में प्रतिबिंबित है।’’
डॉ॰ रामविलास शर्मा मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय संदर्भों का मूल्यांकन करते हैं, लेकिन वे इन मूल्यों पर स्वयं तो गौरव करते ही हैं, साथ ही अपने पाठकों को निरंतर बताते हैं कि भाषा और साहित्य तथा चिंतन की दृष्टि से भारत अत्यंत प्राचीन राष्ट्र है। वे अँग्रेजों द्वारा लिखवाए गए भारतीय इतिहास को एक षड्यंत्र मानते हैं।
उनका कहना है कि यदि भारत के इतिहास का सही-सही मूल्यांकन करना है तो हमें अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना होगा। अँग्रेजों ने जान-बूझकर भारतीय इतिहास को नष्ट किया है। ऐसा करके ही वे इस महान राष्ट्र पर राज कर सकते थे। भारत में व्याप्त जाति, धर्म के अलगाव का जितना गहरा प्रकटीकरण अँग्रेजों के आने के बाद होता है, उतना गहरा प्रभाव पहले के इतिहास में मौजूद नहीं है। समाज को बाँटकर ही अँग्रेज इस महान राष्ट्र पर शासन कर सकते थे और उन्होंने वही किया भी है।
पुरस्कारों में प्राप्त राशियों को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। उन राशियों को हिन्दी के विकास में लगाने को कहा।
2012-2013 रामविलास शर्मा का जन्म-शताब्दी वर्ष था। रामविलास शर्मा के ऊपर अपना व्याख्यान देते हुये वीर भारत तलवार ने कहा था कि रामविलास शर्मा की मृत्यु ने हिन्दी मीडिया को झकझोर कर रख दिया था। वे कहते हैं-
इससे हम रामविलास शर्मा की लोकप्रियता और उनके जाने से हुए क्षति दोनों का अनुमान लगा सकते हैं।
पौधों में परिसंचरण तंत्र का अर्थ है-किसी पौधे के द्वारा अवशोषित या निर्मित पदार्थों का पौधे के अन्य सभी हिस्सों तक पहुंचाना। पौधों में जल और खनिजों को उसके अन्य हिस्सों में तक पहुंचाने की जरूरत पड़ती है। पौधों को पत्तियों में बने भोजन को भी पौधे के अन्य हिस्सों तक पहुंचाने की जरूरत पड़ती है। पौधे शाखायुक्त होते हैं, ताकि उन्हें प्रकाशसंश्लेषण हेतु कार्बन डाइऑक्साइड और ऑक्सीजन प्रसरण के माध्यम से हवा से सीधे मिल सकें।
पौधों को, प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया के माध्यम से भोजन निर्मित करने के लिए पानी की और प्रोटीन के निर्माण के लिए खनिजों की जरूरत पड़ती है। इसलिए, पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से जल और खनिज को अवशोषित करते हैं और पौधे के तने, पत्तियों, फूलों आदि अन्य हिस्सों में इसे पहुंचाते हैं। जाइलम ऊतक के दो प्रकार के तत्वों अर्थात जाइलम वाहिकाओं और वाहिनिकाओं से होकर ही जल एवं खनिजों को पौधों की जड़ों से उसकी पत्तियों तक पहुंचाया जाता है।
जाइलम वाहिकाएँ एक लंबी नली होती हैं, जो अंतिम सिरों पर जुड़ी हुई मृत कोशिकाओं से मिलकर बनी होती हैं। ये एक निर्जीव नली होती है, जो पौधे की जड़ों से होती हुई प्रत्येक तने और पत्ती तक जाती है। कोशिकाओं की अंतिम सिरे टूटे हुए होते हैं, ताकि एक खुली हुई नली बन सके।
जाइलम वाहिकाओं मेंसाइटोप्लाज्म या नाभिक नहीं होता और वाहिकाओं की दीवारें सेल्यूलोज या लिग्निन से बनी होती हैं। जल और खनिजों के परिसंचरण के अतिरिक्त जाइलम वाहिकाएँ तने को मजबूती प्रदान कर उसे ऊपर की ओर बनाए रखती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लिग्निन बहुत सख्त और मजबूत होता है। लकड़ी लिग्निन युक्त जाइलम वाहिकाओं से ही बनती है। जाइलम वाहिकाओं की कोशिका भित्ति में गड्ढे होते हैं, जहां लिग्निन जमा नहीं हो पाता। या तो जाइलम वाहिकाएँ या फिर जाइलम वाहिकाएँ और वाहिनिकाएँ दोनों, पुष्पीय पौधों में जल का परिसंचरण करती हैं।
बिना पुष्प वाले पौधों में वाहिनिकाएँ ही एक मात्र ऐसे ऊतक होते हैं, जो जल का परिसंचरण करते है। वाहिनिकाएँ मृत कोशिकाएं होती हैं,और इसकी भित्ति लिग्निन युक्त होती हैं और इसमें खुले हुए सिरे नहीं पाये जाते हैं। ये लंबी, पतली और तंतु के आकार वाली कोशिकाएं होती हैं। इनमें गड्ढ़े पाये जाते हैं जिनके जरिए ही एक वाहिनिका से दूसरे वाहिनिका में पानी का परिसंचरण होता है। सभी पौधों में वाहिनिकाएँ पायी जाती हैं।
==एक पौधे में जल और खनिजों परिसंचरण प्रक्रिया को समझने से पहलेनिम्नलिखित महत्वपूर्ण शब्दों काअर्थ जानना आवश्यक है==
पौधे के जड़ की कोशिकाओं की बाहरी परत को बाह्यत्वचा कहते हैं। बाह्यत्वचाकी मोटाई एक कोशिका के बराबर होती है।
किसी पौधे के संवहन ऊतकों के आसपास उपस्थित कोशिकाओं की परत अंतःत्वचाकहलाती है। यह कोर्टेक्स की सबसे भीतरी परत होती है।
यह जड़ में बाह्यत्वचाऔर अंतःत्वचा के बीच में पाया जाने वाला हिस्सा होता है।जड़ीय/रूट जाइलमः यह जड़ों में उपस्थित जाइलम ऊतक है, जोकि जड़ के केंद्र में उपस्थित होता है।बाह्यत्वचा, रूट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा जड़ों के रोम और रूट जाइलम के बीच स्थित होते हैं। इसलिए, जड़ों के रोम द्वारा मिट्टी से अवशोषित जल सबसे पहले बाह्यत्वचा, रुट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा से होकर गुजरता है और फिर अंत में रूट जाइलम में पहुंचता है।इसके अलावा, मिट्टी में खनिज भी पाये जाते हैं। पौधे मिट्टी से इन खनिजों को अकार्बनिक, जैसे-नाइट्रेट और फॉस्फेट, के रूप में लेते हैं। मिट्टी से मिलने वाले खनिज जल में घुलकर जलीय घोल बनाते हैं। इसलिए जब जल जड़ों से पत्तियों तक ले जाया जाता है,तो खनिज भी पानी में घुल जाते हैं और वे भी जल के साथ पत्तियों तक पहुंच जाते हैं।
