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सम्बंद्ध प्रकाश प्रकाश उन विद्युतचुम्बकीय तरंगों को कहा जाता है जिनमें कलान्तर शून्य होता है अर्थात सम्बंद्ध प्रकाश की किरणें समान कला में होती हैं। लेसर के विकास से इस तरह की तरंगे केवल सॅद्धन्तिक तौर पर प्राप्त होती थी।
माफिया इटली के सिसिली के अपराधी तत्व थे। इन्हें कोसा नोस्त्रा भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में में ये सिसिली में ये खूब फलफूल रहे थे। वस्तुत: यह अपराधी समूहों का शिथिल संघ होता है जिनमें समान सांगठनिक ढांचा एवं समान आचार संहिता होती है। प्रत्येक समूह को परिवार, क्लान या कोस्का के नाम से जाना जाता है और किसी एक क्षेत्र में एक परिवार की संप्रभुता रहती है जहाँ ये स्वच्छन्द होकर अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं।
निर्देशांक: 2449N 8500E 24.81N 85E 24.81 85 घटेरा गुरारू, गया, बिहार स्थित एक गाँव है।
तिलौरा, सोमेश्वर तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है।
प्लैनम बोरेयम, मंगल ग्रह पर एक उत्तरी ध्रुवीय मैदान है यह लगभग 80 उत्तर की ओर फैला हुआ है और 88.0 उ0 15.0 पू0 पर केंद्रित है यह उच्च ध्रुवीय मैदान से घिरा एक सपाट और आकृतिविहीन तराई मैदान है, वेस्टिटस बोरीयालिस कहलाता है, जो लगभग 1500 कि.मी.तक दक्षिण की ओर फैला है और उत्तरी गोलार्द्ध पर छाया हुआ है 1999 में, हबल अंतरिक्ष दूरदर्शी ने इस क्षेत्र में एक चक्रवाती तूफान को कैद किया इस तूफ़ान का व्यास लगभग 1750 कि॰मी॰ था
उदकगति अभियांत्रिकी सिविल अभियांत्रिकी की एक शाखा है जिसमें द्रवों के बहाव और परिवहन का अध्ययन करा जाता है। इसमें स्वच्छ जल व मलवाले गन्दे पानी पर अधिक ध्यान दिया जाता है, हालांकि अन्य द्रव भी इसका भाग हैं। पुलों, बांधों, नहरों, इत्यादि का निर्माण इसके अंग हैं और इसका सम्बन्ध स्वास्थ्य व पर्यावरण अभियांत्रिकी दोनों से है।
1922 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 1922 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है उपरोक्त अन्तर के आधार पर 1922 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
पूर्वी मध्य इंडियाना मिशियाना नौ काउंटी क्षेत्र उत्तरी इंडियाना उत्तर पश्चिमी इंडियाना दक्षिणी इंडियाना वाबाश घाटी एंडरसन ब्लूमिंगटन कारमल कोलम्बस पूर्वी शिकागो एल्खार्ट इवान्सविल फिशर्स फोर्ट वेन गैरी गोशन ग्रीनवुड हैमंड इंडियानापोलिस जैफरसनविल कोकोमो लफायत लौरेंसबर्ग मेरियन मैरिलविल मिशिगन शहर मिशावाका मंसी नया अलबनी नोबल्सविल पोर्टेज रिचमंड साउथ बैंड टेरे हौते वल्पराइसो पश्चिमी लफायत एडम्स एलन बारथोलोमिऊ बेंटन ब्लैकफर्ड बून ब्राउन कैरोल कैस क्लार्क क्ले क्लिंटन क्रॉफर्ड डेवीस देकाल्ब डीअर्बॉर्न डेकाटूर डेलावेअर ड्युबोइस एल्कहार्ट फयेत फ्लॉयड फाउन्टेन फ्रैंकलिन फुलटन गिबसन ग्रांट ग्रीन हैमिलटन हैनकॉक हैरीसन हेन्ड्रिक्स हेनरी हॉवार्ड हंटिंगटन जैकसन जैसपर जे जैफरसन जेनिंग्स जॉनसन नौक्स कोस्कीहसको लाग्रैंज लेक ला पोर्टे लॉरेंस मैडीसन मेरियन मार्शल मार्टिन मियामी मुनरो मोंटगोमरी मोर्गन न्यूटन नोबल ओहायो ओरेंज ओवन पार्क पैरी पाइक पोर्टर पोसी पुलास्की पटनम रेंडौल्फ रिपली रश सेंट जोसेफ स्कॉट शैल्बी स्पेंसर स्टार्क स्ट्यूबेन सलिवैन स्विटजरलैंड टिपेकनो टिपटन यूनियन वानडरबर्ग वरमिलियन विगो वाबाश वारेन वैरिक वाशिंगटन वेन वैल्स व्हाइट व्हिटली
फिनांसियल मेल भारत में प्रकाशित होने वाला अंग्रेजी भाषा का एक समाचार पत्र है।
यूनिकोड, प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष संख्या प्रदान करता है, चाहे कोई भी कम्प्यूटर प्लेटफॉर्म, प्रोग्राम अथवा कोई भी भाषा हो। यूनिकोड स्टैंडर्ड को एपल, एच.पी., आई.बी.एम., जस्ट सिस्टम, माइक्रोसॉफ्ट, ऑरेकल, सैप, सन, साईबेस, यूनिसिस जैसी उद्योग की प्रमुख कम्पनियों और कई अन्य ने अपनाया है। यूनिकोड की आवश्यकता आधुनिक मानदंडों, जैसे एक्स.एम.एल, जावा, एकमा स्क्रिप्ट, एल.डी.ए.पी., कोर्बा 3.0, डब्ल्यू.एम.एल के लिए होती है और यह आई.एस.ओआई.ई.सी. 10646 को लागू करने का अधिकारिक तरीका है। यह कई संचालन प्रणालियों, सभी आधुनिक ब्राउजरों और कई अन्य उत्पादों में होता है। यूनिकोड स्टैंडर्ड की उत्पति और इसके सहायक उपकरणों की उपलब्धता, हाल ही के अति महत्वपूर्ण विश्वव्यापी सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी रुझानों में से हैं। यूनिकोड को ग्राहकसर्वर अथवा बहुआयामी उपकरणों और वेबसाइटों में शामिल करने से, परंपरागत उपकरणों के प्रयोग की अपेक्षा खर्च में अत्यधिक बचत होती है। यूनिकोड से एक ऐसा अकेला सॉफ्टवेयर उत्पाद अथवा अकेला वेबसाइट मिल जाता है, जिसे रीइंजीनियरिंग के बिना विभिन्न प्लेटफॉर्मों, भाषाओं और देशों में उपयोग किया जा सकता है। इससे आँकड़ों को बिना किसी बाधा के विभिन्न प्रणालियों से होकर ले जाया जा सकता है। यूनिकोड प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष नम्बर प्रदान करता है, कम्प्यूटर, मूल रूप से, नंबरों से सम्बंध रखते हैं। ये प्रत्येक अक्षर और वर्ण के लिए एक नंबर निर्धारित करके अक्षर और वर्ण संग्रहित करते हैं। यूनिकोड का आविष्कार होने से पहले, ऐसे नंबर देने के लिए सैंकडों विभिन्न संकेत लिपि प्रणालियां थीं। किसी एक संकेत लिपि में पर्याप्त अक्षर नहीं हो सकते हैं : उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ को अकेले ही, अपनी सभी भाषाओं को कवर करने के लिए अनेक विभिन्न संकेत लिपियों की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी जैसी भाषा के लिए भी, सभी अक्षरों, विरामचिन्हों और सामान्य प्रयोग के तकनीकी प्रतीकों हेतु एक ही संकेत लिपि पर्याप्त नहीं थी। ये संकेत लिपि प्रणालियां परस्पर विरोधी भी हैं। इसीलिए, दो संकेत लिपियां दो विभिन्न अक्षरों के लिए, एक ही नंबर प्रयोग कर सकती हैं, अथवा समान अक्षर के लिए विभिन्न नम्बरों का प्रयोग कर सकती हैं। किसी भी कम्प्यूटर को विभिन्न संकेत लिपियां संभालनी पड़ती है फिर भी जब दो विभिन्न संकेत लिपियों अथवा प्लेटफॉर्मों के बीच डाटा भेजा जाता है तो उस डाटा के हमेशा खराब होने का जोखिम रहता है। यूनिकोड से यह सब कुछ बदल रहा है! यूनिकोड, आस्की तथा अन्य कैरेकटर कोडों की अपेक्षा अधिक स्मृति लेता है। कितनी अधिक स्मृति लगेगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कौन सा यूनिकोड प्रयोग कर रहे हैं। UTF7, UTF8, UTF16 या वास्तविक यूनिकोड एक अक्षर अलगअलग बाइट प्रयोग करते हैं। यूनिकोड कन्सॉर्शियम, एक लाभ न कमाने वाला एक संगठन है जिसकी स्थापना यूनिकोड स्टैंडर्ड, जो आधुनिक सॉफ्टवेयर उत्पादों और मानकों में पाठ की प्रस्तुति को निर्दिष्ट करता है, के विकास, विस्तार और इसके प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए की गई थी। इस कन्सॉर्शियम के सदस्यों में, कम्प्यूटर और सूचना उद्योग में विभिन्न निगम और संगठन शामिल हैं। इस कन्सॉर्शियम का वित्तपोषण पूर्णतः सदस्यों के शुल्क से किया जाता है। यूनिकोड कन्सॉर्शियम में सदस्यता, विश्व में कहीं भी स्थित उन संगठनों और व्यक्तियों के लिए खुली है जो यूनिकोड का समर्थन करते हैं और जो इसके विस्तार और कार्यान्वयन में सहायता करना चाहते हैं। अगर कोई लेख किसी जगह पर किसी ऐसे फॉन्ट को प्रयोग कर के लिखा गया है जो कि यूनिकोड नहीं है तो फॉन्ट परिवर्तक प्रोग्रामों का प्रयोग करके उसे यूनिकोड में बदला जा सकता है। विस्तृत जानकारी के लिये देखें फॉण्ट परिवर्तक याहू जैसे ईमेल सेवाओं में यूनिकोड कैरेक्टर विकृत हो जाने पर मूल ईमेल प्राप्त कर पढ़ने के ऑनलाईन औजार
सोपोर भारत के जम्मू कश्मीर प्रांत का एक प्रमुख शहर है।
यशपाल का नाम आधुनिक हिन्दी साहित्य के कथाकारों में प्रमुख है। ये एक साथ ही क्रांतिकारी एवं लेखक दोनों रूपों में जाने जाते है। प्रेमचंद के बाद हिन्दी के सुप्रसिद्ध प्रगतिशील कथाकारों में इनका नाम लिया जाता है। अपने विद्यार्थी जीवन से ही यशपाल क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़े, इसके परिणामस्वरुप लम्बी फरारी और जेल में व्यतीत करना पड़ा। इसके बाद इन्होने साहित्य को अपना जीवन बनाया, जो काम कभी इन्होने बंदूक के माध्यम से किया था, अब वही काम इन्होने बुलेटिन के माध्यम से जनजागरण का काम शुरु किया। यशपाल को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1970 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर 1903 को पंजाब में, फ़ीरोज़पुर छावनी में एक साधारण खत्री परिवार में हुआ था। उनकी माँ श्रीमती प्रेमदेवी वहाँ अनाथालय के एक स्कूल में अध्यापिका थीं। यशपाल के पिता हीरालाल एक साधारण कारोबारी व्यक्ति थे। उनका पैतृक गाँव रंघाड़ था, जहाँ कभी उनके पूर्वज हमीरपुर से आकर बस गए थे। पिता की एक छोटीसी दुकान थी और उनके व्यवसाय के कारण ही लोग उन्हें लाला कहतेपुकारते थे। बीचबीच में वे घोड़े पर सामान लादकर फेरी के लिए आसपास के गाँवों में भी जाते थे। अपने व्यवसाय से जो थोड़ाबहुत पैसा उन्होंने इकट्ठा किया था उसे वे, बिना किसी पुख़्ता लिखापढ़ी के, हथ उधारू तौर पर सूद पर उठाया करते थे। अपने परिवार के प्रति उनका ध्यान नहीं था। इसीलिए यशपाल की माँ अपने दो बेटोंयशपाल और धर्मपालको लेकर फ़िरोज़पुर छावनी में आर्य समाज के एक स्कूल में पढ़ाते हुए अपने बच्चों की शिक्षादीक्षा के बारे में कुछ अधिक ही सजग थीं। यशपाल के विकास में ग़रीबी के प्रति तीखी घृणा आर्य समाज और स्वाधीनता आंदोलन के प्रति उपजे आकर्षण के मूल में उनकी माँ और इस परिवेश की एक निर्णायक भूमिका रही है। यशपाल के रचनात्मक विकास में उनके बचपन में भोगी गई ग़रीबी की एक विशिष्ट भूमिका थी। अपने बचपन में यशपाल ने अंग्रेज़ों के आतंक और विचित्र व्यवहार की अनेक कहानियाँ सुनी थीं। बरसात या धूप से बचने के लिए कोई हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ों के सामने छाता लगाए नहीं गुज़र सकता था। बड़े शहरों और पहाड़ों पर मुख्य सड़कें उन्हीं के लिए थीं, हिन्दुस्तानी इन सड़कों के नीचे बनी कच्ची सड़क पर चलते थे। यशपाल ने अपने होश में इन बातों को सिर्फ़ सुना, देखा नहीं, क्योंकि तब तक अंग्रेज़ों की प्रभुता को अस्वीकार करनेवाले क्रांतिकारी आंदोलन की चिंगारियाँ जगहजगह फूटने लगी थीं। लेकिन फिर भी अपने बचपन में यशपाल ने जो भी कुछ देखा, वह अंग्रेज़ों के प्रति घृणा भर देने को काफ़ी था। वे लिखते हैं, मैंने अंग्रेज़ों को सड़क पर सर्व साधारण जनता से सलामी लेते देखा है। हिन्दुस्तानियों को उनके सामने गिड़गिड़ाते देखा है, इससे अपना अपमान अनुमान किया है और उसके प्रति विरोध अनुभव किया।.. अंग्रेज़ों और प्रकारांतर से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपनी घृणा के संदर्भ में यशपाल अपने बचपन की दो घटनाओं का उल्लेख विशेष रूप से करते हैं। इनमें से पहली घटना उनके चारपाँच वर्ष की आयु की है। तब उनके एक संबंधी युक्तप्रांत के किसी क़स्बे में कपास ओटने के कारख़ाने में मैनेजर थे। कारख़ाना स्टेशन के पास ही काम करने वाले अंग्रेज़ों के दोचार बँगले थे। आसपास ही इन लोगों का खूब आतंक था। इनमें से एक बँगले में मुर्ग़ियाँ पली थीं, जो आसपास की सड़क पर घूमतीफिरती थीं। एक शाम यशपाल उन मुर्ग़ियों से छेड़खानी करने लगे। बँगले में रहनेवाली मेम साहिबा ने इस हरक़त पर बच्चों के फटकार दिया। शायद गधा या उल्लू जैसी कोई गाली भी दी। चारपाँच वर्ष के बालक यशपाल ने भी उसकी गाली का प्रत्युत्तर गाली से ही दिया। जब उस स्त्री ने उन्हें मारने की धमकी दी, तो उन्होंने भी उसे वैसे ही धमकाते हुए जवाब दिया और फिर भागकर कारख़ाने में छिप गए। लेकिन घटना यूँ ही टाल दी जानेवाली नहीं थी। इसकी शिकायत उनके संबंधी से की गई। उन्होंने यशपाल की माँ से शिकायत की और अनेक आशंकाओं और आतंक के बीच यह भी बताया कि इससे पूरे कारख़ाने के लोगों पर कैसा संकट आ सकता है। फिर इसके परिणाम का उल्लेख करते हुए यशपाल लिखते हैं, मेरी माँ ने एक छड़ी लेकर मुझे ख़ूब पीटा मैं ज़मीन पर लोटपोट गया परंतु पिटाई जारी रही। इस घटना के परिणाम से मेरे मन में अंग्रेज़ों के प्रति कैसी भावना उत्पन्न हुई होगी, यह भाँप लेना कठिन नहीं है।... दूसरी घटना कुछ इसके बाद की है। तब यशपाल की माँ युक्तप्रांत में ही नैनीताल ज़िले में तिराई के क़स्बे काशीपुर में आर्य कन्या पाठशाला में मुख्याध्यापिका थीं। शहर से काफ़ी दूर, कारखा़ने से ही संबंधी को बड़ासा आवास मिला था और यशपाल की माँ भी वहीं रहती थी। घर के पास ही द्रोण सागर नामक एक तालाब था। घर की स्त्रियाँ प्रायः ही वहाँ दोपहर में घूमने चली जाती थीं। एक दिन वे स्त्रियाँ वहाँ नहा रही थीं कि उसके दूसरी ओर दो अंग्रेज़ शायद फ़ौजी गोरे, अचानक दिखाई दिए। स्त्रियाँ उन्हें देखकर भय से चीख़ने लगीं और आत्मरक्षा में एकदूसरे से लिपटते हुए, भयभीत होकर उसी अवस्था में अपने कपड़ेउठाकर भागने लगीं। यशपाल भी उनके साथ भागे। घटित कुछ विशेष नहीं हुआ लेकिन अंग्रेज़ों से इस तरह डरकर भागने का दृश्य स्थायी रूप से उनकी बालस्मृति में टँक गया।..अंग्रेज़ से वह भय ऐसा ही था जैसे बकरियों के झुंड को बाघ देख लेने से भय लगता होगा अर्थात् अंग्रेज़ कुछ भी कर सकता था। उससे डरकर रोने और चीख़ने के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं था।.. आर्य समाज और कांग्रेस वे पड़ाव थे जिन्हें पार करके यशपाल अंततः क्रांतिकारी संगठन की ओर आए। उनकी माँ उन्हें स्वामी दयानंद के आदर्शों का एक तेजस्वी प्रचारक बनाना चाहती थीं। इसी उद्देश्य से उनकी आरंभिक शिक्षा गुरुकुल कांगड़ी में हुई। आर्य समाजी दमन के विरुद्ध उग्र प्रतिक्रिया के बीज उनके मन की धरती पर यहीं पड़े। यहीं उन्हें पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों को भी निकट से देखनेसमझने का अवसर मिला। अपनी निर्धनता का कचोटभरा अनुभव भी उन्हें यहीं हुआ। अपने बचपन में भी ग़रीब होने के अपराध के प्रति वे अपने को किसी प्रकार उत्तरदायी नहीं समझ पाते। इन्हीं संस्कारों के कारण वे ग़रीब के अपमान के प्रति कभी उदासीन नहीं हो सके। कांग्रेस यशपाल का दूसरा पड़ाव थी। अपने दौर के अनेक दूसरे लोगों की तरह वे भी कांग्रेस के माध्यम से ही राजनीति में आए। राजनैतिक दृष्टि से फ़िरोज़पुर छावनी एक शांत जगह थी। छावनी से तीन मील दूर शहर के लेक्चर और जलसे होते रहते थे। खद्दर का प्रचार भी होता था। 1921 में, असहयोग आंदोलन के समय यशपाल अठारह वर्ष के नवयुवक थेदेशसेवा और राष्ट्रभक्ति के उत्साह से भरपूर, विदेशी कपड़ों की होली के साथ वे कांग्रेस के प्रचारअभियान में भी भाग लेते थे। घर के ही लुग्गड़ से बने खद्दर के कुर्त्तापायजामा और गांधी टोपी पहनते थे। इसी खद्दर का एक कोट भी उन्होंने बनवाया था। बारबार मैला हो जाने से ऊबकर उन्होंने उसे लाल रँगवा लिया था। इस काल में अपने भाषणों में, ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आँकड़ों के स्रोत के रूप में, वे देशदर्शन नामक जिस पुस्तक का उल्लेख करते हैं वह संभवतः 1904 में प्रकाशित सखाराम गणेश देउस्कर की बांला पुस्तक देशेरकथा है, भारतीय जनमानस पर जिसकी छाप व्यापक प्रतिक्रिया और लोकप्रियता के कारण ब्रिटिश सरकार ने जिस पर पाबंदी लगा दी थी। महात्मा गाँधी और गाँधीवाद से यशपाल के तात्कालिक मोहभंग का कारण भले ही 12 फ़रवरी सन् 22 को, चौराचौरी काण्ड के बाद महात्मा गाँधी द्वारा आंदोलन के स्थगन की घोषणा रहा हो, लेकिन इसकी शुरुआत और पहले हो चुकी थी। यशपाल और उनके क्रांतिकारी साथियों का सशस्त्र क्रांति का जो एजेंडा था, गाँधी का अहिंसा का सिद्धांत उसके विरोध में जाता था। महात्मा गाँधी द्वारा धर्म और राजनीति का घालमेल उन्हें कहीं बुनियादी रूप से ग़लत लगता था। मैट्रिक के बाद लाहौर आने पर यशपाल नेशनल कॉलेज में भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा के संपर्क में आए। नौजवान भारत सभा की गतिविधियों में उनकी व्यापक और सक्रिय हिस्सेदारी वस्तुतः गाँधी और गाँधीवाद से उनके मोहभंग की एक अनिवार्य परिणाम थी। नौजवान भारत सभा के मुख्य सूत्राधार भगवतीचरण और भगत सिंह थे। सके लक्ष्यों पर टप्पणी करते हुए यशपाल लिखते हैं, नौजवान भारत सभा का कार्यक्रम गाँधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीति की आलोचना करके जनता को उस राजनैतिक कार्यक्रम की प्रेरणा देना और जनता में क्रांतिकारियों और महात्मा गाँधी तथा गाँधीवादियों के बीच एक बुनियादी अंतर की ओर संकेत करना उपयोगी होगा। लाला लाजपतराय की हिन्दूवादी नीतियों से घोर विरोध के बावजूद उनपर हुए लाठी चार्ज के कारण, जिससे ही अंततः उनकी मृत्यु हुई, भगतसिंह और उनके साथियों ने सांडर्स की हत्या की। इस घटना को उन्होंने एक राष्ट्रीय अपमान के रूप में देखा जिसके प्रतिरोध के लिए आपसी मतभेदों को भुला देना जरूरी था। भगतसिंह द्वारा असेम्बली में बमकांड इसी सोच की एक तार्किक परिणति थी, लेकिन भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी के विरोध में महात्मा गाँधी ने जनता की ओर से व्यापक दबाव के बावजूद, कोई औपचारिक अपील तक जारी नहीं की। अपने क्रांतिकारी जीवन के जो संस्मरण यशपाल ने सिंहावलोकन में लिखे, उनमें अपनी दृष्टि से उन्होंने उस आंदोलन और अपने साथियों का मूल्यांकन किया। तार्किकता, वास्तविकता और विश्वसनीयता पर उन्होंने हमेशा ज़ोर दिया है। यह संभव है कि उस मूल्यांकन से बहुतों को असहमति हो या यशपाल पर तथ्यों को तोड़मरोड़कर प्रस्तुत करने का आरोप हो। आज भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो यशपाल को बहुत अच्छा क्रांतिकारी नहीं मानते। उनके क्रांतिकारी जीवन के प्रसंग में उनके चरित्रहनन की दुरभसंधियों को ही वे पूरी तरह सच मानकर चलते हैं और शायद इसीलिए यशपाल की ओर मेरी निरंतर और बारबार वापसी को वे रेत की मूर्ति गढ़नेजैसा कुछ मानते हैं। क्रांति को भी वे बमपिस्तौलवाली राजनीति क्रांति तक ही सीमित करके देखते हैं। राजनीतिक क्रांति यशपाल के लिए सामाजिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन का ही एक हिस्सा थी। साम्राज्यवाद को वे एक शोषणकारी व्यवस्था के रूप में देखते थे, जो भगतसिंह के शब्दों में, मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम रूप है.. जगमोहन और चमनलाल, संस्करण 19, पृ.321) इस व्यवस्था के आधार स्तंभजागीरदारी और ज़मींदारी व्यवस्था भी उसी तरह उनके विरोध के मुख्य एजेंडे के अंतर्गत आते थे। देश में जिस रूप में स्वाधीनता आई और बहुतों की तरह, वे भी संतुष्ट नहीं थे। स्वाधीनता से अधिक वे इसे सत्ता का हस्तांतरण मानते थे। और यह लगभग वैसा ही था जिसे कभी प्रेमचंद ने जॉन की जगह गोविंद को गद्दी पर बैठ जाने के रूप में अपनी आशंका व्यक्त की थी। क्रांतिकारी रष्ट्र भक्ति और बलिदान की भावना से प्रेरितसंचालित युवक थे। अवसर आने पर उन्होंने हमेशा बलिदान से इसे प्रमाणित भी किया। लेकिन यशपाल अपने साथियों को ईर्ष्याद्वेष, स्पर्धाआकांक्षावाले साधारण मनुष्यों के रूप में देखे जाने पर बल देते हैं। अपने संस्मरणों में आज राजेन्द्र यादव जिसे आदर्श घोषित करते हैंवे देवता नहीं हैंउसकी शुरुआत हिन्दी में वस्तुतः यशपाल के इन्हीं संस्मरणों से होती है। ये क्रांतिकारी सामान्य मनुष्यों से कुछ अलग, विशिष्ठ और अपने लक्ष्यों के लिए एकांतिक रूप से समर्पित होने पर भी सामान्य मानवीय अनुभूतियों से अछूते नहीं थे। हो भी सकते थे। शरतचंद्र ने पथेरदावी में क्रांतिकारियों का जो आदर्श रूप प्रस्तुत किया, यशपाल उसे आवास्तविक मानते थे, जिससे राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिलती हो, उसे क्रांतिकारी आंदोलन और उस जीवन को वास्तविकता का एक प्रतिनिधि और प्रामाणिक चित्र नहीं माना जा सकता। सुबोधचंद्र सेन गुप्त पथेरदावी में बिजली पानीवाली झंझावाती रात में सव्यसाची के निषक्रमण को भावी महानायक सुभाषचंद्र बोस के पलायन के एक रूपक के तौर पर देखते हैं, जबकि यशपाल सव्यसाची के अतिमानवीय से लगने वाले कार्यकलापों और खोहखंडहरों में बिताए जानेवाले जीवन को वास्तविक और प्रामाणिक नहीं मानते। क्रांतिकारी जीवन के अपने लंबे अनुभवों को ही वे अपनी इस आलोचना के मुख्य आधार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। 2, मार्च सन् 38 को जेल से रिहाई के बाद, जब उसी वर्ष नवंबर में यशपाल ने विप्लव का प्रकाशनसंपादन शुरू किया तो अपने इस काम को उन्होंने बुलेट बुलेटिन के रूप में परिभाषित किया। जिस अहिंसक और समतामूलक समाज का निर्माण वे राजनीतिक क्रांतिकारी के माध्यम से करना चाहते थे, उसी अधूरे काम को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने लेखन को अपना आधार बनाया। अपने समय की सामाजिकराजनीतिक समस्याओं के केन्द्र में रखकर लिखे गए साहित्य को प्रायः हमेशा ही विचारवादी कहकर लांछित किया जाता है। नंद दुलारे वाजपेयी का प्रेमचंद के विरुद्ध बड़ा आरोप यही था। अपने ऊपर लगाए गए प्रचार के आरोप का यशपाल ने उत्तर भी लगभग प्रेमचंद की ही तरह दिया। अपने पहले उपन्यास दादा कॉमरेड की भूमिका में उन्होंने लिखा, कला के प्रेमियों को एक शिकायत मेरे प्रति है कि कला को गौण और प्रचार को प्रमुख स्थान देता हूँ। मेरे प्रति दिए गए इस फ़ैसले के विरुद्ध मुझे अपील नहीं करनी। संतोष है अपना अभिप्राय स्पष्ट कर पाता हूं... अपने लेखकीय सरोकारों पर और विस्तार से टिप्पणी करते हुए बाद में उन्होंने लिखा, मनुष्य के पूर्ण विकास और मुक्ति के लिए संघर्ष करना ही लेखक की सार्थकता है। जब लेखक अपनी कला के माध्यम से मनुष्य की मुक्ति के लिए पुरानी व्यवस्था और विचारों में अंतर्विरोध दिखाता है और नए आदर्श सामने रखता है तो उस पर आदर्शहीन और भौतिकवादी होने का लांछन लगाया जाता है। आज के लेखक की जड़ें वास्तविकता में हैं, इसलिए वह भौतिकवादी तो है ही परंतु वह आदर्शहीन भी नहीं है। उसके आदर्श अधिक यथार्थ हैं। आज का लेखक जब अपनी कला द्वारा नए आदर्शों का समर्थन करता है तो उस पर प्रचारक होने का लांछन लगाया जाता है। लेखक सदा ही अपनी कला से किसी विचार या आदर्श के प्रति सहानुभूति या विरोध पैदा करता है। साहित्य विचारपूर्ण होगा। यशपाल के लेखन की प्रमुख विधा उपन्यास है, लेकिन अपने लेखन की शुरूआत उन्होने कहानियों से ही की। उनकी कहानियाँ अपने समय की राजनीति से उस रूप में आक्रांत नहीं हैं, जैसे उनके उपन्यास। नई कहानी के दौर में स्त्री के देह और मन के कृत्रिम विभाजन के विरुद्ध एक संपूर्ण स्त्री की जिस छवि पर जोर दिया गया, उसकी वास्तविक शुरूआत यशपाल से ही होती है। आज की कहानी के सोच की जो दिशा है, उसमें यशपाल की कितनी ही कहानियाँ बतौर खाद इस्तेमाल हुई है। वर्तमान और आगत कथापरिदृश्य की संभावनाओं की दृष्टि से उनकी सार्थकता असंदिग्ध है। उनके कहानीसंग्रहों में पिंजरे की उड़ान, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी, फूलों का कुर्ता, धर्मयुद्ध, तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूँ और उत्तमी की माँ प्रमुख हैं। जो और जैसी दुनिया बनाने के लिए यशपाल सक्रिय राजनीति से साहित्य की ओर आए थे, उसका नक्शा उनके आगे शुरू से बहुत कुछ स्पष्ट था। उन्होंने किसी युटोपिया की जगह व्यवस्था की वास्तविक उपलब्धियों को ही अपना आधार बनाया था। यशपाल की वैचारिक यात्रा में यह सूत्र शुरू से अंत तक सक्रिय दिखाई देता है कि जनता का व्यापक सहयोग और सक्रिय भागीदारी ही किसी राष्ट्र के निर्माण और विकास के मुख्य कारक हैं। यशपाल हर जगह जनता के व्यापक हितों के समर्थक और संरक्षक लेखक हैं। अपनी पत्रकारिता और लेखनकर्म को जब यशपाल बुलेट की जगह बुलेटिन के रूप में परिभाषित करते हैं तो एक तरह से वे अपने रचनात्मक सरोकारों पर ही टिप्पणी कर रहे होते हैं। ऐसे दुर्धर्ष लेखक के प्रतिनिधि रचनाकर्म का यह संचयन उसे संपूर्णता में जाननेसमझने के लिए प्रेरित करेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।वर्षों विप्लव पत्र का संपादनसंचालन। समाज के शोषित, उत्पीड़ित तथा सामाजिक बदलाव के लिए संघर्षरत व्यक्तियों के प्रति रचनाओं में गहरी आत्मीयता। धार्मिक ढोंग और समाज की झूठी नैतिकताओं पर करारी चोट। अनेक रचनाओं के देशीविदेशी भाषाओं में अनुवाद। मेरी तेरी उसकी बात नामक उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार। दिव्या, देशद्रोही, झूठा सच, दादा कामरेड, अमिता, मनुष्य के रूप, मेरी तेरी उसकी बात, पिंजड़े की उड़ाना, फूलों का कुर्ता, भस्मावृत चिंगारी, धर्मयुद्ध, सच बोलने की भूल तथा चक्कर क्लब । उपन्यास कहानी संग्रह व्यंग्य संग्रह
