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स्वसामर्थ्यवशात् इमां पृथिवीं स्वर्गं च धारयतः इमौ देवौ। | nan |
यजमानः प्रार्थयति यत् - हे क्षिप्रदातारौ! | nan |
भवन्तौ ओषधीन् गोसमूहान् च वर्धयताम्, वर्षणं च कुरुताम्। | nan |
निपुणतया रथे योजिताः भवतोः अश्वगणाः भवन्तौ वहन्तु इति। | nan |
जलसमूहः विग्रहं धारयित्वा मित्रावरुणयोः अनुसरणं करोति, किञ्च पुरातनाः नद्यः एनयोः अनुग्रहात् पुनः प्रवहन्ति। | nan |
यजमानः प्रार्थयति यत् - हे अन्नसम्पन्नौ बलशालिनौ मित्रावरुणौ! | nan |
भवन्तौ सुप्रसिद्धाः स्वशरीरप्रभाः वर्धयित्वा, मन्त्ररक्षितयज्ञवत् सम्पूर्णां पृथिवीम् इमां संरक्ष्य यज्ञभूमे: मध्यस्थे रथे आरोहणं कुरुताम् इति। | nan |
यज्ञभूमौ भवन्तौ यं यजमानं रक्षतः, शोभनस्तुतिकारिणं तं प्रति भवन्तौ दानशालिनौ भवताम्। | nan |
यतो हि भवन्तौ उभौ क्रोधविहीनौ सन्तौ धनं सहस्रस्तम्भसमन्वितं सौधं च धारयतः इति।। | nan |
मित्रावरुणयोः रथः सुवर्णनिर्मितः वर्तते। | nan |
अयं रथः अन्तरिक्षे विद्युत् इव शोभमानो वर्तते। | nan |
वयं यजमानाः यथा उपयुक्तस्थाने यूपयष्टिसमन्वितायां यज्ञभूमौ रथोपरि सोमरसं स्थापयितुं समर्थाः भवेम तादृशम् अनुग्रहं भवन्तौ कुरुताम् इति प्रार्थना | nan |
दानशीलौ विश्वरक्षकौ एतौ मित्रावरुणौ निरवरच्छिन्नसुखस्य प्रदाने समर्थौ। | nan |
प्रत्यूषसि मित्रावरुणौ सूर्योदयात् परं लोहकीलकसमन्वितसुवर्णरथे आरुह्य अदितिं दितिं च अवलोकेते। | nan |
मित्रावरुणौ निरवच्छिन्नस्य निरतिशयस्य च सुखस्य प्रदाने समर्थौ। | nan |
अतः यजमानः प्रार्थयति यत् - भवन्तौ अस्मभ्यं तादृशं सुखं प्रयच्छताम् इति। | nan |
अस्मिन् पाठे द्वे सूक्ते आलोचिते। | nan |
तयोः विष्णुसूक्तस्य सारादिकम् पूर्वार्ध विद्यते। | nan |
उत्तरार्थे तु मित्रावरुणसूक्तम् आलोचितम्। | nan |
अतः तस्य संक्षेपेण सारोऽत्र प्रदीयते। | nan |
आदिमसूक्तं मित्रावरुणसूक्तम्। | nan |
विश्वे भ्रातृत्वं कीदृशं भवितव्यमिति बोधयितुमेव प्रवृत्तमिदं सूक्तम्। | nan |
अत्र मित्रः प्राणान् रक्षयति वरुणश्च जलानि धारयति। | nan |
वरुणश्च जलधारकरूपेण अथवा वृष्टिकारकरूपेण प्रतिपादितः। | nan |
ऋग्वेदस्य ऐतरेयब्राह्मणग्रन्थानुसारेण मित्रः रात्रिरूपेण वरुणश्च दिनरूपेण प्रतिपादितौ। | nan |
अस्य मित्रावरुणसूक्तस्य आत्रेयः श्रुतिविद् ऋषिः, मित्रावरुणौ देवौ, त्रिष्टुप् छन्दः। | nan |
विष्णुसूक्तस्य सारं लिखत। | nan |
विष्णोर्नुकं वीर्याणि... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
प्रतद्विष्णुः... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
यस्य त्री पूर्णा... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
तदस्य प्रयमभि पाथो अश्याम्... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
ता वां वास्तून्युश्मसि... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
मित्रावरुणसूक्तस्य सारं लिखत। | nan |
ऋतेन ऋतमपिहितम्... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
अक्रविहस्ता सुकृते... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
आ वामश्वासः... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
यद्बंहिष्ठं नातिविधे... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। | nan |
पाठगतप्रश्नानाम् उत्तराणि ऋषि: दीर्घतमा औचथ्यः, छन्दः विराट् त्रिष्टुप्, देवता विष्णुः। | nan |
नु कम्। | nan |
व्यापनशीलः। | nan |
वीरकर्माणि। | nan |
विविधं निर्मितवान्। | nan |
लोकवाची। | nan |
त्रेधा। | nan |
