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विल्हेम द्वितीय या विलियम द्वितीय जर्मनी का अन्तिम सम्राट तथा प्रशा का राजा था जिसने जर्मन साम्राज्य एवं प्रशा पर 15 जून 1888 से 9 नवम्बर 1918 तक शासन किया। विलियम प्रथम की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र फैड्रिक तृतीय जर्मनी के राजसिंहासन पर 9 मार्च 1888 ई. को आसीन हुआ। किन्तु केवल 100 दिन राज्य करने के बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु होने पर उसका पुत्र विलियम द्वितीय राज्य सिंहासन पर आसीन हुआ। वह एक नवयुवक था। उसमें अनेक गुणों और दुर्गुणों का सम्मिश्रण था। वह कुशाग्र बुद्धि, महत्वकांक्षी आत्मविश्वासी तथा असाधारण नवयुवक था। वह स्वार्थी और घमण्डी था तथा उसका विश्वास राजा के दैवी सिद्धांत में था। किसी अन्य व्यक्ति के नियंत्रण में रहना उसको असह्य था जिसके कारण कुछ ही दिनों के उपरांत उसकी अपने चांसलर बिस्मार्क से अनबन हो गई। परिस्थितियों से बाध्य होकर बिस्मार्क को त्याग-पत्र देना पड़ा। बिस्मार्क के पतन के उपरांत विलियम ने समस्त सत्ता को अपने हाथों में लिया और उसके मंत्री आज्ञाकारी सेवक बन गये और वह स्वयं का शासन का कर्णधार बना। विलियम कैसर अत्यधिक हठी, महत्वाकांक्षी एवं क्रोधी व्यक्ति था। वह कहता था कि हमारा भविष्य समुद्र पर निर्भर है। उसके जर्मनी को समुद्री शक्ति बनाने के प्रयास ने इंग्लैण्ड की स्थायी शत्रुता प्राप्त कर ली थी। उसकी नीति थी- 'संपूर्ण विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना।' यदि इसमें उसे सफलता न मिले तो वह विश्व के सर्वनाश के लिए तत्पर था। व्यापारिक देश होने के कारण इंग्लैण्ड युद्ध के पक्ष में नहीं था, जिसे विलियम कैसर इंग्लैण्ड की कायरता समझता था। वह आक्रमक रूख अपनाकार इंग्लैण्ड को भयभीत कर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था और यह गलत समझ थी कि इंग्लैंड किसी भी कीमत पर युद्ध टालना चाहेगा। इस प्रकार विलियम कैसर के उग्र, साम्राज्यवादी, निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी व्यक्तित्व ने यूरोप को महायुद्ध के कगार पर पहुंचा दिया। कैसर विलियम द्वितीय की विश्व नीति के निम्नलिखित तीन मुख्य उद्देश्य थे - उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति करने के अभिप्राय से कैसर विलियम द्वितीय ने जर्मनी की ‘विदेश नीति’ का संचालन करना आरंभ किया। प्रथम उद्देश्य के कारण आस्ट्रिया के साथ घनिष्ट मेल आवश्यक था, क्योंकि वह भी उसी दिशा में बढ़ कर सैलोनिका के बन्दरगाह पर अधिकार करना चाहता था। इसका अर्थ था, मध्य यूरोप के कूटनीतिज्ञ गुट को सुदृढ़ बनाना। आस्ट्रिया और रूस के हितों में संघर्ष होने के कारण इसका अर्थ रूस से अलग हटना और अन्त में उसे अपना विरोधी बना लेना भी था। दूसरे उद्देश्य की पूर्ति का अर्थ था, 'संसार में जहां कहीं भी आवश्यक हो, विशेषकर अफ्रीका में, जर्मनी की शक्ति का प्रदर्शन करना।' इस संबन्ध में मोरक्को ने फ्रांस को दो बार 1905 ई. और 