निर्देशांक: 253640N 850838E 25.611N 85.144E 25.611 85.144 खटका पुनपुन, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है।
शिया चंद्र, मध्यपूर्व में शिया मुस्लिम अवस्थिति को व्याख्यायित करने वाली, एक भूराजनैतिक अवधारणा है। इस पद का प्रयोग मध्यपूर्व की राजनीति में शिया दृष्टिकोण से क्षेत्रीय सहयोग की क्षमता को दर्शाने के लिए किया जाता रहा है। जर्मनों में अवधारणा के तौर पर इस पद का प्रयोग आम है। जर्मन भाषा में इसे शिया अर्द्धचंद्र कहते हैं। शिया चंद्र नामक पद गढ़ने का श्रेय जॉर्डन के राजा अब्दुल्ला द्वितीय को जाता है, जिसके बाद यह शब्द राजनीतिक बहसों में लोकप्रिय हो गया। अज़रबेजान, ईरान, ईराक, बहरीन तथा लेबनान आदि देशों में शिया बहुसंख्यक हैं। सम्मिलित तौर पर इन देशों से एक अर्द्धचंद्राकार आकृति बनती है।तुर्की, यमन, अफ़गानिस्तान, कुवैत, पाकिस्तान, सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, भारत तथा सीरिया में भी शिया अल्पसंख्यकों की एक बड़ी मात्रा निवास करती है।
सभी प्राकृतिक विज्ञानों में से खगोलिकी सबसे प्राचीन है। इसका आरम्भ प्रागैतिहासिक काल से हो चुका था तथा प्राचीन धार्मिक एवं मिथकीय कार्यों में इसके दर्शन होते हैं। खगोलिकी के साथ फलित ज्योतिष का बहुत ही नजदीकी सम्बन्ध रहा है और आज भी जनता दोनो को अलग नहीं कर पाती। खगोलिकी और फलित ज्योतिष केवल कुछ शताब्दी पहले ही एकदूसरे से अलग हुए हैं। प्राचीन खगोलविद तारों और ग्रहों के बीच के अन्तर को समझते थे। तारे शताब्दियों तक लगभग एक ही स्थान पर बने रहते हैं जबकि ग्रह कम समय में भी अपने स्थान से हटे हुए दिख जाते हैं।
1228 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 1228 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है उपरोक्त अन्तर के आधार पर 1228 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते हैं।
किसी निश्चित क्षेत्र अथवा कक्षा के ताप, आर्द्रता, वायु की गति तथा वायुमंडल के स्तर के स्वतंत्र अथवा एक साथ की नियंत्रण क्रिया को वातानुकूलन कहा जाता है। वातानुकूलित क्षेत्र के ताप, आर्द्रता, वायु की गति तथा वायुमंडल के स्तर में विभिन्न कारकों का नियंत्रण आवश्यकतानुसार विभिन्न स्तरों पर किया जाता है। सामान्यत वातानुकूलन का उद्देश्य शारीरिक सुख तथा औद्योगिक सुविधा प्रदान करना होता है। शारीरिक सुख के लिए ऊष्मासंबंधी उपयुक्त एवं सुखप्रद परिस्थितियों को उत्पन्न करने में कक्ष के ताप, आर्द्रता, वायु की गति एवं वायुमंडल के स्तर को शरीरक्रिया विज्ञान की दृष्टि से निश्चित सीमाओं के भीतर नियंत्रित किया जाता है। जब औद्योगिक उद्देश्यों के लिए, जैसे विभिन्न संगृहीत पदार्थों की सुरक्षा के लिए, वस्त्र एवं सूत तथा संश्लिष्ट रेशों के उत्पादन में, अथवा छपाई में, वातानुकूलन का उपयोग होता है, उस समय प्रक्रम तथा औद्योगिक आवश्यकतानुसार विभिन्न स्तरों पर उपर्युक्त वातानुकूलन कारकों का निर्धारण किया जाता है। सामान्य रूप में किसी व्यक्तिविशेष के लिए वायुमंडल एवं वातावरण का ताप, आर्द्रता, वायु की गति एवं वायुमंडल का स्तर शरीर के सुख तथा सुविधा की दृष्टि से सदा अनुकूल अथवा सुखप्रद नहीं होता। इन कारकों को सुखप्रद बनाने में वातानुकूलन करनेवाले संयंत्रों का आधुनिक युग में विशेष प्रचार हुआ है। वातानुकूलित वातावरण मनुष्य के लिए केवल सुखप्रद ही नहीं होता, वरन् उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि करनेवाला भी होता है। मनुष्य के शरीर में विभिन्न उपापचयी क्रियाओं द्वारा एवं शारीरिक श्रम द्वारा ऊष्मा का उत्पादन होता है तथा शरीर द्वारा वायुमंडल एवं वातावरण में ऊष्मा का निष्कासन होता है। शरीरक्रिया विज्ञान की दृष्टि से यदि शरीर में ऊष्मा का उत्पादन तथा शरीर द्वारा ऊष्मा के निष्कासन की गति समान होती है, तो यह दशा, मनुष्य के लिए सुखप्रद होती है। वातानुकूलन का यह प्रमुख उद्देश्य होता है कि वायुमंडल एवं वातावरण के उन सभी कारकों का इस प्रकार से नियंत्रण हो कि शरीर में ऊष्मा का उत्पादन एवं उसके द्वारा ऊष्मा निष्कासन की गति प्राय: समान हो जाए। मनुष्य के लिए शारीरिक दृष्टि से सुखप्रद वातावरण का ताप 21रू24रू सें. तथा सापेक्ष आर्द्रता 50 प्रतिशत होनी चाहिए। इसी प्रकार 15 से 25 फुट प्रति मिनट वायु की गति शरीर के लिए सुखप्रद होती है। वातानुकूलन के उपर्युक्त कारकों को सभी ऋतुओं में समान स्तर पर रखने पर अधिकतम सुख प्राप्त नहीं होता। ग्रीष्म ऋतु में ताप 24रू सेंटीग्रेड होना अधिक उपर्युक्त होता है। वातानुकूलन करनेवाले संयंत्रों में सामान्यत: एक वायुशीतक तथा एक वायुतापक संयंत्र होता है। वायुतापक संयंत्र वायु के ताप को निश्चित बिंदु से कम होने पर तापन के द्वारा बढ़ाता है तथा वायुशीतक संयंत्र ताप अधिक होने पर वायु को शीतलन की क्रिया के द्वारा निर्धारित स्तर पर लाता है। वायुशीतक यंत्र संपीड़न प्रकार का यांत्रिक प्रशीतन एकक होता है। इसके यांत्रिक संपीड़ तंत्र के अधिशोषण संयंत्र में संघनक, विस्तारणकारक एवं वाष्पक यंत्र लगे होते हैं। वातानुकूलन संयंत्रों में बाह्य वायुमंडल की वायु छन्ने के द्वारा भीतर प्रवेश करती हैं। इस छन्ने से वायु के धूल के कण इत्यादि संयंत्र के भीतर प्रवेश नहीं कर पाते हैं। यांत्रिक प्रशीतक में वायुछन्ने का प्रमुख कार्य वायु के साथ प्रवेश करने वाले ठोस कणों की मात्रा को कम करना होता है, परंतु इस क्रिया में प्रवेश के दबाव तथा निष्कासन दबाव में दबाव का ह्रास न्यूनतम होना चाहिए। दबाव के ह्रास से वायुसंचालन में अधिक बिजली खर्च होती है। वायुछन्ने की क्रियाशीलता संबंधी क्षमता वायु के साथ प्रवेश करनेवाले कणों के आकार पर तथा वायु में कणों की सांद्रता एवं वायु के प्रवेश की गति पर निर्भर करती है। इस प्रकार से छनकर आई हुई वायु को यांत्रिक शीतक में अथवा अधिशोषण शीतक में पूर्वनिर्धारित ताप तक शीतल किया जाता है। सामान्यत: वायु को शीतल करने में संवेदीऊष्मा, अथवा आंतरिक ऊष्मा की ऊर्जा का, गरम वायु से अपेक्षाकृत कम तापवाले स्तर, अथवा माध्यम, में प्रत्यक्ष संवहन द्वारा स्थानांतारण होता है। ऊष्मा का यह स्थानांतरण, द्रववाष्प के सम्मिश्रण के द्वारा ऊष्मापरिषण स्तर से परिवाही शीतल द्रव, अथवा कम दबाव पर वाष्पन से होता है। वायुशीतलन की इस पद्धति में द्रववाष्प का सम्मिश्रण शीतल द्रव अथवा वाष्प द्रव में परिवर्तित होते हुए वायु की ऊष्मा को ग्रहण करता है। ऊष्मास्थानांतरण की एक अन्य पद्धति में, प्रवेश करनेवाली वायु की ऊष्माका स्थानांतरण किसी भीगे हुए स्तरयुक्त वायुशीतलक में होता है। इस पद्धति को वायु का आर्द्रशीतलन कहा जाता है। वायु शीतलन की उपर्युक्त दोनों ही पद्धतियों में वायु की संचित आंतरिक गतिज ऊर्जा वायु को त्याग कर, ऊष्माग्रहणस्तर में पहुंचकर, संचित हो जाती है, अथवा ऊष्माग्रहणस्तर के आंतरि गतिज ऊर्जा में वृद्धि करती है, जिससे स्तर के ताप में वृद्धि होती है अथवा स्थिर ताप वाष्पन प्रक्रम में आंतरिक स्थितिक ऊर्जा के रूप में संचित हो जाती है। वातानुकूलन में वायु को शीतल करने में जब ऊष्मा स्थानांतरण के लिए शुष्क स्तर का उपयोग होता है, तो गुप्त ऊष्मा में परिवर्तन नहीं होता तथा इस प्रावस्था में संवेदी ऊष्मा की हानि संपूर्ण ऊष्मा की हानि के बराबर होती है। जैसेजैसे ऊष्मा के स्थानान्तरण स्तर का ताप कम होने लगता है तथा वह निर्धारित आर्द्रता पर ओसांक बिंदु के समीप होने लगता है संवेदी ऊष्मा की हानि में वृद्धि होने लगती है। वातानुकूलन की आद्र्रशीतन रीति में ऊष्मास्थानांतरणस्तर के ताप का इस प्रकार से नियंत्रण होता है कि संवेदी ऊष्मा की हानि तथा संपूर्ण ऊष्मा की हानि का अनुपात वायुअनुकूलनअधिष्ठापन की आवश्यक भारपरिस्थिति को वहन कर सके। निर्धारित आर्द्रता की परिस्थितियों में ऊष्मास्थानांतरणस्तर का ताप यदि ओसांक बिंदु से नीचे पहुंच जाता है, तो उस प्रावस्था में संपूर्ण ऊष्मा की हानि में वृद्धि हो जाती है, तथा साथ ही साथ संवेदी ऊष्मा की हानि तथा संपूर्ण ऊष्मा की हानि के अनुपात में कमी उत्पन्न हो जाती है। वातानुकूलन संयंत्र में यांत्रिक संपीड़न व्यवस्था से, ऊष्मा ऊर्जा के विद्युतस्थानांतरण में शक्ति का प्रयोग उच्च ताप की वायु से कम ताप वाले ऊष्मा स्थानांतरण स्तर में उपर्युक्त रीति से होता है। ऊष्मा अवशोषणा की पद्धति में यांत्रिक संपीडन पद्धति के संघनक, विस्तारण कारक तथा वाष्पक संयंत्रों का प्रयोग होता है, परंतु वायुशीतलक द्रव के संतृप्त दबाव में वृद्धि उत्पन्न होने से, यंत्र की कार्यक्षमता में वृद्धि हो जाती है। वातानुकूलन की इस रीति में गौण अवशोषक द्रव का प्रयोग होता है। वाष्प रूप में होने पर इस द्रव में वातानुकूलक के शीतलक द्रव के प्रति बंधुता होती है। जल अमोनिया अवशोषण पद्धति में द्रव रूप में जल का उपयोग अमोनिया के वाष्प के अवशोषण के लिए किया जाता है। इस प्रकार से प्राप्त शीतल तथा सांद्र अमोनिया के विलयन को उच्च दवाब की स्थिति में लाने पर तथा ताप में वृद्धि के कारण पुन: वाष्पीकरण होता है। वातानुकूलन संयंत्र में शीतलक यंत्र के अतिरिक्त तापक यंत्र भी लगा हुआ होता है। प्रवेश करनेवाली वायु के ताप के कम होने पर इलेक्ट्रॉनिक अभिचालन पद्धति स्वत: चालित हो जाती है, जिससे तापक कार्य करने लगता है और वातानुकूलन संयंत्र से निकलनेवाली वायु का ताप निर्धारित सीमा तक हो जाता है। इस प्रकार से शीतलक तथा तापक यंत्रों के संयुक्तिकरण द्वारा किसी कक्ष अथवा क्षेत्र के ताप को पूर्वनिर्धारित सीमा पर स्थिर रखने के लिए यह आवश्यक होता है कि वातानुकूलन संयंत्र में कक्ष की वायु का संतत परिवहन होता रहे। अत: संयंत्र में ऐसी व्यवस्था होती है कि कक्ष की वायु का चूषण होता रहता है तथा शीतलन अथवा निश्चित ताप पर इस वायु का, अथवा बाह्य वायुमंडल की वायु का, संयंत्र से कक्ष के भीतर मंद गति से प्रवाह होता रहता है। इससे कक्ष के ताप के नियंत्रण के साथ साथ वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक नहीं होने पाती तथा कक्ष की वायु में यदि कोई दुर्गंध हो, तो उसका भी निष्कासन होता रहता है। वातानुकूलन में ताप का नियंत्रण ही सर्वांधिक महत्वपूर्ण होता है। संयंत्र में प्रवेश करनेवाली वायु को आद्र्र स्तर से होकर जाने से जल के वाष्पन का नियंत्रण होता है तथा इसके फलस्वरूप कक्ष की आर्द्रता का भी उचित स्तर पर नियंत्रण होता है। इस प्रकार से कक्ष अथवा क्षेत्र के ताप, आर्द्रता, वायु की गति तथा वातावरण के स्तर का पृथक् एवं संयुक्त रूप में निश्चित स्तर पर नियंत्रण होता है। इस प्रकार के कक्ष को वातानुकूलित कहा जाता है। वातानुकूलन की इस क्रिया में वायुमंडल तथा वातावरण के उपर्युक्त कारकों को शारीरिक सुख एवं औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए वातानुकूलन की रीति से अनुकूलतम बनाया जाता है।
एलुमिनियम एक रासायनिक तत्व है जो धातुरूप में पाया जाता है। यह भूपर्पटी में सबसे अधिक मात्रा में पाई जाने वाली धातु है। एलुमिनियम का एक प्रमुख अयस्क है बॉक्साईट। यह मुख्य रूप से अलुमिनियम ऑक्साईड, आयरन आक्साईड तथा कुछ अन्य अशुद्धियों से मिलकर बना होता है। बेयर प्रक्रम द्वारा इन अशुद्धियों को दूर कर दिया जाता है जिससे सिर्फ़ अलुमिना बच जाता है। एलुमिना से विद्युत अपघटन द्वारा शुद्ध एलुमिनियम प्राप्त होता है। एलुमिनियम धातु विद्युत तथा ऊष्मा का चालक तथा काफ़ी हल्की होती है। इसके कारण इसका उपयोग हवाई जहाज के पुर्जों को बनाने में किया जाता है। भारत में जम्मू कश्मीर, मुंबई, कोल्हापुर, जबलपुर, रांची, सोनभद्र, बालाघाट तथा कटनी में बॉक्साईट के विशाल भंडार पाए जाते है। उड़ीसा स्थित नाल्को दुनिया की सबसे सस्ती अलुमिनियम बनाने वाली कम्पनी है। ऐल्यूमिनियम श्वेत रंग की एक धातु है। लैटिन भाषा के शब्द ऐल्यूमेन और अंग्रेजी के शब्द ऐलम का अर्थ फिटकरी है। इस फिटकरी में से जो धातु पृथक की जा सकी, उसका नाम ऐल्यूमिनियम पड़ा। फिटकिरी से तो हमारा परिचय बहुत पुराना है। कांक्षी, तुवरी और सौराष्ट्रज इसके पुराने नाम है। फिटकरी वस्तुत: पोटैसियम सल्फ़ेट और ऐल्यूमिनियम सल्फ़ेट इन दोनों का द्विगुण यौगिक है। सन् 1754 में मारग्राफ़ ने यह प्रदर्शित किया कि जिस मिट्टी को ऐल्यूमिना कहा जाता है, वह चूने से भिन्न है। सर हंफ्री डेवी ने सन् 1807 ही में ऐल्यूमिया मिट्टी से धातु पृथक करने का प्रयत्न किया, परंतु सफलता न मिली। सन् 1825 में अर्स्टेड ने ऐल्युमिनियम क्लोराइड को पोटैसियम संरस के साथ गरम किया और फिर आसवन करके पारे को उड़ा दिया। ऐसा करने पर जो चूर्ण सा बच रहा उसमें धातु की चमक थी। यही धातु ऐल्युमिनियम कहलाई। सन् 1845 में फ़्रेडरिक वोहलर ने इस धातु के तैयार करने में पोटैसियम धातु का प्रयोग अपचायक के रूप में किया। उसे इस धातु के कुछ छोटेछोटे कण मिले, जिनकी परीक्षा करके उसने बताया कि यह नई धातु बहुत हल्की है और इसके तार खींचे जा सकते हैं। तदनंतर सोडियम और सोडियम ऐल्यूमिनियम क्लोराइड का प्रयोग करके सन् 1854 में डेविल ने इस धातु की अच्छी मात्रा तैयार की। उस समय नई धातु होने के कारण ऐल्यूमिनियम की गिनती बहुमूल्य धातुओं में की जाती थी और इसका उपयोग आभरणों और अलंकारों में होता था। सन् 1886 में ओहायो नगर में चाल्र्स मार्टिन हॉल ने गले हुए क्रायोलाइट में ऐल्यूमिना घोला और उसमें से विद्युद्विश्लेषण विधि द्वारा ऐल्यूमिनियम धातु पृथक की। यूरोप में भी लगभग इसी वर्ष हेरो ने स्वतंत्र रूप से इसी प्रकार यह धातु तैयार की। यही हॉलहेरोविधि आजकल इस धातु के उत्पादन में व्यवहृत हो रही है। हलकी और सस्ती होने के कारण ऐल्यूमिनियम और उससे बनी मिश्र धातुओं का प्रचलन तब से बराबर बढ़ता चला जा रहा है। ऐल्यूमिनियम धातु तैयार करने के लिए दो खनिजों का विशेष उपयोग होता है। एक तो बौक्सॉइट और दूसरा क्रायोलाइट । बौक्साइट के विस्तृत निक्षेप भारत में राँची, पलामू, जबलपुर, बालाघाट, सेलम, बेलगाम, कोल्हापुर, थाना आदि जिलों में पाए गए हैं। इस देश में इस खनिज की अनुमित मात्रा 2.8 करोड़ टन है। ऐल्यूमिनियम धातु तैयार करने के निर्मित्त पहला प्रयत्न यह किया जाता है कि बौक्साइट से शुद्ध ऐल्यूमिना मिले। बौक्साइट के शोधन की एक विधि, बायर विधि के नाम पर प्रचलित है। इसमें बौक्साइट को गरम कास्टिक सोडा के विलयन के साथ आभिकृत करके सोडियम ऐल्यूमिनेट बना लेते हैं। इस ऐल्यूमिनेट के विलयन को छान लेते हैं और इसमें से फिर ऐल्यूमिना का अवक्षेपण कर लिया जाता है। । ऐल्यूमिना से ऐल्यूमिनियम धातु हॉलहेरोविधि द्वारा तैयार की जाती है। विद्युद्विश्लेषण के लिए जिस सेल का प्रयोग किया जाता है वह इस्पात का बना एक बड़ा बक्सा होता है, जिसके भीतर कार्बन का अस्तर लगा रहता है। कार्बन का यह अस्तर कोक, पिच और तारकोल के मिश्रण को तपाकर तैयार किया जाता है। इसी प्रकार कार्बन के धनाग्र भी तैयार किए जाते हैं। ये बहुधा 1220 इंच लंबे आयताकार होते हैं। ये धनाग्र एक संवाहक दंड से लटकते रहते हैं और इच्छानुसार ऊपर नीचे किए जा सकते हैं। विद्युत् सेल के भीतर गला हुआ क्रायोलाइट लेते हैं और विद्युद्धारा इस प्रकार नियंत्रित करते रहते हैं कि उसके प्रवाह की गरमी से ही क्रायोलाइट बराबर गलित अवस्था में बना रहे। विद्युद्विश्लेषण होने पर जो ऐल्यूमिनियम धातु बनती है वह क्रायोलाइट से भारी होती है, अत: सेल में नीचे बैठ जाती है। यह धातु ही ऋणाग्र का काम करती है। गली हुई धातु समयसमय पर सेल में से बाहर बहा ली जाती है। सेल में बीचबीच में आवश्यकतानुसार और ऐल्यूमिना मिलाते जाते हैं। क्रायोलाइट के गलनांक को कम करने के लिए इसमें बहुधा थोड़ा सा कैल्सियम फ़्लोराइड भी मिला देते हैं। यह उल्लेखनीय है कि ऐल्यूमिनियम धातु के कारखाने की सफलता सस्ती बिजली के ऊपर निर्भर है। 20,000 से 50,000 ऐंपीयर तक की धारा का उपयोग व्यापारिक विधियों में किया जाता रहा है। व्यवहार में काम आनेवाली धातु में 99% 99.3% ऐल्यूमिनियम होता है। शुद्ध धातु का रंग श्वेत होता है, पर बाजार में बिकनेवाले ऐल्यूमिनियम में कुछ लोह और सिलिकन मिला होने के कारण हलकी सी नीली आभा होती है। परमाणुभार : 26.97 आपेक्षिक उष्मा : 0.214 आपेक्षिक उष्मा चालकता : 0.504 गलनांक : 659.8रू क्वथनांक : 1800 डिग्री गलन की गुप्त उष्मा : 95.3 आपेक्षिक घनत्व : 2.703 गलनांक पर द्रव का घनत्व : 2.382 विद्युत् प्रतिरोध, 20 डिग्री सें. पर : 2.845 विद्युत् रासायनिक तुल्यांक : 0.00009316 ग्राम प्रति कूलंब परावर्तनता : 85% ठोस होने पर संकोच : 6.6% विद्युदग्र विभव 1.69 वोल्ट ऐल्यूमिनियम पर साधारण ताप पर ऑक्सिजन का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु यदि धातु के चूर्ण को 400 डिग्री ताप पर ऑक्सिजन के संपर्क में लाया जाए, तो पर्याप्त अपचयन होता है। अति शुद्ध धातु पर पानी का भी प्रभाव नहीं पड़ता, पर ताँबा, पीतल अथवा अन्य धातुओं की समुपस्थिति में पानी का प्रभाव भी पर्याप्त होता है। कार्बन अथवा कार्बन के ऑक्साइड ऊँचे ताप पर धातु को कार्बाइड में परिणत कर देते हैं। पारा और नमी की विद्यमानता में धातु हाइड्राक्साइड बन जाती है। यदि ऐल्यूमिनियम चूर्ण और सोडियम पराक्साइड के मिश्रण पर पानी की कुछ ही बूँदें पड़ें, तो जोर का विस्फोट होगा। ऐल्यूमिनियम चूर्ण और पोटैसियम परमैंगनेट का मिश्रण जलते समय प्रचंड दीप्ति देता है। धातु का चूर्ण गरम करने पर हैलोजन और नाइट्रोजन के साथ भी जलने लगता है और ऐल्यूमिनियम हैलाइड और नाइट्राइड बनते हैं। शुष्क ईथर में बने ब्रोमीन और आयोडीन के विलयन के साथ भी यह धातु उग्रता से अभिक्रिया करके ब्रोमाइड और आयोडाइड बनाती है। गंधक, सेलीनियम और टेल्यूरियम गरम किए जाने पर ही इस धातु के साथ संयुक्त होते हैं। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल गरम होने पर धातु के साथ अभिक्रिया करके क्लोराइड बनाता है। यह क्रिया धातु की शुद्धता और अम्ल की सांद्रता पर निर्भर है। तनु सल्फ़्यूरिक अम्ल का धातु पर धीरेधीरे ही प्रभाव पड़ता है, पर अम्ल की सांद्रता बढ़ाने पर यह प्रभाव पहले तो बढ़ता है, पर फिर कम होने लगता है। 98% सल्फ़्यूरिक अम्ल का धातु पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता है। नाइट्रिक अम्ल का प्रभाव इस धातु पर इतना कम होता है कि सांद्र नाइट्रिक अम्ल ऐल्यूमिनियम के बने पात्रों में बंद करके दूरदूर तक भेजा जा सकता है। अमोनिया का विलयन कम ताप पर तो धातु पर प्रभाव नहीं डालता, परंतु गरम करने पर अभिक्रिया तीव्रता से होती है। कास्टिक सोडा, कास्टिक पोटाश और बेराइटा का ऐल्यूमिनियम धातु पर प्रभाव तीव्रता से होता है, परंतु कैल्सियम हाइड्राक्साइड का अधिक नहीं होता। ऐल्यूमिनियम ऑक्सिजन के प्रति अधिक क्रियाशील है। इस गुण के कारण अनेक आक्साइडों के अपचयन में इस धातु का प्रयोग किया जाता है। गोल्डश्मिट की थर्माइट या तापन विधि में ऐल्यूमिनियम चूर्ण का प्रयोग करके लौह, मैंगनीज़, क्रोमियम, मालिबडीनम, टंग्सटन आदि धातुएँ अपने आक्साइडों में से पृथक की जाती हैं। बेंगफ और सटन ने 1926 ई. में एक विधि निकाली जिसके द्वारा ऐल्यूमिनियम धातु पर उसके आक्साइड का एक पटल इस दृढ़ता से बन जाता है कि उसके नीचे की धातु संक्षारण से बची रहे। यह कार्य विद्युद्धारा की सहायता से किया जाता है। ऐल्यूमिनियम पात्र को धनाग्र बनाकर 3 प्रतिशत क्रोमिक अम्ल के विलयन में रखते हैं। वोल्टता धीरेधीरे 40 वोल्ट तक 15 मिनट के भीतर बढ़ा दी जाती है। 35 मिनट तक इसी वोल्टता पर क्रिया होने देते हैं, फिर वोल्टता 5 मिनट के भीतर 50 वोल्ट कर देते हैं और 5 मिनट तक इसे स्थिर रखते हैं। ऐसा करने पर पात्र पर आक्साइड का एक सूक्ष्म पटल जम जाता है। पात्र पर रंग या वार्निश भी चढ़ाई जा सकती है और यथेष्ट अनेक रंग भी दिए जा सकते हैं। इस विधि को एनोडाइज़िंग या धनाग्रीकरण कहते हैं और इस विधि द्वारा बनाए गए सुंदर रंगों से अलंकृत ऐल्यूमिनियम पात्र बाजार में बहुत बिकने को आते हैं। ऐल्यूमिनियम लगभग सभी धातुओं के साथ संयुक्त होकर मिश्र धातुएँ बनाता है, जिनमें से तॉबा, लोहा, जस्ता, मैंगनीज़, मैगनीशियम, निकेल, क्रोमियम, सीसा, बिसमथ और वैनेडियम मुख्य हैं। ये मिश्रधातुएँ दो प्रकार के काम की हैं पिटवाँ और ढलवाँ। पिटवाँ मिश्रधातुओं से प्लेट, छड़ें आदि तैयार की जाती हैं। इनकी भी दो जातियाँ हैं, एक तो वे जो बिना गरम किए ही पीटकर यथेच्छ अवस्था में लाई जा सकती हैं, दूसरी वे जिन्हें गरम करना पड़ता है। पिटवाँ और ढलवाँ मिश्रधातुओं के दो नमूने यहाँ दिए जाते हैं ढलवाँ : ताँबा 8%, लोहा 1%, सिलिकन 1.2%, ऐल्यूमिनियम 89.8% पिटवाँ : ताँबा 0.9%, सिलिकन 12.5%, मैगनीशियम 1.0 %, निकेल 0.9%, ऐल्यूमिनियम 84.7% ऐल्यूमिनियम ऑक्साइड प्रकृति में भी पाया जाता है तथा फिटकरी और अमोनिया क्षार की अभिक्रिया से तैयार भी किया जा सकता है। इसमें जल की मात्रा संयुक्त रहती है। जलरहित ऐल्यूमिनियम क्लोराइड का उपयोग कार्बनिक रसायन की फ़्रीडेनक्राफ़्ट अभिक्रिया में अनेक संश्लेषणों में किया जाता है। ऐल्यूमिनियम सलफ़ेट के साथ अनेक फिटकरियाँ बनती हैं। धातु को नाइट्रोजन या अमोनिया के साथ 800 डिग्री से. ताप पर गरम करके ऐल्यूमिनियम नाइट्राइड,, तैयार किया जा सकता है। सरपेक विधि में ऐल्यूमिना और कार्बन को नाइट्रोजन के प्रवाह में गरम करके यह नाइट्राइड तैयार करते थे। इस प्रकार वायु के नाइट्रोजन का स्थिरीकरण संभव था। बौक्साइट और कार्बन को बिजली की भट्टियों में गलाकर ऐल्यूमिनियम कार्बाइड तैयार करते हैं, जो संक्षारण से बचाने में बहुत काम आता है और ऊँचा ताप सहन कर सकता है। ऐल्युमिनियम त्रिसंयोजी तत्व है अत: इसके यौगिकों में 3 की संयोजकता, Al,प्रदर्शित होती है। इसके प्रमुख यौगिक आक्साइड, क्लोराइड, नाइट्रेट, सल्फेट तथाहाइड्राक्साइड हैं। ऐल्युमिनियम आक्साइड इसे ऐल्युमिना भी कहते हैं। यह ऐल्युमिनियम काश्वेत या रंगहीन आक्साइड है जो दो रूपों में पाया जाता हैस्थायी रूप अथवा अरूपजिसके क्रिस्टल षटभुजी होते हैं तथा गामा ऐल्युमिना जो गर्म करने पर अरूपमें बदल जाता है। इनके अतिरिक्त भ्.8 आदि रूप भी ज्ञात हैं जिनमें क्षारीय धातुआयन रहते हैं। ऐल्युमिना प्रकृति में बाक्साइट तथा कोरंडम के रूप में पाया जाता है। इसेऐल्युमिनियम हाइड्राक्साइड, नाइट्रेट अथवा अमोनियम फिटकरी को गर्म करके प्राप्तकिया जा सकता है। 