कुत्सितहिंसादिकर्ता दुर्गमप्रदेशगन्ता वा। | nan |
अस्मत्कृत्यादिजन्यं बलं महत्त्वम्। | nan |
अधोवर्तीनि अतलवितलादिसप्तभुवनान्युपात्तानि। | nan |
धृतवान्। | nan |
त्रयाणां धातूनां समाहारः। | nan |
अन्तरिक्षम् | nan |
सर्वश्रुतिस्मृतिपुराणादिप्रसिद्धिद्योतनार्थः। | nan |
कामयामहे। | nan |
आत्रेयः श्रुतविद् ऋषिः, मित्रावरुणौ देवते, त्रिष्टुप् छन्दः। | nan |
ध्रुवम्। | nan |
आच्छादितम्। | nan |
उदकम्। | nan |
स्था-धातोः लिट्-लकारे प्रथमपुरुषबहुवचने। | nan |
सततगन्ता। | nan |
ङीप्। | nan |
पू-धातोः 'अच इः:' इति औणादिकसूत्रेण इप्रत्यये। | nan |
धे-धातोः। | nan |
जीरं दानू ययोस्तौ इति बहुव्रीहिसमासः। | nan |
क्षिप्रदानौ। | nan |
पिव्-धातोः। | nan |
अश्वाः। | nan |
धृ-धातोः णिचि लङ्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने। | nan |
निपूर्वकनिज्-धातोः क्विप्प्रत्यये प्रथमैकवचने। | nan |
पृथिवी। | nan |
यागभूमिषु। | nan |
धृतः दक्षः ययोस्तौ धृतदक्षौ इति बहुव्रीहिसमासः। | nan |
आस्-धातोः आत्मनेपदे लट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने। | nan |
अकृपणहस्तौ। | nan |
न क्रविः अक्रविः, अक्रवी हस्तौ ययोस्तौ अक्रविहस्तौ इति बहुव्रीहिः। | nan |
सहस्रं स्थूणाः यस्य तं सहस्रस्थूणम् इति बहुव्रीहिसमासः। | nan |
रूपनाम। | nan |
देवयजनस्थानम्। | nan |
तिलुः स्निग्धा इला भूमिर्यस्य तत् क्षेत्रम्। | nan |
गर्ते इति अधिगर्तम् इति अव्ययीभावसमासः, अधिगर्ते भवः इति अधिगर्त्यः। | nan |
शोभनदानौ। | nan |
बहुलतमम्। | nan |
सुखं गृहं वा। | nan |
ऋग्वेदे एकस्य प्रसिद्धदेवस्य स्तुतिं विधाय अभीष्टसिद्ध्यर्थं सः देवः प्रार्थ्यते। | nan |
एवं मानवानां सामाजिकदुर्व्यवहाराणां निराकरणाय सूक्तानां सङ्कलनं कृतम्। | nan |
यदा समाजे भोगविलासानां शक्तिः वर्धिता भवति तदा द्युतकार्यम् अपि वर्धते। | nan |
वैदिककालतः एव अक्षक्रीडा बहुप्रचलितसामाजिककुक्रीडा अस्ति। | nan |
ऋग्वेदस्य दशममण्डले चतुस्त्रिंशत्तमं सूक्तम् एनं विषयम् आधारीकृतवत्। | nan |
इदमेव अक्षसूक्तम् इति नाम्ना विख्यातम्। | nan |
अस्य सूक्तस्य ऐलूषकवषः ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, सप्तममन्त्रस्य जगती छन्दः, देवता च अक्षः ऋषिः। | nan |
अस्मिन् सूक्ते यत् मुख्यतया उक्तं तत् अक्षक्रीडा न करणीया तत्स्थाने कृषिकर्म इत्यादिकर्म कर्तव्यम्। | nan |
यथा मन्त्रे एव उक्तं- अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व इत्यादि। | nan |
एवं प्रकारेण सूक्तस्य माहात्म्यं प्रकटितम्। | nan |
अस्य पाठस्य पठनात् भवान् - अक्षसूक्तस्य संहितापाठं पदपाठम् अन्वयं व्याख्यां च पठिष्यति। अक्षक्रीडनस्य कुफलं भवान् ज्ञास्यति। अक्षक्रीडनात् किं किं त्यक्तं भवति तद् ज्ञास्यति। वैदिकशब्दान् ज्ञास्यति। वैदिकलौकिकशब्दयोः मध्ये भेदं ज्ञास्यति।अक्षक्रीडनस्य स्थाने किं करणीयम् इत्यपि अवगमिष्यति। | nan |
प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति प्रवातेजा इरिणे वर्वृतानाः। | nan |
सोम॑स्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान्॥ | nan |
१॥ न मां मिमेथ न जिंहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत्। | nan |
अक्षस्याहमेकपरस्य॑ हेतो- रनुव्रतामप जायामरोधम्॥ | nan |
२॥ द्वेष्टि श्वश्रूरप जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दते मर्डितार॑म्। | nan |
अश्वस्येव जर॑तो वस्न्य॑स्य नाहं विन्दामि कित॒वस्य भोर्ग॑म्॥ | nan |
३॥ अन्ये जायां परि मृशान्त्यस्य यस्यागृधद्वेदने वाज्यश्क्षः। | nan |