1911 ई. में चुनौती दी। तीसरे उद्देश्य की पूर्ति का स्पष्ट परिणाम था इंगलैंड के साथ तीव्र प्रतिस्पर्द्धा और वैमनस्य। सारांश में इस नई नीति का स्वाभाविक परिणाम होना था, रूस, फ्रांस और इंगलैंड की शत्रुता और अंत में इन तीनों का उसके मुकाबले में एकत्रित हो जाना, अर्थात् बिस्मार्क के समस्त कार्य का विनाश। विलियम द्वितीय ने अपनी नीति से उसकी समस्त व्यवस्था को नष्ट कर दिया। तीन वर्ष के अंदर रूस जर्मनी से अलग हो गया और बाद में फ्रांस से संधि करके उसने उसके एकाकीपन का अंत कर दिया। 6 वर्ष के अंदर इंगलैंड शत्रु बन गया। मोरक्को में हस्तक्षेप करने सेफ्रांस से शत्रुता और बढ़ गई और 1907 ई. तक जर्मनी, आस्ट्रिया तथा इटली के त्रिगुट के मुकाबले में फ्रांस, रूस और इंगलैंड की त्रिराष्ट्र मैत्री स्थापित हो गई। इटली का त्रिगुट से संबंध भी शिथिल पड़ता जा रहा था किन्तु विलियम द्वितीय ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। 1890 ई. में पुनराश्वासन संधि की पुनरावृत्ति होने वाली थी जो बिस्मार्क द्वारा जर्मनी और रूस में हुई थी, जबकि विलियम रूस की अपेक्षा आस्ट्रिया से सुदृढ़ संबंध स्थापित करना चाहता था जिससेवह बालकन में होकर पूर्वी भूमध्यसागर को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने में सफल हो सके। रूस ने भी इस पुनराश्वासन संधि की पुनरावृत्ति को यह कहकर मना कर दिया कि 'सन्धि बड़ी पेचीदा है और इसमें आस्ट्रिया के लिये धमकी मौजूद है जिसके बड़े अनिष्टकारी परिणाम हो सकते हैं।' पुनराश्वासन सन्धि की पुनरावृत्ति के न होने का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि रूस अकेला रह गया। उसको अपने एकाकीपन को दूर करने के लिये एक मित्र की खोज करनी अनिवार्य हो गई। अबउसके सामने उसके शत्रु इंगलैंड और फ्रांस ही थे। किन्तु अपनी परिस्थिति से बाध्य होकर वह फ्रांस से मित्रता करने की ओर आकर्षित हुआ और उससे मित्रता करने का प्रयत्न करने लगा। अन्त में, 1895 ई. में दोनों देशों में संधि हुई जो द्विगुट संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि से फ्रांस को अत्यधिक लाभ हुआ और उसका अकेलापन समाप्त हो गया। विलियम बड़ा महत्वकांक्षी था। वह जर्मनी को यूरोप का भाग्य-निर्माता ही नहीं, वरन् विश्व का भाग्य-निर्माता बनाना चाहता था। बिस्मार्क विश्व के झगड़ों से जर्मनी को अलग रखना चाहता था,किन्तु विलियम ने यूरोप के बाहर के झगड़ों में हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया। वह केवल बालकन प्रायद्वीप में ही जर्मन-प्रभाव से संतुष्ट नहीं था, वरन् वह तो उसको विश्व-शक्ति के रूप में देखनाचाहता था। इसी उद्देश्य के लिए 1890 ई. के उपरांत जर्मनी की वैदेशिक नीति में विश्व-व्यापी नीति का समावेश हुआ। विलियम के अनेक भाषणों से उसके इन विचारों का दिग्दर्शन होता है। उसने इन प्रदेशों को अपने अधिकार में किया - विलियम टर्की को अपने प्रभाव-क्षेत्र के अंतर्गत लाना चाहता था और यह उसकी विश्व नीति का एक प्रमुख अंग था। इंगलैंड भी इस ओर प्रयत्नशील था। वह किसी यूरोपीय राष्ट्र का प्रभुत्व टर्की में स्थापित नहीं होने देना चाहता था, क्योंकि ऐसा होने से उसके भारतीय साम्राज्य को भय उत्पन्न हो सकता था। 