2 Al 3 Al2O33H2O 4 Al 2 Al2O3 8NO23O2 2 SO4.Al23 Al2O34SO32NH3H2O शुद्ध ऐल्युमिनियम आक्साइड प्राप्त करने के लिए बाक्साइट अयस्क को सोडियमहाइड्राक्साइड में घोलते हैं। जो अशुद्धियाँ होती हैं वे अविलेय रही आती हैं।ऐल्युमिनियम हाइड्राक्साइड अवक्षेप को विलग करके 11501200 तक गर्म करने पर अआक्साइड बनाता है। यह अत्यधिक कठोर पदार्थ है अत: अपघर्षक के रूप मेंप्रयुक्त किया जाता है। इसकी अग्निसह ईंटें भी बनाई जाती हैं। भट्टियों मेंदुर्गलनीय अस्तर बनाने के भी काम आता है। ऐल्युमिनियम आक्साइड उभयधर्मी है अत: अम्लो तथा क्षारों में समान रूप से विलयितहोकर लवण उत्पन्न करता है। क्षारों के साथ ऐल्युमिनेट बनता है। Al2O36HCl 2AlCl33H2O Al2O32NaOH2NaAlO2H2O हाइड्रोजन अथवा कार्बन के साथ गर्म करने पर Al2O3 अपचित नहीं होता. ऐल्युमिनियम ऐसीटेट अथवा ऐथेनोएट यह श्वेत ठोस है जो ठंडे जलमेंबहुत कम विलेय है और गर्म जल में विघटित हो जाता है। जल की अनुपस्थित में शुद्धलवण बन सकता है। अन्यथा क्षारीय लवण ही बनता है। इसका उपयोग रंगबन्धक के रूपमेंतथा टैंनिग में किया जाता है। पहले संक्रमणरोधी तथा औषधि के रूप में प्रयुक्तहोता था। ऐल्युमिनियम क्लोराइड यह श्वेत ठोस है और जल के साथ तीव्रता से क्रियाकरके HCl बनाता है। यह दो रूपों में पाया जाता है निर्जल रूप तथा जलयोजित हेक्साहाइड्रेट AlHCl3.6H2O. प्रयोगशाला में ऐल्युमिनियम के ऊपर क्लोरीनगैस प्रवाहित करके निजल क्लोराइड प्राप्त करते हैं 2Al 3HCl2 2AlHCl3 किन्तु बहुत मात्रा में उत्पादक के लिए गरम किये गये ऐल्युमिना तथा कार्बनमिश्रण के ऊपर क्लोरीन प्रवाहित करते हैं जलयोजित क्लोराइड प्राप्त करने के लिए ऐल्युमिनियम धातु या ऐल्युमिना कोहाइड्रोक्लोरिक अम्ल में विलयित करके विलयन को सुखाकर किया जाता है 2Al6H HCl H2 यदि जलयोजित क्लोराइड को गर्म करके निर्जल लवण बनाना चाहें तो यह सम्भव नहीं हैक्योंकि तब ऐल्युमिना बनता है 2 AlHCl3. 6H2O Al2O H2O 6HHCl द्रव तथा वाष्प अवस्था में समान रूप Al2HCl6 पाया जाता है। ऐल्युमिनियक्लोराइड काजल अपघटन होता है अत: HHCl डालकर रखना चाहिए. इसका उपयोग तेलों के भंडारों में उत्प्रेरक के रूप में होता है। फ्रीडलक्रैफ्टअभिक्रियां भी उत्प्रेरक का कार्य करती हैं। ऐल्युमिनियम ट्राइमेथिल यह रंगहीन द्रव्य है जो वायु में जल उठता हैऔर जल के साथ अभिक्रिया करके मेथेन तथा Al3 बनाता है। इसे AlHCl3 के साथग्रिग्न्याँ अभिकर्मक की क्रिया द्वारा तैयार करते हैं। इसका उपयोग उच्च घनत्ववाले पालीथीन बनाने में होता है। ऐल्युमिनियम नाइट्रेट Al3 यह श्वेत ठोस है। इस तुरन्त अवक्षेपित Al3 में सेHNO3 की क्रिया कराकर या फिर Al23 एवं 2 विलयनों को मिलाकर PbSO4अवक्षेप को छानकर प्राप्त कर सकते हैं। इसका उपयोग रँगाई तथा गैस गैटल बनानेमें होता है। ऐल्युमिनियम पोटैसियम सल्फेट Al23.K2SO4. 24 H2O यह पोटाश ऐलम या ऐलग के नाम से प्रसिद्ध है। यह श्वेत क्रिस्टलीय यौगिक है जिसे गर्म करनेपर पहले 18 H2O निकल जाता है और अधिक गर्म करने पर निर्जल बन जाता है। यहगर्म जल में विलेय है किन्तु एथेनाल तथा ऐसीटोन में अविलेय है। इसे तैयार करनेके लिए पोटैसियम सल्फेट तथा ऐल्युमिनियम सल्फेट की समआणविक मात्राएँ विलयन रूपमें मिलाई जाती है। इसका उपयोग रंगबन्धक, चमड़ा कमाने तथा अग्निशामक में होताहै। ऐल्युमिनियम फ्लोराइड AlF यह रंगहीन यौगिक है जिसे Al 2 के ऊपर HF कीक्रिया कराकर बनाते हैं। इस पर अम्लों या क्षारों की कोई क्रिया नहीं होती. ऐल्युमिनियम सल्फेट यह निर्जल तथा जलयोजित रूपों में प्राप्त होता है। Al23निर्जल रूप है जो श्वेत क्रिस्टलीय यौगिक है। जलयोजित यौगिक Al2 18 H2O हैजो 86.5 पर अपना जल खो देता है। जलयोजित तथा निर्जल दोनों ही रूप में जल विलेयहैं। जब Al3 के साथ H2SO4 की क्रिया कराई जाती है या चीनी मिट्टी या बाक्साइट पर H2SO4 की क्रिया कराते हैं जो जलयोजित सल्फेट बनता है। इसकाजलीय विलयन अम्लीय होता है Al2 3 6H2O 2Al3 3H2SO4 यह क्षारीय धातु सल्फेटों के साथ फिटकरीबनाता है। गर्म करने पर इसका अपघटन हो जाता है Al23 Al2O3 3SO इसका उपयोग पानी के शोधन, विशेषतया मलजल के परिष्कार, कपड़ो की रँगाई, चमड़े कीरँगाई तथा कागज उद्योग में होता है। इससे अग्निसह पदार्थ बनाये जाते है। ऐल्युमिनियम सिलेकेट प्राकृतिक तथा सश्लिष्ट दोनों प्रकार के यौगिक, जिनमें Al.Si के साथ आक्सीजन संयुक्त रहता है। मृत्तिकाएँ, जेयोलाइट, अभ्रक आदि मुख्य उदाहरण हैं। ऐल्युमिनियम हाइड्राक्साइड Al3 यह उभयधर्मी हाइड्राक्साइड है जो अम्लोंतथा क्षारों में समान रूप सें विलयित हो जाता है। यह श्वेत जिलेटिनी ठोस हैजिसे ऐल्युमिनियम लवणों के विलयन में अमोनिया डालकर तैयार किया जा सकता है। यहगर्म किये जाने पर ऐल्युमिना में परिणत हो जाता है। 2Al3 Al2O3 3H2O इसमें उपसहसंयोजित जल अणु होते हैं अत: जलयोजित Al3 कहलाता है। इसका उपयोग जल परिष्करण, रंगबंधक तथा जलसह वस्त्र बनाने में होता है। उत्प्रेरक तथा क्रोमैटोग्राफी में भी प्रयुक्त. Hydroxid hlinit Al3 एल्मुनियम से बना सन् 1920 का जर्मन सिक्का
हकीम अब्दुल हमीद भारत सरकार ने 1992 में के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये दिल्ली से हैं।
तथ्यों का वस्तुपरक विश्लेषण करते हुए कोई निर्णय लेना आलोचनात्मक चिन्तन कहलाता है। यह विषय एक जटिल विषय है और आलोचनात्मक चिन्तन की भिन्नभिन्न परिभाषाएँ हैं जिनमें प्रायः तथ्यों का औचित्यपूर्ण, स्केप्टिकल और पक्षपातरहित विश्लेषण शामिल होता है।
भास संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार थे जिनके जीवनकाल के बारे में अधिक पता नहीं है। स्वप्नवासवदत्ता उनके द्वारा लिखित सबसे चर्चित नाटक है जिसमें एक राजा के अपने रानी के प्रति अविरहनीय प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी है। कालिदास जो गुप्तकालीन समझे जाते हैं, ने भास का नाम अपने नाटक में लिया है, जिससे लगता है कि वो गुप्तकाल से पहले रहे होंगे पर इससे भी उनके जीवनकाल का अधिक ठोस प्रमाण नहीं मिलता। आज कई नाटकों में उनका नाम लेखक के रूप में उल्लिखित है पर 1912 में त्रिवेंद्रम में गणपति शास्त्री ने नाटकों की लेखन शैली में समानता देखकर उन्हें भासलिखित बताया। इससे पहले भास का नाम संस्कृत नाटककार के रूप में विस्मृत हो गया था। संस्कृत नाटककारों में भास का नाम बड़े सम्मान का विषय रहा है। कालिदास ने अपने पूर्ववर्ती और लोकप्रिय नाटककारों की चर्चा करते हुए सबसे पहले भास और बाद में सोमिल एवं कविपुत्र के नाम लिए हैं और उन्हें यशस्वी नाटककार कहा है। बाणभट्ट, वाक्यतिराज और जयदेव ने भी उनकी प्रशंसा की है। वामन की काव्यालंकार सूत्रवृति और अभिनवगुप्त की अभिनवभारती, राजशेखर की काव्यमीमांसा से भास के नाटकों का अस्तित्व सूचित है। अवंतिसुंदरी कथा में भी उनका नाम आया है। अत: निश्चित है कि संभवत: अश्वघोष के परवर्ती और कालिदास से पूर्ववर्ती नाटककार के रूप में भास अत्यंत लोकविश्रुत कलाकार थे। भास संस्कृत साहित्य के बड़े नाटककार के रूप में मान्य थे परंतु उनके नाटक अप्राप्त थे। सन् 1907 ई0 में म0 म0 टी0 गणपति शास्त्री को मलयालम लिपि में लिखित संस्कृत के दस नाटक प्राप्त हुए। खोज करने पर तीन और नाटक मिले। 1912 ई0 में गणपति शास्त्री द्वारा अनंतशयन संस्कृत ग्रंथावली में भास के नाम से वे प्रकाशित किए गए। इन नाटकों की अनेक प्रतियाँ अन्य स्थानों से प्राप्त हुई। उक्त 13 नाटकों को पूर्णत: या अंशत: भासकृत मानने न मानने वालों के पक्ष तर्कसमर्पित होकर भी आजतक निर्णायक नहीं हो सके। इस विवाद के उठने के अनेक कारण हैं। नाटकों की स्थापना और पुष्पिका में कहीं भी नाटककार भास का नाम नहीं मिलता। संस्कृत ग्रंथों में भास के जो अंश उदधृत हैं उनमें अधिकांश अक्षरश: इन नाटकों में अनुपलब्ध हैं। इसी प्रकार अनेक कारण है जो उन तेरह नाटकों की भासरचना विषयक प्रामाणिकता को संदिग्ध बनाते हैं। इस प्रसंग के प्रमुख मतपक्षों को चार वर्गो में रखा जा सकता है यह भी कभी कभी कहा जाता है कि भास के उपलब्ध नाटक अधूरे थे जिसे अन्य या अन्यजनों ने पूरा करके उन्हें वर्तमान रूप दिया। जो हो, यह निश्चित है क ये नाटक जाली नहीं हैं। केरल के चाकार परंपरा ने समान रूप से सुरक्षित रखा है। परंपरागत प्रसिद्धि के अनुसार उनकी संख्या 23 या 30 कही गई है। त्रिवेंद्रम् संस्करण के 13 नाटकों में कुछ ऐसी समानताएँ और विशेषताएँ हैं जिनके कारण वर्तमान संस्करण की नाट्यलेखन और नाट्यशिल्प के कलाकार की एकता सूचित होती है। नांद्यंते तत: प्रविशति सूत्रधार: से इनका आरंभ, प्रस्तावना के स्थान पर स्थापना शब्द का प्रयोग, नाटककार के नाम का अभाव, भरतवाक्य में प्राय: साम्य, भरत के नाट्यशास्त्रीय कुछ विधानों का अपालन, संस्कृत में कतिपय अपाणिनीय रूप का प्रयोग, अनेक नाटकों में कुछ पात्रों के नाम का साम्य, विचार और आदर्श की समानता, प्राकृत भाषा की कुछ विलक्षणता आदि ऐसी बातें हैं जिनके कारण इन सब के एककर्तृत्व का संकेत भी मिलता है। पर वह भास थे या चाक्यार नटों के नाट्यरूपंतकार, यह नहीं कहा जा सकता। 1912 में त्रिवेंद्रम् से गणपति शास्त्री द्वारा प्रकाशित कराए गए 13 नाटक भासकृत माने जाते हैं। इनमें प्रथम आठ नाटक अनेकांकी हैं और अंतिम पाँच एकांकी हैं। प्रथम दो नाटक उदयनकथाश्रित हैं, 3, 4 संख्यक नाटक कल्पित कथाश्रित हैं, 5, 6 संख्यक रामकथाश्रित हैं, सप्तम नाटक कृष्णकथाश्रित है तथा अष्टम से तेरहवें तक के नाटकों का आधार महाभारत है। इनकी कथावस्तुओं में नाटककार ने कल्पनाजन्य घटनाओं, पात्रों आदि का भी नाटकीयता के लिये पर्याप्त उपयोग किया है। प्रतिमानाटक सात अंकों का नाटक है, जिसमें भास ने राम वनगमन से लेकर रावणवध तथा राम राज्याभिषेक तक की घटनाओं को स्थान दिया है। महाराज दशरथ की मृत्यु के उपरान्त ननिहाल से लौट रहे भरत अयोध्या के पास मार्ग में स्थित देवकुल में पूर्वजों की प्रतिमायें देखते हैं, वहाँ दशरथ की प्रतिमा देखकर वे उनकी मृत्यु का अनुमान कर लेते हैं। प्रतिमा दर्शन की घटना प्रधान होने से इसका नाम प्रतिमा नाटक रखा गया है। प्रतिमा निर्माण की कथा भास की अपनी मौलिकता है। भास ने इस नाटक में मौलिकता लाने में प्रचलित रामचरित से पर्याप्त पार्थक्य ला दिया है। यद्यपि ये सारी घटनायें प्रचलित कथा से भिन्न हैं, पर नाटकीय दृष्टि से इनका महत्व सुतरां ऊँचा है और पाठक अथवा दर्शक की कौतुहल वृद्धि में ये घटनायें सहायक हुई हैं। इस नाटक में रामायणीय कथा से भिन्नतायें इस प्रकार हैं प्रथम अंक में सीता द्वारा परिहास में वल्कल पहनना भास की मौलिकता है। तृतीय अंक में प्रतिमा का सम्पूर्ण प्रकरण ही कवि कल्पित है और यह कल्पना ही नाटक की आधारभूमि बनायी गयी है। पाँचवें अंक में सीता का हरण भी यहाँ नवीन ढंग से बताया गया है। यहाँ राम के उटज में वर्तमान रहने पर ही रावण वहाँ आता है और दशरथ के श्राद्ध के लिए उन्हें कांचनपार्श्व मृग लाने को कहता है तथा उन्हें कांचन मृग दिखाकर दूर हटाता है। यह सम्पूर्ण प्रसंग नाटककार द्वारा गढ़ा गया है। पांचवें अंक में सुमंत्र का वन में जाना तथा लौटकर भरत से सीताहरण बताना कवि कल्पना का प्रसाद है। कैकयी द्वारा यह कहना भी कि उसने ऋषिवचन सत्य करने के लिए राम को वन भेजा, भास की प्रसृति है। अन्ततः सप्तम अंक में राम का वन में ही राज्याभिषेक इस नाटक में मौलिक ही है। प्रतिमा नाटक भास के सर्वोत्तम नाटकों में से एक है। सात अंकों के इस नाटक में भास की कला पर्याप्त ऊँचाईं को प्राप्त कर चुकी है। इस नाटक में भास ने पात्रों का चारित्रिक उत्कर्ष दिखाने का भरसक प्रयास किया है। इतिवृत्त तथा चरित्रचित्रण दोनों दृष्टियों से यह नाटक सफल हुआ है। भावों के अनुकूल भाषा तथा लघु विस्तारी वाक्य भास के नाटकों की अपनी विशेषताएँ हैं। यह करुण रस प्रधान नाटक है तथा अन्य रस इसी में सहायक बनकर आये हैं। यह भी रामकथा पर आश्रित है। इसमें छः अंक हैं। इसमें रामायण के किष्किंधाकाण्ड से युद्धकाण्ड की समाप्ति तक की कथा अर्थात् बालिवध से राम राज्याभिषेक तक की कथा वर्णित है। रामराज्याभिषेक के आधार पर ही इसका नामकरण किया गया है। कथानक को सजान संवारने में नाटककार ने पर्याप्त मौलिकता का परिचय दिया है। बालिवध को न्या य रूप देने का भी नाटककार ने पर्याप्त प्रयास किया है। इस नाटक के नायक मर्यादापुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र हैं। लोकोपदेश उनके चरित्र का प्रधान भाग है। लक्ष्मण का चरित्र इस नाटक में विशेष प्रस्फुटित नहीं हो सका है। वे श्रीराम क एक आज्ञाकारी सेवक तथा विनीत भक्त के रूप में सामने आते हैं। सुग्रीव का चरित्र इस नाटक में प्रारंभ से लेकर अन्त तक किसी न किसी रूप में वर्तमान रहता है। विभीषण न्यायप्रिय भगवद् भक्त के रूप में अंकित किया गया है। रावण क्रूर, दुराचारी तथा परस्त्री लम्पट के रूप में चित्रित किया गया है। अभिषेक नाटक के प्रणयन में भास ने पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। यद्यपि काव्य तथा नाटकीयता की दृष्टि से यह नाटक प्रतिमा नाटक की अपेक्षा अवर कोटि का है तथापि इस नाटक की अपनी विशेषतायें हैं। रामरावण युद्ध अपनी विशिष्टताओं में बेजोड़ है। पात्रों का कथोपकथन आकर्षक है। छोट छोटे तथा सरल वाक्यों का विन्यास भास की अपनी विशेषता है तथा उस विशेषता का दर्शन इस नाटक में होता है। इस नाटक का प्रधान रस वीर है जो समग्र नाटक में व्याप्त है, पर करूण रस भी यत्र तत्र अनुस्यूत है। इसकी सत्ता बालिवध के अनन्तर, सीता के सन्ताप आदि में देखी जा सकती हैं। श्रृंगार का इसमें अभाव है तथा उसके लिए कहीं अवसर भी नहीं आया है। यह एक अंक का व्यायोग है। व्यायोग रुपक का एक भेद होता है। इसकी कथावस्तु का आधार महाभारत है। इसमें पाण्डवों के वनवास काल में भीम द्वारा घटोत्कच के पंजे से एक ब्राह्मण बालक की मुक्ति की कथा है। मध्यम शब्द मध्यम पाण्डव भीम और ब्राह्मण क मध्यम पुत्र दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसलिए इस नाटक का नाम मध्यम व्यायोग है। नाटकीय दृष्टि से यह नाटक उत्तम कोटि का है, क्यों क इस परिपाक तथा भावोन्मेष में नाटककार को पूरी सफलता प्राप्त हुई है। कथोपकथनों में कहीं वैरस्य नहीं आता तथा दर्शक का कुतुहल प्रतिक्षण बढ़ता हुआ दिखाई देता है। इन कथोपकथनों में भाषा भी बड़ी सहायक सिद्ध हुई है। लम्बे समासान्त पदों का यहाँ अभाव है। भाषा सरलता में बेजोड़ है। घटनाक्रम में सत्वरता प्रभावोत्पादन में चारचाँद लगा देती है। भास का काव्य कर्म भी इस रुपक में सफल रहा है। यह भी एक अंक के कथानक वाला महाभारत की कथावस्तु से सम्बद्ध व्यायोग है। द्रोणाचार्य के परलोक सिधारे जाने पर कर्ण को सेनापति बनाया जाता है तथा युद्ध का भार उस पर आ पड़ता है, इसलिए नाटक का नाम कर्णभार है। कर्णभार शीर्षक की व्याख्या विद्वानों ने अनेक प्रकार से की है। प्रोफेसर ए डी पुसालकर की सम्मति में कानों के भारभूत कुण्डलों का दानकर यहाँ कर्ण की अद्भुत दानशीलता वर्णित की गई है। अतः कानों के आधारभूत कुण्डलों के दान को केन्द्र मानकर इस नाटक की रचना करन से इस नाटक का नाम कर्णभार है। डॉ विन्टरनित्स ने कर्णभार की व्याख्या कर्ण के कठिन कार्य से की है। डॉ॰ भट्ट की धारणा है कि कर्ण की चिन्ता ही भारस्वरूप हो गई है। इसी बात को ध्यान में रखकर इस नाटक का नाम कर्णभार रखा गया है। कुछ लोगों के मत में कर्ण द्वारा प्राप्त युद्ध कौशल उनके लिए भारभूत हो गया था, अतः इस नाटक का नाम कर्णभार पड़ा। इस नाटक में दो पात्रों का चरित्र मुख्य रूप से चित्रित है। एक है इस नाटक के नायक कर्ण और दूसरे हैं, छः ब्राह्मण वेषधारी देवराज इन्द्र। कर्ण के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता जो यहाँ उभर कर सामने आयी है, वह है उसकी अपूर्व ब्राह्मण निष्ठा तथा महती दानशीलता। वह ब्राह्मणों के लिए सर्वस्व दान करने के लिए तत्पर दिखाई पड़ता है। जब इन्द्र गौ, सुवर्ण आदि लेना अस्वीकार करते हैं, तब वह अपना सिर देने की बात कहता है। उसका विश्वास है कि मरने पर भी यश ही स्थिर रहता है हतेषु देहेषु गुणा धरन्ते। कर्ण के चरित्र की दूसरी बड़ी विशेषता है कि वह दान से किसी प्रतिफल की आशा नहीं रखता। इन्द्र के चरित्र में स्वार्थी रूप के अतिरिक्त अन्य कोई विशेषता लक्षित नहीं होती। शल्य का चरित्र कोई विशेष उभरकर सामने नहीं आया है। अपने लघु विस्तार में यह नाटक पूर्ण है। काव्यरस के परिपाक तथा नाटकीय तत्वों क निर्वाह दोनों दृष्टियों से यह नाटक उच्च कोटि का है। यद्यपि नाटक का विषय वीर रस और युद्ध भूमि से ही सम्बन्ध रखता है, पर नाटक में करुण रस की ही विशष प्रभा दिखाई पड़ती है। यह तीन अंकों का समवकार हे। इसकी कथा महाभारत के विराट पर्व पर आधारित है। इसका नामकरण स्पष्ट रूप से पॉच रात्रियों में पाण्डवों को ढूँढनें की बात से हुआ है। द्रोणाचार्य के सत्प्र यास से पाण्डव मिल जाते हैं तथा दुर्योधन द्वारा उन्हे आधा राज्य दे दिया जाता है। इस नाटक में सबसे प्रधान चरित्र दुर्योधन का चित्रित है। आरंभ से अन्त तक वह नाटक में वर्तमान है। नाटक में सर्वप्रथम एक धार्मिक राजा के रूप में उसका चरित्र सामने आया है। पाण्डवों को राज्य भ्रष्ट कर वह महान् यज्ञ का प्रवर्तन करता है। यज्ञ में सभी देश देशान्तर क राजा उसको कर देने उपस्थित होते हैं। यह उनके महान् शौर्यं पराक्रम को घोषित करता है। अवभृथ स्नान के समय दुर्योधन की अटूट गुरूभक्ति भी सामने आती है। काव्योत्कर्ष की दृष्टि से यह रुपक उत्तम कोटि का कहा जायेगा। सरल शब्दावली में भावोन्मेष भास की अपनी विशेषता है। शब्दों के आश्रय से भास ऐसा चित्र खड़ा कर देते हैं कि पूरा दृष्य ही सामने आ जाता है। अलंकारों की संघटना भी नितान्त आकर्षक है। स्थानस्थान पर सूक्तियाँ इस बारीकी के साथ दी गई हैं कि प्रभावोत्पादन में वे दूनी वृद्धि कर देती हैं। इस रूपक का प्रधान रस वीर है। श्रृगांर का इसमें पूर्णरूपेण अभाव है, जो नाटक में स्त्रीपात्रों के न आने से हुआ है। संक्षेप में इसे भासे की नाट्यचातुरी का अनुपम उदाहरण कहा जा सकता है। यह भी महाभारत की कथा पर आश्रित एक एकांकी है, इसमें व्यायोग के लक्षण घटित होते हैं। द्रा पे दी के अपमान का प्रतिशोध लेने हेतु भीम व दुर्योधन का गदायुद्ध इसमें वर्णित हुआ है। इसमें एक ही अंक है तथा समय व स्थान की अन्विति का पूर्ण रूप से पालन किया गया है। नाटक की विशिष्टता इसके दुःखान्त होने के कारण है। इस रुपक का नायक दुर्योधन है। उसके चरित्र विन्यास में नाटककार ने पर्याप्त कौशल प्रदर्शित किया है। इस एंकाकी में नाटककार ने उसके चरित्र को नितान्त उदात्त तथा प्रांजल रूप में प्रदर्शित किया है। वह शौर्य पराक्रम का जीवन्त प्रतीक है। दुर्योधन के अतिरिक्त अश्वत्थामा तथा बलराम का व्यक्तित्व भी अपने में महत्वपूर्ण है। संस्कृत नाट्यसाहित्य में उरुभंग अपना विशिष्ट स्थान रखता है। नाटकीय कौशल की दृष्टि से यह नाटकप्रशंसनीय है। कथोपकथनों में स्वाभाविकता सर्वत्र परिलक्षित होती है। समय और पात्र के अनुकूल ही वार्तालापों की संघटना की गई है। दुर्योधन के उरुभंग हो जाने पर बलराम जी की चेश्टाओं तथा कथनों में पर्याप्त स्वाभाविकता है। रस की दृष्टि से भी नाटककार को पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है। नाटक में करुण तथा वीर रस परस्पर अनुस्यूत हैं। इन दोनों रसों के चित्रण में लेखक को पर्याप्त सफलता मिली है। इसमें पाँच अंक हैं, यह नाटक भगवान् श्री कृष्ण की बाल लीलाओं पर आधारित है। पुराणों मे य ह प्रस ग बहुचर्चित है। विशेषतः श्रीमद्भागत महापुराण का तो यही सार है। इसमें श्रीकृष्ण के जन्म से कंस वध तक की कथा वर्णित है। इसमें बाल रुपधारी भगवान् श्री कृष्ण की लीलायें व चरित्र प्रदर्शित है। अतः इस नाटक का नाम बालचरित रखा गया है। इस नाटक में नायक के रूप में भगवान् श्री कृष्ण का चरित्र वर्णित है। नाटककार इन्हें साक्षात् परात्पर ब्रह्म के रूप में चित्रित करता है। पृथ्वी के भार को दूर करने तथा गोब्राह्मण की रक्षा एवं असुरों के संहार के लिये उन्होंने नर रूप धारण किया है। इसमें कृष्ण का अलौकिक एवं मानवीय दोनों रूप स्पष्टतः देखेन को मिलते हैं। कृष्ण के अलावा बलराम, वसुद वे जी एवं कंस का चरित्र भी इस नाटक में चित्रित किया गया है। वासुद वे जी का चरित्र शालीनता से ओतप्रा ते है। कंस का चरित्र अत्यधिक कठोर प्रदर्शित किया गया है। नाटकीय दृष्टि से इसे एक सफल नाटक कहा जा सकता है। इसका नायक प्रख्यात तथा धीरोदात्त है। वह नायक के सभी गुणों से सम्पन्न है। इस की दृष्टि से इसमें वीर रस प्रधान है तथा करूण, रौद्र आदि रस अंग रूप में आये हैं। भाषा कथोपकथनों के अनुरूप है। सरल भाषा दर्शक के हृदय पर अपना अपूर्व प्रभाव डालती है। काव्य परिपाक की दृष्टि से यह नाटक अत्यन्तप्रशंसनीय है। अलंकारों का सुन्दर व समुचित प्रयोग किया गया है। बालचरित का निम्न श्लोक अनेक अलंकार ग्रन्थों में उल्लिखित हुआ है रात्रि के वर्णन में नाटककार को विशेष सफलता प्राप्त हुई है। शब्दों के द्वारा भावदशा के चित्रण में भास ने महान् सफलता प्राप्त की है। शब्दों के आश्रय से सम्पूर्ण भावदशा सारी परिस्थितियाँ साक्षात् दृष्टिगत होने लगती हैं। यह भी एकांकी नाटक है। रुपक के भेदानुसार यह व्यायोग है। इसमें श्रीकृष्ण का दूत के रूप में वर्णन हुआ है। श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास संधि का प्रस्ताव लेकर आते हैं किन्तु उनका वहाँ अपमान किया जाता है तथा वे असफल होकर लौटते हैं। वे कुद्ध होकर सुदर्शन चक्र का आह्वान करते हैं तथा उसे दुर्योधन का वध करने का आदेश देते हैं। परन्तु वह वैसा करन से रोकता है। इसकी कथावस्तु महाभारत से ली गई है। इसका नामकरण बहुत ही सटीक है। सम्पूर्ण नाटक दूतवेशधारी श्रीकृष्ण के वचनों स अनुप्रमाणित है। अतः दूतवाक्य नाम पूर्णतया सार्थक