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पिता माता भ्रात॑र एन॑माहु-र्न जानीमो नय॑ता बद्धमेतम्॥ | nan |
यदादीध्ये न दविषाण्येभिः परायद्भ्योऽव हीये सखिभ्यः। | nan |
नयुप्ताश्च बभ्रवो वाचमक्रत एमीदेषां निष्कृतं जारिणीव॥ | nan |
५॥ सभामेति कितवः पृच्छमानो जेष्यामीति तन्वा शूशुजानः। | nan |
अक्षासाँ अस्य वि तिरन्ति कार्म प्रतिदीने दध॑त आ कृतानि॥ | nan |
अक्षास इद॑ङ्कुशिनो' नितोदिनो निकृत्वानस्तप॑नास्तापयिष्णवः। | nan |
कुमारदेष्णा जय॑तः पुनर्हणो मध्वा सम्पृक्ताः कित॒वस्य॑ ब॒र्हणा॥ | nan |
७॥ त्रिपञ्चाशः क्रीळति व्रात॑ एषां देव इव सविता स॒त्यध॑र्मा उग्रस्य॑ चिन्मन्यवे ना नम॑न्ते राजां चिदेभ्यो नम॒ इत्कृणोति॥ | nan |
८॥ नीचा वर्तन्त उपरि स्फुरन्त्यहस्तासो हस्त॑वन्तं सहन्ते। | nan |
दिव्या अङ्गारा इरिणे न्युप्ताः शीताः सन्तो हृद॑यं निर्दहन्ति॥ | nan |
९॥ जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चर॑तः क्व॑ स्वित्। | nan |
क्रणावा बिभ्यद्धनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति॥ | nan |
१०॥ स्त्रियँ दृष्ट्वाय॑ कितवं ततापा- न्येषाँ जायां सुकृतं च॒ योनिम्। | nan |
पूर्वाह्ने अश्वान्युयुजे हि ब॒भ्रून्त्सो अग्नेरन्ते वृषलः पपाद॥ | nan |
११॥ यो व॑: सोनानीर्महतो गणस्य राजा व्रातस्य प्रथमो ब॒भूव। | nan |
तस्मै कृणोमि न धाना रुणध्मि दशाहं प्राचीस्तदृतं व॑दामि॥ | nan |
१२॥ अक्षैर्मा दीव्य: कृषिमित्कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्य॑मान :। | nan |
तत्र गाव: कितव तत्रं जाया तन्मे विचष्टे सवितायमर्यः॥ | nan |
१३॥ मित्रं कृणुध्वं खलु मृळता नो मा नो घोरेण चरताभि धृष्णु। | nan |
नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभ्रूणां प्रसितौन्वस्तु॥ | nan |
प्रावेपा मां बृहतो मादयन्ति प्रवातेजा इरिणे वर्वृतानाः। | nan |
सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान्॥ | nan |
१॥ पदपाठः- प्रावेपाः। | nan |
मा। | nan |
बृहतः। | nan |
मादयन्ति। | nan |
प्रवातेजाः। | nan |
इरिणे। | nan |
सोम॑स्येव। | nan |
मौजवतस्य। | nan |
भक्षः। | nan |
विभीद॑कः। | nan |
जागृविः। | nan |
मह्य॑म्। | nan |
१॥ अन्वयः- प्रवातेजाः बृहतः इरिणे वर्वृतानां प्रावेपाः मा मादयन्ति। | nan |
मौजवतस्य सोमस्य भक्ष इव जागृविः विभीदकः मह्यम् अच्छन्। | nan |
व्याख्या- बृहतः महतो विभीतकस्य फलत्वेन सम्बन्धिनः प्रवातेजाः प्रवणे देशे जाताः इरिणे आस्फारे वर्वृतानाः प्रवर्तमानाः प्रावेपाः प्रवेपिणः कम्पनशीलाः अक्षाः मा मां मादयन्ति हर्षयन्ति। | nan |
किञ्च जागृविः जयपराजयोर्हर्षशोकाभ्यां कितवानां जागरणस्य कर्त्ता विभीदकविकाराऽक्षो मह्यं माम् अच्छान् अचच्छदत् अत्यर्थं मादयति। | nan |
तत्र दृष्टान्तः। | nan |
सोमस्येव यथा सोमस्य मौजवतस्य। | nan |
मूजवति पर्वते जातो मौजवतः। | nan |
तत्र ह्युत्तमः सोमो जायते। | nan |
भक्षः पानं यजमानान् देवांश्च मादयति तद्वदित्यर्थः। | nan |
तथा च यास्कः- 'प्रवेपिणो मा महतो विभीतकस्य फलानि मादयन्ति। | nan |
प्रवातेजाः प्रवणेजा इरिणे वर्तमाना इरिणं निऋणमृणातेरपार्ण भवत्यपरता अस्मादोषधय इति वा। | nan |
सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो मौजवतो मूजवति जातो मूजवान् पर्वतो मुञ्चवान् मुञ्जो विमुच्यत इषीकामिषीकैषतेर्गतिकर्णण इयमपीतरेषीकैतस्मादेव विभीतको बिभेदनाज्जागृविर्जागरणन्मह्यमवच्छदत्' (निरु० ९.८)इति। | nan |
सरलार्थः- द्रुतप्रवहमानवायुप्रदेश जाताः इरिणे कम्पमानाः अक्षाः माम् आनन्दयन्ति। विभीदकवृक्षजाताः जागरणकारिणः अक्षाः मां हर्षेण मत्तं कुर्वन्ति यथा मूजवति पर्वते उत्पन्नं सोमं पीत्वा जनाः उन्मत्ताः भवन्ति। | nan |
वर्वृतानाः-वृद्-धातोः लङि, ततः लङः लुकि शानचि प्रथमाबहुवचने। | nan |
मादयन्ति-मद्-धातोः णिचि लटि प्रथमपुरुषबहुवचने। | nan |
अच्छन्-छन्द्-धातोः लुङि प्रथमपुरुषैकवचने। | nan |
न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत्। | nan |
अक्षस्याहमेकपरस्य हेतो- रनुव्रतामपं जायामरोधम्॥ | nan |
२॥ पदपाठः- न। | nan |
मा। | nan |
मिमेथ। | nan |
न। | nan |
जिहीळे। | nan |
एषा। | nan |
शिवा। | nan |
सखिभ्यः। | nan |
उत। | nan |
मह्यम्। | nan |
अक्षस्य। | nan |
अहम्। | nan |
एकपरस्य। | nan |
हेतोः। | nan |
अनुव्रताम्। | nan |
अप। | nan |
जायाम्। | nan |
२॥ अन्वयः- एषा मा न मिमेथ, न जिहीळे, सखिभ्य उत मह्यम् शिवा आसीत्, अहम् एकपरस्य अक्षस्य हेतोः अनुव्रताम् जायाम् अप अरोधम् । | nan |
व्याख्या- एषा अस्मदीया जाया मा मां कितवं न मिमेथ न चुक्रोध, न जिहीळे न च लज्जितवती। | nan |
सा अस्मदीयेभ्यः विशेषेण सेवां कुर्वती आसीत् । | nan |
उत अपि च ममापि सेवां कुर्वती आसीत् । | nan |
इत्थम् अनुव्रताम् अनुकूलां जायाम् एकपरस्य एकः परः प्रधानं यस्य तस्य अक्षस्य हेतोः कारणात् अहम् परित्यक्तवानस्मीत्यर्थः। | nan |
सरलार्थः- अस्मिन् मन्त्रे अक्षस्य परिणामः कथ्यते यत् मम पत्नी कदापि कलहं न कृतवती। मयि न क्रोधं चकार। मम मित्राणां च कृते सा कल्याणकारी आसीत्। परन्तु अक्षस्य कारणेन मम अनुकूला जाया मया परित्यक्ता। | nan |
ममेथ-मिथ्-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। | nan |
जिहीळे-हीड्-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। | nan |
अरोधम्- रुध्-धातोः लुङि उत्तमपुरुषैकवचने(वैदिकम्)। | nan |
द्वेष्टिं श्वश्रूरप जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दते मर्डितार॑म्। | nan |
अश्वस्येव जर॑तो वस्न्यस्य नाहं विन्दामि कित॒वस्य भोग॑म्॥ | nan |
३॥ पदपाठः- द्वेष्टि। | nan |
श्वश्रू:। | nan |
अप। | nan |
जाया। | nan |
रुण॒द्धि। | nan |
न। | nan |
नाथितः। | nan |
विन्दते। | nan |
म॒र्डितार॑म् अश्वस्यऽह्व । | nan |
जर॑तः। | nan |
वस्न्य॑स्य। | nan |
न। | nan |
अहम्। | nan |
विन्दामि। | nan |
कित॒वस्य । | nan |
३॥ अन्वयः-श्वश्रूः द्वेष्टि, जाया अप रुणद्धि, नाथितः मर्डितारं न विन्दते। | nan |
अहं वस्न्यस्य जरतः अश्वस्य इव कितवस्य भोगं न विन्दामि। | nan |
व्याख्या- श्वश्रूः जायाया माता गृहगतं कितवं द्वेष्टि निन्दतीत्यर्थः। | nan |
किञ्च जाया भार्या अप रुणद्धि निरुणद्धि। | nan |
अपि च नाथितः याचमानः कितवो धनं मर्डितारं धनदानेन सुखयितारं न विन्दते न लभते। | nan |