1878 ई. की बर्लिन-कांग्रेस तक टर्की पर इंगलैंड का प्रभुत्व रहा और जब कभी भी किसी यूरोपीय रास्ट्र ने उस ओर प्रगति करने का विचार किया तो इंगलैंड ने उसका डटकर विरोध किया, परन्तु साइप्रस के समझौते के उपरांत उसका प्रभाव टर्की पर से कम होने लगा। जब इंगलैंड का 1882 ई. में मिस्र पर अधिकार हुआ तो इंगलैंड और टर्की के मध्य जो रही-सही सद्भावना विद्यमान थी उसका भी अंत होना आरंभ हो गया। अब विलियम द्वितीय ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर टर्की को अपने प्रभाव-क्षेत्र में लाने का प्रयत्न किया। इस संबन्ध में उसने निम्न उपाय किये- कुस्तुन्तुनिया तक रेल बनाने का भी था। इस मार्ग के खुल जाने से जर्मनी का सम्पर्क फारस की खाड़ी तक हो जाता जो इंगलैंड के भारतीय साम्राज्य के लिए विशेष चिन्ता का विषय बन जाता। विलियम टर्की को अपनी ओर आकर्षित करने में अवश्य सफल हुआ, किन्तु उसने अपनी इस नीति से रूस, फ्रांस और इंगलैंड को अपना शत्रु बना लिया जबकि टर्की की शक्ति इन तीनों बड़े राष्ट्रों के सामने नगण्य थी। विलियम की इस नीति को सफल नीति नहीं कहा जा सकता। उसने तीनों राष्टोंं को एक साथ अप्रसन्न किया जिसका परिणाम यह हुआ कि त्रिदलीय गुट का निर्माण संभव हो गया। 1890 ई. तक जर्मनी और इंगलैंड के संबन्ध अच्छे थे, किन्तु जब विलियम द्वितीय के शासनकाल में जर्मनी ने विश्वव्यापी नीति को अपनाना आरंभ किया तो जर्मनी और इंगलैंड के संबंध कटु होनेआरंभ हो गये। बिस्मार्क के पद त्याग करने के उपरांत विलियम ने जर्मनी की नौसेना में विस्तार करना आरंभ किया तो इंगलैंड जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति से सशंकित होने लगा था। कुछ समय तकदोनों में मैत्री का हाथ बढ़ा, किन्तु 1896 ई. के उपरांत दोनों के संबंध कटु होने आरंभ होते गये। जब विलियम ने ट्रान्सवाल के रास्ट्रपति क्रुजर को जेम्स के आक्रमण पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में बधाई का तार भेजा। इस तार से इंगलैंड की जनता में बड़ा क्षेभ उत्पन्न हुआ। महारानी विक्टोरिया ने भी अपने पौत्र विलियम द्वितीय के इस कार्य की बड़ी निन्दा की। इस समय इंगलैंड ने जर्मनी से संबंध बिगाड़ना उचित नहीं समझा, क्योंकि ऐसा करने पर वह अकेला रह जाता। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने जर्मनी से अच्छे संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया। 