है। सम्पूर्ण नाटक वीररस से ओतप्रा ते है। श्रीकृष्ण के अस्त्रों की सहसा उद्भावना तथा विराट रूप प्रदर्शन में अद्भुत रस का चमत्कार है। प्रधान रूप से आरभटी वृत्ति की योजना है। राजनीतिक सिद्धान्तों की यह नाटक खान है। द़ायाद्य को लेकर दुर्योधन एवं श्रीकृष्ण के मध्य हुआ वार्तालाप अत्यन्त रोचक एवं सटीक है। राज्यशासन के संदर्भ में दुर्योधन का कथन अत्यन्त सारगर्भित एवं महत्वपूर्ण है। वह कहता है कि राज्य शासन असक्तों का काम नहीं वह तो महान् बलशालियों से सिद्ध होता है भास की भाषा सरल, पात्रानुकूल व रसानुरूप है। यह एकांकी भी महाभारत की कथा पर आधारित है। इसमें अभिमन्यु की मृत्यु के पश्चात् श्रीकृष्ण घटोत्कच को दूत रूप में धृतराष्टं के पास भेजते हैं। दुर्योधन क्रुद्ध होकर घटोत्कच का तिरस्कार करता है। दोनों में परस्पर वाद विवाद होता है। घटोत्कच दुर्योधन का युद्ध के लिये ललकारता है। धृतराष्टं उसे शान्त करते हैं। अन्त में घटोत्कच अर्जुन द्वारा अभिमन्यु का बदला लेने की बात कहकर धमकी देते हुये निकल जाता है। घटोत्कच के दूत बनकर जाने के कारण ही इसका नाम दूत घटोत्कच रखा गया है। इस नाटक का प्रधान पात्र घटोत्कच है। वह वीर रस से ओतप्रा ते है। वीरता क साथसाथ उसमें शालीनता तथा शिष्टता भी समभावेन दृष्टिगत होती है। वह वाक्पटु भी है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि नाटककार ने घटोत्कच का चरित्र बहुत ही उन्नत रूप में प्रस्तुत किया है। घटोत्कच के अलावा दुर्योधन, शकुनि तथा दुःशासन के चरित्र भी इस नाटक में उभरकर समाने आये हैं। ये सभी अत्यन्त अभिमानी तथा क्रूर प्रकृति के हैं। निहत्थे बालक अभिमन्यु का मारकर वे प्रसन्न होते हैं। नाटक वीर तथा करुण रस का सम्मिलन है। एक और अभिमन्यु की मृत्यु से करुण रस का वातावरण प्रस्तुत है तो दूसरी और घटोत्कच तथा दुर्योधनादि के विवाद में वीररस अपना अस्तित्व व्यक्त करता है। यह नाटक वास्तविकता के निकट प्रतीत होता है मानव हृदय की आकांक्षाओं एवं कमजोरियों के चित्रण में नाटककार अत्यन्त सफल है। इस नाटक में भरतवाक्य का अभाव है, अतः कुछ लोग इसे अपूर्ण बतलाते हैं, संभव है आगे इसमें कुछ अंश रहा हो। परन्तु यह नाटक अपने प्रयोजन में पूर्ण है। यह लोककथाश्रित नाटक है। इसमें कौशाम्बी के राजा वत्सराज उदयन द्वारा उज्जयिनी के राजा प्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता के हरण की कथा है। इसमें चार अंक हैं। इस नाटक का नामकरण अमात्य यौगन्धरायण की प्रतिज्ञाओं पर आश्रित है। इस नाटक में अमात्य यौगन्धरायण अपने स्वामी को शत्रु के बन्दीगृह से छुड़ा लाने की प्रतिज्ञा करता है तथा अनेक विध्नों के उपस्थित होने पर भी उसे पूर्ण कर बताता है। इस नाटक का नायक वत्स देश का राजा उदयन कलाकारों का सिरमौर है। वह भरतवंशी राजा है। वह अत्यन्त रूपवान है तथा उसके रूप पर महासेन प्रद्योत की स्त्री भी मुग्ध है। वीणावादन में वह आचार्य है। उसके वीणावादन की प्रसिद्धि देश देशान्तर में व्याप्त है तथा बन्दी अवस्था में ही उसे प्रद्योतपुत्री वासवदत्ता को वीणा सिखाने का दायित्व मिलता है। अतुलित कला प्र मे होने के साथसाथ वह शौर्य तथा पराक्रम से भी ओतप्रा ते है। कृत्रिम गज को पकड़ने का प्रयास करते समय जब प्रद्योत की सेना उस पर टूट पड़ती है, वह किंचित् मात्र भी विचलित नहीं होता तथा अनेकों को मृत्यु के घाट भेज देता है। यहाँ उसके धैर्य तथा पराक्रम की परीक्षा होती है जिसमें वह सफल होता है। जब उसे बन्दी बना लिया जाता है तो वह अपने आपको मन से बन्दी नहीं मानता तथा यौगन्धरायण द्वारा मुक्ति का पूरा प्रबन्ध कर लेने पर भी वासवदत्ता को लेकर चलने का निश्चय करता है। इस काम में वह अपने कौशल तथा यौगन्धरायण के बुद्धि कौशल से सफल होता है। उदयन के अलावा अमात्य यौगन्धरायण की भी इस नाटक में महती भूमिका है। वह बुद्धिमत्ता तथा नीतिकौशल का चूडान्त निदर्शन है। अन्य पात्रों में उज्जयिनी के राजा महासेन प्रद्योत प्रतापी राजा हैं। सर्वत्र उनके आधिपत्य का सम्मान है। वह गुणग्राहक है। मन ही मन वह वत्सराज उदयन के गुणों काप्रशंसक है। रुमण्वान तथा विदूषक दोनों स्वामिभक्त हैं। प्रतिज्ञायौगन्धरायण भास के सफल नाटकों में अपना स्थान रखता है। कथानक का विन्यास, पात्रों का चरित्रचित्रण, संवाद योजना एवं रसयोजना सभी का इस नाटक में सुन्दर समन्वय है। काव्यकला के परिपाक की दृष्टि से भी यह नाटक उच्चस्तरीय है। इसमें राजनीति एवं कूटनीति का साम्राज्य है। स्वामीभक्ति का महत्त्व इस नाटक में सर्वत्र लक्षित होता है। सूक्तियों का इसमें प्राचुर्य है। भास विरचित रूपकों में यह सर्वश्रेष्ठ है। वस्तुतः यह भास की नाट्यकला का चूडान्त निदर्शन है। यह छः अंकों का नाटक है। इसमें प्रतिज्ञायौगन्धरायण से आगे की कथा का वर्णन है। इस नाटक का नामकरण राजा उदयन के द्वारा स्वप्न में वासवदत्ता के दर्शन पर आधारित है। स्वप्न वाला दृष्य संस्कृत नाट्य साहित्य में अपना विशेष स्थान रखता है। यह नाटक नाट्यकला की सर्वोत्तम परिणिति है। वस्तु, नेता एवं रसतीनों ही दृष्टि स यह उत्तम कोटि का है। नाटकीय संविधान, कथोपकथन, चरित्रचित्रण, प्राकृतिक वर्णन तथा रसों का सुन्दर सामन्जस्य इस नाटक में पूर्ण परिपाक को प्राप्त हुये हैं। मानव हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव दशाओं का चित्रण इस नाटक में सर्वत्र देखा जा सकता है। नाटक का प्रधान रस शृंगार है तथा हास्य की भी सुन्दर उद्भावना हुई है। यह लोककथा सम्बन्धी छः अंकों का रूपक है। इसमें राजा कुन्तिभोज की पुत्री कुरंगी का राजकुमार अविमारक से प्रणय एवं विवाह का वर्णन है। नायक के आधार पर इसका नामकरण अविमारक रखा गया है। अविमारक का यथार्थ नाम विष्णुसेन था तथा अवि रूपधारी असुर को मारने से उसकी संज्ञा अविमारक है। नाटक का नायक अविमारक है। वह अतुलित पराक्रमशाली है। सहज पराक्रमशीलता तथा पर दुःखकातरता उसके स्वभाव के अंग हैं। इसी कारण वह राजकुमारी कुरंगी पर हाथी के आक्रमण करने पर उसे मुक्त करता है। अविमारक एक धीरललित नायक के रूप में इस नाटक में प्रस्तुत किये गये हैं। नाटक की नायिका कुरंगी है। वह रूपयौवन सम्पन्ना है। अन्य पात्र सौवीरराज तथा कुन्तिभोज हैं। नाटकीयता की दृष्टि से भास के अन्य नाटकों की तरह यह नाटक भी सफल है। सरल भाषा का प्रयोग नाटक की अभिनेयता में चारचाँद लगा देता है, कथोपकथनों में स्वाभाविकता तथा भावांकन भास की अपनी विशेषता है। छोट छोटे वाक्य, सरल भाषा, रसानुकूल एव पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग इस नाटक को उच्चकोटि में ला खड़ा करता है। इस नाटक का प्रधान रस श्रृ गार है तथा अन्य रस उसके सहायक बनकर आये हैं। काव्यकला की दृष्टि से भी यह नाटक नितान्त उदात्त है। परिस्थितियों, अवस्थाओं एव भावों का सटीक शब्दों एवं आलंकारिक भाषा में वणर्न सर्वत्र विद्यमान है। प्रकृति चित्रण में नाटककार पूर्णतया सफल रहे हैं। नाटक में सूक्तियाँ यत्रतत्र बिखरी हुई हैं। प्रसिद्ध सूक्ति कन्यापितृत्वं खलु नाम कष्टम् का भास ने यहाँ उत्तर उपस्थित किया है कन्या पितृत्व बहुवन्दनीयम्। इस प्रकार सभी दृष्टियों से यह रूपक प्रषस्त कहा जा सकता है। महाकवि भास की नाट्य श्रृंखला में चारुदत्त अन्तिम कड़ी माना जाता है। इसकी कथावस्तु चार अंकों में विभाजित है। शूद्रक के प्रसिद्ध प्रकरण मृच्छकटिक का आधार यही माना जाता है। इसमें कवि ने दरिद्र चारूदत्त एवं वेश्या वसन्तसेना की प्रणयकथा का वर्णन किया है। एक अन्य पात्र शकार है जो प्रतिनायक के रूप में है। प्र मे के आदर्श की सामाजिक प्रस्तुति इसमें दृष्टव्य है। इस नाटक का नायक वणिक्पुत्र आर्य चारूदत्त है। उसी के नाम पर इस नाटक का नामकरण हुआ है। नाटक की सम्पूर्ण घटनाएँ उसी के सुकृत्यों पर केन्द्रित हैं। चारुदत्त की दरिद्रता का बड़ा ही मार्मिक चित्रण इसमें किया गया है। चारुदत्त अत्यन्त दानी, गुणवान् एव रूपवान है। दानशीलता के कारण ही वह दरिद्र हो गया है। चारुदत्त धीर प्रकृति का मानव है। वह कला मर्मज्ञ है। वह महान् धार्मिक है तथा निर्धनावस्था में भी पूजा एवं बलिकर्म सम्पन्न करता है। नाटक की नायिका वसन्तसेना है। वह उज्जयिनी की एक प्रसिद्ध गणिका है। वह अत्यन्त रूपवती है। शकार तथा विट उसके रुपजल के पिपासु हैं। गणिका होते हुये भी उसका चारित्रिक स्तर ऊँचा है। वह चारुदत्त के गुणों पर अनुरक्त है। उसके एकएक गुण वसन्तसेना के प्र मे को दृढ़ करते जाते हैं। शकार से रात्रि में रक्षा और विदूषक के साथ वसन्तसेना का सकुशल घर पहुँचाना, चेट को प्रवारक देना, वसन्तसेना के न्यास की चोरी हो जाने पर उस अपने स्त्री का अत्यन्त मूल्यवान हार देना ये सभी गुण वसन्तसेना के हृदय में स्थायी प्रभा डालते हैं तथा वह स्वयं अभिसार के लिये उसके पास चल देती है। वसन्तसेना गणिका होने पर भी धन लोभिनी नहीं है। वह अत्यन्त उदार मनवाली नायिका है। नाटक के अन्य पात्रों में चारुदत्त का मित्र मैत्र य विदूषक है। वह जन्म का ब्राह्मण है। वह अपने मित्र का विपत्तिसम्पत्ति दोनों समयों में साथ देने वाला है। मैत्र य संस्कृत नाट्कों में अन्य विदूषकों के समान केवल भोजनभट्ट मूर्ख ब्राह्मण नहीं है। वह समयानुसार उसके हित सम्पादन के लिए कठिन कार्यों को भी सम्पन्न करता है। शकार इस नाटक में खलनायक है। वह मूर्ख है। सामान्य से सामान्य बात का भी उस ज्ञान नहीं है। गुणवानों के प्रति उसका कोई आकर्षण नहीं है। वह वसन्तसेना के रूप पर मुग्ध है तथा बलात् उससे प्र मे करना चाहता है। यह नाटक दैवदुर्विपाकवश अकस्मात् समाप्त हो जाता है तथा यह सहज में अनुमित हो जाता है कि अपने वर्तमान रूप में यह पूर्ण नहीं है। यह भी संभावना है कि इस नाटक की रचना करते समय भास की मृत्यु हो गई हो तथा इस प्रकार यह अधूरा रह गया हो। यह नाटक सरल व सुबोध है। चरित्रचित्रण की दृष्टि से बेजोड़ है। नाना प्रकार क सज्जन से सज्जन तथा दुर्जन से दुर्जन यहाँ वर्तमान हैं। एक ओर चारुदत्त सज्जनता की सीमा है तो दूसरी ओर शकार दुर्जनता का चूडान्त प्रतीक है, कथोपकथन की दृष्टि से भी यह नाटक उच्च कोटि का है। इस नाटक में भास का कविहृदय भी पूर्णरूप से अभिव्यक्ति को प्राप्त हुआ है। प्रकृति का चित्रण भी स्वाभाविक एवं हृदयाकर्षक है। नाटक का प्रधान रस श्रृंगार है तथा अन्य रसों का भी समयानुसार सुन्दर प्रयोग किया गया है। इस नाटक में देशकाल का चित्रण बड़ा ही स्वाभाविक है। द्यूत का वर्णन दृष्टव्य है। दासप्रथा का संकेत सज्जलक द्वारा वसन्तसेना की चोरी को मुक्त कराने के उद्योग से लगता है। चोरी का दृष्टान्त सज्जलक का कृत्य है। नाटक की भाषा सरल, सरस एवं पात्रानुकूल है। भास और उनके नाटकों का अविर्भाव निश्चय ही कालिदास से पूर्व और संभवत: अश्वघोष के बाद हुआ था। उनसे पूर्ववर्ती नाटककारों के रूप में केवल अश्वघोष का नाम, कदाचित्, लिया जा सकता है। गणपति शास्त्री, पुसलकर आदि ने उपर्युक्त नाटकों का रचनाकाल कौटिल्य अर्थशास्त्र से पूर्व पंचम चतुर्थ शताब्दी ई0 पू0 माना है। डॉ॰ कीथ, स्टेन कोनो आदि ने द्वितीय तृतीय शताब्दी ई0 माना है। बार्नेट, रामावतार शर्मा, सुकथंकर विंटरनित्स आदि शोधकों ने 7वीं शती ई0 से 11वीं शती तक के काल को इन नाटको का रचना काल माना है। इसी प्रकार 16 शताब्दियों की लंबी कालावधि में विभिन्न कालों में नाना पंडितों के मत से रचना हुई। अधिकांश विद्वान इनका समय द्वितीयतृतीय शती ई0 मानते हैं। इन नाटकों के कथासूत्रों का आकलन और संयोजन विविध स्त्रोतों और कलात्मक शिल्प के साथ हुआ है। यद्यपि अभिषेक और प्रतिमा आदि में वस्तुयोजना कुछ शिथिल है, तथापि अन्यत्र उसमें नाटकीय गतिमत्ता भी पर्याप्त है उदयन नाटकों की वस्तुयोजना गतिशील, नाटकीय कलात्मक और शक्तिशाली है। महाभारताश्रित नाटकों की कथा वस्तु भी पर्याप्त शक्तिशाली है। कभी कभी शिथिल वस्तु की कमी को ओजस्वी संवादों ने ऊर्जस्वित कर दिया है। उदयन नाटकों में नाट्यकौशल और नाटकीय शिल्प के संयोजन ने उनको उत्तम कोटि के नाटक स्तर पर पहुँचा दिया है। स्वप्न वासवदत्तं में कथावस्तु की शिथिलता के बावजूद कार्यसंकलन की कुशलता ने उसमें अपूर्व गतिमत्ता प्रस्फुटित की है। वण्र्य कथा को नाटकीय रूप देकर संयोजना में इन नाटकों को अच्छी सफलता मिली है। उनमें नाटकीय व्यंग्य है, गतिशीलता है, अप्रत्याशित एवं मौलिक परिस्थितियों के उद्भावन की दक्षता है और अलौकिक, आधिदैविक, अतिक्रमित प्राकृतिक पात्रोंघटनाओं का प्रयोग होने पर भी चरित्रों और परोक्ष चित्रण द्वारा यथार्थता या वास्तविकता का आभास देने में इन नाटकों को सफल कहा जा सकता है।
गिनीबिसाऊ, आधिकारिक तौर पर गिनीबिसाऊ के गणराज्य, पश्चिमी अफ्रीका में एक देश है। इसका आकार लगभग 36,125 वर्ग किलोमीटर है और अनुमानित जनसंख्या लगभग 1,704,000 है।
फ्रांक स्विट्जरलैंड और लीख़्टेनश्टाइन की मुद्रा और वैध निविदा है यह इटली के बर्हिप्रदेश केम्पियोन दइटालिया की भी वैध निविदा है। हालांकि यह जर्मन बर्हिप्रदेश बुशिंजेन की वैध निविधा नहीं है, लेकिन दैनदिनी में इस्तेमाल की जाती है। स्विस नेशनल बैंक बैंकनोट और संघीय स्विस टकसाल सिक्के जारी करती है। स्विस फ्रांक यूरोप में जारी किया जाने वाला इकलौता फ्रांक है। इसके सौंवे हिस्से को जर्मन में रापेन, फ्रांसीसी में सेंटाइम, इटालवी में सेटीसीमो और रोमांस में रेप कहते हैं। बैंक और वित्तीय संस्थाओं द्वारा कोड के रूप में CHF इस्तेमाल किया जाता है, हालांकि अधिकांश व्यवसायी और विज्ञापनदाता Fr. का और कुछ SFr. का इस्तेमाल करते हैं।
हरीशचन्द्र सिंह,भारत के उत्तर प्रदेश की चौथी विधानसभा सभा में विधायक रहे। 1967 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इन्होंने उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के 46 दातागंज विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय की ओर से चुनाव में भाग लिया।
भारत की जनगणना अनुसार यह गाँव, तहसील संभल, जिला मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में स्थित है। सम्बंधित जनगणना कोड: राज्य कोड :09 जिला कोड :135 तहसील कोड : 00721 उत्तर प्रदेश के जिले
} निर्देशांक: 2753N 7804E 27.89N 78.06E 27.89 78.06 दौलरा निरपाल कोइल, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।
निर्देशांक: 2730N 7924E 27.5N 79.4E 27.5 79.4 किसरोली कायमगंज, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। ग्राम किसरोली ज़िला फ़र्रुखाबाद की कायमगंज तहसील के शमसाबाद विकास खंड में स्थित है। जो कि फ़र्रुखाबाद कायमगंज रोड पर फ़र्रुखाबाद से 20 किलोमीटर व कायमगंज से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
आयुर्वेद के अनुसार पाचन एवं उपापचय की सभी क्रियाएं अग्नि के द्वारा सम्पन्न होतीं हैं। इसको पक्वाग्नि कहते हैं। अग्नि को आहार नली, यकृत तथा ऊतक कोशिकाओं में मौजूद एंजाइम के रूप में समझा जा सकता है। अग्नि चार प्रकार की होती है:
दिलवाड़ा मंदिर या देलवाडा मंदिर, पाँच मंदिरों का एक समूह है। ये राजस्थान के सिरोही जिले के माउंट आबू नगर में स्थित हैं। इन मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच हुआ था। यह शानदार मंदिर जैन धर्म के र्तीथकरों को समर्पित हैं। दिलवाड़ा के मंदिरों में विमल वासाही मंदिर प्रथम र्तीथकर को समर्पित सर्वाधिक प्राचीन है जो 1031 ई. में बना था। बाईसवें र्तीथकर नेमीनाथ को समर्पित लुन वासाही मंदिर भी काफी लोकप्रिय है। यह मंदिर 1231 ई. में वास्तुपाल और तेजपाल नामक दो भाईयों द्वारा बनवाया गया था। दिलवाड़ा जैन मंदिर परिसर में पांच मंदिर संगमरमर का है। मंदिरों के लगभग 48 स्तम्भों में नृत्यांगनाओं की आकृतियां बनी हुई हैं। दिलवाड़ा के मंदिर और मूर्तियां मंदिर निर्माण कला का उत्तम उदाहरण हैं।
जम्मू राज्य के राजा।
किसी सभा की बैठक के लिये प्रस्तावित कार्यों की क्रमबद्ध सूची कार्यसूची कहलाती है।
सुन्नत : हज़रत मुहम्मद के प्रवचन, शिक्षा, मार्गदर्शन को सुन्नत कहते हैं। हज़रत मुहम्मद के काल में उनके अनुयायी या सहाबा को दिए गए मार्गदर्शन या ज्ञान को सुन्नह या सुन्नत कहते हैं, जो सारे मुस्लिम जगत को अमल करने के लिए कहा गया। इस्लाम धर्म में क़ुरान और हदीस साबित पुस्तकें हैं। और इन्हीं की बुनियाद पर इस्लामीय न्याय शास्त्र बना है। सुन्नत का मतलब मार्ग या जीवन शैली या जीवन विधी के भी होते हैं, जिसे मुसल्मान अपने जीवन में अपनाता है। यह एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ आसानी से बहना या सीधा चलने वाली राह । सही तौर पर इसका अर्थ साफ़सुथरा सीधा रास्ता है।
आ गया हीरो एक भारतीय बॉलीवुड फ़िल्म है। इसके निर्देशक दीपांकर सेनापति और निर्माता गोविंदा है। इसमें मुख्य भूमिका में गोविंदा, आशुतोष राणा, मुरली शर्मा, मकरंद देशपांडे आदि हैं। यह फ़िल्म 29 अगस्त 2014 को प्रदर्शित होनी थी। परंतु कुछ कारणों से यह फिल्म 17 मार्च 2017े स पर्दर्शित हे। इसका निर्माण मंगल तारा निर्माता कंपनी ने किया है। इसका निर्माण 2013 में प्रारंभ किया गया था।
निर्देशांक: 2527N 8151E 25.45N 81.85E 25.45 81.85 चबिलहा भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के इलाहाबाद जिले के हंडिया प्रखण्ड में स्थित एक गाँव है।
निर्देशांक: 213610N 711305E 21.602871N 71.21817E 21.602871 71.21817टींबला भारत देश में गुजरात प्रान्त के सौराष्ट्र विस्तार में अमरेली जिले के 11 तहसील में से एक अमरेली तहसील का महत्वपूर्ण गाँव है। टींबला गाँव के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती, खेतमजदूरी, पशुपालन और रत्नकला कारीगरी है। यहा पे गेहूँ, मूँगफली, तल, बाजरा, जीरा, अनाज, सेम, सब्जी, अल्फला इत्यादी की खेती होती है। गाँव में विद्यालय, पंचायत घर जैसी सुविधाएँ है। गाँव से सबसे नजदीकी शहर अमरेली है।
आस्ट्रेलिया दिवस प्रतिवर्ष छब्बीस जनवरी को आस्ट्रेलिया की स्थापना के उपलक्ष्य में मनाया जाता है और यह वहाँ का आधीकारिक राष्ट्रीय दिवस है।आस्ट्रेलियाई सरकार एवं जनता बहुत दिन पहले से ही इस उत्सव को मनाने की योजना बनाने लगती है। यह दिवस ऑस्ट्रेलिया के सभी राज्यों में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन संपूर्ण आस्ट्रेलिया में सार्वजनिक अवकाश होता है। 26 जनवरी सन 1788 में ब्रिटेन का पहला जहाज़ी बेड़ा सिडनी पहुंचा था और इस नयी भूमि पर ब्रिटिश झंडा फहरा कर ब्रिटिश अधिपत्य होने की घोषणा की गई थी। तब इसे न्यू हॉलैंड नाम दिया गया था। इस पहले जहाज़ी बेड़े में ब्रिटेन के अपराधियों से भरे हुए ग्यारह जहाज़ थे। ये जहाज़ ब्रिटेन से 13 मई 1787 को रवाना हुए थे। इनमें 1487 यात्री थे, जिनमें से 778 अपराधी थे। इस बेड़े के कप्तान आर्थर फिलिप थे। ब्रिटेन की योजना इस भूमि को बसाकर उसपर अपना अधिकार करने के साथ ही साथ ब्रिटेन की पहले से ही भरी हुई जेलों से अपराधियों को दूर भेजने की भी थी। इस यात्रा के दौरान सात बच्चों ने जन्म लिया कुछ लोग बीमार होकर मर गए। इस कठिन यात्रा में जहाज़ों को रोककर ताज़ा पानी और भोजन लिया गया। यात्रा के बीच रिओ डि जिनारियो में रुकने के बाद फ्लीट का आख़िरी पड़ाव 13 अक्टूबर को दक्षिण अफ्रीका का केप टाउन था और वहां से खाने के अतिरिक्त पौधे और जानवर भी लिए गए जिसमें गाय, बैल, सूअर, बकरी और भेड़ थे। अब सामने था अगाध समुद्र का विस्तार और कठिन यात्रा, जो जनवरी में ऑस्ट्रेलिया पहुँच कर समाप्त हुई। यह समुद्री यात्रा कुल मिलाकर 252 दिनों तक चली और इसे अपने समय की एक ऐतिहासिक यात्रा के रूप में माना जाता है। ये सभी जहाज़ 1820 जनवरी के बीच न्यू साउथ वेल्ज़ में बोटनी बे पहुंचे परन्तु वहां तेज़ हवाओं, ताज़े पानी की कमी और अच्छी मिट्टी के अभाव में वहां से निकल जाना पड़ा। हालांकि वहीं पर पहली बार ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों से आमनासामना भी हुआ। इक्कीस जनवरी को नाव में बैठकर कप्तान फिलिप दूसरी जगह ढूँढने निकला, पोर्ट जैकसन उसे ठीक लगा और अंततः छब्बीस जनवरी 1788 को जहाज़ों ने वहाँ लंगर डाल दिया। कप्तान फिलिप ने इसे नया नाम दिया सिडनी कोव और ब्रिटेन का झंडा फहरा कर औपचारिक रूप से उसे ब्रिटेन की बस्ती के रूप में घोषित कर दिया। तबसे लेकर आज तक ऑस्ट्रेलिया वासी इस नए राष्ट्र के उदय की खुशी में ऑस्ट्रेलिया डे मनाते हैं। आस्ट्रेलिया डे पर देश के हर राज्य में विशेष उत्सवों का आयोजन किया जाता है, लोग सुबह से ही किसी भी सार्वजनिक स्थान पर इकट्ठे होने लगते हैं जैसे पार्क आदि में। झंडा फहराया जाता है, भाषण होता है, महत्वपूर्ण स्थानों पर परेड भी होती है, संगीत का आयोजन होता है, सरकार की तरफ से फ्री बारबीनाश्ता भी होता है, जिसमें लोग ब्रेड रोल सौसेज के साथ खाते हैं, बच्चों के लिए तरहतरह के क्रियाकलाप आयोजित किये जाते हैं, गैस भरे गुब्बारों की टोकरी में बैठकर बच्चे बहुत खुश होते हैं, नौका दौड़ होती है और पूरे दिन उत्सव का माहौल बना रहता है। रात को आतिशबाजी भी होती है। नए नागरिकों को शपथ दिलाई जाती है और नागरिकता प्रमाण पत्र दिए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया की राजधानी कैनबरा में ऑस्ट्रेलिया डे के अवार्ड्स दिए जाते हैं और पूरा दिन हँसतेहंसाते बीत जाता है। आजकल कुछ भारतीय मूल की संस्थाएं ऑस्ट्रेलिया और रिपब्लिक डे एक साथ मनाती हैं, भारतीय नाच गाने, भाषण के अलावा भारतीय मूल के विद्यार्थियों को हाई स्कूल में उच्च अंकों के लिए उपहार व सम्मान भी दिया जाता है। ऑस्ट्रलिया के मूल निवासी आदिवासी यूरोपीय लोगों के आने के इस दिन को मूल आदिवासी संस्कृति और प्रकृति के विनाश के रूप में मनाते हैं। 1938 में इसे शोक दिवस नाम दिया गया। बाद में आस्ट्रेलियाई लोगों के आपत्ति करने के कारण इसका नाम बदलकर आक्रमण दिवस या सर्वाइवल डे के नाम से पुकारा गया। हालांकि अब एबोरीजल्स स्वयं को ऑस्ट्रेलिया का ही एक हिस्सा मानते हैं और ऑस्ट्रलियन सरकार ने उनके हित में विशेष सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं, परन्तु ये उनका इतिहास को याद रखने का एक प्रयास है।
युयुत्सु महाभारत का एक उज्जवल और तेजस्वी एक पात्र है। यह पात्र इसलिए विशेष है क्योंकि महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युधिष्ठिर के आह्वान इस पात्र ने कौरवों की सेना का साथ छोड़कर पाण्डव सेना के साथ मिलने का निर्णय लिया था। युयुत्सु का जन्म एक दासी से हुआ था। युयुत्सु दुर्योधन का सौतेला भाई था।