जड़ों के रोम मिट्टी से खनिज घुले जल को अवशोषित कर लेते हैं। जड़ों के रोम मिट्टी के कणों के बीच मौजूद जल की परत के साथ सीधे संपर्क में होता है। खनिज युक्त जल जड़ों के रोम में जाता है और परासरण की प्रक्रिया के माध्यम से कोशिकाओं से होता हुआ बाह्यत्वचा, रुट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा और रूट जाइलम में पहुंचता है।पौधे के जड़ की जाइलम वाहिकाएँ तने की जाइलम वाहिकाओं से जुड़ी होती है। इसलिए जड़ की जाइलम वाहिकाओं से जल तने की जाइलम वाहिकाओं में जाता है और फिर पौधे के डंठल से होते हुए पौधे की पत्तियों तक पहुंचता है। प्रकाशसंश्लेषण क्रिया में पौधे सिर्फ एक से दो प्रतिशत पानी का ही प्रयोग करते हैं, बाकी जल जलवाष्प के रूप में वायु में शामिल हो जाता है।जाइलम वाहिकाएँ जल अवशोषितकरती हैंपौधे के शीर्ष पर दबाव कम रहता है, जबकि पौधे के निचले हिस्से में दबाव अधिक होता है। पौधे के शीर्ष पर दबाव के कम होने की वजह वाष्पोत्सर्जन है। चूंकि पौधे के शीर्ष पर दबाव कम होता है, इसलिए जल जाइलम वाहिकाओं से पौधे की पत्तियों में संचरित होता है।पौधे की पत्तियों से होने वाला वाष्पीकरण ‘वाष्पोत्सर्जन’ कहलाता है। पौधे की पत्तियों पर छोटे–छोटे छिद्र होते हैं, जिन्हें ‘स्टोमेटा’ कहते हैं। इसके माध्यम से ही जल वाष्प बन कर वायु में चला जाता है। यह जाइलम वाहिकाओं के शीर्ष का दबाव कम कर देता है और पानी उसमें संचरित होता है।भोजन और अन्य पदार्थों का परिवहनप्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया में एक पौधे की पत्तियों में तैयार होने वाला भोजन उसके अन्य हिस्सों जैसे तनों, जडों, शाखाओं आदि में पहुंचाया जाता है। ये भोजन एक प्रकार की नली के जरिए पौधों के अलग–अलग हिस्सों में पहुंचता है, ये नली ‘फ्लोएम’ कहलाती है। पौधे की पत्तियों से भोजन का पौधे के अन्य हिस्सों में भेजा जाना ‘स्थानान्तरण’ कहलाता है। पत्तियों द्वारा बनाया जाने वाला भोजन सरल शर्करा के रूप में होता है। फ्लोएम पौधे के सभी हिस्सों में मौजूद होता है।फ्लोएम में चालनी नलिकाएँ पायी जाती हैंफ्लोएम एक लंबी नली होती है। कई जीवित कोशिकाएं अंतिम सिरों पर एक दूसरे से जुड़कर इनका निर्माण करती हैं। फ्लोएम की जीवित कोशिकाएं ‘चालनी नलिकाएँ’ कहलाती हैं। फ्लोएम में कोशिकाओं की अंतिम भित्ति पर चालनी पट्टियाँ पायी जाती हैं, जिनमें छोटे–छोटे छिद्र बने होते हैं। इन्हीं छिद्रों से होकर फ्लोएम नलिका के सहारे भोजन संचरित होता है। चालनी नलिकाओं में साइटोप्लाज्म तो होता है, लेकिन कोई केंद्रक नहीं होता है। प्रत्येक चालनी नलिका कोशिका के साथ एक और कोशिका पायी जाती है, जिसमें केंद्रक और कई अन्य कोशिकांग उपस्थित होते हैं। चालनी नलिकाओं की कोशिका भित्ति में सेल्यूलोज होता है, लेकिन लिग्निन नहीं पाया जाता है।
==पौधों में भोजन के परिसंचरण कीप्रक्रिया==एटीपी से मिली ऊर्जा का प्रयोग कर पौधों की पत्तियों में बना भोजन फ्लोएम ऊतक की चालनी नलिकाओं में प्रवेश करता है। उसके बाद परासरण की प्रक्रिया द्वारा शर्करा युक्त जल चालनी नलिका में प्रवेश करता है। इससे फ्लोएम ऊतक में दबाव बढ़ता है। फ्लोएम ऊतक में बना उच्च दबाव पौधे के निम्न दबाव वाले अन्य सभी हिस्सों में भोजन पहुंचाने का काम करता है। इस प्रकार फ्लोएम ऊतक के माध्यम से पौधे के सभी हिस्सों में भोजन पहुंचाया जाता है।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी विभाग, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्रक के विकास के लिए शीर्ष प्राधिकरण है। इसकी स्‍थापना देश में विभिन्‍न जैव प्रौद्योगिकीय कार्यक्रमों और क्रियाकलापों की योजना बनाने संवर्धन करने और समन्‍वयन करने के लिए की गई है। यह राष्‍ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाओं, विश्‍वविद्यालयों और विभिन्‍न क्षेत्रकों में अनुसंधान बुनियादों, जो जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित है, के लिए सहायता अनुदान की सहायता प्रदान करने के लिए नोडल एजेंसी है।
1986 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत बायोटेक्नोलॉजी विभाग की अलग से स्थापना करने से भारत में आधुनिक जीवविज्ञान और जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में विकास को नई शक्ति मिली है। 10 वर्षों से अधिक के अपने अस्तित्व में आने से, विभाग ने देश में जैवप्रौद्योगिकी के विकास में गति तथा प्रोत्सहान प्रदान किया है। कई अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं, प्रदर्शनियों और अवसंरचनात्मक सुविधाओं के सृजन के द्वारा इस क्षेत्र में एक साफ व्यवहार्य प्रभाव दिखाई देता है। विभाग ने प्रमुख कृषि, स्वास्थ्य देखरेख, पशु विज्ञान, पर्यावरण और उद्योग में प्रमुख क्षेत्रों में जैवप्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग और वृद्धि करने में महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त की हैं।
कृषि, स्वास्थ्य देखरेख, पर्यावरण और उद्योग में जैवप्रौद्योगिकी से संबंधित विकास का प्रभाव पहले ही दिखाई देता है और अब उत्पादों और प्रक्रियाओं पर इसके प्रयत्न किए जा रहे हैं। 5000 से अधिक प्रकाशन, 4000 पोस्ट-डाक्टोरल विद्यार्थी, उद्योगों को कई प्रौद्योगिकियां हस्तांतरित की गई हैं और यू एस पेटेन्ट सहित पेटेन्टों का दखिल किया गया है को सन्तुलित शुरूआत के रूप में विचार किया जा सकता हैं। बायोटेकेलॉजी विभाग विश्वविद्यालयों और अन्य राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की विद्यमान विशेषज्ञता का उपयोग करने के लिए प्रति वर्ष 5000 से अधिक वैज्ञानिकों के साथ अन्योन्यक्रिया कर रहा है। एक बहुत सुदृढ समीक्षा और निगरानी प्रक्रियाओं का विकास किया गया है। जैवप्रौद्योगिकी अनुप्रयोग परियोजनाओं का विकास करने के लिए, प्रमाणीकृत प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन करने के लिए और राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों में मानव संसाधन का प्रशिक्षण देने के लिए राज्य की विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषदों के द्वारा राज्य सरकारों के साथ घनिष्ठ अन्योन्यक्रिया की जा रही है। गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा पश्चिम बंगाल, हरियाणा, पंजाब, जम्मू व कश्मीर, मिजोरम, आंध्रप्रदेश और उत्तर प्रदेश क्षेत्रों के साथ कार्यक्रमों को बनाया गया है। मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में जैवप्रौद्योगिकी अनुप्रयोग केन्द्रों को पहले ही शुरू किया जा चुका है।
विभाग की एक मुख्य विशेषता यह है कि विभिन्न कार्यक्रमों और गतिविधियों की पहचान करने, फारमूलेशन करने, क्रियान्वयन और निगरानी करने के लिए कई तकनीकी कार्यदलों, सलाहकार समितियों और व्यक्तिगत विशेषज्ञों के द्वारा देश के वैज्ञानिक समुदाय को गहन रूप से शामिल करना है।
