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उर्वीम्- उरुशब्दात् स्त्रीप्रत्यये उर्वीशब्दः निष्पन्नः। | nan |
तस्य द्वितीयैकवचने उर्वीम् इति रूपम्। | nan |
यजुषा- यजुष्-शब्दस्य तृतीयैकवचने यजुषा इति रूपम्। | nan |
धृतदक्षा- धृतः दक्षः ययोस्तौ धृतदक्षौ इति बहुव्रीहिसमासः। | nan |
सम्बद्धौ प्रथमायाः द्विवचनस्य आकारः । | nan |
आसाथे- आस्-धातोः आत्मनेपदे लट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने आसाथे इति रूपम्। | nan |
अक्रविहस्ता सुकृते परस्पा यं त्रासाथे वरुणेळास्वन्तः। | nan |
राजाना क्षत्रमहणीयमाना सहस्रस्थूणं बिभृथः स॒ह द्दौ॥ | nan |
६॥ पदपाठः- अक्रविऽहस्ता। | nan |
सुऽकृते। | nan |
परःऽपा। | nan |
यम्। | nan |
त्रासाथे इति। | nan |
व॒रुणा। | nan |
इळासु। | nan |
राजाना। | nan |
क्षत्रम्। | nan |
अरह॑णीयमाना। | nan |
सहस्र॑ऽस्थूणम्। | nan |
बिभृथः। | nan |
युवां यम् इळासु अन्तः त्रासाथे सुकृते अक्रविहस्ता परस्पा। | nan |
राजाना अहणीयमाना द्वौ सह क्षत्रम् सहस्रस्थृणं विभृथः। | nan |
व्याख्या- अक्रविहस्ता अकृपणहस्तौ दानशूरावित्यर्थः। | nan |
कस्मै। | nan |
सुकृते शोभनस्तुतिकर्त्रे। | nan |
परस्पा परस्तात् पातारौ रक्षितारौ हे वरुणा मित्रावरुणौ युवां यं यजमानम् इळासु यागभूमिषु अन्तः मध्ये त्रासाथे रक्षथः तस्मै सुकृते अक्रविहस्ता परस्पा च भवथ इति सम्बन्धः। | nan |
किञ्च युवां राजाना राजमानौ अहृणीयमाना अक्रुध्यन्तौ द्वौ परस्परं सह साहित्येन क्षत्रं धनं सहस्रस्थूणम् अनेकसहस्रस्तम्भोपेतं सौधादिरूपं गृहं च बभृथः धारयथः। | nan |
सुकृते यजमानाय। | nan |
अथवा क्षत्रं बलम्,अपरिमिताभिः स्थूणाभिरुपेतं यज्ञभवनं, अथवा रथं च गमनार्थं सह धारयथः। | nan |
सरलार्थः- हे मित्रावरुणौ युवां यं यजमानं यज्ञभूमेः मध्यभागे रक्षथः, तं स्तुतिकारिणं यजमानं प्रति अकृपणहस्तौ तस्य पालनकारिणौ भवताम्। | nan |
हे राजानौ, युवां क्रोधहीनौ भूत्वा एकत्रीभूतशक्त्या सहस्रस्तम्भयुक्तस्थूणं धारयताम् । | nan |
अक्रविहस्ता- न क्रविः अक्रविः, अक्रवी हस्तौ ययोस्तौ अक्रविहस्तौ इति बहुव्रीहिः, सुपः डा आदेशः। | nan |
सुकृते- शोभनं करोति इति विग्रहे सुपूर्वककृ-धातोः क्विप्प्रत्यये सुकृत् इति शब्दः निष्पन्नः। | nan |
तस्य चतुर्थ्यकवचने सुकृते इति रूपम्। | nan |
अहृणीयमाना- हृणीङ्-धातोः शानच्प्रत्यये हृणीयमाना इति रूपम्। | nan |
न हृणीयमाना अहृणीयमाना इति नञ्समासः। | nan |
सहस्रस्थूणम्- सहस्रं स्थूणाः यस्य तं सहस्रस्थूणम् इति बहुव्रीहिसमासः । | nan |
विभृथः- भृ-धातोः परस्मैपदे लट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने विभृथः इति रूपम्। | nan |
हिर॑ण्यनिर्णिगयों अस्य स्थूणा वि भ्राजते दिव्यश्वाज॑नीव। | nan |
भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा स॒नेम मध्वो अधिगर्त्यस्य॥ | nan |
७ ।। पदपाठः- हिर॑ण्यनिर्णिक्। | nan |
अय॑:। | nan |
अस्य। स्थृणा। | nan |