अब्राहम लिंकन अमेरिका के सोलहवें राष्ट्रपति थे। इनका कार्यकाल 1861 से 1865 तक था। ये रिपब्लिकन पार्टी से थे। उन्होने अमेरिका को उसके सबसे बड़े संकट गृहयुद्ध से पार लगाया। अमेरिका में दास प्रथा के अंत का श्रेय लिंकन को ही जाता है। अब्राहम लिंकन का जन्म एक गरीब अश्वेत परिवार में हुआ था। वे प्रथम रिपब्लिकन थे जो अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उसके पहले वे एक वकील, इलिअन्स स्टेट के विधायक, अमेरिका के हाउस ऑफ् रिप्रेस्न्टेटिव्स के सदस्य थे। वे दो बार सीनेट के चुनाव में असफल भी हुए। वकालत से कमाई की दृष्टि से देखें तो अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से पहले अब्राहम लिंकन ने बीस साल तक वकालत की। लेकिन उनकी वकालत से उन्हें और उनके मुवक्किलों को जितना संतोष और मानसिक शांति मिली वह धनदौलत बनाने के आगे कुछ भी नहीं है। उनके वकालत के दिनों के सैंकड़ों सच्चे किस्से उनकी ईमानदारी और सज्जनता की गवाही देते हैं। लिंकन अपने उन मुवक्किलों से अधिक फीस नहीं लेते थे जो उनकी ही तरह गरीब थे। एक बार उनके एक मुवक्किल ने उन्हें पच्चीस डॉलर भेजे तो लिंकन ने उसमें से दस डॉलर यह कहकर लौटा दिए कि पंद्रह डॉलर पर्याप्त थे। आमतौर पर वे अपने मुवक्किलों को अदालत के बाहर ही राजीनामा करके मामला निपटा लेने की सलाह देते थे ताकि दोनों पक्षों का धन मुकदमेबाजी में बर्बाद न हो जाये इसके बदलें में उन्हें न के बराबर ही फीस मिलती थी। एक शहीद सैनिक की विधवा को उसकी पेंशन के 400 डॉलर दिलाने के लिए एक पेंशन एजेंट 200 डॉलर फीस में मांग रहा था। लिंकन ने उस महिला के लिए न केवल मुफ्त में वकालत की बल्कि उसके होटल में रहने का खर्चा और घर वापसी की टिकट का इंतजाम भी किया। लिंकन और उनके एक सहयोगी वकील ने एक बार किसी मानसिक रोगी महिला की जमीन पर कब्जा करने वाले एक धूर्त आदमी को अदालत से सजा दिलवाई. मामला अदालत में केवल पंद्रह मिनट ही चला. सहयोगी वकील ने जीतने के बाद फीस में बँटवारकन ने उसे डपट दिया। सहयोगी वकील ने कहा कि उस महिला के भाई ने पूरी फीस चुका दी थी और सभी अदालत के निर्णय से प्रसन्न थे परन्तु लिंकन ने कहा लेकिन मैं खुश नहीं हूँ! वह पैसा एक बेचारी रोगी महिला का है और मैं ऐसा पैसा लेने के बजाय भूखे मरना पसंद करूँगा. तुम मेरी फीस की रकम उसे वापस कर दो. आज के हिसाब से सोचें तो लिंकन बेवकूफ थे। उनके पास कभी भी कुछ बहुतायत में नहीं रहा और इसमें उन्हीं का दोष था। लेकिन वह हम सबमें सबसे अच्छे मनुष्य थे, क्या कोई इस बात से इनकार कर सकता है? लिंकन कभी भी धर्म के बारे में चर्चा नहीं करते थे और किसी चर्च से सम्बद्ध नहीं थे। एक बार उनके किसी मित्र ने उनसे उनके धार्मिक विचार के बारे में पूछा. लिंकन ने कहा बहुत पहले मैं इंडियाना में एक बूढ़े आदमी से मिला जो यह कहता था जब मैं कुछ अच्छा करता हूँ तो अच्छा अनुभव करता हूँ और जब बुरा करता हूँ तो बुरा अनुभव करता हूँ. यही मेरा धर्म है। अब्राहम लिंकन ने यह पत्र अपने बेटे के स्कूल प्रिंसिपल को लिखा था। लिंकन ने इसमें वे तमाम बातें लिखी थीं जो वे अपने बेटे को सिखाना चाहते थे। सम्माननीय महोदय, मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूँ कि आप उसे यह बताएँ कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होता है। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है। मैं चाहता हूँ कि आप उसे सिखाएँ कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है। ये बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूँ। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पाँच रुपए के नोट से ज्यादा कीमती होता है। आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाएँ। साथ ही यह भी कि खुलकर हँसते हुए भी शालीनता बरतना कितना जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएँगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्छी बात नहीं है। यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए। आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहिएगा ही, पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को धूप, धूप में हरेभरे मैदानों में खिलेफूलों पर मँडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा। मैं समझता हूँ कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं। मैं मानता हूँ कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्छा है। किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना और बुरे लोगों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा। आप उसे बताना मत भूलिएगा कि उदासी को किस तरह प्रसन्नता में बदला जा सकता है। और उसे यह भी बताइएगा कि जब कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा। ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएँ उतना उसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी। आपका अब्राहम लिंकन
श्री नाथजीदादा की जग्या दाणीधार भारत देश के गुजरात राज्य के जामनगर जिला के कालावड शहर से 20 किलोमीटर दक्षिण दिशामें आया हुआ एक पौराणिक समय से ख्यातनाम यात्राधाम है। यह यात्राधाम, कालावड तालुका का मुख्य है। ईस जग्या तक पहुचने के लिए कालावड जूनागढ हाईवे रोड पर 15 किलोमीटर पर बसस्टॉप आता है। वहा से पूर्वमें 5 किलोमीटर पर श्री नाथजीदादा की जग्या आता है। इस जगह का भौगोलिक स्थान देखने के लिए गुगल मेप की कडी विकिमेपीया में श्री नाथजीदादा का आश्रम पता :Shri Nathjidada Ni Jagya Danidhar,श्री नाथजीदादा ट्रस्ट दाणीधार, तालुका कालावड,जिल्ला जामनगर,दाणीधार
निषेध शब्द का शाब्दिक अर्थ अवज्ञा के समरूप होता है। अर्थात यदि किसी स्थान पर पर निषेध लिखा हो तो उस स्थान पर जाने की मनाही होती है। इसी प्रकार यदि किसी कार्य को न करने के लिए कहा जाता है तो वहाँ पर निषेध का चिह्न लगा दिया जाता है। कुछ खतरे वाले स्थानों अथवा सुरक्षा क्षेत्रों में सामान्यतः ऐसाअ चिह्न प्राप्त होता है।
भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तथा गांधीवादी विचारक थे। वे दूसरे तारसप्तक के एक प्रमुख कवि हैं। गाँधीवाद की स्वच्छता, पावनता और नैतिकता का प्रभाव तथा उसकी झलक उनकी कविताओं में साफ़ देखी जा सकती है। उनका प्रथम संग्रह गीतफ़रोश अपनी नई शैली, नई उद्भावनाओं और नये पाठप्रवाह के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुए थे। प्यार से लोग उन्हें भवानी भाई कहकर सम्बोधित किया करते थे। उन्होंने स्वयं को कभी भी कभी निराशा के गर्त में डूबने नहीं दिया। जैसे सातसात बार मौत से वे लड़े वैसे ही आजादी के पहले गुलामी से लड़े और आजादी के बाद तानाशाही से भी लड़े। आपातकाल के दौरान नियम पूर्वक सुबह दोपहर शाम तीनों बेलाओं में उन्होंने कवितायें लिखी थीं जो बाद में त्रिकाल सन्ध्या नामक पुस्तक में प्रकाशित भी हुईं। भवानी भाई को 1972 में उनकी कृति बुनी हुई रस्सी के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 198182 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्यकार सम्मान दिया गया तथा 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया। भवानीप्रसाद मिश्र का जन्म गाँव टिगरिया, तहसील सिवनी मालवा, जिला होशंगाबाद में हुआ था। क्रमश: सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। 193435 में उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत विषय लेकर बी0ए0 पास किया। महात्मा गांधी के विचारों के अनुसार शिक्षा देने के विचार से एक स्कूल खोलकर अध्यापन कार्य शुरू किया और उस स्कूल को चलाते हुए 1942 में गिरफ्तार होकर 1945 में छूटे। उसी वर्ष महिलाश्रम वर्धा में शिक्षा देने एक शिक्षक की तरह गये और चारपाँच साल वहीं बिताये। कविताएँ लिखना लगभग 1930 से ही नियमित रूप से प्रारम्भ हो गया था और कुछ कविताएँ पं0 ईश्वरी प्रसाद वर्मा के सम्पादन में निकलने वाले हिन्दूपंच में हाईस्कूल पास होने के पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं। सन 193233 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के सम्पर्क में आये। चतुर्वेदी जी आग्रहपूर्वक कर्मवीर में उनकी कविताएँ प्रकाशित करते रहे। हंस में भी उनकी काफी कविताएँ छपीं उसके बाद अज्ञेय जी ने दूसरे सप्तक में उन्हें प्रकाशित किया। दूसरे सप्तक के बाद प्रकाशन क्रम ज्यादा नियमित होता गया। उन्होंने चित्रपट के लिये संवाद लिखे और मद्रास के ए0बी0एम0 में संवाद निर्देशन भी किया। मद्रास से वे मुम्बई में आकाशवाणी के प्रोड्यूसर होकर गये। बाद में उन्होंने आकाशवाणी केन्द्र दिल्ली में भी काम किया। जीवन के 33वें वर्ष से वे खादी पहनने लगे। जीवन की सान्ध्य बेला में वे दिल्ली से नरसिंहपुर एक विवाह समारोह में गये थे वहीं अचानक बीमार हो गये और अपने सगे सम्बन्धियों व परिवार जनों के बीच अन्तिम साँस ली। किसी को मरते समय भी कष्ट नहीं पहुँचाया।उनके परिवार में इनके एक पुत्र अनुपम मिश्र एक सुपरिचित पर्यावरणविद हैं। कविता संग्रह गीत फरोश, चकित है दुख, गान्धी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल सन्ध्या, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, तुम आते हो, इदम् न मम्, शरीर कविता: फसलें और फूल, मानसरोवर दिन, सम्प्रति, अँधेरी कविताएँ, तूस की आग, कालजयी, अनाम, नीली रेखा तक और सन्नटा। बाल कविताएँ तुकों के खेल, संस्मरण जिन्होंने मुझे रचा निबन्ध संग्रह कुछ नीति कुछ राजनीति। भवानी प्रसाद मिश्र उन गिने चुने कवियों में थे जो कविता को ही अपना धर्म मानते थे और आम जनों की बात उनकी भाषा में ही रखते थे। उन्होंने ताल ठोंककर कवियों को नसीहत दी थी उनकी बहुत सारी कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि कवि आपसे बोल रहा है, बतिया रहा है। जहाँ अपनी गीतफरोश कविता में कवि ने अपने फ़िल्मी दुनिया में बिताये समय को याद कर कवि के गीतों का विक्रेता बन जाने की विडम्बना को मार्मिकता के साथ कविता में ढाला है वहीं सतपुड़ा के घने जंगल जैसी कविता सुधी पाठकों को एक अछूती प्रकृति की सुन्दर दुनिया में लेकर चलती है।.उनकी कविताएँ गेय हैं और पाठकों को ताउम्र स्मरण रहती हैं। वे गूढ़ बातों को भी बहुत ही आसानी और सरलता के साथ अपनी कविताओं में रखते थे। नई कविताओं में उनका काफी योगदान है। उनका सादगी भरा शिल्प अब भी नये कवियों के लिए चुनौती और प्रेरणास्रोत है। वे जनता की बात को जनभाषा में ही रखते थे। उनकी कविताओं में नये भारत का स्वप्न झलकता है। उनकी कविताएँ परिवर्तन और सुधार की अभिव्यक्ति हैं। वे आपातकाल में विरोध में खड़े हो गए और विरोध स्वरूप प्रतिदिन तीन कवितायें लिखते थे। वस्तुत: वे कवियों के कवि थे।
वसुधा हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका है।इसके संस्थापक संपादक हरिशंकर परसाई थे। इसका प्रकाशन मासिक रूप में आरंभ हुआ था, परंतु बाद में यह त्रैमासिक रूप में प्रकाशित होती रही है। इसका प्रकाशन प्रगतिशील लेखक संघ की मध्य प्रदेश इकाई के द्वारा होता है। अंक63 से इस पत्रिका का नाम प्रगतिशील वसुधा हो गया। यह भोपाल से प्रकाशित होती है। वसुधा का मासिक रूप में प्रकाशन सन् 1956 में शुरू हुआ। इसके संस्थापक संपादक थे हरिशंकर परसाई। वे अपने कुछ मित्रों के सहयोग से इसका संपादन करते थे। दो वर्ष एवं कुछ महीने बाद इसका प्रकाशन स्थगित हो गया। फिर करीब तीन दशक बाद नवें दशक में इसकी दूसरी आवृत्ति हुई। मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष के नाते परसाई जी प्रधान संपादक हुए और उन्होंने एक टीम तैयार की। इस पत्रिका के संपादन हेतु प्रगतिशील लेखक संघ के आंतरिक निर्णय के अनुसार टीम बदलती रही है। कमला प्रसाद जी के प्रधान संपादकत्व में यह पत्रिका लंबे समय तक त्रैमासिक रूप में प्रकाशित होती रही है। इसका प्रकाशन मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से होता रहा है। पत्रिका के प्रकाशन की द्वितीय आवृत्ति में अंक62 तक तो इसका नाम वसुधा ही रहा, लेकिन अंक63 से नये रूपाकार में इसका प्रकाशन आरंभ हुआ और इसका नाम प्रगतिशील वसुधा हो गया। अंकों की गिनती तो क्रमशः ही रही, लेकिन पत्रिका की पहचान को भिन्नता भी मिली। अर्थात् अंक63 का प्रकाशन जनवरी 2005, वर्ष1, अंक1 के रूप में हुआ। हालांकि इस अंक में वर्ष एवं अंक संख्या का उल्लेख नहीं किया गया था, परंतु अंक64, मार्च 2005 में प्रमुखता से वर्ष1, अंक2 उल्लिखित था। प्रधान संपादक कमला प्रसाद के अतिरिक्त लम्बे समय तक इसके संपादक रहे हैं स्वयं प्रकाश एवं राजेंद्र शर्मा। कमला प्रसाद जी प्रधान संपादक नियुक्त होने के समय से आजीवन वसुधा के लिए प्राणपन से जुड़े रहे। इसका संपादकीय कार्यालय भी उनका आवास एम 31, निराला नगर ही था। अंक87 तक के संपादन के बाद 25 मार्च 2011 को उनका निधन हो जाने के कारण अंक88 से संपादन का दायित्व स्वयं प्रकाश एवं राजेंद्र शर्मा के द्वारा ही सँभाला गया। अब इसका कार्यालय मायाराम सुरजन स्मृति भवन, शास्त्री नगर, पी0 एण्ड टी0 चौराहा, भोपाल3 में आ गया। अंक95 के बाद स्वयं प्रकाश जी भी इसके संपादन से हट गये तथा अंक96 का प्रकाशन भिन्न रूप में केवल राजेंद्र शर्मा के संपादन में हुआ। अंक95 तक प्रगतिशील वसुधा के मुख पृष्ठ पर एक टैगलाइन प्रगतिशील लेखक संघ का प्रकाशन के रूप में जाती रही। अंक 96 से यह मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ का प्रकाशन के रूप में बदल गयी। इस अंक में घोषणा की गयी कि आगामी 4 अंकों तक ही इस रूप में इसका प्रकाशन होगा। इस बीच प्रगतिशील वसुधा के लिए सर्वथा नयी सम्पादकीय और व्यवस्थापकीय टीम का गठन करने के प्रयास किये जायेंगे, तब हरिशंकर परसाई और अब कमला प्रसाद द्वारा स्थापित वसुधा की यह तीसरी आवृत्ति होगी। समृद्ध तथा स्तरीय विशेषांक निकालने के क्षेत्र में वसुधा अग्रणी पत्रिका रही है। हालांकि प्रगतिशील वसुधा के रूप में इसके सामान्य अंकों को भी विशेषांकों की तरह, बल्कि उससे कहीं बढ़कर भी, माना जाता रहा है फिर भी अनेकानेक विशेषांकों के द्वारा इस पत्रिका ने कीर्तिमानों का एक मानदंड कायम कर दिया है। वसुधा के अंक51 के रूप में डॉ0 रामविलास शर्मा पर केंद्रित विशेषांक का प्रकाशन हुआ, जो अत्यधिक चर्चित रहा। इससे पहले भी पत्रिका के कई विशेषांक चर्चा में रहे हैं। मसलन रामचंद्र शुक्ल, राहुल, समकालीन कहानी, हरिशंकर परसाई.. आदि। अक्षय जीवन अक्षर पर्व अक्षय जीवन अखंड ज्योति अनंत अविराम अपरिहार्य अभिनव कदम अभिनव बालमन अभिव्यक्ति अर्गला अहा जिंदगी आकल्प आज तक आईबीएन खबर आई.सी.एम.आर. आलोचना आविष्कार इन.कॉम इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए उर्वशी एनडीटीवी खबर ओशो टाइम्स कथाक्रम कथादेश कथाबिम्ब कल्याण कालदीर्घा कुरुक्षेत्र खनन भारती गद्य कोश गीतपहल गूगल समाचार गृहलक्ष्मी चकमक चन्दामामा चंपक चित्रलेखा जनोक्ति जल चेतना जानकी पुल ड्रीम 2047 तद्भव तहलका दायित्वबोध दुधवा लाइव देवपुत्र नफा नुकसान नंदन नया ज्ञानोदय नवनीत निरोग धाम पंजाब सौरभ परिवेश पहल पर्यावरण डाइजेस्ट पाखी पी 7 न्यूज पूर्वाभास पैदावार प्रतियोगिता दर्पण प्रभा साक्षी प्रवक्ता प्रारम्भ शैक्षिक संवाद फिल्मी कलियां फिल्मी दुनिया बाल भास्कर बालवाणी बिंदिया बिजनेस भास्कर बीबीसी हिन्दी भाषा भारत दर्शन भारत संदेश भारतीय पक्ष मधुमती मधु मुस्कान मनी मंत्र मनोरमा महकता आंचल माया इन्डिया मीडिया विमर्श मेकलसुता मेरी सहेली मोल तोल युग मानस रचनाकर रंगवार्ता राजभाषा संवाद राष्ट्रधर्म लघुकथा.कॉम लमही लहर लेखनी वटवृक्ष वनिता वर्तमान साहित्य वसुधा वागर्थ विचार मीमांसा विज्ञान कथा विज्ञान प्रगति विशिष्ट ध्यान वुमेन ऑन टॉप वेबदुनिया शुक्रवार शैक्षिक पलाश संचेतना संप्रेषण संवाद संस्कृति सखी समकालीन भारतीय साहित्य समकालीन सरोकार समाज कल्याण समालोचन सरस सलिल सरिता साहित्य अम़ृत साहित्य कुंज साहित्य दर्शन साहित्य भारती साहित्य वैभव साहित्य शिल्पी साहित्य रागिनी सीमापुरी टाइम्स सुषमा पत्रिका सृजनगाथा स्वर्गविभा हंस पत्रिका हिंदीनेस्ट डॉट कॉम हिंदुस्तान बोल रहा है हिन्दी कुंज हिन्दी नेस्ट हिन्दी समय हरिगंधा सरल चेतना भारतीय मनीषा सरस्वती सुमन व्यंग्य यात्रा चित्र भारती सिने चित्रा सिने वाणी कला संसार सिने सितारा रजत पट रसभरी फिल्मिस्तान फिल्म किरण चित्र छाया इंदुमती सिने एक्सप्रेस चित्रावली प्रीत नीलम मनोरंजन रस नटराज फिल्म अप्सरा बबीता सिने पोस्ट फिल्म रेखा फिल्मी कलियां सिने हलचल फिल्म शृंगार फिल्मी परियां फिल्म संसार फिल्मी कमल चित्र किरण सिने हलचल हाइकु दर्पण हिमालिनी गीत गागर पालकी रंग भूमि मेनका युग छाया नव चित्र पट फिल्मांजलि आसपास नव मधुवन दोस्त और दोस्ती बाल हंस समय झरोखा शिशु सौरभ शीतल वाणी शेषामृत शैल सूत्र बाल दर्शन रविवार
विट्ठलभाई कांताभाई झवेरी को साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये महाराष्ट्र से हैं।
हिंदू पौराणिक कथाएँ धर्म से संबन्धित पारंपरिक विवरणों का एक विशाल संग्र्ह् है। यह संस्कृतमहाभारत, रामायण, पुराण आदि, तमिलसंगम साहित्य एवं पेरिय पुराणम, अनेक अन्य कृतियाँ जिनमें सबसे उल्लेखनीय है। भागवद् पुराण जिसे पंचम वेद का पद भी दिया गया है तथा दक्षिण के अन्य प्रांतीय धार्मिक साहित्य में निहित है।इनके मूल में स्मृति ग्रंथ और स्मार्त परंपरा है। यह भारतीय एवं नेपाली संस्कृति का अंग है। एकभूत विशालकाय क्रति होने की जगह यह विविध परंपराओं का मंडल है जिसे विविध संप्रदायों, व्यक्तियों, दश्न् श्रन्खला, विभिन्न प्रांतों, भिन्न कालावधि में विकसित किया गया। ऐसा आवश्यक नहीं कि इन्हें ऐतिहासिक टनाओं का यथा शब्द्, वस्तविक विवरण होने की मान्यता सभी हिंदुओं से प्राप्त हो, पर गूढ़, अधिकाशत्:सांकेतिक अर्थयुक्त अवशय् माना गया है।वेद देवगाथाओं के मूल, जो प्राचीन हिंदू धर्म से विकसित हुए, वैदिक सभ्यता एवं वैदिक धर्म के समय से जन्में हैं। चतुर्वेदों में उनेक विषयवस्तु के लक्षण मिलतें हैं। प्राचीन वैदिक कथाओं के पात्र, उनके विवास तथा मूलकथा का हिंदू दर्शन् से अटूट संबंध है। वेद चार हैं यथा रिगवेद्, यजुर्वेद, अथर्ववेद व सामवेद। कुछ अवतरण ऐसी तात्विक अवधारणा तथा यंत्रों का उल्लेख करते हैं जो आधुनिक काल के वैज्ञानिक सिद्धांतों से बहुत मिलतेजुलते हैं। संस्कृत की अधिकांश् सामग्री महाकाव्यों के रूप में सुरक्षित है। कथाओं के अतिरिक्त इन महाकाव्यों में तत्कालीन समाज, दर्शन्, संस्कृति, धर्म तथा जीवनचर्या पर विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। रामायण व महाभारत, ये दो महाकाव्य विषेश्त: विष्णु के दो अवतारों राम एवं कृष्ण की कथा सुनाते हैं। ये इतिहास कहलाए गए हैं। ये दोनो धर्मिक ग्रन्थ् तो हैं ही, दर्शन् एवं नैतिकता की अमूल्य निधि भी हैं। इन महाकाव्यों को विभिन्न कांडों में विभक्त किया गया है जिनमें अनेक लगुकथाएँ हैं जहाँ प्रस्तुत परिस्थियों को पात्र हिंदू धर्म तथा नैतिकता के अनुसार निभाता है। इनमें से महाकाव्य का सबसे महत्त्वपूर्ण अध्याय है भगवद गीता जिसमें श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्ध से पहले अर्जुन को धर्म, कर्म और नीतिपरायणता का ज्ञान देते हैं।ये महाकाव्य भी अलगअलग युगों में रचे गए हैं। वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण त्रेता युग में विष्णु के सातवें अवतार राम की कथा है। महाभारत पांडवों तथा विष्णु के आठवें अवतार कृष्ण से संबंधित द्वापर युग में रची रचना है। कुल 4 युग माने गए हैंसतयुग अथवा कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग। पुराणों में वे कथाएँ समाहित हैं जो महाकाव्यों में नहीं पायी गयी हैं अथवा उनका क्षणिक उल्लेख है। इनमें संसार की उत्पत्ति, अनेकानेक देवीदेवताओं नायकनयिकाओं प्राचीनकालीन जीवों असुर, दानव, दैत्य, यक्ष, राक्षस, गंधर्व, अप्सराओं, किंपुरुषों आदि द्ध के जीवन तथा साहसिक अभियानों की दंतकथाएँ और कहानियाँ हैं। भागवद्पुराण संभवत: सर्वाधिक पठित एवं विख्यात पुराण है। इसमें भगवान विष्णु के अवतारों के वृत्तांतों को लिपिबद्ध किया गया है। ब्रह्माण्ड सृजन एवं ब्रह्माण्ड विज्ञान प्राचीनतम सृजन की कथा रिगवेद् में मिलती है जिसमें ब्रह्माण्ड उत्पत्ति हिरण्यगर्भसोने के अंडे से मानी गई है। पुरुष सूक्त में कहा गया है कि देवताओं ने एक दिव्य पुरुष की बलि दी, उसके भिन्न अंगों से सभी जीवों की रचना हुई। पुराणों में विष्णु के वराह अवतार पराभौतिक सागर से पृथ्वी को उभार लाए थे। शतपथ् ब्रह्माण्ड में माना गया है कि आदि में जब प्रजापतिप्रथम सृजनकर्ता अकेले थे तब उन्होंने अपने को पतिपत्नी के दो स्वरूपों में विभक्त कर लिया। पत्नी ने अपने सृजनकर्ता के साथ इस संबंध को व्यभिचार माना और उनके प्रेमपाश् से बचने के लिये विभिन्न जीवजन्तुओं का रूप धारण किए पति ने भी उन्हीं रूपों को धारण्करके पत्नी का अनुकरण किया और इन्हीं संयोगो से विभिन्न प्रजातियों का जन्म हुआ। पुराणों में ब्रह्माण्ड, विष्णु, महेश्वर की ईश्वरीय त्रिमूर्ति के गठन का वर्णन है जो क्रमश:सृजनकर्ता, वहनकर्ता और विनाश् कर्ता माने गए हैं। ब्रह्माण्ड का सर्जनब्रमाण्ड ने किया, विष्णु इसके संरक्षक हैं तथा महादेव शिव् अगले सृजन के लिए इसका विनाश् करतें हे। कुछ किंवदंतियों में ब्रमाण्ड के सृजनकर्ता विष्णु माने गए हैं जिनकी नाभि से उत्पन्न कमल पर ब्रमाण्ड आसीन हैं। हिंदू व्यवस्था अनुसार ब्रमाण्ड अनन्त काल तक समय चक्रो में विचरण करता है। 