भारत में आधुनिक जीवविज्ञान और जैवप्रौद्योगिकी के पहचान किए गए क्षेत्रों में अनुसंधान ाौर विकास में दशक से अधिक संगठित प्रयत्नों ने अच्छे परिणाम दिए हैं। प्रयोगशाला स्तर पर प्रमाणित प्रौद्योगिकियों को उन्नत किया गया है। खोजों की पेटेंटिंग, उद्योगों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और उद्योग के साथ नजदीकी अन्योन्यक्रिया ने जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान को नई दिशा प्रदान की है। कीट और रोग प्रतिरोध पर बल देते हुए पादपों में पराजीनी अनुसंधान, पोषकता क्षमता, रेशमकीट जीनोम विश्लेषण, मानव आनुवंशिक विकृतियों का आण्विक जीवविज्ञान, मस्तिष्क अनुसंधान, पादप जीनोम अनुसंधान, विकास, संचारी रोगों के लिए नैदानिक किटें और टीकों का मूल्यांकन और व्यापारीकरण, खाद्य जैवप्रौद्योगिकी, जैवविविधता संरक्षण और जैवपूर्वेक्षण, अनु.जाति, अनु. जनजाति, ग्रामीण क्षेत्रों, महिलाओं और विभिन्न राज्यों पर आधारित सूक्ष्म प्रवर्धन पार्कों की स्थापना करना और जैवप्रौद्योगिकी आधारित विकास को बढावा देने के लिए कार्य शुरू किए गए हैं।
पराजीनी पादपों, पुनर्योगज टीकों और औषधों के लिए आवश्यक मार्गनिर्देशों को भी बनाया गया है। स्वदेशी क्षमताओं का एक सुदृढ अाधार बनाया गया है। अगली सहस्त्राब्दि में सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नई खोजों और अनुप्रयोगों दोनों के लिए प्रमुख अनुसंधान और व्यापारीकरण के प्रयत्न किए जाएंगे।
विभाग की मुख्‍य जिम्‍मेदारियां निम्‍नलिखित हैं :-
विभाग जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में विभिन्न कार्यक्रमों और अनुसंधान व विकास परियोजनाओं के साथ कार्य करता है। गतिविधि का ब्यौरा नीचे दिया गया है। कृपया विभिन्न कार्यक्रमों को देखने के लिए नोडल अधिकारियों को किल्क करें।
विभाग के पास सात स्‍वायत्त संस्‍थाएं हैं जिनके लिए चिकित्‍सा, कृषि और औद्योगिक जैव प्रौद्योगिकी के विभिन्‍न पहलुओं पर कार्य करना अनिवार्य कर दिया गया है ये निम्‍नलिखित हैं, इनके साथ ही, इनकी आधिकारिक वेबसाइट भी लिखित हैं :-
जबकि विभाग में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम जो जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्रक के विकास के लिए कार्य करते हैं, निम्‍नलिखित हैं :-
विभाग निम्‍नलिखित के विस्‍तृत क्षेत्रों में जैव-प्रौद्योगिकी के विकास और अनुप्रयोग में महत्‍वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर रहा है :-
ऐसे प्रयासों को अनुपूरित करने और जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्रक में बड़ी मात्रा में निवेश आकर्षित करने के लिए विभाग अनेकानेक नीतिगत पहलें और उपाय समय-समय पर कर रहा है। इनमें से सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण 'राष्‍ट्रीय जैव-प्रौद्योगिकी विकास कार्यनीति' की घोषणा है यह समग्र नीतिगत ढांचे के रूप में है ताकि जैव प्रौद्योगिकी उद्योग को बढ़ाया जा सके। यह उन भंडारों को लेता है जो भविष्‍य के लिए पूरा किया जाता और ढांचा प्रदान करता है, जिसके अंतर्गत कार्य नीतियां और विशिष्‍ट कार्य क्षेत्रक को संवर्धित करने के लिए करने की आवश्‍यकता है। इस नीति का लक्ष्‍य कृषि और खाद्य जैव-प्रौद्योगिकी, औद्योगिक जैव-प्रौद्योगिकी, उपचारात्‍मक और चिकित्‍सा जैव-प्रौद्योगिकी पुनरुत्‍पादक और जातिगत दवाइयों, नैदानिक जैव-प्रौद्योगिकी जैव अभियंता, नैनो जैव प्रौद्योगिकी, विनिर्माण और जैव प्रक्रियान्‍वयन, अनुसंधान सेवाओं, जैव संसाधनों, पर्यावरण और बौद्धिक सम्‍पदा कानून के क्षेत्रों में उन्‍नति के मार्ग प्रशस्‍त करना है।
नीतिगत ढांचे के मुख्‍य उद्देश्‍य हैं :-
जैव प्रौद्योगिकी पार्क और जैव प्रौद्योगिकी ऊष्‍मायित्र की स्‍थापना तथा विभिन्‍न राज्‍यों और संगठनों में प्रशिक्षण एवं पायलट परियोनजाओं की स्‍थापना जैव प्रौद्योगिकी शुरू करने वाली कम्‍पनियों के लिए उत्‍कृष्‍ट माहौल प्रदान करती है। इसके तहत युवा उद्यमियों को वित्तीय/युक्तिगत सहायता प्रदान करने की योजनाएं हैं, जो जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में अधिक पूंजी कम करने की स्थिति में नहीं हैं परन्‍तु उनके पास विकास, डिजाइन और नए जैव प्रौद्योगिकी उत्‍पाद और प्रक्रियन्वयनों की जैव प्रौद्योगिकीय ऊष्‍मायित्र और पायलट स्‍तर की सुविधाओं का उपयोग करके पूर्ण बनाने की क्षमताएं हैं। कुछ मौजूदा जैव प्रौद्योगिकी पार्क/ऊष्‍मायित्र केन्‍द्रों और पायलट परियोजनाएं निम्‍नलिखित हैं :-
'राष्‍ट्रीय जैव संसाधन विकास बोर्ड ' की स्‍थापना विभाग के अंतर्गत की गई है ताकि अनुसंधान और विकास तथा जैव संसाधनों का स्‍थायी उपयोगिता विशेषकर नए उत्‍पादों और प्रक्रियाओं के विकास के लिए जैव-प्रौद्योगिकी और संबंधित वैज्ञानिक तरीकों के प्रभावी अनुप्रयोग के लिए विस्‍तृत नीतिगत ढांचे का निर्णय किया जा सके। बोर्ड जैव विज्ञान के आधुनिक उपकरणों का उपयोग करते हुए त्‍वरित अनुसंधान और विकास के माध्‍यम से राष्‍ट्र की आर्थिक सम्‍पन्‍नता के लिए वैज्ञानिक कार्य योजना का विकास करना चाहता है। बोर्ड के क्रियाकलापों की सहायता करने के लिए एक राष्‍ट्रीय संचालन समिति का गठन किया गया है।
एनबीडीबी ने तीन प्राथमिकता क्षेत्रों की पहचान कर ली हैं क्‍योंकि :-
जैव प्रौद्योगिकी में अंतरराष्‍ट्रीय सहयोग विभाग की मुख्‍य ताकत है, भारत के साथ सहयोग में इच्‍छुक असंख्‍य देश नवीकरण कर रहे हैं। इनका अनुशीलन ज्ञानाधार का विस्‍तार करने और विशेषज्ञता विकसित करने के लिए महत्‍वपूर्ण माध्‍यम के रूप में किया जा रहा है, जो देश में अनुसंधान और विकास में गति को तेज करेगा। हालिया समय में जैव-प्रौद्योगिकी में अंतरराष्‍ट्रीय सहयोग में स्‍थायी प्रगति हुई है जिसके परिणाम स्‍वरूप अनेकानेक महत्‍वपूर्ण अनुसंधान परियोजनाएं, उत्‍पाद और प्रौद्योगिकी आए हैं। डेनमार्क और फिनलैंड के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्‍ताक्षर किए गए हैं और प्रस्‍ताव के लिए संयुक्‍त आहवान जारी किए गए हैं। जैव-प्रौद्योगिकी और जैव विज्ञानी विज्ञान अनुसंधान परिषद यूके के साथ संयुक्‍त परियोजनाओं को भी निधियन किया गया है। विभाग में क्रमश: कृषि और कृषि खाद्य कनाडा और राष्‍ट्रीय अनुसंधान केन्‍द्र कनाडा के साथ दो ज्ञापन पर हस्‍ताक्षर किए हैं। एनआईएच, यूएसए के साथ अनुसंधान संबंधी विजन पर नया करार और गर्भ निरोधक अनुसंधान और विकास कार्यक्रम यूएसए पर भी हस्‍ताक्षर किए गए हैं। जर्मनी, मंगोलिया, सिंगापुर, श्रीलंका, स्‍वीटरलैंड यूके और यूएसए के साथ चालू द्विपक्षीय सहयोग का अनुशीलन किया गया है। साइप्रस, नार्वे, स्‍वीडन, यूक्रेन और ईयू के साथ द्विपक्षीय पारस्‍परिक क्रिया आरंभ किए जा चुके हैं। सार्क देशों के बीच सहयोग सहित बहुपक्षीय सहयोग का भी अनुशीलन किया गया है।