1898 ई. में अफ्रीका के संबंध में तथा 1899 ई. में सेनाओं के संबन्ध में दोनों देशों के समझौते भी हुए। उसी वर्ष इंगलैंड के उपनिवेश मंत्री जोसेफ चेम्बरलेन ने इंगलैंड, जर्मनी और संयुक्त राज्य के एक त्रिगुट के निर्माण का प्रस्ताव किया, किन्तु 1899 ई. में ब्यूलो ने जो इस समय जर्मनी का प्रधानमंत्री था, इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उसका इस प्रस्ताव के अस्वीकार करने का कारण यह था कि इसके द्वारा इंगलैंड का आशय यह है कि आगामी युद्धों में जर्मनी, इंगलैंड का पक्ष ले और उसके समर्थक के रूप में युद्ध में भाग ले और इंगलैंड यूरोपीय महाद्वीप से निश्चिन्त होकर एशिया तथा अफ्रीका में अपने साम्राज्य का विस्तार करता रहे। ब्यूलो का यह विचार था कि जर्मनी की औपनिवेशिक, व्यापारिक तथा नाविक उन्नति से इंगलैंड को असुविधा होना अनिवार्य थी और कभी भी दोनों में युद्ध छिड़ सकता है। अतः जर्मनी की नीतियों द्वारा इंगलैंड भली प्रकार समझ गया कि जर्मनी पर अधिक विश्वास करना इंगलैंड के लिए घातक सिद्ध होगा और वास्तव में एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब इंगलैंड और जर्मनी का युद्ध होगा। फ्रांस और रूस के मध्य मित्रता की स्थापना हो चुकी थी, अब फ्रांस द्वारा रूस और इंगलैंड की मित्रता का कार्य आरंभ हुआ। 1907 ई. में फ्रांस के प्रयत्न से रूस और इंगलैंड का गुट तैयार हो गया। यह गुट रक्षात्मक था किन्तु जर्मन सम्राट विलियम द्वितीय को इसके निर्माण से बड़ी चिन्ता हुई। अब उसने अपना ध्यान इस गुट के अंत करने की ओर विशेष रूप से आकर्षित किया। इसी समय जर्मनी को पूर्वी समस्या में हस्तक्षेप करने तथा रूस को अपमानित करने का अवसर प्राप्त हुआ। 1908 ई . टर्की में एक आन्दोलन हुआ जो युवा तुर्क आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध है। शीघ्र ही आस्ट्रिया ने बॉस्निया तथा हर्जेगोविना अधिकार कर लिया। सर्बिया यह सहन नहीं कर सका और उसने युद्ध की तैयारी करना आरंभ कर दिया। उसको यह आशा थी कि आस्ट्रिया तथा जर्मनी के विरूद्ध रूस और इंगलैंड उसकी सहायता करने की उद्यत हो जायेंगे किन्तु रूस की अभी ऐसी स्थिति नहीं थी। आस्ट्रिया ने सर्बिया के साथ बड़ा कठोर व्यवहार किया जिसके कारण युद्ध का होना अनिवार्य सा दिखने लगा, किन्तु जब जर्मनी ने स्पष्ट घोषणा कर दी कि यदि रूस सर्बिया की किसी प्रकार से सहायता करेगा, तो वह युद्ध में आस्ट्रिया की पूर्ण रूप से सहायता करने को तैयार है। इस प्रकार युद्ध टल गया। इस समय रूस में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह जर्मनी और आस्ट्रिया की सम्मिलित सेवाओं का सफलतापूर्वक सामना कर सकता। रूस को बाध्य होकर दब जाना पड़ा और जर्मन राजनीति बालकन प्रायद्वीप में सफल हुई। यद्यपि जर्मन-सम्राट विलियम कैसर बालकन प्रदेश में रूस को नीचा दिखलाने में सफल हुआ और वह अपने मित्र आस्ट्रिया की शक्ति का विस्तार तथा प्रभाव में वृद्धि करवा सका, किन्तु फिर भी वह फ्रांस, रूस और इंगलैंड के गुट से भयभीत बना रहा। उसने फ्रांस और रूस से मित्रता करने की ओर हाथ बढ़ाना आरंभ किया। 