360 ऐसे दिन और रात ब्रह्म् का एक वर्ष बनाते हैं। उनका जीवन ऐसे 100 वर्षों की अवधी का है।। प्रति मन्वंतर के बीच लंबी अवधि का अंतराल होता है। इस अवधि में संसार का पुन:सृजन होता है और मनुष्य जनक रूप में नए मनु प्रकट होते हैं। इस समय हम सातवें मन्वंतर में हैं जिसके मनु वैवस्वत मनु हैं। प्रति मन्वंतर में 71 महायुग होते हैं। प्रत्येक महायुग चार युगों में विभक्त हैकृता, त्रेता, द्वापर और कलि। इनकी अवधि क्रमश्: 4800, 3600, 2400, 1200 देव वर्षों के बराबर है। हर युग में पवित्रता, नैतिकता, शौर्य्, क्षमता, जीवन अवधि तथा सुख का हाzस होता जाता है। इस समय हम कलियुग में हैं जों तत्वानुसार 3102 साल् पूर्व प्रारंभ हुआ। यह साल् महाभारत के युद्ध का साल् माना जाता है। कलियुग के अंत के लक्षण माने गए हैं वर्णसंकरता, स्थापित मूल्यों का तिरस्कार, धार्मिक प्रथाओं की समाप्ति, क्रूर् एवं बाहरी राजाओं का राज। इसके तुरंत बाद संसार का प्रलय एवं अग्नि से नाश् होगा। सभी ग्रन्थो के अनुसार प्रलय कल्प के अन्तिम् चक्र् के बाद ही होता है। एक महायुग से दूसरे महायुग में परागमन सहजता से हो जाता है। जीवों का अंत तीन प्रकार का माना गया हैनैमित्तिक, जो प्रति कल्प के अंत में ब्रह्म् के दिन के अंत में होता है। प्राकृतिक विनाश् ब्रह्म् के जीवन के अंत में होता है। अत्यांतिकयह संपूर्ण तत्व मोक्ष की प्राप्ति है जहाँ से पुर्नजन्म के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। अपनी चार भुजाओं में शन्ख्, चक्र्, गदा, पदम लिये भगवान विष्णु संरक्षक माने गए हैं। आदि में रिग्वेद् में वे गौण देवता के रूप में प्रस्तुत किए गए बाद में वे त्रिमूति के अंग के रूप में तत्पश्चात् वैष्णव धर्म में वे अखंड ब्रमाण्डस्वरूप ईश्वर् के रूप में प्रस्तुत हुए। धर्म की संस्थापना हेतु अवतरित हाने के कारण तथा करुणामय वरदान प्रदाता होने के कारण ही उन्हें यह परमतत्व स्वरूप भगवान की उपाधि दी गई। विष्णु के 10 अवतार हैं मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, नरसिंह, परशुराम्, राम, कृष्ण, बुद्ध और कलकी। शेव् संप्रदाय के लोग शिव को परमेश्वर् मानते हैं, जो सर्वश्रेष्ठ स्रोत् तथा चरम लक्ष्य हैं। पशुपत शिव् सिद्धांत इन्हें परब्र् के बराबर या उनसे भी महान मानते हैं। शिव् नैतिक एवं पिता स्वरूप देवता हैं। वे उनके भी देवता है जो ब्र्ह्माणि समाज की मुख्यधारा से बाहर हैं। वे अनेक विधियों से पूजित हैं। तांत्रिक भी शिव् की आराधना करते हैं। अंग में भस्म लगाए, चर्माम्बर धारण किए, नाग का हार, जटाओं में अर्धचद्रधारी विनाश् के देवता योगी स् पर्वत पर वास करते हैं। शिव् का पुरातन नाम रुद्र् है। वैदिक ग्रन्थो के अनुसार रुद्र् र्को यज्ञ के प्रसाद में संमिलित नही किया जाता था। शिव् के ससुर दक्ष ने शिव्सती को अपने यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया। सती ने अपने पिता से शिकायत् की तो उन्होंने शिव् का अपमान किया। सती यह सहन न कर पाई और यज्ञ की अग्नि में अपना दाह कर लिया। अपनी पत्नी की मृत्यु की सूचना पा क्रोधित् शिव् ने दक्ष का सर छिन्न कर दिया। बाद में बलि के बकरे का सर लगाकर उन्हें पुन: जीवित किया। अपनी समाधी भंग करने के प्रयास में अपने तीसरे नेत्र से उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया। तदनंतर हिमालय पुत्री पार्वती ने अपने तप से शिव् को पाया असैर इन्हीं के कहने पर उन्होंने कामदेव को अदृश्य रूप में जीवित किया। देवी अपने पुरु प्रतिरूप की शक्ति है, बल है, अन्त:शक्ति है। शिव की पत्नी के रूप में अधीनस्थ दिखाई देती है, तो दूसरी ओर महादेवी के रूप में शिव के बराबर या ब्रह्माण्ड की उच्चतम देवी के रूप में सर्व जीवों की चेतना, शक्ति व साक्रियता का मूलभूत सुोत है। माता अथवा पत्नी के रूप में उसकी पारंपरिक प्रकृति दिखाई इेती हैसुंदर, अज्ञाकारिणी जैसे पार्वतीशिव, लक्ष्मीविष्णु, सरस्वतीब्रह्मा। उग रूप में दुर्गा महिशासुर का वध करने वाली तथा अति उग भे में वह चामुण्डाकाली है जिसने रक्तबीज दानव का रक्त पी लिया अन्यथा उसके रक्त की हर बूंद से पुन: नया दानव उत्पन्न हो जाता था। विष्णु, शिव, दुर्गा के साथ अनेक अन्य देवीदेवताओं को भी पूजा जाता है। उत्तर वैदिक काल में अरण्यकों और उपनिशदों में ब्राह्मण का महत्तव बढ़ा। पहले प्रजापति बाद में सृजनकर्ता माने जाने लगे।कुछ देवतागण किसी कार्य विढेश से ही संबंधित माने गए : इंद्रदेवताओं के राजा, अस्र के धारक, वायू र्के देवता, वरुणजल देवता, यमकाल, मृत्यु के देवता, कुबेरधनzसंपत्ति के देवता, अग्निदेव, पवनदेव, चंदzदेव, आदियम, इंद्र, वरुण व कुबेर लोकपाल कहलाते हैं।शिवपार्वती के पुत्र स्कंदयुद्ध के देवता, गणेशविघ्न विनाशक हैं। प्रत्येक कार्य को सुचारु रूप से संपन्न करने के लिए प्रारंभ में गणेश की पूजा की जाती है। देवियों में लक्ष्मीसौभाज्ञ एवं लौकिक, धन की देवी, सरस्वतीविद्या एवं कला की देवी हैं। हिंदू धार्मिक कथाओं में अनेकानेक देवीदेवता माने गए हैं। नागबहुमूल्य को की रक्षा करते हैं, यक्षकुबेर के गण हैं, गंधर्वइंद्रा के संगीतकार हैं, किन्नर गंधर्वों के साथ रहते हैं, गंधर्वों की स्त्री प्रतिरूप हैं अप्सराएँ, जो सुंदर और कामुक होती हैं। ऋषियों ने वैदिक शलोकों की संरचना करी। इनमें मुख्य हैं सप्त ऋषि मारीचि, अत्री, अंगीरस, पुलस्त्य, कृतु, वशिष्ठ। ये तारामंडल के रूप में आकाश में दिखाई देते हैं। दक्ष व कशयप देवों एवं मानवों के पूर्वज हैं, नारद वीणा के आविशकारक, बृहस्पति व शुक सुर तथा असुरों के गुरु, अगस्त्य ने दक्षिण प्रायद्वीप में धर्म एवं संस्कृति का प्रचार किया। पितृ पूर्वजों की आत्माएँ जिन्हें पिंड दान दिया जाता है। असुर मुख्य दुरात्माएँ जो सदा देवजाओं से युद्धरत रहते थे। ये दिति की संतानें दैत्य कहलाते हैं, दनु की संतानें दानव कहलाते हैं। असुरों के प्रमुख राजा वृत्र, हिरणाकशिप, बाली आदि, पुलस्त्य ऋषि के पुत्र रावण राक्षस हैं। देव और असुरों के बीच त्रिलोक के लिए कुल 12 भीण युद्ध हुए। हिरणाक्ष्यवराह युद्ध जिसमें हिरणाक्ष्य दिव्य सागर में मारा गया। नरसिंहहिरण्याकशिप युद्धनरसिंह ने दैत्य का वध किया।वजगपुत्र तारकासुर स्कंद द्वारा मारा गया। अंधक वध इसमें अंधकासुर शिव के द्वारा मारा गया। पंचम युद्ध में देवता जब तारकासुर के तीन पुत्रों को मारने में विफल हुए, तब शिव ने अपने धनु पिनाक के एक बाण से तीनों को उनके नगरों समेत ध्वस्त कर दिया। अमृतमंथनइंद ने महाबली को परास्त किया वामन अवतार धर विष्णु ने तीन पग में त्रिलोक लेकर महाबली को बंदी बनाया। आठवें युद्ध में इंदz ने मारा विप्रचित्ती तथा उसके अनुचर जो अदृशय हो गए थे। आदिवक युद्ध में इक्ष्वाकु राजा के पौत्र काकुशथ ने इंद्र की सहायता की और आदिवक को परास्त किया। कोलाहल युद्ध में शुक पुत्र संद एवं मर्क का वध हुआ। दानवों की सहायता लेकर वृत्र ने इंद्र से युद्ध किया। विष्णु की मदद पाकर इंद्रा ने उसे मार डाला। बारहवें युद्ध में नहुश के भाता राजी ने इंद्र की सहायता की और असुरों को मार डाला। शस्त्रजिनको हाथ में पकड़ कर प्रहार किया जाता है जैसे तलवार, कटार। अस्त्रजिनको शत्रु पर फेंका जाता है जैसे बॅाण।पारंपरिक अस्त्र शस्त्र जैसे धनुबाँण, तलवार, कटार, भाले, गदा, ढाल के अतिरिक्त दैविक अस्त्र जैसे इंद्र का अस्र, ब्स्त्र, त्रिशूल, सुदर्शन चक्र, पिनाक आदि हैं। अनेक अस्त्र ईवरों द्वारा देवताओं, राक्षसों या मनुष्यों को वरदान स्वरूप दिए जाते थे जैसे, ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र। इन्हें चलाने के लिए विश ज्ञान का होना आवश्यक था। कुछ अस्त्र एक सुनिशि्चत कार्य के लिए ही बने होते थे यथा नागास्त्र जिसके उपयोग से विरोधी सेना पर कोटीकोटी सर्पों की वृष्टि हो जाती थी। आग्नेयास्त्र विरोधी को जलाने, वरुणास्त्र अग्निशमन करने अथवा बाढ़ लाने के लिए, ब्रह्मास्त्र का प्रयोग केवल शत्रु विशेश पर ही प्राणघाती वार करने के लिए होता था। इनके अतिरिक्त अन्य दैविक उपकरणों का उल्लेख भी है जैसे कवच, कुण्डल, मुकुट, शिरस्त्राण आदि। शतपथ ब्राह्मण में महाप्रलय की कथा कही गई है। अन्य धर्मों के विवरणों से इसकी तुलना की जाती है। मनु को आनेवाले प्रलय की पूर्व सूचना देकर भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया और धर्मका पालन करने वाले मनुष्यों एवं अन्य जीवजंतुओं को बचाया। पौराणिक कथाओं में 14 लोकों का वर्णन पाया जाता है इनमें गृह नहीं आतेद्धं। 7 उच्च तथा 7 निम्न। उच्च लोकों में सबसे नीचे है पृथ्वी। उच्च लोक हैं भू, भुवस, स्वर, महस, जनस, तपस व सत्य जो सामाज्य है। निम्न लोक हैं अताल, विताल, सुताल, रसातल, तलातल, महातल तथा पाताल। मृत्यु के निर्णय धर्मराज यम प्राणी के अच्छेबुरे कर्म देखकर तय करतें हैं कि आत्मा किस लोक में जाए। ये इतरलोक केवल अस्थाई वास स्थान हैं। यहाँ से आत्मा को पुन: पृथ्वी पर जन्म लेना होता है। ऐसा माना जाता है कि केवल पृथ्वी लोक से ही और मनुष्य योनि के बाद ही कर्मों के अनुसार आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
भाषाविज्ञान में बड़े और संरचित पाठ के समुच्चय को पाठसंग्रह या कॉर्पस कहते हैं। पाठसंग्रह के बहुत से उपयोग हैं। जैसे किसी भाषा में प्रयुक्त शब्दों की बारंबारता निकालना, किसी भाषा में प्रयुक्त सर्वाधिक 1000 शब्दों की जानकारी निकालना, कोई शब्द किसकिस प्रकार से प्रयुक्त होता है आदि।
वन्ह फ़ोक दक्षिणपूर्वी एशिया के वियतनाम देश का एक प्रान्त है। यह देश के लाल नदी डेल्टा क्षेत्र में स्थित है।
इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी संस्थान, बरेली उत्तर प्रदेश, बरेली में राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित इंजीनियरिंग कॉलेज है। यह एम॰जे॰पी॰ रोहिलखंड विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित है। यह बिहार प्रान्त में स्थित प्रतिष्ठित अभियांत्रिकी संस्थानों में से एक है जिसमें विभिन्न शाखाएं है। प्रारंभ में प्रवेश एम.जे.पी. रोहिलखंड विश्वविद्यालय के स्वयं के अभियांत्रिकी प्रवेश परीक्षा के माध्यम से अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित किया गया था। बाद में 2008 में यह अखिल भारतीय स्तर पर एआईईई परीक्षा में बदल गया। वर्तमान में प्रवेश यूपीटीयूएसईई परीक्षा के माध्यम से दिया जाता है। सभी विभाग अनुसंधान और विकास संगठनों, उद्योगों, सरकारी और शैक्षिक संस्थानों से तैयार योग्य शैक्षणिक संकायों वाले हैं। पाठ्यक्रम के अनुसार बीएचयू वाराणसी के प्रतिष्ठित शिक्षाविदों और आईआईटी, रुड़की के परामर्श से डिजाइन किया गया है। सभी विभाग भी आधुनिक प्रयोगशालाओं, मल्टीमीडिया प्रोजेक्टर ओएचपी और अन्य दृश्य शिक्षण एड्स सहित अत्याधुनिक शिक्षण सामग्री से सुसज्जित हैं।
ओलिवर एंड कंपनी 1988 की एक अमेरिकी एनीमेटेड फिल्म है।
पोड़ैयाहाट भारत के झारखण्ड राज्य की विधानसभा का एक निर्वाचन क्षेत्र है। गोड्डा ज़िले में स्थित यह विधानसभा क्षेत्र गोड्डा लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आता है।
दौलतपुरा गांव राजस्थान राज्य के हनुमानगढ़ जिले की टिब्बी तहसील में स्थित है। यह जिला मुख्यालय हनुमानगढ़ से 20 कि.मी की दूरी पर है। गांव जाने के लिए हनुमानगढ़ से संगरिया जाने वाली सड़क पर मानकसर गांव से लिंक रोड होते हुए जाया जाता है। इस गांव की जनसंख्या लगभग 3000 हैं। हनुमानगढ़
हनफ़ी सुन्नी इस्लाम के चार पन्थों में से सबसे पुराना और सबसे ज़्यादा अनुयायियों वाला पन्थ है। अबु खलीफ़ा, तुर्क साम्राज्य और मुगल साम्राज्य के शासक हनाफी पन्थ के अनुयायी थे। आज हनाफी स्कूल लिवैन्ट, इराक, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भारत, चीन, मारीशस, तुर्की, अल्बानिया, मैसेडोनिया में बाल्कन में प्रमुख है।
चौडाख्याली, चम्पावत तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के चम्पावत जिले का एक गाँव है।
पेशी प्राणियों का आकुंचित होने वाला ऊतक है। इनमें आंकुंचित होने वाले सूत्र होते हैं जो कोशिका का आकार बदल देते हैं। पेशी कोशिकाओं द्वारा निर्मित उस ऊतक को पेशी ऊतक कहा जाता है जो समस्त अंगों में गति उत्पन्न करता है। इस ऊतक का निर्माण करने वाली कोशिकाएं विशेष प्रकार की आकृति और रचना वाली होती हैं। इनमें कुंचन करने की क्षमता होती है। पेशिया रेखित, अरेखित एवं हृदय तीन प्रकार की होती हैं। मनुष्य के शरीर में 40 प्रतिशत भाग पेशियों का होता है। मानव शरीर में 639 मांसपेशियां पाई जाती हैं। इनमें से 400 पेशियाँ रेखित होती है। शरीर में सर्वाधिक पेशियां पीठ में पाई जाती है। पीठ में 180 पेशियां पाई जाती हैं। पेशियां तीन प्रकार की होती हैं। ऐच्छिक मांसपेशियाँ, अनैच्छिक मांसपेशियाँ और हृदय मांसपेशियाँ। शरीर में तीन प्रकार की पेशियाँ पाई जाती है : रेखांकित पेशियाँ ऐच्छिक होती हैं और अस्थियों पर लगी रहती हैं। शरीर की गति : चलना फिरना, दौड़ना, पकड़ना, खड़े होना इन्हीं पेशियों के आकुंचन और प्रसार का फल है। अरेखांकित पेशियाँ हमारी इच्छा के अधीन नहीं है। वे स्वत: ही आकुचित और प्रसरित होती है। सारी पाचनप्रणाली, ग्रसनिका से लेकर गुदा तक, में इन पेशियों का प्रधान भाग रहता है। आंवगति इन्हीं की क्रिया का फल होती है। प्रत्येक नलिका रक्तवाहिनियों तथा आशयों की भित्तियाँ प्रधानत: इन्हीं पेशियों की बनी होती है। हृद् पेशियों की रचना यद्यपि ऐच्छिक पेशी के समान होती है, तथापि वे इच्छा के अधीन नहीं होतीं, स्वत: ही संकोच और प्रसार करती रहती है। वास्तव में यह सिद्ध हो चुका है कि हृदय की पेशी में स्वत: आकुंचन करने की शक्ति होती है, जो नाड़ी नियत्रण से बिलकुल स्वतंत्र है। प्रत्येक पेशी सूत्रों का समूह होती है। ये सूत्र पेशी को लंबाई की ओर चीरने से एक दूसरे से पृथक किए जा सकते हैं। ये सूत्र भी सूत्राणुओं के बने होते हैं। प्रत्येक सूत्र पर एक आवरण रहता है, जिसके भीतर कई केंद्रक होते हैं। प्रत्येक सूत्र पर एक आवरण रहता है, जिसके भीतर कई केंद्रक होते हैं और कोशिकासार भरा रहता है, जिसके भीतर कई केंद्रक होते हैं और कोशिकासार भरा रहता है। कंकन की दीर्घ पेशियों में 5 इंच तक लंबे और 0.01 से 0.1 मिलीमीटर व्यास तक के सूत्र पाए जाते हैं। छोटे आकार की पेशियों में सूत्र भी छोटे हैं और प्रारंभ से कंडरा तक विस्तृत होते हैं। बड़ी पेशियों में कई सूत्र अपने सिरों पर मिलकर पेशी की लंबाई को पूर्ण करते हैं। प्रत्येक सूत्र में नाड़ी का एक सूत्र जाता है। यहाँ वह शाखाओं में विभक्त हो जाता है जिनके अंतिम भागों के चारों ओर कोशिकासार में कुछ कण एकत्र रहते हैं। ये स्थान अंत:पट्ट कहलाते हैं। इन्हीं में होकर उत्तेजनाएँ सूत्रों में जाती हैं, जिनसे पेशी आकुंचन करती है। ऐच्छिक पेशी का निर्माण करने वाले कोशिकाएँ लंबी, बेलनाकार एवं अशाखित होती हैं। ऐच्छिक पेशी सूत्रों की प्रकाश द्वारा परीक्षा करने से वे लंबाई की ओर खंडों में विभक्त पड़ते हैं, जिनमें से एक प्रकाशहीन और दूसरा प्रकाशमय खंड बारी बारी से स्थित है, अर्थात् प्रकाशमय के पश्चात् प्रकाशहीन और उसके पश्चात् फिर प्रकाशमय। प्रकाहीन खंड के दोनों सिरों पर चौड़ाई की ओर बिंदु दिखाई देते हें, जो आपस में चौड़ाई की ओर अत्यंत सूक्ष्म रेखाओं से जुड़े हुए हैं। ऐसी ही रेखाएँ सूत्र की लंबाई की ओर भी इन बिंदुओं को जोड़े हुए हैं। यही रेखाजाल कहलाता है, जो अनुप्रस्थ और अनुदैर्ध्य दोनों प्रकार है। प्रत्येक सूत्राणु में यह दृश्य दीखता है। ये सूत्राणु अंतस्सूत्राणु वस्तु द्वारा गुच्छों में बँधे हैं, जिनके चारों ओर पेशीसार स्थित है और जिसमें केंद्रक स्थित है। पेशी कोशिकाओं के चारों ओर एक आवरण पाया जाता है जिसे सार्कोलेमा तथा उपस्थित केंद्रक को सार्कोप्लाज्म कहते हैं। इसमें बहुकोशिकीय केंद्रक पाया जाता है।प्रत्येक पेशी तंतु में गहरी पट्टी जिसे A पट्टी कहते हैं जो मायोसीन की बनी होती है। इसमें हल्की I पट्टी एक्टिन प्रोटीन की बनी होती है। दो एक्टिन पट्टी के मध्य एक आडी़ छड़ स्थित होती है, जिसे Z रेखा कहते हैं। दो Z रेखा के मध्य को सार्कोमीयर कहते हैं। A पट्टी के मध्य एक महीन रेखा जिसे M रेखा कहते हैं। M रेखा के दोनों ओर पट्टी का कुछ भाग हल्का दिखाई देता है जिसे H क्षेत्र कहते हैं। अनैच्छिक पेशीसूत्र छोटे होते हैं। प्रत्येक सूत्राणु एक लंबोतरे आकार की कोशिका होता है, जो एक सिरे पर चपटा सा होता है और दूसरे पर लंबा, जहाँ वह कडरा में लग जाता है। इसकी लंबाई की ओर रेखाएँ भी दिखाई पड़ती हैं। एक कोशिका की लंबाई 200 माइक्रोन और चौड़ाई 4 से 7 माइक्रोन से अधिक नहीं होती। ये रेखांकित नहीं होती। इनमें एक ही केंद्रक होता है। ये पेशियाँ स्तरों में स्थित होती हैं, जिनमें सूत्राणु या सूत्रकोशिका अपने सिरों से मिली रहती है। आशायों या आंत्रनाल में ये पेशियाँ दो स्तरों में स्थित हैं। एक स्तर आंत्र की लंबाई की ओर स्थित है और दूसरा उसको चौड़ाई की ओर से घेरे हुए है। इसको अनुवृत्तकार और अनुदैर्ध्यं स्तर कहा जाता है। इन दोनों स्तरों के संकोच से नाली के भीतर की वस्तु आगे की ओर को संचरित होती है।हार्दिक पेशीसूत्र इन दोनों के बीच में हैं। प्रत्येक सूत्र एक कोशिका है, जिससे अनुदैर्ध्य और अनुप्रस्थ दोनों प्रकार का रेखांकन दिखाई देता है। किंतु ये सूत्र इच्छा के अधीन नहीं है। कोशिकाओं में विशेषता यह है कि उनसे शाखाएँ निकलती हैं, जो दूसरी कोशिकाओं की शाखाओं में मिल जाती है। ऐच्छिक पेशी में I पट्टी पर स्थित एक्टिन उसके सार्कोमीयर में उपस्थित मायोसीन के ऊपर आ जाता है तथा एक्टिन का एक सिरा दूसरे सिरे पर आ जाता है। इस कारण सार्कोमीयर की लंबाई में कमी हो जाती है। इस अवस्था में पेशियों में संकुचन होता है। जब एक्टीन तथा मायोसीन अपने स्थानों पर सरक जाते हैं तो सार्कोमीयर पूर्व अवस्था में आ जाते हैं तथा पेशियां शिथिल हो जाते हैं। पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा ATP से प्राप्त होती है। पेशी संकुचन में Ca आयन ATP को ADP में बदल देते हैं। पेशी का विशेष गुण आकुंचन करना है, जिससे उसकी लंबाई कम और चौड़ाई अधिक हो जाती है, अर्थात् वह छोटी और मोटी हो जाती है। आकुंचन के समय जिस स्थान से उसका उद्गम होता है वह भाग खिंचकर प्रथम के पास पहुँच जाता है। सी से शरीर के अंगों की गति होती है। आकुचन के पश्चात् पेशी फिर प्रसरित होकर अपनी पूर्व अवस्था में आ जाती है। ऐच्छिक पेशियों में आकुंचन उन उत्तेजनाओं के परिणाम होते हैं जो मस्तिक या सुषुम्ना के केंद्रों से नाड़ियों द्वारा पेशियों में आती है। मनुष्य की पेशी एक सेकेड में 10 या 12 बार से अधिक संकोच नहीं कर सकती। मक्खी की पेशी 400 बार संकोच कर सकती है। यदि पेशी में जानेवाली नाड़ी को उत्तेजित किया जाय, तो उत्तेजित स्थल पर विद्युद्विभव उत्पन्न हो जाता है और यहाँ से दोनों ओर को विद्युत्प्रवाह होने लगता है। इसकी विद्युन्मापी से नापा जा सकता है। प्रत्येक आकुंचन में ऊर्जा की उत्पत्ति होती है। पेशी में जारण या ऑक्सीकरण की क्रिया से वहाँ के ग्लूकोज़ का जल और कार्बन डाइऑक्साइड में विभंजन हो जाता है। इससे 0.0030 सें. ताप भी बढ़ जाता है। वहाँ उपस्थित ऑक्सीजन व्यय हो जाता है और लैक्टिक अम्ल उत्पन्न होता है, जो शरीर में रक्त द्वारा पेशी में हटा दिया जाता है। शरीर से पृथक् करके पेशी को कुछ समय तक उत्तेजित करने से वह इस अम्ल के एकत्र होने से श्रमित हो जाती है। यह अन्वेषण से पूर्णतया सिद्ध हो चुका है कि ऑक्सीजन की अनुपस्थिति इस अम्ल के बनने का कारण है। ग्लाइकोजन इसका पूर्वरूप है। व्यायाम के समय पेशियों में कुछ समय तक बार बार संकोच होते हैं, जिससे पेशियों में ऊपर बताए हुए सब प्रकार के परिवर्तन होते हैं और गति करने की ऊर्जा उत्पन्न होती है। ऊर्जा की उत्पत्ति ऑक्सीजन के व्यय और कार्बन डाइऑक्साइड की उत्पत्ति से मालूम की जाती है। श्वास द्वारा बाहर निकली हुई वायु को एकत्र करके, उसके विश्लेषण से ये दोनों मात्राएँ मालूम की जा सकती हैं। इससे व्यय हुई ऑक्सीजन का पता लग जाता है। यह निर्धारित हो चुका है कि 1 लिटर ऑक्सीजन के व्यय से 5.14 कैलोरी ऊष्मा उत्पन्न होती है, जो 15.560 फुट पाउंड के समान है।
2562 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 2562 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है उपरोक्त अन्तर के आधार पर 2562 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते हैं।
इस लेख को भगवा आतंकवाद या इस लेख के किसी भी अनुक्रम से संबंधित चित्रों से भर कर पूरा करें। जिन हिंसात्मक अंजामों को हिन्दू राष्ट्रवाद द्वारा प्रेरित बताया जाता है, उन अंजामों को भगवा आतंकवाद कहते हैं। यह शब्द हिन्दू धर्म को संबोधित करने वाले केसरी रंग के पया॔यवाची से अाया है। भगवा आतंकवाद का सबसे पहला प्रयोग अंग्रेज़ी में सन् 2002 में, फ़्रंटलाईन नामक अंग्रेज़ी पत्रिका के एक लेख में, गुजरात दंगे को संबोधन करने के लिए हुअा था। लेकिन इस शब्द का अधिक प्रयोग 29 सितंबर सन् 2008 के मुंबई के मालेगाँव धमाके के बाद हुआ क्योंकि जांच के सिलसिले में धमाके से संबद्धित, कथित तौर पर, एक हिन्दू संगठन से जुङे लोगों को गिरफ्तार किया गया। हालांकि इस्लामी उग्रवादी संगठन, इंडियन मुजाहिदीन पर भी दोष आया था क्योंकि इसी इलाके में सन् 2006 के धमाके में इंडियन मुजाहिदीन का हाथ होने की आशंका थी । लेकिन, जांच आगे बढ़ने के बाद किसी हिन्दू संगठन के शामिल होने की कथित तौर पर पूष्ती हो गई। शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के अनुसार, शरद पवार ने ही सबसे पहले भगवा आतंकवाद शब्द का प्रयोग किया था। इसका जवाब देते हुए पवार ने कहा कि उन्होंने सबसे पहले मालेगांव विस्फोट के बाद इस शब्द का उपयोग किया था। भगवा आतंकवाद अौर हिन्दू आतंकवाद में अधिक अंतर नहीं प्रतित होता है। हिन्दूत्व आतंकवाद का भी कभीकभी हिन्दू आतंकवाद अौर भगवा आतंकवाद की जगह प्रयोग किया जाता है। भारतीय मिडिया में तीनों शब्दों का इस्तमाल होता है। प्रसिद्ध पत्रिका आउटलुक में ही तीनों शब्दों का बारीबारी से इस्तमाल होता देखा गया है। द नैश्नल के अनुसार कोई भी हिन्दू उग्रवादी द्वारा, मुसलमानों के खिलाफ कोई भी हिंसा की कथित भूमिका को या तो भगवा आतंकवाद या तो हिन्दू आतंकवाद से संबोधित किया जाता है। लेकिन सूभाष गटाडे की किताबगोडसेज़ चिल्ड्रेन में हिन्दूत्व अौर हिन्दू को अलग बताया गया है अौर वीर सावरकर की किताब हिन्दूत्व में हिन्दू को हिन्दूत्व का एक छोटा सा हिस्सा बताया गया है, इसलिए हिन्दू को हिन्दूत्व से भिन्न बताया गया है। मुख्य हिन्दू राष्ट्रवादी दल, जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आरंभ ठिक हिन्दूत्व विचारधारा के आने के बाद शुरू हुआ । लेकिन भगवा रन्ग बौद्द ध्रम के लोग भी अपनाते है। इसलिए भगवा आतंकवाद को एक गलत नाम माना जाता है अौर इसलिए हिन्दू आतंकवाद अौर हिन्दूत्व आतंकवाद जैसे नामों को अपनाया जाता है। 30 जनवरी सन् 1948 में अहि्मसावादी भारतीय सैनानी मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या को हिन्दूत्व विचारधारा से प्रेरित बताया जाता है। गांधी का एकलौता हत्यारा नाथूराम गोडसे 1940 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे। लेकिन गांधी की हत्या को भगवा आतंकी से प्रेरित करार देने पर अभी तक विवाद चल रहा है क्योंकि सरदार वल्लभभाई पटेल, जो उस समय भारत के गृह मंत्री थे, ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया था। लेकिन जाँच अायोग अौर कपूर कमीशन ने 1969 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को क्लीन चिट दे दी। इंडियन नेशनल कांग्रेस प्रवक्ता संजय झा के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने सेवकों को गांधी की हत्या से पहले किसी बड़ी घटनाक्रम के लिए इंतजार करने को कहा था अौर फिर गांधी की मृत्यु के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मिठाईयाँ बाँटी। 6 दिसंबर सन् 1992 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, 1,15,000 विश्व हिंदू परिषद अौर भारतीय जंता पार्टी के कारसेवकों ने बाबरी मस्ज़िद के सामने एक रैली का आयोजन किया। इस रैली में उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी, लाल कृष्ण आडवाणी जैसे प्रमुख हिन्दू राष्ट्रवादी नेताओं ने भाषण दिया था। वे अभी भारतीय जंता पार्टी के प्रमुख नेताओं में से हैं। सूभाष गटाडे के अनुसार, बाबरी मस्ज़िद विध्वंस हिन्दूत्व आतंकवाद की मिसाल है। केंद्रीय गृह मंत्री रह चुके पी. चिदंबरम ने भगवा आतंकवाद को एक नई घटना बताई। लेकिन बी. रमण, जो मंत्रिमंडल सचिवालय के अपर सचिव रह चुके हैं, उनके अनुसार भगवा आतंकवाद की शुरुआत भारतीय सरकार की पाकिस्तान अौर भारतीय मुसलमान समुदाय, जो आतंकवाद में लिप्त हैं, के प्रति कथित नरम नीति के कारण हुई। उन्होनें हिन्दूत्व व भगवा आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद के मुकाबले कार्यनीतिक स्वभाव का बताया। 