इन सबके परिणामस्‍वरूप भारत विश्‍व के नक्‍शे पर जैव प्रौद्योगिकी केन्‍द्र के रूप में उभर कर सामने आया है और इसे मनपसंद निवेश स्‍थान के रूप में देखा जा रहा है। आण्विक जीव विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी में विकास के कारण समाज की आर्थिक खुशहाली पर सराहनीय प्रभाव पड़ा है। भारतीय जैव प्रौद्यो‍गिकी क्षेत्रक उभरते व्‍यापार अवसरों के लिए वैश्विक परिदृश्‍य में आ रहा है और नवपरिवर्तनीय दवाइयों, कृषि में अधिक उत्‍पादकता और पोषक वृद्धि एवं पर्यावरण रक्षा सहित मूल्‍यवर्धन के लिए बढ़ती जनसंख्‍या की आवश्‍यकताओं को पूरा करने की अपार क्षमत रखता है। तथापि, अनेकानेक सामाजिक चिंताएं हैं, जिनका समाधान करना देश की जैव प्रौद्योगिकी नवपरिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए आवश्‍यक है, जैसाकि जैव संसाधनों का संरक्षण करना और उत्‍पादों और प्रक्रियाओं की सुरक्षा आदि सुनिश्चित करना। तदनुसार सरकार और निजी क्षेत्रक दोनों को जन समुदाय को शिक्षित करने और हितों की रक्षा करने में तथा उनके लिए आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के लाभों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना है।
जैव प्रौद्योगिकी की वैश्विक पहचान, त्‍वरित रूप से उभरती, व्‍यापक विस्‍तार वाली प्रौद्योगिकी के रूप में हुई है। यह विज्ञान का अग्रणी क्षेत्र है जो राष्‍ट्र की वृद्धि और विकास में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसका आशय किसी भी प्रौद्योगिकीय अनुप्रयोग से है जो जैव-विज्ञानी रूपों का उपयोग करता और प्रणालियों का प्रयोग करता है वह भी नियंत्रण योग्‍य तरीके से, जिससे कि नए और उपयोगी उत्‍पादों और प्रक्रियाओं का उत्‍पादन किया जा सके तथा विद्यमान उत्‍पादों को परिवर्तित किया जा सके। यह न केवल मानव जाति को लाभ पहुंचाना चाहता है अपितु अन्‍य जीव रूपों को भी जैसा कि सूक्ष्‍म जीव। यह पर्यावरण में हानिकारक हाइड्रोकार्बन कम करके, प्रदूषण नियंत्रण करके अनुकूल पारिस्थितिकी संतुलन कायम रखने में सहायता करता है।
भारत में, जैव प्रौद्योगिकी तेजी से विकसित होता ज्ञान आधारित क्षेत्रकों में एक है। इसे शक्तिशाली समर्थकारी प्रौद्योगिकी माना गया है जो कृषि, स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल, औद्योगिक प्रक्रियान्‍वयन और पर्यावरणीय स्थायित्‍व में क्रांति ला सकता है। आज कल इसका बढ़ता प्रयोग विभिन्‍न किस्‍म की फसलों के विकास और विशिष्‍ट रूप से विकसित किस्‍मों केलिए किया जाता है, नए भेषजीय उत्‍पाद, रसायन, सौंदर्य प्रसाधनों, उर्वरक का आधिक्‍य, वृद्धि वर्धक, प्रसंस्‍कृत खाद्य पदार्थ, स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल के उपकरण और पर्यावरण से संबंधित तत्‍व आदि। भारतीय जैव-प्रौद्योगिकी वर्ग ने वैश्विक मंच पर त्‍वरित वृद्धि की है। काफी बड़ी संख्‍या में उपचारिक जैव प्रौद्योगिकीय औषध हैं और टीके हैं, जिनका देश में उत्‍पादन और विपणन किया जा रहा है और मानव जाति की अपार सहायता की जा रही है। क्षेत्रक ने 1.07 बिलियन डॉलर का राजस्‍व अर्जित किया जिसने वर्ष 2005-06 में 36.55 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की।
भारत की पहचान वृद्धि जैव विविधता देश के रूप में हुई है। जैव प्रौद्योगिकी देश की विविध जैव-विज्ञानी संसाधनों को आर्थिक सम्‍पन्‍नता और रोजगार के अवसरों में परिवर्तित करने के लिए मार्ग प्रदान करता है। अनेकानेक कारक हैं जो जैव-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशिष्‍ट क्षमता विकसित करने के लिए प्रेरणा सृजित करते हैं। वे हैं : वैज्ञानिक मानव संसाधन का विशाल भंडार अर्थात वैज्ञानिकों और अभियंताओं का एक मजबूत समूह, किफायती विनिर्माण क्षमताएं, अनेक राष्‍ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाएं, जिसमें हजारों वैज्ञानिकों को रोजगार मिला हुआ है, जैव विज्ञान में अकादमी उत्‍कृष्‍टता के केन्‍द्र, अनेकानेक मेडिकल कॉलेज, शैक्षिक और प्रशिक्षण संस्‍थान, जो जैव प्रौद्योगिकी में डिग्री और डिप्‍लोमा प्रदान करते हैं, जैव-सूचना विज्ञान और जीव विज्ञानी विज्ञान, असरदार औषध और भेषज उद्योग, तथा तेजी से विकसित होती उपचारात्‍मक क्षमताएं।
गृह विज्ञान शिक्षा की वह विधा है जिसके अन्तर्गत पाक शास्त्र, पोषण, गृह अर्थशास्त्र, उपभोक्ता विज्ञान, बच्चों की परवरिश, मानव विकास, आन्तरिक सज्जा, वस्त्र एवं परिधान, गृह-निर्माण आदि का अध्ययन किया जाता है।
ऐतिहासिक रूप से जब बालकों को कृषि या 'शॉप' आदि की शिक्षा दी जाने लगी तो बालिकाओं के लिये इस विषय के शिक्षण की आवश्यकता महसूस की गयी।
जैसा कि नाम से ही पता चलता है, गृह विज्ञान का संबंध गृह यानी कि घर से हैं। आम तौर पर लोग समझते हैं कि गृह विज्ञान घर की देखभाल और घरेलू सामान की साज-संभाल का विषय है। लेकिन उनका ऐसा समझना केवल आंशिक रूप से सत्य है। गृह विज्ञान का क्षेत्र काफी विस्त त और विविधता भरा है। इसका दायरा ‘घर’ की सीमा से कहीं आगे तक निकल जाता है और यह केवल खाना पकाने, कपडे़ धोने-संभालने, सिलाई-कढ़ाई करने या घर की सजावट आदि तक सीमित नहीं रह जाता। वास्तव में केवल यही एक ऐसा विषय है जो युवा विद्यार्थियों को उनके जीवन के दो महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों के लिए तैयार करता है - घर तथा परिवार की देखभाल और अपने जीवन में कैरिअर अथवा पेशे के लिए तैयारी। आजकल महिला तथा पुरुष दोनों ही घर तथा परिवार की जिम्मेदारियां समान रूप से निभाते हैं तथा अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए उपलब्ध संसाधनों के बेहतर उपयोग की तैयारी में भी बराबर की सहभागिता निभाते हैं।