8 फरवरी 1909 ई. को उसने फ्रांस से एक समझौता किया जिसके अनुसार फ्रांस ने मोरक्को की स्वतंत्रता एवं अखण्डता के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। जर्मनी ने मोरक्को की आन्तरिक सुरक्षा के संबंध में फ्रांस की असाधारण स्थिति मान ली। इधर निश्चिन्त होकर जर्मनी ने अपना ध्यान रूस से समझौता करने की ओर आकर्षित किया। जर्मनी ने रूस से नवम्बर 1910 में मेसोपोटामिया और फारस में अपने हितों के संबंध में समझौता किया, जिसके द्वारा 'रूस ने जर्मनी को बर्लिन-बगदाद रेलवे की योजना का विरोध न करने का वचन दिया और विलियम ने फारस में रूस के हितों की स्वीकृति प्रदान की।' उपरोक्त कार्यो द्वारा विलियम द्वितीय रूस, फ्रांस और इंगलैंड के गुट को निर्बल करने में सफल हुआ, किन्तु यह स्थिति अधिक काल तक स्थायी नहीं रह सकी। मोरक्को के प्रश्न का समाधान करने का प्रयत्न फ्रांस और जर्मनी द्वारा किया गया था, किन्तु दोनों समझौते की स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। ‘मोरक्को की स्वतंत्रता’ तथा फ्रांस की पुलिस सत्ता में स्वाभाविक विरोध था जिसके कारण भविष्य में झगड़ा होना निश्चित था। फ्रांस मोरक्को को पूर्णतया अपने अधिकार में लाने पर तुला हुआ था और जर्मनी उसे रोकने या उसके बदले में उपयुक्त पुरस्कार प्राप्त करने पर कटिबद्ध था। 1911 ई . में मोरक्को में एक ऐसी घटना घटी जिसने यूरोप के प्रमुख राष्ट्रों का ध्यान उस ओर आकर्षित किया। मोरक्को में गृहयुद्ध की अग्नि प्रज्जवलित हुई और मोरक्को का सुल्तान इस विद्रोह का दमन करने में असफल रहा। इस परिस्थिति के उत्पन्न होने पर फ्रांस ने आंतरिक सुरक्षा के लिए अपने उत्तरदायित्व का बहाना लेकर एक सेना भेजी, जिसने 21 मई 1910 ई. को मोरक्को में विद्रोह का दमन करना आरंभ कर दिया। जर्मनी फ्रांस के इस प्रकार के हस्तक्षेप को सहन नहीं कर सका और जर्मनी के विदेशमंत्री ने घोषणा की कि 'यदि फ्रांस को मोरक्को में रहना आवश्यक प्रतीत हुआ तो मोरक्को की पूर्ण समस्या पर पुनः विचार किया जायेगा और एल्जीसिराज के एक्ट पर हस्ताक्षर करने वाली समस्त सत्ताओं को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता पुनः प्राप्त हो जायेगी।' विद्राेहियों के दमन के उपरांत फ्रांस की सेनायें वापिस लौटने लगी, किन्तु इस पर भी जर्मनी ने अपने कड़े व्यवहार में किसी प्रकार परिवर्तन करना उचित नहीं समझा। जुलाई 1910 ई. को जर्मनी ने घोषणा की कि उसने जर्मन हितों तथा जर्मन निवासियों की रक्षा के अभिप्राय से एक जंगी जहाज दक्षिणी मोरक्को के एजेडिर नामक बन्दरगाह पर भेज दिया। जर्मनी के इस व्यवहार ने बड़ी संकटमय परिस्थिति उत्पन्न कर दी और यह संभावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगी कि शीघ्र ही यूरोप के राष्टोंं के मध्य युद्ध का होना अनिवार्य है। अंत में फ्रांस और जर्मन के मध्य संधि हो गई जो कि 4 नवम्बर 1911 को सम्पन्न हुई, जिसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि मोरक्को पर फ्रांस का संरक्षण पूर्ववत् बना रहे और जर्मनी को फ्रेंच कांगों का आधा प्रदेश प्राप्त हुआ। मोरक्को के प्रश्न पर जर्मनी को मुंह की खानी पड़ी, क्योंकि रूस, फ्रांस और इंगलैंड का त्रिराष्टींय गुट पहले की अपेक्षा अब अधिक दृढ़ तथा स्थाई हो गया था तथा जर्मनी और इंगलैंड के संबंध दिन-प्रतिदिन खराब होने आरंभ हो गए। |