2002 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने इस्लामी आतंकवाद पर रोक लगाने हेतु हिन्दू अात्मघाती हमलावरों का दस्तों बनवाने का अादेश जारी किया था। पाकिस्तिनी खुफिया एजेंसी शिवसेना को एक आतंकवादी संगठन मानती थी। पूर्व गृह सचिव जी. के पिल्लय के अनुसार भगवा आतंकवाद को बड़ी चिंता का एक कारण बताया। हिन्दू राष्ट्रवादी दल, जिन पर भगवा आतंकवादी गतिविधियों का समर्थन करने का या समर्थन देने के अारोप लगे हैं, उनको राजनीतिक पार्टी से कथित तौर पर राजनीतिक मदद या तो फिर खुला समर्थन मिलता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी जैसे राजनीतिक पार्टी से अपने ऊपर भगवा आतंकवादी गतिविधियों के समर्थन का अारोप मिटिने हेतु राजनीतिक मदद माँगती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को राजनीतिक मदद मिलती भी है। विश्व हिंदू परिषद जैसे दलों को भी मिलता है भारतीय जनता पार्टी से राजनीतिक मदद। हिन्दू राष्ट्रवादी दलों को राजनीतिक मदद देने से वोटरों में फूट डालना अासान होता है, जिसके कारण चुनाव में फायदा हो सकता है। बाबरी मस्ज़िद विध्वंस में कई भारतीय जनता पार्टी के दिग्गजों का हाथ था। 2008 के मालेगाँव धमाके की आरोपी साधवी प्रग्या सिंघ ने भारतीय जनता पार्टी के लिए गुजरात में चुनाव अभियान चलाया था। विश्व हिंदू परिषद के अायोध्या में राम मंदिर की माँगो को शिवसेना का मिलता है खुला समर्थन। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को शिवसेना अौर भारतीय जनता पार्टी के राजनिती में दखलअंदाजी देने में पुरी छुट मिलती है। शिवसेना अौर भारतीय जनता पार्टी के बिच में हुई राजनितिक फूट को सुलझाने के लिए सामने अाते है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संघसरचालक मोहन भागवत। विश्व हिंदू परिषद का सम्रथन भी उन्हीं पार्टी को जाता है जो हिन्दूत्व विचारधारा का प्रचार करती है। श्री राम सेना का नि्रमाण 1960 में कलकी महाराज द्वारा हुआ था जो शिवसेना के महामहीम बाल ठाकरे का दाहिना हाथ था। इस पार्टी का भगवा आतंकवाद में प्रत्यक्ष भागीदारी साबित हो चुका है। इस पार्टी का नाम 2006 के मालेगाँव धमाके के पुलिस चार्जशीट में मौजूद था। श्री राम सेना के 40 सदस्य ने मेंगलोर के एक पब में 2009 को कई युवाअों को पीटा। पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा जाँच रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी पर आतंकवादी ट्रेनिंग कैम्प्स चलाने के आरोप हैं। इस कथन के लिए सुशील कुमार शिंदे की भारतीय जनता पार्टी के तरफ से भारी आलोचना हुई। सुशील कुमार शिंदे को साबित करने के लिए कांग्रेस सरकार ने 10 आतंकवादियों के नाम जारी किए जिनका ताल्लुक़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कई हिंदू संगठनों के साथ था। विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे दल अपने सदस्यों को हथियार चलाने की प्रशिक्षण प्रदान करती है। विश्व हिंदू परिषद के महिला सदस्यों को दुर्ग वाहिनी द्वारा प्रशिक्षण मिलती है। हिन्दू उग्रवादी संगठनों पर कई आतंकवादी हमलों को अंजाम देने का आरोप लगा है, जैसे 2006 मालेगाँव धमाके, मक्का मस्जिद धमाका, समझौता एक्सप्रेस धमाका अौर अजमेर शरीफ दरगाह धमाका। दो धमाके ने समझौता एक्सप्रेस के दो डिब्बों को 18 फरवरी 2007 की अाधी रात को हिला कर रख दिया था। धमाके के बाद लगी आग में 68 लोग मारे गए अौर दर्जनों घायल हुए। कथित तौर पर इसे अभिनव भारत, एक हिन्दू कट्टरपंथी संगठन से जोड़ा गया। नवंबर 2008 में सूचना दी गई थी की महाराष्ट्र आतंकवादविरोधी दस्तों को शक हुआ की यह धमाके प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, जो भारतीय सेना का एक अफसर है अौर अभिनव भारत का एक सदस्य भी। पुरोहित ने खुद दावा किया की उन्होंने अभिनव भारत में घुसपैठ की थी। सेना की कोर्ट की जांच के दौरीन, 59 गवाहों ने उन अफसरों के साथ जिन्होंने गवाही दी, कोर्ट को बताया की वह उग्रवादी संगठनों में घुसपैठ कर खुफिया जानकारी इकट्ठा कर रहा था। 8 जनवरी सन् 2011 में स्वामी असीमानंद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक प्रचारक, ने कबूला की वह समझौता एक्सप्रेस धमाके में उनका हाथ था, एक कथन जिसे उन्होनें तनाव में अाके दिया। असीमानंद ने कहा की उन्हें ज़ोरज़बरदस्ती करके गलत बयान देने पर मजबूर किया। कहा गया है कि लश्करऐतैयबा धमाके के लिए दोषी है। अम्रिका ने अरिफ कस्मानी, एक पाकिस्तानी और कथित तौर पर लश्करऐतैयबा का वित्तदाता, को 2006 की ट्रेन धमाके और 2007 समझौता एक्सप्रेस धमाके के लिए दोषी थैराया, और उन्हें युनाईटेड नेशन्स द्वारा एक अंतराष्ट्रिय आतंकवादी घोषित कराया। 2013 तक, भारत में किसी को भी इस अपराध के लिए सज़ा नहीं मिली। अजमेर दरगाह धमाका 11 अक्टूबर 2007 को सुफी संत मोइनुद्दिन चिस्ती के दरगाह के बाहर राजस्थान के अजमेर शहर में हुअा था, कथित तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य द्वारा। 22 अक्टूबर सन् 2010 को पाँच अभियुक्त अपराधियों, जिनमें से चार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे, को गिरफ्तार कर लिया गया। स्वामी असीमानंद ने अपने स्वीकरण में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संघसरचालक मोहन भागवत और प्रचारक ईन्द्रेष कुमार को इस हमले का अादेश देने का आरोप लगाया। भावेष पटेल, दुसरा अपराध में अभियुक्त, ने भी यही कहा पर बाद में सुशील कुमार शिंदे पर अौर कई कांग्रेसी नेता पर दबाव का अारोप लगाया। 8 मार्च 2017 को अजमेर दरगाह में 2007 में हुए विस्फोट मामले में राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण की विशेष अदालत ने मुख्य आरोपी स्वामी असीमानंद सहित सात आरोपि, गुप्ता, भावेश पटेल और सुनील जोशी को दोषी माना। 29 सितंबर सन् 2008 को गुजरात और महाराष्ट्र में तीन बम धमाके से 8 लोग मारे गए और 80 घायल हुए। महाराष्ट्र में जांच के दौरान, एक हिन्दू संगठन को कथित रूप से ज़िम्मेदार बताया। गिरपफ्त अारोपी में से तीन लोगों को साधवी प्रग्या सिंघ ठाकुर, शिव नारायण गोपाल सिंघ कलसंघरा अौर श्याम भावरलाल साहू के नाम से पहचाना गया। तीनों को नाशिक में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने हाज़िर करवाया, जिसने 3 नवंबर तक तीनों को पुलिस के गिरफ्त में रखने का आदेश दिया। 28 अक्टूबर को शिवसेना ने आरोपियों के हित में कहा की यह गिरफ्तारी महज़ राजनैतिक है। इस बात को प्रत्यय देते हुए, पार्टी मेखिया उद्धव ठाकरे के इशारा किया की रिजनैतिक होड़ में एक संभावित ब्याज का संघर्ष है क्योंकि नैश्नल कांग्रेस पार्टी प्रासंगिक मंत्रालय संभाल रहि है। नैश्नल जांच एजेन्सी को साधवी प्रग्या सिंघ ठाकुर के खिलाफ कोई भी सबूत नहीं मिला और उनके खिलाफ सारे अारोप गिराने की सलाह दी है। सेना अफसर प्रसाद श्रिकांत पुरोहित पर भी अारोप लगे थे। लेकिन उसके वकील ने कहा की उन पर रिजनैतिक कारणों से गलत आरोप लगाए जा रहे हैं क्योंकि उनके पास स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आॅफ़ इंडिया अौर पाकिस्तानी खुफिया एजेन्सी के बारे में खुफिया जानकारी है जिस्से कई राजनेता के पोल खुल सकते है। मक्का मस्जिद धमाका 18 मई 2007 को हैदराबाद के मक्का मस्जिद के अंदर हुई थी। धमाके के तुरंत बाद ही 14 लोगों की मरने की खबर आई। नैश्नल जांच एजेन्सी, सेंट्रल ब्यूरो अाॅफ़ इनवेस्टिगेषन अौर भारतीय आतंकवाद विरोधी दस्तोॅ ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुर्व सदस्यों से पूछताछ की। 19 नवंबर 2010 को सेंट्रल ब्यूरो अाॅफ़ इनवेस्टिजेषन ने कोर्ट के सामने अपराध के सिमसिमे में स्वामी असीमानंद को पेश किया गया। लेकिन बाद में उन्होंने अपनी गवाही से मूँह मोर लिया अौर उन पर दबाव बनाने का आरोप लगाया। हैदराबाद की स्पेशल इनवेस्टिगेषन टीम ने लश्करऐतैयबा के दक्शिन भारत के कमांडर को गिरफ्त में लिया जिन्हें शैख अब्दुल खाजा के नाम से पहचाना गया। पुलिस ने कहा की आरोपी का मोहम्मद अब्दुल शहिद बिलाल के साथ संबंध है, धमाके से जुड़ा एक मुख्य संदिग्ध। दक्शिन एशिया आतंकवाद द्वार, रक्शा अध्ययन और विश्लेषण संस्थान, अम्रिका के राष्ट्रिय आतंकवाद विरोधी सेंटर अौर युनाईटेड नेशन्स ने, किसी भी हिन्दू संगठन को छोड़कर, खबर दी की हरकथऊलजीहाद अलईस्लामी का असल में धमाके में हाथ था। इसको ध्यान में रखते हुए, रक्शा विश्लेषक बहूकुतंब रमण ने दो अलगअलग संस्करणों पर सवाल उठाए। दक्शिन एशिया आतंकवाद द्वार ने विकार अहमद को मुख्य संदिग्ध घोषित कराया। मोहम्मद अब्दुल शहिद बिलाल, जिसे धमाके से जुड़ा एक मुख्य संदिग्ध माना जाता है, बाध में अंजान बंदूकधारियों द्वारा करांची में 30 अगस्त 2007 को मारे गए। अम्रिकी कांग्रेस की रिपोर्ट में हिन्दू अातंकवाद के बढ़ते संकेत पर चिंता जताई थी। पाकिस्तानी तालिबान ने युनाईटेड नेशन्स और अमेरिका को कश्मीर में भाजपा द्वारा प्रायोजित राज्य आतंकवाद को रोकने को कहा नहीं तो कश्मीर पर हमला करने की धमकी दी। पत्रकार बलबिर पुंज ने भगवा आतंकवाद को एक मिथ्या करार किया है और इसे भारतीय जंता पार्टी को आतंकी करार करने के लिए, इंडियन नेशनल कांग्रेस का एक आविश्कार बताया है। पंडित श्री श्री रविशन्कर ने भगवा आतंकवाद को हिन्दू धर्म के प्रति अपमानजनक बताया क्योंकि हिन्दू धर्म सबसे सहिष्णु धर्म है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुसार आतंकवाद को भगवा रंग से रंगने की कोशिश की जा रही है।
मानवशास्त्र या नृविज्ञान मानव, उसके जेनेटिक्स, संस्कृति और समाज की वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन है। इसके अंतर्गत मनुष्य के समाज के अतीत और वर्तमान के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। सामाजिक नृविज्ञान और सांस्कृतिक नृविज्ञान के तहत मानदंडों और समाज के मूल्यों का अध्ययन किया जाता है। भाषाई नृविज्ञान में पढ़ा जाता है कि कैसे भाषा, सामाजिक जीवन को प्रभावित करती है। जैविक या शारीरिक नृविज्ञान में मनुष्य के जैविक विकास का अध्ययन किया जाता है। नृविज्ञान एक वैश्विक अनुशासन है, जिसमे मानविकी, सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञान को एक दूसरे का सामना करने के लिए मजबूर किया जाता है। मानव विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान के समेत मनुष्य उत्पत्ति, मानव शारीरिक लक्षण, मानव शरीर में बदलाव, मनुष्य प्रजातियों में आये बदलावों इत्यादि से ज्ञान की रचना करता है। सामाजिकसांस्कृतिक नृविज्ञान, संरचनात्मक और उत्तर आधुनिक सिद्धांतों से बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। एंथ्रोपोलाजी यानी नृतत्व विज्ञान की कई शाखाएं हैं। इनमें से कुछ हैं: इसका संबंध सामाजिकसांस्कृतिक व्यवहार के विभिन्न पहलुओं, जैसे समूह और समुदायों के गठन और संस्कृतियों के विकास से है। इसमें सामाजिकआर्थिक बदलावों, जैसे विभिन्न समुदायों और के बीच सांस्कृतिक भिन्नताओं और इस तरह की भिन्नताओं के कारणों विभिन्न संस्कृतियों के बीच संवाद भाषाओं के विकास, टेक्नोलाजी के विकास और विभिन्न संस्कृतियों क बीच परिवर्तन की प्रवृत्तियों का अध्ययन किया जाता है। इसमें प्रतिमाओं, हड्डियों, सिक्कों और अन्य ऐतिहासिक पुरावशेषों के आधार पर इतिहास का पुनर्निर्धारण किया जाता है। इस तरह के अवशेषों की खोज से प्राचीन काल के लोगों के इतिहास का लेखन किया जाता है और सामाजिक रीति रिवाजों तथा परम्पराओं का पता लगाया जाता है। पुरातत्व वैज्ञानिक इस तरह की खोजों से उस काल की सामाजिक गतिविधियों का भी विश्लेषण करते हैं। वे अपनी खोज के मिलान समसामयिक अभिलेखों या ऐतिहासिक दस्तावेजों से करके प्राचीन मानव इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं। इस शाखा का संबंध आदि मानवों और मानव के पूर्वजों की भौतिक या जैव विशेषताओं तथा मानव जैसे अन्य जीवों, जैसे चिमपैन्जी, गोरिल्ला और बंदरों से समानताओं से है। यह शाखा विकास श्रृंखला के जरिए सामाजिक रीति रिवाजों को समझने का प्रयास करती है। यह जातियों के बीच भौतिक अंतरों की पहचान करती है और इस बात का भी पता लगाती है कि विभिन्न प्रजातियों ने किस तरह अपने आप को शारीरिक रूप से परिवेश के अनुरूप ढाला. इसमें यह भी अध्ययन किया जाता है कि विभिन्न परिवेशों का उनपर क्या असर पड़ा. जैव या भौतिक नृतत्व विज्ञान की अन्य उप शाखाएं और विभाग भी हैं जिनमें और भी अधिक विशेषज्ञता हासिल की जा सकती है। इनमें आदि मानव जीव विज्ञान, ओस्टियोलाजी, पैलीओएंथ्रोपोलाजी यानी पुरा नृतत्व विज्ञान और फोरेंसिक एंथ्रोपोलाजी. इसमें नृतत्व विज्ञान की अन्य शाखाओं से प्राप्त सूचनाओं का उपयोग किया जाता है और इन सूचनाओं के आधार पर संतति निरोध, स्वास्थ्य चिकित्सा, कुपोषण की रोकथाम, बाल अपराधों की रोकथाम, श्रम समस्या के समाधान, कारखानों में मजदूरों की समस्याओं के समाधान, खेती के तौर तरीकों में सुधार, जनजातीय कल्याण और उनके जबरन विस्थापन भूमि अधिग्रहण की स्थिति में जनजातीय लोगों के पुनर्वास के काम में सहायता ली जाती है। इसमें मौखिक और लिखित भाषा की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन किया जाता है। इसमें भाषाओं और बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन की भी गुंजाइश है। इसके जरिए यह पता लगाया जाता है कि किस तरह सांस्कृतिक आदान प्रदान से विभिन्न संस्कृतियों भाषाओं पर असर पड़ा है और किस तरह भाषा विभिन्न सांस्कृतिक रीति रिवाजों और प्रथाओं की सूचक है। भाषायी नृतत्व विज्ञान सांस्कृतिक नृतत्व विज्ञान से घनिष्ठ रूप से संबद्ध है।
एक हिरण एक सर्विडे परिवार का रूमिनंट स्तनपायी जन्तु है। हिरण Cervidae परिवार के सदस्य हैं। एक मादा हिरण एक हरिणी कहा जाता है। एक पुरुष एक हिरन कहा जाता है। हिरण की प्रजातियों में से कई किस्में हैं। हिरण दुनिया भर के कई महाद्वीपों पर पाए जाते हैं। यह स्तनधारी प्रजातियों आमतौर पर वन निवास में रह पाया है। बक्स करने के लिए सींग है करते हैं। डो सींग का अधिकारी नहीं करते हैं। हिरण भी खुरों के अधिकारी।
निर्देशांक: 2509N 8527E 25.15N 85.45E 25.15 85.45 बेगूसराय बिहार प्रान्त का एक जिला है। बेगूसराय मध्य बिहार में स्थित है। 1870 ईस्वी में यह मुंगेर जिले के सबडिवीजन के रूप में स्थापित हुआ। 1972 में बेगूसराय स्वतंत्र जिला बना। बेगूसराय उत्तर बिहार में 2515 और 25 45 उतरी अक्षांश और 8545 और 8636 पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। बेगूसराय शहर पूरब से पश्चिम लंबबत रूप से राष्ट्रीय राजमार्ग स जुडा है। इसके उत्तर में समस्तीपुर, दक्षिण में गंगा नदी और लक्खीसराय, पूरब में खगडिया और मुंगेर तथा पश्चिम में समस्तीपुर और पटना जिले हैं। सबडिवीजनों की संख्या05प्रखंडों की संख्या18पंचायतों की संख्या257राजस्व वाले गांवों की संख्या1229कुल गांवों की संख्या1198नगर परिषद बीहटनगर पंचायत बखरी, बलिया और तेघड़ा 2001 की जनगणना के अनुसार इस जिले की जनसंख्या: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बेगूसराय की आबादी 33 लाख है। बेगूसराय की जनसंख्या वृद्धि दर 2.3 प्रतिशत वार्षिक है। इसकी जनसंख्या वृद्धि दर में उतारचढ़ाव होती रही है। बेगूसराय की कुल आबादी का 52 प्रतिशत पुरूष और 48 प्रतिशत महिलाएं है। यहां औसत साक्षरता दर 65 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय साक्षरता दर के करीब है। यहां महिला साक्षरता दर 41 प्रतिशत तथा पुरूष साक्षरता दर 51 प्रतिशत है। यहां की 15 प्रतिशत आबादी छह वर्ष के कम उम्र की है। बेगूसराय बिहार के औद्योगिक नगर के रूप में जाना जाता है। यहां मुख्य रूप से तीन बड़े उद्योग हैं इसके अलावा कई छोटेछोटे और सहायक उद्योग भी है। यहां कृषि उद्योगों की संभवना काफी ज्यादा है। बेगूसराय बिहार और देश के दूसरे भागों से सड़क और रेलमार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। नई दिल्लीगुवाहाटी रेलवे लाईन बेगूसराय होकर गुजरती है। बेगूसराय से पांच किलोमीटर की दूरी पर ऊलाव में एक छोटा हवाई अड्डा भी है, जहां नगर आने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों का आगमन होता है। बरौनी जंक्शन से दिल्ली, गुवाहाटी, अमृतसर, वाराणसी, लखनऊ, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता आदि महत्वपूर्ण शहरों के लिए गाड़िया चलती हैं। बेगूसराय में अठारह रेलवे स्टेशन हैं। जिले का आंतरिक भाग सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। गंगानदी पर बना राजेंद्र पुल उत्तर और दक्षिण बिहार को जोड़ता है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 और 31 बेगूसराय से होकर गुजरती है। जिले में इस मार्ग की कुल लंबाई 95 किलोमीटर है। जिले में राजकीय मार्ग की कुल लंबाई 295 किलोमीटर है। जिले के 95 प्रतिशत गांव सड़कों से जुड़े हुए हैं। बेगूसराय हमारे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि है। उन्हीं के नाम पर नगर का टाउन हॉल दिनकर कला भवन के नाम से जाना जाता है। यहां आकाश गंगा रंग चौपाल बरौनी ,द फैक्ट रंगमंडल जैसी कई प्रमुख नाट्यमंडलियां हैं जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पास आउट गणेश गौरव और प्रवीण गुंजन लगातार कला और साहित्य के लिए प्रतिबद्ध हैं । जहां गणेश गौरव सुदूर देहात के क्षेत्रों में रंग कार्यशाला लगाकर रंगकर्म और कला साहित्य की नई पीढ़ी तैयार करने में लगे हैं । जिले के दिनकर भवन में लगातार नाटकों और कला से जुड़े विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रदर्शन किया जाता रहा है । प्रतिवर्ष राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव रंग संगम, रंग माहौल, आशीर्वाद नाट्य महोत्सव आदि का आयोजन किया जाता है । जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के कलाकारों ने अपनी बेहतरीन प्रस्तुति देते हैं । यहां की संस्कृति, साहित्य को बढ़ावा देने में लब्धप्रतिष्ठ कवि अशांत भोला, रंगमंच के अनिल पतंग, कार्टूनिस्ट सीताराम, अमिय कश्यप, व्यंग्यकार अजय कुमार बंटी, कवि दीनानाथ सुमित्र,युवा कवि डॉ अभिषेक कुमार, युवा कवि नवीन कुमार, कवि प्रफुल्ल मिश्र, युवा कवित्री सीमा संगसार ,समाँ प्रवीण, का नाम उल्लेखनीय है। बेगूसराय जिले के सभी महाविद्यालय ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा से संबद्ध हैं। यहां के महत्वपूर्ण महाविद्यालयों में श्री श्री 108 महंथ रामजीवन दास महाविद्यालय, गणेश दत्त महाविद्यालय, एसबीएसएस कॉलेज, महिला कॉलेज आदि हैं। अहम विद्यालयों में जे.के. इंटर विधालय. बीएसएस इंटर कॉलेजिएट हाईस्कूल, बीपी हाईस्कूल,श्री सरयू प्रसाद सिंह विद्यालय विनोदपुर, सेंट पाउल्स स्कूल, डीएवी बरौनी, बीआर डीएवी, केवी आईओसी, डीएवी इटवानगर,सुह्रद बाल शिक्षा मंदिर, साइबर स्कूल, जवाहर नवोदय विद्यालय, न्यू गोल्डेन इंग्लिश स्कूल,विकास विद्यालय आदि। कुल क्षेत्र1,87,967.5 हेक्टेयर कुल सिंचित क्षेत्र74,225.57 हेक्टेयरस्थायी सिंचित6384.29 हेक्टेयरमौसमी सिंचित4866.37 हेक्टेयरवन्यभूमि0 हेक्टेयरबागवानी आदि5000 हेक्टेयरखरीफ22000 हेक्टेयररबी 10000 हेक्टेयरगेहूं61000 हेक्टेयरजलक्षेत्र और परती2118सिंचाई का मुख्य साधनट्यूबवेल बेगूसराय जिला गंगा के समतल मैदान में स्थित है। यहां मुख्य नदियांबूढ़ी गंडक, बलान, बैंती, बाया और चंद्रभागा है। कावर झील एशिया की सबसे बडी मीठे जल की झीलों में से एक है। यह पक्षी अभयारण्य के रूप में प्रसिद्ध है। आर्थिक महत्व का कोई खनिज नहीं है। बेगूसराय में कोई वन नहीं है। लेकिन आम, लीची, केले, अमरूद, नींबू के कई उद्यान हैं। कई जगहों पर अच्छी बागवानी है। चकमुजफ्फर और नावकोठी गांव केले के लिए मशहूर है। यहां जंगली पशु देखने को शायद ही मिलते हैं, लेकिन कावरझील में विविध प्रकार की पक्षियां मिलती हैं। हाल ही में खोज से पता चला है कि गंगा के बेसिन में पेट्रोलियम या गैस के भंडार हैं। बेगूसराय बिहार और देश के दूसरे भागों से सड़क और रेलमार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। नई दिल्लीगुवाहाटी रेललाइन बेगूसराय से गुजरती है। उलाव में एक छोटा सा हवाई अड्डा है, जो बेगूसराय जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर है। इस हवाई अड्डे का इस्तेमाल महत्वपूर्ण व्यक्तियों के शहर आगमन के लिए होता है। बेगूसराय में रेलवे की बड़ी लाइन की लंबाई 119 किलोमीटर और छोटी लाइन की लंबाई 67 किलोमीटर है। बरौनी रेलवे जंक्शन का पूर्वमध्य बिहार में अहम स्थान है। यहां से दिल्ली, गुवाहाटी, अमृतसर, वाराणसी, लखनऊ, मुंबई, चेन्नई, बैंगलोर आदि जगहों के लिए ट्रेने खुलती है। गंगा नदी पर राजेंद्र पुल उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार को जोड़ता है। बेगूसराय जिले में कुल अठारह रेलवे स्टेशन है। जिले का आंतरिक भाग मुख्य सड़कों से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 और 31 इस जिले को देश के दूसरे भागों से जोड़ता है। जिले में राजमार्ग की लंबाई पचानवे किलोमीटर है, जबकि राजकीय पथ की लंबाई 262 किलोमीटर है। जिले के 95 प्रतिशत गांव सड़क से जुड़े हुए हैं। शहर में कई अच्छे अच्छे होटल हैं। सन्दर्भ त्रुटि: साहित्य नामक सन्दर्भसमूह के लिए टैग मौजूद हैं, परन्तु समूह के लिए कोई टैग नहीं मिला। यह भी संभव है कि कोई समाप्ति टैग गायब है।
बयकाल झील दुनिया की सब से प्राचीन और गहरी झील है। यह झील 3 करोड़ वर्ष से लगातार बनी हुई है और इसकी औसत गहराई 744.4 मीटर है। हालाँकि कैस्पियन सागर विश्व की सबसे ज़्यादा पानी वाली झील है, बयकाल का स्थान दुसरे नंबर पर आता है। क्योंकि कैस्पियन का पानी खारा है, इसलिए बयकाल दुनिया की सब से बड़ी मीठे पानी की झील है। अगर बर्फ़ में जमे हुए पानी और ज़मीन के अन्दर बंद हुए पानी को अलग छोड़ दिया जाए, तो दुनिया की सतह पर मौजूद 20% मीठा पानी इसी एक झील में समाया हुआ है। बयकाल झील रूस के साइबेरिया क्षेत्र के दक्षिण भाग में, रूस के दो राज्यों की सीमा पर स्थित है। इस झील को यूनेस्को ने विश्व की अनूठी प्राकृतिक विरासतों की सूची में शामिल कर रखा है। इस झील की लम्बाई 636 किलोमीटर है और इस झील में दुनिया में उपस्थित कुल पीने लायक पानी का पाँचवा हिस्सा और रूस में उपस्थित कुल पीने लायक पानी का 90% हिस्सा सुरक्षित है। इस झील में पाए जान वाले बहुतसे जीव और बहुतसी वनस्पतियाँ दुनिया भर में किसी अन्य जलाशय में नहीं पाए जाते। बयकाल की सबसे अधिक गहराई 1,642 मीटर है और इसका पानी विश्व की सब झीलों में साफ़ माना जाता है। इस झील का अकार एक पतले, लम्बे नए चाँद की तरह है।
निर्देशांक: 253640N 850838E 25.611N 85.144E 25.611 85.144 दिघवामहादेवपुर मसौढी, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है।