गृह विज्ञान अथवा घर के विज्ञान का संबंध आप से, आपके घर से, आपके परिवार के सदस्यों से तथा आपके संसाधनों से जुड़ी सभी चीजों से है। इसका उद्देश्य है - आपके संसाधनों के प्रभावशाली तथा वैज्ञानिक उपयोग द्वारा आपको तथा आपके परिवार के सदस्यों को भरपूर संतुष्टि प्रदान करना।
गृह विज्ञान का अर्थ है, आपके संसाधनों के प्रभावशाली प्रबंधन की कला तथा एक ऐसा विज्ञान, जो एक घर को स्वस्थ तथा सानंद बनाए रखने और आवश्यकता पड़ने पर एक सफल पेशे के चुनाव में आपकी मदद करे।
गृह विज्ञान आपको चीजों को उपयोग करने की कला सिखाता है, जिससे कि चारों और एक संपूर्ण सुव्यवस्था, सुंदरता और आंदमयी वातावरण के निर्माण में सहायता मिलती है। इसके साथ ही यह घर की देखभाल से संबंधित वैज्ञानिक जानकारियां भी प्रदान करता है। इसे हम एक उदाहरण के द्वारा आसानी से समझ सकते हैं- गृह विज्ञान शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों के बारे में जानकारी प्रदान करता है तथा साथ ही उनके कार्यों के बारे में भी बताता है। यह एक ’विज्ञान’ है। और जब आप इन्हीं आवश्यक पोषक तत्त्वों से भरपूर भोजन को अपने परिवार को आकर्षक ढंग से परोसते हैं तो यह एक ’कला’ है।
विज्ञान और कला का यह समन्वय आपके जीवन के हर क्षेत्र में काम आता है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -
गृह विज्ञान के विविध क्षेत्रों की पढ़ाई करने के बाद आप अपने संसाधनों का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं। यदि ऐसा करते हुए आपको किसी प्रकार की समस्या पेश आती है, तो गृह विज्ञान उसे हल करने के लिए आपको सही दिशा निर्देश देगा। ऐसा करके आप एक प्रभावशाली व्यक्ति बनते हैं। इस ज्ञान का उपयोग आप अपने घर और जीवन के विकास में कर सकते हैं। आप और आपके परिवार के सदस्य अपनी दक्षताओं के उपयोग से अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार लाकर ज्यादा संतुष्टि का अनुभव कर सकते हैं। जब आप अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम होंगे तभी वे भी घर और बाहर दोनों तरफ की जिम्मेदारियों का निर्वाह कर पाने में सक्षम होंगे।
समय, ऊर्जा, दक्षता आदि कुछ अन्य संसाधन हैं, जो प्रबंधन में सहायक होते हैं और इसमें गृह विज्ञान आपकी बहुत मदद करता है।
आजकल ज्यादातर महिलाएं कामकाजी हैं, जो या तो काम करने के लिए घर से बाहर जाती हैं, या वे घर पर ही रह कर अपना स्वयं का कोई रोजगार चलाती हैं। इसके फलस्वरूप घर की जिम्मेदारियों में पुरूषों की सहभागिता भी बढ़ी है। चूंकि हमारे समाज में परंपरागत रूप से पुरूष धर के कार्यों में बहुत क्रियाशील नहीं होते, इसलिए उन्हें इस व्यवस्था में ढलने में काफी परेशानी का अनुभव होता है। ऐसे में उन्हें घर की विभिन्न पक्षों के बारे में जानने तथा घर को सुंदर बनाने तथा सही तरीके से चलाने का हुनर सीखने की आवश्यकता होती है। गृह विज्ञान ही एक मात्र ऐसा विषय है, जो युवाओं को एक सफल गृहस्थ बनने, एक जिम्मेदार नागरिक और एक अच्छे माता-पिता बनने में सहायक पूर्वाभ्यास और आवश्यक सूचनांए उपलब्ध कराता है।
हालांकि गृह विज्ञान शिक्षा के काफी विस्त त क्षेत्र में कार्य कर रहा है, किंतु आज भी इस विषय को लेकर आम आदमी के मन में भ्रम की स्थिति बनी हुई है। और यह भ्रम की स्थिति केवल इसलिए बनी हुई है कि लोग सोचते हैं कि वे जो सम्मान और दर्जा प्राप्त करना चाहते हैं वह सब दे पाने में गृह विज्ञान सक्षम नहीं है।
भ्रान्ति - गृह विज्ञान केवल खाना पकाने, कपड़े धोने और सिलाई-कढ़ाई के कामों तक सीमित है- आम लोगों की धारणा है कि इसमें सिर्फ यही सब बातें पढ़ाई-सिखाई जाती है। इसलिए युवा लड़कियों के माता-पिता बड़ी आसानी से उन्हें यह विषय पढ़ाने के लिए तैयार हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि यह उन्हें बाद के जीवन में जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में सहायक सिद्ध होगा।
सच्चाई - खाना पकाना, कपड़े धोना और रखना तथा कढ़ाई-बुनाई तो गृह विज्ञान के अंतर्गत पढ़ाया जाने वाला एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा है। दरअसल इसके द्वारा हम अपने जीवन से जुड़ी सभी आधारभूत बातें सीखते हैं- कि हमारा शरीर कैसे कार्य करता है, कि हमें स्वस्थ रहने के लिए किस प्रकार के आहार की आवश्यकता होती है, कि अपनी तथा वातावरण की स्वच्छता के लिए किन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है, कि हमें बीमारियों से बचने के लिए क्या करना चाहिए तथा जब हम तथा हमारे आत्मीय जन बीमार हों, तो किस प्रकार का प्रबंधन करना चाहिए आदि। इसमें हम घर के विविध कार्यों में उपयोग होने वाले कपड़ों के चुनाव के बारे में सीखते हैं। बच्चे हमारे जीवन का एक अभिन्न अंगृहैं। हम सभी चाहते हैं कि उनका सुरक्षित और समुचित विकास हो। इस पाठ्यक्रम में हम सीखते हैं कि जन्म के पूर्व और बाद बच्चों का विकास किस प्रकार होता है और एक अच्छे तथा जिम्मेदार नागरिक के रूप में उनके विकास में हम क्या भूमिका निभा सकते हैं। इसके अलावा हम समय, ऊर्जा तथा पैसे जैसे अपने संसाधनों का प्रबंधन भी सीखते हैं, जिससे कि उनके अधिकाधिक उपयोग से अधिक संतुष्टि का अनुभव करते हैं।
भ्रान्ति- गृह विज्ञान का संबंध केवल लड़कियों से है - बहुत से लोग यह समझते हैं कि गृह विज्ञान केवल घर से संबंधित कार्यों की शिक्षा देता है, इसलिए इसे केवल लड़कियों को ही पढ़ना चाहिए।
सच्चाई- आज महिलाएं तथा पुरुष दोनों घर की जिम्मेदारियों का बराबर साझा करते हैं, क्योंकि आज हमारे समाज की बनावट में काफी परिवर्तन आया है। आज संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवारों में बदलने लगे हैं। ऐसे में घर की जिम्मेदारियों को पति और पत्नी को खुद ही संभालना पड़ता है। अधिकांश महिलाएं घर से बाहर काम पर जाने लगी हैं, इसलिए पुरूषों को घर की जिम्मेदारियों के बारे में अधिक से अधिक शिक्षा की जरूरत बढ़ी है। और इन सारी बातों की तैयारी अथवा पूर्वाभ्यास केवल गृह विज्ञान में ही एक विषय के रूप में मिल सकती है। यही कारण है कि आज अनेक युवा पुरुष इस विषय को पढ़ने की तरफ उन्मुख हुए हैं।