वि। | nan |
भ्राजते। | nan |
दिवि। | nan |
भद्रे क्षेत्र। | nan |
निऽमिता। | nan |
तिल्विले। | nan |
वा। | nan |
स॒नेम। | nan |
मध्व॑:। | nan |
७॥ अन्वयः- हिरण्यनिर्णिक् अस्य स्थूणाः अयः, दिवि अश्वाजनीव विभ्राजते। | nan |
भद्रे क्षेत्रे तिल्विले वा निमिता, मध्वः गर्तस्य अधि सनेम। | nan |
व्याख्या- अनयोः रथौ हिरण्यनिर्णिक् हिरण्यरूपः। | nan |
तौ विद्युद्दीप इव प्रकाशेते। | nan |
अस्य रथस्य स्थूणा कीलकादयः हिरण्येन निर्मितम्। | nan |
हिरण्यनामैतत्। | nan |
अयोविकारा इत्यर्थः। | nan |
तादृशो रथो दिवि अन्तरिक्षे विभ्राजते। | nan |
किमिव। | nan |
अश्व इव। | nan |
अश्वा व्यापनशीला मेघाः। | nan |
तैः अश्वैः उत्पादितः विद्युत्। | nan |
वाशब्दश्चार्थे, तिल स्नेहने (धा० ६।७६, १०।७३)। | nan |
तिलुः स्निग्धा भूमिर्यस्य तत् क्षेत्रं तिल्विलं देवयजनम् इति कथ्यते। | nan |
घृतसोमादिना स्निग्धे भद्रे च क्षेत्रे निर्मिता स्थूणा यूपयष्टिरिव स्थितः। | nan |
रथाः मधुररूपेण सम्पूर्णवेगेन धावितवन्तः। | nan |
कर्मणि षष्ठी। | nan |
अधिपूरणमिति कथ्यते। | nan |
अथवा गर्तस्याधि रथस्योपरि मध्वः मधु सोमरसं सनेम स्थापयेमेत्यर्थः। | nan |
सरलार्थः- हिरण्यनिर्मिताः अनयोः रथस्य स्थूणाः लोहनिर्मिताः। | nan |
स रथः विद्युत् इव अन्तरिक्षलोके शोभितः भवति। | nan |
कल्याणकारके स्थाने अथवा देवपूजितस्थाने निश्चलस्तम्भ इव मधुमयरथस्योपरि सोमरसं स्थापयामः। | nan |
हिरण्यनिर्णिक्- हिरण्यस्य निर्णिक् इव निर्णिक् यस्य तत् हिरण्यनिर्णिक् इति बहुव्रीहिसमासः। | nan |
भ्राजते- भ्राज्-धातोः लट्-लकारे आत्मनेपदे प्रथमपुरुषैकवचने भ्राजते इति रूपम्। | nan |
निमिता- निपूर्वकमि-धातोः क्तप्रत्यये सुपः डादेशे च निमिता इति रूपम्। | nan |
अधिगर्त्यस्य- गर्ते इति अधिगर्तम् इति अव्ययीभावसमासः, अधिगर्ते भवः इति अधिगर्त्यः, तस्य अधिगर्त्यस्य । | nan |
हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयः स्थूणमुदिता सूर्यस्य आ रोहथो वरुण मित्र गर्तमतश्चक्षाथे अदितिं दितिँ च॥ | nan |
८॥ पदपाठः- हिर॑ण्यऽरूपम्। | nan |
उषस॑:। | nan |
विऽउष्टौ। | nan |
अय:ऽस्थूणम्। | nan |
उत्ऽइता। | nan |
सूर्यस्य आ। | nan |
रोहथः। | nan |
व॒रुण । | nan |
मित्रा । | nan |
गर्तम्। | nan |
अतः। | nan |
चक्षाथे इति। | nan |
अर्दितिम्। | nan |
दितिम्। | nan |
८॥ अन्वयः- वरुण मित्र उषसः व्युष्टौ सूर्यस्य उदिता हिरण्यरूपम् अयःस्थूणं गर्तम् आरोहथः। | nan |
अतः अदितिं दितिं च चक्षाथे। | nan |
व्याख्या- उषसः व्युष्टौ प्रातःकाले इत्यर्थः। | nan |
सूर्यस्य उदिता उदितावुदये। | nan |
स एव कालः प्रकारान्तरेणोक्तेः। | nan |
तस्मिन् काले हिरण्यरूपम् अयःस्थूणम् अयोमयशङ्कं गर्तं रथं हे वरुण हे मित्र युवां गर्तम् आरोहथः यज्ञं प्राप्नुम्। | nan |
अतः अस्माद्धेतोः अदितिम् अखण्डनीयां भूमिं दितिं खण्डितां प्रजादिकां च चक्षाथे पश्यथः। | nan |