राजगाँवअराजी पीरपैंती, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है।
सियाचिन पर्वतमाला अथवा सियाचिन मुज़ताग़ काराकोरम पर्वतमाला की सुदूर पूर्वी उपश्रेणी है। इसका लगभग 60% भाग चीन द्वारा नियंत्रित क्षेत्र में है तथा 40% क्षेत्र भारत द्वारा नियंत्रित क्षेत्र में। यह सियाचिन मुज़ताग़ के उन पर्वतों की सूची है, जो 7,200 मीटर से ऊँचे हैं और 500 मीटर से अधिक की स्थलाकृतिक उदग्रता रखते हैं। इस से कम उदग्रता रखने वाले शिखर स्वतंत्र पर्वत नहीं माने जाते बल्कि आसपास के अन्य पर्वतों के ही शिखर माने जाते हैं ।
निर्देशांक: 848N 7636E 8.80N 76.6E 8.80 76.6कोल्लम भारतीय राज्य केरल का एक जिला है। इसका मुख्यालय है कोल्लम शहर। क्षेत्रफल 2491 वर्ग कि.मी. जनसंख्या 25,85,208
अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय भोपाल में स्थित एक विश्वविद्यालय है। 6 जून 2013 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने इसकी की आधारशिला रखी। यह विश्वविद्यालय तकनीकी, चिकित्सा, कला और वाणिज्य से जुड़े विषयों की शिक्षा प्रदान करेगा। मध्यप्रदेश और भारतवासियों के स्वभाषा और सुभाषा के माध्यम से ज्ञान की परम्परागत और आधुनिक विधाओं में शिक्षणप्रशिक्षण की व्यवस्था और हिन्दी को गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिये मध्य प्रदेश सरकार द्वारा इसकी स्थापना 19 दिसम्बर 2011 को की गयी। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रबल पक्षधर रहे हैं। इसीलिये इस विश्वविद्यालय का नाम उनके नाम पर रखा गया। भोपाल चूँकि भारतवर्ष के केन्द्र में स्थित है अत: इस विश्वविद्यालय को वहाँ स्थापित किया गया। इस विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य हिन्दी भाषा को अध्यापन, प्रशिक्षण, ज्ञान की वृद्धि और प्रसार के लिये तथा विज्ञान, साहित्य, कला और अन्य विधाओं में उच्चस्तरीय गवेषणा हेतु शिक्षण का माध्यम बनाना है। यह विश्वविद्यालय मध्य प्रदेश में हिन्दी माध्यम से ज्ञान के सभी अनुशासनों में अध्ययन, अध्यापन एवं शोध कराने वाला प्रथम विश्वविद्यालय है। यहाँ विद्यार्थियों के लिये प्रशिक्षण, प्रमाणपत्र, पत्रोपाधि, स्नातक, स्नातकोत्तर, एम॰फिल॰, पीएच॰डी॰, डी॰लिट॰ व डी॰एससी॰ जैसे अनेक उपाधि कार्यक्रम प्रस्तावित हैं। 30 जून 2012 को प्रो॰ मोहनलाल छीपा इस विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति नियुक्त किये गये। इससे पूर्व वे महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर के कुलपति थे। भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 6 जून 2013 को भोपाल के ग्राम मुगालिया कोट में विश्वविद्यालय भवन का शिलान्यास किया। विश्वविद्यालय का भवन 50 एकड़ में बनेगा। अगस्त 2013 से विश्वविद्यालय ने शिक्षण कार्य प्रारम्भ भी कर दिया है। वर्तमान में प्रो.रामदेव भारद्वाज इस विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति हैं दिनांक 8032017 को अंतरराष्ट्रिय महिला दिवस के मौके पर विकिपीडिया की टीम के द्वारा कार्य शाला का आयोजन किया गया। विश्वविद्यालय का प्रथम दीक्षांत समारोह दिनांक 18 अप्रैल 2017 ,विक्रम संवत 2074,वैशाख कृष्ण ,सप्तमी को सम्पन्न हुआ। समारोह की अध्यक्षता श्री ओम प्रकाश कोहली जी महामहीम राज्यपाल मध्यप्रदेश ने की।सारस्वत अतिथि श्री सीताशरण शर्मा जी,मध्यप्रदेश विधानसभा अध्यक्ष थे। मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे।श्री जयभान सिंह पवैया ,उच्च शिक्षा मंत्री मध्यप्रदेश ने दीक्षांत भाषण दिया। विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य हिन्दी भाषा को अध्ययन, प्रशिक्षण, ज्ञान की वृद्धि और प्रसार के लिये तथा विज्ञान साहित्य, कला व अन्य विधाओं में उच्चस्तरीय गवेषणा हेतु शिक्षण का माध्यम बनाना है। उपर्युक्त उद्देश्य की व्यापकता को प्रभावित किये बिना विश्वविद्यालय के निम्नलिखित उद्देश्य होंगे: उपयोग, सूचना प्रौद्योगिकी और रोजगारकौशल का उपयोग संचालित करना। विश्वविद्यालय का उद्देश्य ऐसी युवा पीढ़ी का निर्माण करना है जो समग्र व्यक्तित्व विकास के साथ रोजगार, कौशल व चारित्रिक दृष्टि से विश्वस्तरीय हो। विश्वविद्यालय ऐसी शैक्षिक व्यवस्था का सृजन करना चाहता है जो भारतीय ज्ञान परम्परा तथा आधुनिक ज्ञान में समन्वय करते हुए छात्रों, शिक्षकों एवं अभिभावकों में ऐसी सोच विकसित कर सके जो भारत केन्द्रित होकर सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण को प्राथमिकता दे। विश्वविद्यालय ने अपने आपको एक ऐसे भारत राष्ट्र के लिए समर्पित किया हैं जो समय से पहले सोचते हुए पूर्ण आत्मसम्मान के साथ विश्व के राष्ट्रों की बिरादरी में अपनी भूमिका का निर्वाह कर सके। सम्भावनाओं की तलाश और नवीन सम्भावनाओं के निर्माण का भागीरथ प्रयत्न करते हुए अपनी क्षमता से पूरा करने का विश्वास ही उसका सम्बल होगा। इसके अतिरिक्त एक ऐसे शिक्षातन्त्र की रचना भी की जायेगी जो जनताजनार्दन की आवश्यकताओं के अनुकूल तकनीक का निर्माण करे न कि ऐसी पद्धति जो विश्व की महाशक्तियों के लिये केवल तकनीकीकुली ही तैयार करे। इस विश्वविद्यालय का नाम भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी पर रखा गया है। श्री वाजपेयी एक वरिष्ठ राष्ट्रीय राजनेता, उत्कृष्ट सांसद, प्रखर विद्वान तथा प्रभावशाली चिंतक थे। उन्होंने बहुत सी उत्कृष्ट तथा स्मरणीय कविताएं लिखी हैं। उनकी रचनाओं ने हिन्दी भाषा को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उल्लेखनीय है कि श्री वाजपेयी संयुक्त राष्ट्र में पहली बार हिन्दी में भाषण देकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को नई ऊंचाईयों पर स्थापित करने के लिए जाने जाते हैं। इस केन्द्र के निम्नलिखित उद्देश्य हैं इस केन्द्र में चार परिसर होंगे । वाणिज्य एवं प्रबंधन विभाग में निम्न पाठ्यक्रम संचालित हैं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम स्नातक पाठ्यक्रम अर्थशास्त्र विभाग में निम्न पाठ्यक्रम संचालित हैं। पुस्तकालय विज्ञान विभाग में संचालित पत्रोपाधि पुस्तकालय एवं सुचना विज्ञान पर एक वर्षीय पाठ्यक्रम है। इस पाठ्यक्रम में दो सेमेस्टर होंगे, प्रत्येक सेमेस्टर में चार प्रश्नपत्र होंगे यानि दो सेमेस्टरमें छात्र को आठ प्रश्नपत्र देने होंगे। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य छात्रों को पुस्तकालय विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों से और सूत्रों से अवगत कराना है। वर्तमान ज्ञान समाज में निरंतर बदलते हुए शैक्षणिक,आर्थिक,तकनिकी, और सामाजिक वातावरण के अनुरूप पुस्तकालय के कार्य और उद्धेश्यों को समझने में छात्रों को सक्षम करना है। छात्रों को पुस्तकालयोंके प्रबंधन तकनिकी और प्रौधोगिकी के उपयोग में दक्ष करना है। अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, न्यू मीडिया के स्नातकोत्तर, स्नातक, स्नातक उपाधि के पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं। हमारे कई छात्र न्यूज चैनल और अखबारों में कार्य कर रहे हैं। आगामी योजना सांध्य कालीन पाठ्यक्रम शुरु करने की है। पत्रकारिता एवं जनसंचार क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूर्ण करने की दृष्टि से 01 जुलाई 2013 को इस विभाग की स्थापना की गई। सत्र 2014 15 में छात्रों की संख्या 16 है। विभागीय पुस्तकालय में 08 पुस्तकें पत्रकारिता से संबंधित उपलब्ध हैै।इस विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. रेखा रॉय है।
जगतपुरा तेतिहाबम्बोर, मुंगेर, बिहार स्थित एक गाँव है।
केशोपुर, इलाहाबाद इलाहाबाद जिले के इलाहाबाद प्रखंड का एक गाँव है। केशोपुर उत्तर प्रदेश राज्य, भारत के इलाहाबाद जिले में कौरहर तहसील का एक ग्राम है। यह इलाहाबाद डिवीजन के अंतर्गत आता है। यह जिला मुख्यालय इलाहाबाद से 20 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम की ओर स्थित है। कौरहर से 13 किलोमीटर दूर राज्य की राजधानी लखनऊ से 200 कि.मी.। भीखमपुर मैदावा, जंका, मर्दनपुर, मनोरी, अकबरपुर सल्लहपुर, केशपुर से पास के गांव हैं। केशोपुर कौरहर तहसील से लेकर उत्तर की ओर, नेवादा तहसील पश्चिम की ओर, पश्चिम में मुरतगंज तहसील, पूर्वी इलाहाबाद इलाहाबाद तहसील से घिरा हुआ है। इलाहाबाद, लाल गोपालगंज, निंदौर, फूलपुर, चित्रकूट शहर के पास काशोपुर के निकट हैं। यह स्थान इलाहाबाद जिले और कौशम्बी जिले की सीमा में है। कौशंबी जिला चेल पश्चिम की ओर है।
अल्बानिया पर इतालवी आक्रमण अल्बानियाई किंगडम के खिलाफ इटली के राज्य द्वारा एक संक्षिप्त सैन्य अभियान था। संघर्ष इतालवी तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी की साम्राज्यवादी नीतियों का परिणाम था। अल्बानिया तेजी से कुचल दिया गया, उसके शासक, राजा जोग को निर्वासन में भेज किया गया, और देश इतालवी शासन के साथ निजी संघ में एक अलग राज्य के रूप में इतालवी साम्राज्य का हिस्सा बना दिया गया।
एक केंद्रीय बैंक, रिजर्व बैंक, या मौद्रिक प्राधिकरण एक सफल हुआ है कि एक संस्था है कि राज्य की मुद्रा, पैसे की आपूर्ति, और ब्याज दरों। सेंट्रल बैंक भी आम तौर पर निगरानी वाणिज्यिक बैंकिंग प्रणाली अपनेअपने देशों की। एक वाणिज्यिक बैंक के विपरीत, एक केंद्रीय बैंक एक के पास एकाधिकार बढ़ाने पर मौद्रिक आधार राज्य में, और आमतौर पर यह भी राष्ट्रीय मुद्रा प्रिंट आम तौर पर राज्य के रूप में कार्य करता है जो कानूनी निविदा। एक केंद्रीय बैंक का प्राथमिक कार्य देश की मुद्रा आपूर्ति, ब्याज दरों, सेटिंग आरक्षित आवश्यकता है, और एक के रूप में अभिनय अंतिम उपाय के ऋणदाता के लिए बैंकिंग क्षेत्र बैंक दिवालियेपन के समय के दौरान या वित्तीय संकट। सेंट्रल बैंक आम तौर पर भी रोकने का इरादा पर्यवेक्षी शक्तियों है, बैंक रन और वाणिज्यिक बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों लापरवाह या धोखाधड़ी के व्यवहार में संलग्न है कि जोखिम को कम करने के लिए। सबसे विकसित देशों में केंद्रीय बैंकों संस्थागत राजनीतिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र होने के लिए तैयार कर रहे हैं। फिर भी, कार्यकारी और विधायी निकायों द्वारा सीमित नियंत्रण आम तौर पर मौजूद है। एक राष्ट्र के लिए मौद्रिक प्रणाली की देखरेख के लिए जिम्मेदार इकाई। केंद्रीय बैंकों की देखरेख से, जिम्मेदारियों की एक विस्तृत श्रृंखला है कि मौद्रिक नीति में इस तरह के मुद्रा स्थिरता, कम मुद्रास्फीति और के रूप में विशिष्ट लक्ष्यों को लागू करने के लिए पूर्ण रोजगार। केंद्रीय बैंकों ने भी आम तौर पर, सरकार के बैंक के रूप में मुद्रा, समारोह मुद्दा क्रेडिट प्रणाली को विनियमित, देखरेख वाणिज्यिक बैंकों, एक के रूप में मुद्रा भंडार और अभिनय का प्रबंधन अंतिम उपाय के ऋणदाता। केंद्रीय बैंक ने यह वाणिज्यिक बैंकों एक आपूर्ति की कमी को कवर नहीं कर सकते हैं जब धन के साथ अपनी अर्थव्यवस्था को उपलब्ध कराने के लिए जिम्मेदार है जिसका मतलब है कि अंतिम उपाय के ऋणदाता के रूप में वर्णित किया गया है। दूसरे शब्दों में, केंद्रीय बैंक में नाकाम रहने से देश की बैंकिंग प्रणाली को रोकता है। हालांकि, केंद्रीय बैंकों का प्राथमिक लक्ष्य अपने देशों के प्रदान करने के लिए है मुद्राओं को नियंत्रित करने से कीमतों में स्थिरता के साथ मुद्रास्फीति। एक केंद्रीय बैंक ने देश के नियामक प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है मौद्रिक नीति और संचलन में नोटों और सिक्कों की एकमात्र प्रदाता और प्रिंटर है। केंद्रीय बैंक ने यह भी पूरी तरह से किसी भी व्यावसायिक बैंकिंग हितों का विनिवेश किया जाना चाहिए। 17 वीं सदी से पहले सबसे ज्यादा पैसा था जिंस पैसा, आम तौर पर सोने या चांदी। हालांकि, व्यापक रूप से परिचालित और यूरोप और एशिया के दोनों में से कम से कम पांच सौ साल पहले मूल्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया भुगतान करने का वादा किया। सांग राजवंश, जबकि कागजी मुद्रा घूम आम तौर पर जारी करने के लिए पहली बार था युआन राजवंश प्रमुख घूम माध्यम के रूप में नोटों का उपयोग करने के लिए पहली बार था। 1455 में, को नियंत्रित करने के प्रयास में मुद्रास्फीति, सफल होने के मिंग राजवंश कागज पैसे का उपयोग समाप्त हो गया और चीनी व्यापार के ज्यादा बंद हुआ। मध्ययुगीन यूरोपीय शूरवीरों टमप्लर भुगतान करने के अपने वादे को व्यापक रूप से सम्मानित किया गया, के रूप में एक केंद्रीय बैंकिंग प्रणाली का एक प्रारंभिक प्रोटोटाइप भाग गया, और कई आधुनिक बैंकिंग प्रणाली के लिए आधार रखी होने के रूप में उनकी गतिविधियों के संबंध में। सीधे परिवर्तनीय नहीं की पेशकश खातों सिक्का के लिए करने के लिए पहली बार सार्वजनिक बैंक के रूप में, एम्स्टर्डम के बैंक 1609 में स्थापित आधुनिक केंद्रीय बैंकों के अग्रदूत माना जाता है। स्वीडन के केंद्रीय बैंक बस 1664 में असफल बैंक स्टॉकहोम बैंको के अवशेष से स्टॉकहोम में स्थापित किया गया और संसद। स्वीडिश केंद्रीय बैंक के एक भूमिका सरकार के लिए पैसे उधार था। ] आज केंद्रीय बैंक वित्त की देश के मंत्रालय की ओर से सरकार के स्वामित्व में है लेकिन अलगअलग है। केंद्रीय बैंक अक्सर सरकार की बैंक कहा जाता है, हालांकि यह खरीद और सरकारी बांड और अन्य उपकरणों की बिक्री संभालती है, क्योंकि राजनीतिक निर्णयों केंद्रीय बैंक परिचालनों को प्रभावित नहीं करना चाहिए। बेशक, सेंट्रल बैंक और सत्तारूढ़ शासन के बीच के रिश्ते की प्रकृति देश से देश के भिन्न होता है और समय के साथ विकसित करने के लिए जारी है। एक देश की मुद्रा की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए, केंद्रीय बैंक बैंकिंग और मौद्रिक प्रणाली में नियामक और अधिकार होना चाहिए। 1) मुद्रा के मुद्दा केंद्रीय बैंक मुद्रा और ऋण की मात्रा पर नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए मुद्रा जारी करने का एकमात्र एकाधिकार दिया जाता है। इन नोटों कानूनी निविदा धन के रूप में देश भर में प्रसारित। यह सोने और यह द्वारा जारी किए गए नोटों के खिलाफ वैधानिक नियमों के अनुसार विदेशी प्रतिभूतियों के रूप में एक आरक्षित रखने के लिए है। यह भारतीय रिजर्व बैंक के एक रुपये का नोट को छोड़कर भारत के सभी नोटों के जारी करता है कि ध्यान दिया जा सकता है। फिर, यह एक रुपये के नोट और छोटे सिक्के सरकार टकसालों से जारी किए गए हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देशों के तहत है। एक देश की केंद्र सरकार ने केंद्रीय बैंक से पैसे उधार लेने के लिए आम तौर पर अधिकृत किया गया है, याद रखें। केंद्र सरकार के व्यय सरकारी राजस्व से अधिक है और सरकार अपने खर्च को कम करने में असमर्थ है, तो यह भारतीय रिजर्व बैंक से उधार लेता है। इस उद्देश्य के लिए नई करेंसी नोटों बनाता है जो आरबीआई के लिए सुरक्षा बिल की बिक्री से किया जाता है। इस बजट घाटा या घाटे की वित्त व्यवस्था के मुद्रीकरण कहा जाता है। सरकार नई मुद्रा खर्च करता है और अपने व्यय को पूरा करने के संचलन में डालता है। 2) सरकार को बैंकर सरकारदोनों केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक बैंकर के रूप में सेंट्रल बैंक कार्य करता है। यह सरकार के सभी बैंकिंग कारोबार किया जाता है। सरकार ने केंद्रीय बैंक के साथ चालू खाते में उनकी नकदी शेष रहता है। इसी तरह, केंद्रीय बैंक प्राप्तियों को स्वीकार करता है और सरकारों की ओर से भुगतान करता है।इसके अलावा, केंद्रीय बैंक सरकार की ओर से आदानप्रदान, प्रेषण और अन्य बैंकिंग परिचालन किया जाता है। सेंट्रल बैंक के रूप में और जब आवश्यक हो, अस्थायी अवधि के लिए सरकारों को ऋण और अग्रिम देता है और यह भी देश के सार्वजनिक ऋण प्रबंधन करता है। केंद्र सरकार के बाद के लिए अपनी रुपए प्रतिभूतियों की बिक्री से भारतीय रिजर्व बैंक से पैसे की कोई राशि उधार ले सकते हैं, याद रखें। 3) बैंकर बैंक और पर्यवेक्षक एक ऐसे देश में बैंकों के सैकड़ों आम तौर पर कर रहे हैं। विनियमित करने और उनकी समुचित कार्य की निगरानी के लिए कुछ एजेंसी होनी चाहिए। यह कर्तव्य केंद्रीय बैंक द्वारा छुट्टी दे दी है। केंद्रीय बैंक तीन क्षमताओं में बैंकरों के बैंक के रूप में कार्य करता है: यह अपने नकदी भंडार का संरक्षक है। देश के बैंकों को केंद्रीय बैंक के साथ अपने जमा का एक निश्चित प्रतिशत रखने के लिए आवश्यक हैं और इस तरह से केंद्रीय बैंक वाणिज्यिक बैंकों की नकदी भंडार का अंतिम धारक है। केन्द्रीय बैंक अंतिम उपाय के ऋणदाता है। बैंकों को धन की कमी है, जब भी वे केंद्रीय बैंक से कर्ज लेते हैं और उनके व्यापार बिल रियायती प्राप्त कर सकते हैं। केंद्रीय बैंक ने बैंकिंग प्रणाली के लिए महान शक्ति का स्रोत है। यह केंद्रीय निकासी, बस्तियों और तबादलों के एक बैंक के रूप में कार्य करता है। इसकी नैतिक अनुनय अब तक वाणिज्यिक बैंकों का सवाल है आम तौर पर बहुत प्रभावी है। 4) क्रेडिट और पैसे की आपूर्ति की नियंत्रक केंद्रीय बैंक दो भागोंमुद्रा और ऋण के होते हैं जो अपनी मौद्रिक नीति के माध्यम से ऋण और मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करता है। केंद्रीय बैंक मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित कर सकते हैं, जिससे नोट्स जारी करने और का एकाधिकार है।केंद्रीय बैंक के ऋण नियंत्रण समारोह का मुख्य उद्देश्य पूर्ण रोजगार के साथसाथ कीमतों में स्थिरता है। यह धारा 8.25 के रूप में चर्चा मात्रात्मक और गुणात्मक उपायों को अपनाकर ऋण और मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करता है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ऋण नियंत्रण के तीन मात्रात्मक उपायों के बाद तैयार संदर्भ के लिए याद किया जाता है। यह केंद्रीय बैंक वाणिज्यिक बैंकों को उधार देता है, जिस पर ब्याज की दर है। यह उधार लेने का एक तरीका है, लागत में है। प्रिय पैसे हतोत्साहित जबकि सस्ते ऋण निवेश को बढ़ावा देता है। अतिरिक्त मांग और मुद्रास्फीति के दबाव की स्थिति में, केंद्रीय बैंक बैंक दर बढ़ जाती है। उच्च बैंक दर बढ़ाने के लिए वाणिज्यिक बैंकों को मजबूर करता है, बारी में, ब्याज की दर क्रेडिट प्रिय बनाता है। नतीजतन, ऋण और अन्य उद्देश्यों के लिए मांग गिर जाता है। इस प्रकार, केंद्रीय बैंक द्वारा बैंक दर में वृद्धि पर प्रतिकूल वाणिज्यिक बैंकों द्वारा ऋण सृजन को प्रभावित करता है। बैंक दर में कमी का विपरीत प्रभाव पड़ेगा। वर्तमान में, बैंक दर 7.75% है और रिवर्स रेपो दर 7.0% है। ये जनता और बैंकों को खरीदने और केंद्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री के लिए देखें। इस देश में मुद्रा की आपूर्ति को प्रभावित करने के लिए किया जाता है। मन, वाणिज्यिक बैंकों को सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री नकदी भंडार को कम कर देता है, जो केंद्रीय बैंक में धन का प्रवाह होता है। नतीजतन, वाणिज्यिक बैंकों की ऋण की उपलब्धता नियंत्रित कटौती की है। केंद्रीय बैंक प्रतिभूति खरीदता है, यह नकदी बैंकों का भंडार है और ऋण देने की क्षमता बढ़ जाती है। वाणिज्यिक बैंकों नकदी भंडार के रूप में केंद्रीय बैंक के साथ अपने कुल जमा का एक निश्चित प्रतिशत रखने के लिए कानून के तहत आवश्यक हैं। इस सीआरआर कहा जाता है। यह बैंकों के ऋण और उधार देने की क्षमता को नियंत्रित करने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है। वर्तमान में, सीआरआर 4.0% है। बैंकों की ऋण देने की क्षमता में कटौती करने के लिए, केंद्रीय बैंक सीआरआर उठाती है, लेकिन यह बैंक की शक्तियां देने क्रेडिट बढ़ाने के लिए चाहता है, यह सीआरआर कम कर देता है। इसी तरह, कानूनी आरक्षित अनुपात नामक एक और उपाय है दो घटकोंसीआरआर और एसएलआर है जो। सांविधिक चलनिधि अनुपात या एसएलआर के अनुसार, हर बैंक कैश बुलाया तरलता अनुपात में अपनी संपत्ति का एक निश्चित प्रतिशत रखने के लिए आवश्यक है। एसएलआर ऋण देने के लिए बैंकों की क्षमता को कम करने के लिए उठाया गया है। अर्थव्यवस्था में स्थिति क्रेडिट के विस्तार की मांग है लेकिन जब एसएलआर कम हो जाता है। एक केंद्रीय बैंक की एक और कर्तव्य मुद्रा के बाह्य मूल्य बनाए रखा है कि वहाँ के लिए है। उदाहरण के लिए भारत में, भारतीय रिजर्व बैंक ने एक रुपये के बाह्य मूल्य सुनिश्चित करने के लिए कदम उठा लेता है। यह इस वस्तु को प्राप्त करने के लिए उपयुक्त उपायों को गोद ले। विदेशी मुद्रा नियंत्रण प्रणाली को ऐसे ही एक उपाय है।विदेशी मुद्रा नियंत्रण प्रणाली के तहत, भारत के हर नागरिक को भारतीय रिजर्व बैंक ने सभी विदेशी मुद्रा या वह प्राप्त करता है कि मुद्रा के साथ जमा करने के लिए है। और वह जरूरत हो सकती है जो कुछ विदेशी मुद्रा निर्धारित प्रपत्र में आवेदन करने से रिजर्व बैंक से सुरक्षित हो गया है। वाणिज्यिक बैंकों को तरलता संकट के समय में अपने धन के पूरक के लिए सभी संसाधनों को समाप्त कर दिया है, वे एक अंतिम उपाय के रूप में केंद्रीय बैंक के दृष्टिकोण। अंतिम उपाय के ऋणदाता के रूप में, केंद्रीय बैंक शोधन क्षमता की गारंटी देता है और विनिमय के अपने पात्र प्रतिभूतियों और बिल पुनर्भुनाई और द्वारा वाणिज्यिक बैंकों के वित्तीय आवास प्रदान करता है उनकी प्रतिभूतियों के खिलाफ ऋण उपलब्ध कराने के द्वारा। यह एक संभव टूटने से संभव विफलता और बैंकिंग प्रणाली से बैंकों की बचत होती है। दूसरी ओर, केंद्रीय बैंक, अस्थायी वित्तीय आवास उपलब्ध कराने के द्वारा, ढहने से देश के वित्तीय ढांचे को बचाता है। यह एक केंद्रीय बैंक विदेशी मुद्रा भंडार और देश की सोने की संरक्षक है कि ऊपर उल्लेख किया गया है। यह अपनी मुद्रा के बाह्य मूल्य पर कड़ी नजर रखता है और विनिमय प्रबंधन नियंत्रण चलाती है। नागरिकों द्वारा प्राप्त सभी विदेशी मुद्रा केंद्रीय बैंक के पास जमा हो गया है नागरिकों को विदेशी मुद्रा में भुगतान करने के लिए चाहते हैं, तो वे केंद्रीय बैंक के पास आवेदन करना होगा। केंद्रीय बैंक ने सोने और बुलियन भंडार रहता है। बैंकों वे अदाकर्ता बैंकों से महसूस करने के लिए है, जो अपने ग्राहकों से अन्य बैंकों पर जारी चेक प्राप्त करते हैं। इसी तरह, एक विशेष बैंक पर चेक खींचा और अदाकर्ता बैंकों से उन्हें साकार करने के लिए है, जो अन्य बैंकों के हाथों में पारित कर रहे हैं। प्रत्येक चेक करने के लिए स्वतंत्र और अलग प्राप्ति बैंकों हर दिन एक साथ आते हैं और उनके दावों से दूर स्थापित करने के लिए इसलिए, केंद्रीय बैंक समाशोधन यानी सुविधाएं, सुविधाएं प्रदान करता है, समय की एक बहुत ले और होगा। यह भी संग्रह और बैंकिंग और अर्थव्यवस्था के अन्य वित्तीय क्षेत्रों से संबंधित सांख्यिकीय जानकारी के संकलन का कार्य सौंपा गया है।
उल्लिपालॆं में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है।