भ्रान्ति- इसे तो अपनी मां/दादी मां से भी सीखा जा सकता है - लोग सोचते हैं कि गृह विज्ञान में पढ़ाई जाने वाली बातें तो इतनी आसान है कि उन्हें घर में अपनी मां/दादी मां से भी आसानी से सीखा जा सकता है। इसके लिए एक विषय के रूप में गृह विज्ञान की पढ़ाई करने की आवश्यकता नहीं है।
सच्चाई- यह सच है कि लड़कियां घर की बहुत सारी बातें अपनी मां या दादी को काम करते देख कर सीखती हैं, लेकिन इतना भर ही पर्याप्त नहीं होता। बहुत से काम ऐसे हैं, जो परंपरागत रूप में घरों में चलते चले आ रहे हैं, लेकिन लोगों को उनका वैज्ञानिक आधार नहीं पता है। उदाहरण के लिए अचार को ही लीजिए। सभी जानते हैं कि अचार को तेल की परत से ढकना पड़ता है, लेकिन जब आप उनसे पूछेंगे कि ऐसा क्यों किया जाता है, तो आपकी मां इसे नहीं समझा पाएंगी। लेकिन जब आप गृह विज्ञान की पढ़ाई करेंगे, तो यह आपको बता देगा कि तेल अचार के तत्वों को हवा से खराब होने से बचाता है। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हर किसी के जीवन में मिल जाएंगे। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जो काम हम करते हैं यदि हम उसके बारे में यह जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं तो वह काम आसान हो जाता है।
भ्रान्ति - गृह विज्ञान की पढ़ाई कैरिअर निमार्ण में सहायक नहीं है - ज्यादातर लोगों का यह भी सोचना है कि गृह विज्ञान चूंकि घर के भीतर किए जाने वाले कार्यों के बारे में शिक्षा देता है, इसलिए कैरिअर की द ष्टि से यह अनुपयोगी है। यदि कोई युवा रोजी-रोटी कमाना चाहता है तो उसे कोई ’गंभीर’ विषय पढ़ना चाहिए।
सच्चाई - गृह विज्ञान युवा लड़के तथा लड़कियों दोनों के लिए रोजगार के अनेक अवसर उलब्ध कराता है। विद्यालय में गृह विज्ञान के एक विषय के रूप में अध्ययन से बहुत सारे रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकते हैं। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि अन्य विषयों की तरह ही इस विषय की भी आगे तक पढ़ाई जारी रखें और किसी एक विशेष क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त करें। अस्पतालों में डाइटीशियन के रूप में, बुटीक में फैशन डिजाइनर के रूप में, होटलों में परिचारक/परिचारिका अथवा रिसेप्शनिस्ट के रूप में, स्कूलों/कॉलेजों में अध्यापक/अध्यापिका आदि के रूप में गृह विज्ञान की पढ़ाई करके प्राप्त होने वाले रोजगार के कुछ आम अवसर हैं। गृह विज्ञान की पढ़ाई के बाद आप काफी अच्छी आय वाली और संतोषजनक नौकरियां प्राप्त कर सकते हैं।
गृह विज्ञान के मुख्य रूप से पांच अंग हैं। ये निम्नलिखित हैं-
आज यह विज्ञान इतना विकसित हो चुका है कि इसके प्रत्येक अंग के अपने उप-विभाग भी विकसित हो चुके हैं। ये उप-विभाग निम्नलिखित हैं-
भारतीय स्त्रियों को कुशल आधुनिक गृहिणी बनाने के लिए तैयार किये गये पाठ्यक्रम को गृह-विज्ञान की संज्ञा दी जाती है। इसे अमेरिका में प्रचलित घरेलू अर्थशास्त्र और ब्रिटेन में प्रचलित घरेलू विज्ञान की शिक्षण सामग्री के मेल-जोल से तैयार किया गया है। इस पाठ्यक्रम में घरेलू अर्थशास्त्र, कढ़ायी-बिनायी-सिलायी, शिशुओं का लालन-पालन, नैतिक शिक्षा तथा गृह कार्यों में व्यवस्था एवं स्वच्छता जैसे विषय शामिल किये जाते हैं। गृह-विज्ञान के आलोचक इसे स्त्रियों को परिचित और सीमित घरेलू भूमिका में बाँधे रखने, पितृसत्ता कायम रखने और स्त्रियों को राजनीतिक रूप से निष्क्रिय बनाये रखने का षड़यंत्र मानते हैं। दूसरी तरफ़ गृह-विज्ञान को भारतीय घर के दायरे में एक शुरुआती सीमा तक आधुनिकता और राष्ट्रवाद का वाहक भी माना जाता है। अपने समय में अनेक नारीवादी संगठनों ने भारत में गृह-विज्ञान को स्त्री-अधिकारों के साथ जोड़ कर देखा है। इस विमर्श में घर को विशिष्ट रूप से एक नारीवादी इकाई माना गया है। यह विमर्श मानता है कि गृह-विज्ञान द्वारा स्त्रियों को नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों और आधुनिकतम जानकारी द्वारा परिवार-निर्माण का अधिकार मिलता है। इस तरह गृह-विज्ञान आधुनिकता के घरेलू पक्ष की परिभाषा के एक घटक के तौर पर उभरता है जिसके केंद्र में वह प्रशिक्षित स्त्री है जिसके हाथ में पूरे परिवार के शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास का दायित्व सौंपा गया है।
औपनिवेशिक काल में स्त्री-समानता और अधिकारों के लिए संघर्ष भी चल रहा था और उसके साथ ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था बनाये रखने के लिए धर्म, परम्परा और स्थापित सामाजिक व्यवस्था का हवाला देकर स्त्रिओं को हाशिये पर बनाये रखने की मुहिम भी जारी थी। इसी जद्दोजहद के बीच स्त्रियों को आधुनिक शिक्षा से जोड़ने के प्रयास किये गये, लेकिन उन्हें पुरुषों के समान शिक्षित करने में भारी अड़चनें थीं। इसी दौरान भारतीय स्त्रियों को उनके परिवेश के अनुरूप ही शिक्षित करने के लिए गृह-विज्ञान का पृथक अध्ययन क्षेत्र बनाया गया। गृह-विज्ञान में स्त्रियों को बेहतर गृहिणी बनाने के साथ एक शिक्षित नागरिक के रूप में विकसित करने का आदर्श भी शामिल था। ब्रिटिश प्रशासन ने भी इस क्षेत्र में पहल ली। गृह-विज्ञान के अध्यापन के लिए स्त्री-अध्यापकों को प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम शुरू किया गया। प्रशासन ने भारतीय समाज- सुधारकों के साथ मिल कर सबसे पहले विधवा स्त्रियों को इस प्रशिक्षण के लिए चुना। प्रशिक्षण के उपरांत ये स्त्रियाँ आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बन सकती थीं। प्रशासन विधवाओं की स्थिति सुधारने के लिए आवश्यक समाज- सुधार जैसे कार्यक्रमों को पुरातनपंथी समाज के भारी विरोध के कारण स्थगित करने का इच्छुक भी था। स्त्री-अध्यापकों के प्रशिक्षण के आरम्भिक दौर में अधिकतर औरतें ईसाई समुदाय या ग़ैर-ब्राह्मण समाज से थीं। लेकिन उच्च वर्ण के कुछ प्रमुख भारतीय समाज सुधारकों ने अपने परिवार की स्त्रियों को भी इस प्रशिक्षण में भाग लेने के लिए उत्साहित किया। यूरोपियन माध्यमिक स्कूलों में गृह-विज्ञान के अध्यापन को लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक नये शिक्षण व प्रशिक्षण संस्थान स्थापित किये गये। गृह-विज्ञान को वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करने के लिए इसके प्रशिक्षण को प्रायोगिक एवं व्यावहारिक बनाते हुए शिक्षण-सामग्री में विज्ञान के बुनियादी सिद्धांतों का समावेश किया गया।
भारत में स्त्री-अधिकारों के लिए सार्वजनिक तौर पर अभियान चलाने का श्रेय ब्रह्म समाज के अग्रणी नेता देवेन्द्र नाथ ठाकुर की पुत्री और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बहन स्वर्ण कुमारी देवी को जाता है। उन्होंने 1882 में कलकत्ता में विधवाओं और ग़रीब स्त्रियों को आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनाने के लिए प्रशिक्षण देने की शुरुआत की थी। इसी प्रकार पण्डिता रमाबाई सरस्वती ने पुणे में आर्य स्त्री समाज और शारदा सदन के माध्यम से स्त्रियों को रोज़गार दिलाने के लिए प्रशिक्षित करने का कार्यक्रम चलाया था। 1910 में स्वर्ण कुमारी देवी की पुत्री सरला देवी चौधरानी ने केवल स्त्रियों के लिए भारत स्त्री मण्डल की स्थापना करके स्त्रियों को उनके घर पर ही शिक्षित करने का अभियान चलाया था। बीसवीं सदी के आरम्भ में स्त्रियों को शिक्षा प्रदान करने में युरोपियन मिशनरी एवं भारतीय समाज-सुधारक सबसे आगे थे। लेकिन अधिकतर स्त्रियों की शिक्षा अनौपचारिक तौर पर उनके घर पर निजी शिक्षकों के द्वारा दी जाती थी। दरअसल ज़्यादातर सुधारक स्त्रियों की शिक्षा को उनके घरेलू दायित्वों से जोड़ना चाहते थे ताकि वे अपने परिवार-कुटुम्ब के लालन-पालन व जीवन शैली में गुणात्मक सुधार ला सकें। इस प्रकार की शिक्षा के लिए गृह-विज्ञान को सर्वोत्तम विषय माना गया। गृह-विज्ञान को भारतीय समाज में 'घर' की परिकल्पना के आदर्श स्वरूप को स्थापित करने और गृह-विज्ञान में प्रशिक्षित स्त्रियों को आदर्श पत्नी-माँ-गृह लक्ष्मी की भूमिका के वाहक की तरह पेश किया गया। गृह-विज्ञान ने भारतीय ‘घर’ को एक ऐसी प्रयोगशाला बना दिया जिसके दायरे में परिवार एवं समाज में व्यापक सुधारों के अभियान का आरम्भ हो सकता था। इसके साथ ही गृह-विज्ञान को प्रबुद्ध-सम्भ्रांत भारतीयों में स्वीकार्य बनाने के लिए इसे एक ऐसे माध्यम के रूप में प्रस्तुत किया गया जो भारतीय स्त्रियों को उनके अपने घर में सम्माननीय स्थान दिलाने और व्यापक समाज-सुधार में स्त्रियों को केंद्रस्थ करने में कारगर भूमिका निभा सकता था।
गृह-विज्ञान का विचार उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन में प्रचारित की जा रही आदर्श स्त्री-छवि के अनुकूल भी बैठता था। गाँधी द्वारा आंदोलन का नेतृत्व सँभालने के बाद आम भारतीय स्त्रियों ने भी बड़ी संख्या में इसमें हिस्सा लेना शुरू किया। गाँधी ने स्त्रियों को जोड़ने के लिए माँ-पत्नी-बहन की आदर्श निःस्वार्थ छवि का दोहन किया। इसी तरह हिंदू राष्ट्रवादी व्याख्या में भी भारत भूमि को भारत माता के रूप में निरूपित किया गया। तमिलनाडु में भी तमिल भाषा के आंदोलन में तमिल भाषा व तमिल राष्ट्रीयता को माँ के रूप में दर्शाया गया। तमिल अस्मिता के पुनरुद्धार और तमिल गौरव के मातृ रूप में प्रदर्शन के प्रचारकों ने स्त्रियों को गृह स्वामिनी और मातृ शक्ति के रूप में बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप न केवल आत्मसम्मान आंदोलन में स्त्रियों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया, बल्कि तमिलनाडु के सामान्य लोगों में भी स्त्री-शिक्षा के प्रति जागरूकता विकसित हुई। तमिल आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व ने भी स्त्रियों के लिए ऐसे सुधारों की हिमायत की जिनके द्वारा पत्नी व माँ की भूमिका को प्रभावकारी बनाया जा सके।
गृह-विज्ञान के भारतीयकरण और इसके प्रसार में कुछ भारतीय स्त्रियों ने प्रमुख भूमिका निभायी। धोंडो केशव कर्वे के विधवा आश्रम से संबंधित पार्वती बाई आठवले 1918 में अमेरिका यात्रा पर गयीं जहाँ उन्होंने देखा कि घरेलू कार्य में वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग किस तरह भारत के लिए भी बेहद लाभप्रद हो सकता है। इसी प्रकार बड़ौदा के प्रधानमंत्री की पुत्री हंसा मेहता ने भी 1920-21 के दौरान अमेरिका में घरेलू अर्थशास्त्र के प्रशिक्षण का अध्ययन किया और वापस लौटकर महाराज सैयाजी राव विश्वविद्यालय में एक स्त्री महाविद्यालय की स्थापना की जिसमें गृह-विज्ञान पाठ्यक्रम का प्रारूप अमेरिकन विशेषज्ञ ऐन गिलक्रिस्ट स्ट्रांग ने तैयार किया। स्ट्रांग की 1931 में प्रकाशित पुस्तक 'डोमेस्टिक साइंस फ़ॉर हाई स्कूल इन इण्डिया' लम्बे समय तक भारतीय गृह-विज्ञान की सबसे मानक पाठ्य पुस्तक मानी जाती रही। भारतीय स्त्री संगठन ने भी गृह-विज्ञान के अनौपचारिक प्रशिक्षण का कार्यक्रम चलाया और इससे संबंधित जानकारी के प्रसार के लिए एक पत्रिका स्त्रीधर्म का प्रकाशन किया। इसमें अमेरिका से प्रकाशित जर्नल ऑफ़ होम इकॉनॉमिक्स के लेख प्रकशित किये जाते थे। तमिलनाडु के मद्रास शहर में अनेक देवदासियों को समाज में पुनर्वासित करने के उद्देश्य से गृह-विज्ञान का प्रशिक्षण दिया गया ताकि वे घरेलू कर्मचारी की तरह काम में लगाई जा सकें। 1926 में भारतीय स्त्री संगठन की कुछ सदस्यों ने राजनीतिक स्वतंत्रता के स्थान पर स्त्रियों की शिक्षा को अपना प्राथमिक उद्देश्य माना और भारतीय स्त्री संगठन छोड़ कर अखिल भारतीय स्त्री सम्मलेन स्थापित किया। इस नये समूह ने स्त्रियों को गृह-विज्ञान में प्रशिक्षित करने के लिए 1932 में दिल्ली में लेडी इरविन कॉलेज की स्थापना की।
भारतीय स्त्री संगठन की एक संस्थापक सदस्य मालती पटवर्धन ने स्त्रीधर्म पत्रिका में गृह-विज्ञान के प्रचार के साथ ही स्त्रियों की सामाजिक समस्याओं, जैसे रोज़गार, स्त्री-अधिकारों से संबंधित कानूनी-संवैधानिक परिवर्तन, पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार के विखंडन जैसे विषयों को प्रमुखता से उठाया।
आप किसी बेकरी, बुटीक या डे केयर सेंटर में कार्य करके वेतन भोगी कर्मचारी बन सकते हैं। परंतु यदि आप स्वंय की बेकरी, बुटीक या डे केयर सेंटर चलाते हैं तब आप स्वरोज़गार व्यक्ति कहलाएंगे। जब आप लघु उद्यम के रूप में किसी आय के साधन को अपनाते हैं तब आप उद्यमी कहलाएंगे। स्कूल स्तर पर गृह विज्ञान विषय का अध्ययन करने के बाद आप वेतन भोगी कर्मी, स्वरोज़गार या उद्यमी बनने के कई अवसर प्राप्त कर सकते हैं।
उच्चतर माध्यमिक स्तर पूरा करने के बाद वेतन भोगी कर्मी, स्वरोज़गार और उद्यमी बनने के संभावित रोज़गार के अवसर नीचे दिये गये हैं-
काश्यपसंहिता कौमारभृत्य का आर्ष व आद्य ग्रन्थ है। इसे 'वृद्धजीवकीयतन्त्र' भी कहा जाता है। महर्षि कश्यप ने कौमारभृत्य को आयुर्वेद के आठ अंगों में प्रथम स्थान दिया है। इसकी रचना ईसापूर्व 6ठी शताब्दी में हुई थी। मध्ययुग में इसका चीनी भाषा में अनुवाद हुआ।
कश्यप संहिता आयुर्वेद की अत्यन्त प्राचीन संहिता है और सभी आयुर्वेदीय संहिता ग्रन्थों में प्राचीन है। यह संहिता नेपाल में खंडित रूप में मिली है। उनका समय 600 ईसापूर्व माना गया है। वर्तमान में प्राप्त काश्यप संहिता अपने में पूर्ण है। महर्षि कश्यप द्वारा प्रोक्त इस विशाल आयुर्वेद का कालक्रम से प्रचार-प्रसार जब कम होने लगा तो ऋचिक मुनि के पचंवर्षीय पुत्र जीवक ने इस विशाल काश्यप संहिता को संक्षिप्त करके हरिद्वार के कनखल में समवेत विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया। उपस्थित विद्वानों ने उसे बालभाषित समझकर अस्वीकार कर दिया। तब बालक जीवक ने वहीं उनके सामने गंगा की धारा में डुबकी लगायी। कुछ देर के बाद गंगा की धारा से जीवक अतिवृद्ध के रूप में निकले। उन्हें वृद्ध रूप में देख, चकित विद्वानों ने उन्हें 'वृद्धजीवक' नाम से अभिहित किया और उनके द्वारा प्रतिपादित उस आयुर्वेद तन्त्र कों ‘वृद्धजीवकीय तन्त्र’ के रूप में मान्यता दी।
काश्यपसंहिता की विषयवस्तु को देखने से मालूम होता है कि इसकी योजना चरकसंहिता के समान ही है। यह नौ 'स्थानों' में वर्णित है-
इनमें बालकों की उत्पत्ति, रोग-निदान, चिकित्सा, ग्रह आदि का प्रतिशेध, तथा शारीर, इन्द्रिय व विमानस्थान में कौमारभृत्य विषयक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। सभी स्थानों में बीच-बीच में कुमारों के विषय में जो प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गये हैं इससे संहिता की विशिष्टता झलकती है।
काश्यपसंहिता में कुमारभृत्य के सम्बन्ध में नवीन तथ्यों को बताया गया है, जैसे दन्तोत्पत्ति, शिशुओं में मृदुस्वेद का उल्लेख, आयुष्मान बालक के लक्षण, वेदनाध्याय में वाणी के द्वारा अपनी वेदना न प्रकट कने वाले बालकों के लिए विभिन्न चेष्टाओं के द्वारा वेदना का परिज्ञान, बालकों के फक्क रोग में तीन पहियों वाले रथ का वर्णन, लशुन कल्प के विभिन्न प्रयोगों का वर्णन, तथा रेवतीकल्पाध्याय में जातहारिणियों का विशिष्ट वर्णन।
1. सूत्र स्थान - 30 अध्याय
2. निदान स्थान - 8 अध्याय
3. विमान स्थान - 8 अध्याय
4. शारीर स्थान - 8 अध्याय
5. इन्द्रिय स्थान - 12 अध्याय
6. चिकित्सा स्थान - 30 अध्याय
7. सिद्ध स्थान - 12 अध्याय
8. कल्प स्थान - 12 अध्याय
9. खिलभाग - 80 अध्याय
इस तरह संपूर्ण काश्यप संहिता में 8 स्थान, खिलभाग और 200 अध्याय है।
कश्यप या काश्यप के नाम से तीन संहिताएँ मिलती हैं :
काश्यप शब्द गोत्रवाची भी है; मूल ऋषि का नाम कश्यप प्रतीत होता है। मत्स्य पुराण में मरीच के पुत्र कश्यप को मूल गोत्रप्रवर्तक कहा गया है; परंतु आगे चलकर कश्यप मारीच भी कहा है। चरकसंहिता में कश्यप पृथक लिखकर 'मारीचिकाश्पौ' यह लिखा है । इसमें मारीच कश्यप का विशेषण है। इसी प्रकार चरक के एक पाठ में 'काश्यपो भृंगु:' यह पाठ आया है । इसमें काश्ययप गोत्रोत्पन्न भृगु का उल्लेख है। इस प्रकार काश्यप शब्द जहाँ गोत्रवाची है, वहाँ व्यक्तिवाची भी मिलता है।
वृद्धजीवकीय तंत्र में 'इति ह स्माह कश्यप:' या 'इत्याह कश्यप:', 'इति कश्यप:', 'कश्यपोऽब्रवीत्‌' आदि वचन मिलते हैं, इससे इनका आचार्य होना स्पष्ट हैं। कहीं पर कश्यप के लिए मारीच शब्द भी आया है। । इससे स्पष्ट होता है कि मारीच कश्यप शब्द के लिए ही आया है। अनुमान होता है, मारीच का पुत्र कश्यप था, जिससे आगे कश्यप गोत्र चला।
गालव ऋषि गुरुदक्षिणा में घोड़ों को देने के लिए काशीपति दिवादास के पास गए थे; मार्क में उनको हिमालय की तराई में मारीच कश्यप का आश्रम मिला था । कश्यप संहिता में भी कश्यप का स्थान गंगाद्वार में बताया गया है। ।
कश्यप ने आयुर्वेद का अध्ययन आयुर्वेद परंपरा में इंद्र से किया था। कश्यप संहिता में वृद्ध कश्यप के मत का भी उल्लेख मिलता है । इसके आगे ही अपना मत दिखाने के लिए 'कश्यपोऽब्रवीत्‌' पाठ है। इससे प्रतीत होता है कि वृद्ध कश्यप और संहिताकार कश्यप भिन्न व्यक्ति हैं। ऋक्‌ सर्वानुक्रम में कश्यप और काश्यप के नाम से बहुत से सूक्त आए हैं। इनमें कश्यप को मरीचिपुत्र कहा है ।
इस प्रकार से कश्यप का संबंध मारीच से है। संभवत: इसी मारीच कश्यप ने कश्यपसंहिता की रचना की है।
महाभारत में तक्षक-दंश-उपाख्यान में भी कश्यप का उल्लेख आता है। इन्होंने तक्षक से काटे अश्वत्थ को पुनर्जीवित करके अपनी विद्या का परिचय दिया था । डल्हण ने काश्यप मुनि के नाम से उनका एक वचन उद्धृत किया है, जिसके अनुसार शिरा आदि में अग्निकर्म निषिद्ध है। माधवनिदान की मधुकोष टीका में भी वृद्ध काश्यप के नाम से एक वचन विष प्रकरण में दिया है। ये दोनों कश्यप पूर्व कश्यप से भिन्न हैं। संभवत: इनको गोत्र के कारण कश्यप कहा गया है। अष्टांगहृदय में भी कश्यप और कश्यप नाम से दो योग दिए गए हैं। ये दोनों योग उपलब्ध कश्यपसंहिता से मिलते हैं ।
काश्यपसंहिता में समस्त आयुर्वेदीय विषयों का प्रश्नोत्तर रूप में निरूपण किया गया हैं। शिष्यों के प्रश्नों का उत्तर महर्षि विस्तार से देते है। शंका-समाधान की शैलीमें दुःखात्मक रोग, उनके निदान, रोगों का परिहार और रोग-परिहार के साधन, औषध इन चारों विषयों का भली भांति इसमें प्रतिपादन किया गया है। मानव के पुरूषार्थ-चतुष्टक की सिद्धि में स्वस्थ शरीर ही मुख्य साधन है, शारीरिक और मानसिक रोगों से सर्वथा मुक्त शरीर ही स्वस्थ कहलाता है। अतः निरोग रहने या आरोग्य प्राप्त करने के लिये उपर्युक्त रोग, निदान, परिहार और साधन - इन चारों का सम्यक् प्रतिपादन मुख्यतः आयुर्वेदशास्त्र में किया जाता है।