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उजराई एतमादपुर, आगरा, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। आगरा जिले के गाँव
गुंडप्पा विश्वनाथ (गुंडप्पा विश्वनाथ/, जन्म १२ फरवरी १९४९) पूर्व भारतीय क्रिकेटर हैं। उन्होंने १९६७ में अपने पहले प्रथम श्रेणी मैच में २३० रन बनाए थे। गुंडप्पा विश्वनाथ १९७० के दशक में भारतीय बैटिंग की रीढ़ थे। वे इस दशक में सुनील गावस्कर के बाद निर्विवाद रूप से सबसे बेहतरीन बल्लेबाज रहे। वे बैकफुट पर बहुत अच्छा खेलते थे। लेट कट शॉट में उन्हें महारत हासिल थी। गुंडप्पा को उनकी खेल भावना के लिए भी याद किया जाता है। उन्होंने गोल्डन जुबली मैच में इंग्लैंड के बॉब टेलर को तब दोबारा बैटिंग के लिए बुला लिया था, जब अंपायर उन्हें आउट दे चुके थे। भारत यह मैच हार गया था, लेकिन कप्तान गुंडप्पा विश्वनाथ ने कहा कि उनके लिए परिणाम से ज्यादा अहमियत इस बात की है कि मैच खेलभावना के साथ खेला जाए। १९६९ में पहले टेस्ट में विश्वनाथ ने शतक लगाया। १९७४-७५ में वेस्ट इंडीज़ के ख़िलाफ़ मद्रास में उन्होंने ९७ रनों की पारी खेली। उनकी ९७ रनों की पारी इसलिए भी ख़ास थी क्योंकि उन्होंने ये रन एंडी रॉबर्ट्स जैसे घातक गेंदबाज़ों के सामने स्कोर किए थे। इंग्लैंड के विरुद्ध१९७२-७३ में उन्होंने मुंबई में शतक हो था। फिर लॉर्ड्स में १९७९ में उन्होंने ११३ रनों की पारी खेली। मगर इससे भी बढ़कर १९८२ में मद्रास में २२२ रनों की पारी खेली थी। विश्वनाथ ने कुल ९१ टेस्ट मैच खेले और ४१.९३ की औसत से ६,०८० रन बनाए। उन्होंने एक विकेट भी लिया था। गावस्कर से रिश्तेदारी विश्वनाथ की शादी सुनील गावस्कर की बहन से हुई थी। भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट कप्तान भारतीय टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी भारतीय एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी दाहिने हाथ के बल्लेबाज़ अर्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता १९४९ में जन्मे लोग
कुना (इसो ४२१७ कोड: हर्क) क्रोएशिया की आधिकारिक मुद्रा है। क्रोएशियन भाषा में कुना 'मार्टिन' नामक जानवर को कहा जाता है, जिसकी बेशकीमती खाल मध्यकाल में वस्तु विनिमय के रूप में प्रयोग में लाई जाती थी। रोमन युग में ऊपरी और निचले पनोनिया (आज का हंगरी और स्लोवानिया) में कर के रूप में बेशकीमती मार्टिन के खाल लिया जाता था, जिसकी वजह से क्रोएशियाई शब्द माटिर्रुना अथवा कर लैटिन भाषा मार्टस से आया है।
मद्दूर (मद्दूर) भारत के कर्नाटक राज्य के मांडया ज़िले में स्थित एक नगर है। यह शिमशा नदी के किनारे बसा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग २७५ यहाँ से गुज़रता है। इन्हें भी देखें कर्नाटक के शहर मांडया ज़िले के नगर
असढिया अतरी, गया, बिहार स्थित एक गाँव है। गाँव, असढिया, अतरी
रफ़ाएल नदाल ने गुलिर्मो कोरिया को ६-४, ३-६, ६-३, ४-६, ७-६(६) से हराया। मिकाएल लोद्रा / फैब्रिस सैंतोरो ने बॉब ब्रायन / माइक ब्रायन को ७-५, ६-४ से हराया। २००५ रोम मास्टर्स
कार्यान्वन, (अंग्रेज़ी- प्रक्सिस) आचरन , चलन या अमल वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी सिद्धांत , पाठ या कौशल को अधिनियमित, अवतीर्ण, साकार, लागू या व्यवहार में लाया जाता है। "प्रैक्सिस" का तात्पर्य विचारों को शामिल करने, लागू करने, अभ्यास करने, साकार करने या उद्यम करने के कार्य से भी हो सकता है। दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में यह एक आवर्ती विषय रहा है, जिसकी चर्चा प्लेटो , अरस्तू , सेंट ऑगस्टीन , फ्रांसिस बेकन , इमैनुएल कांट , सोरेन कीर्केगार्ड , लुडविग वॉन मिज़ , कार्ल मार्क्स , एंटोनियो ग्राम्शी , मार्टिन हेइडेगर , हन्ना अरेंड्ट, जीन-पॉल सार्त्र ,पाउलो फ्रायर , मरे रोथबार्ड , और कई अन्य के लेखन में की गई है । इसका राजनीतिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक और चिकित्सा क्षेत्र में अर्थ है।
विवेकानंद ठाकुर मैथिली भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कवितासंग्रह चानन घन गछिया के लिये उन्हें सन् २००५ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत मैथिली भाषा के साहित्यकार
डुँडवा बुजुर्ग छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। कन्नौज जिला के गाँव
मरे कमिंस (जन्म २ जनवरी १९९७) एक दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेटर हैं। उन्होंने १३ अक्टूबर २0१६ को सनफोइल ३-डे कप २0१६-१७ में दक्षिण पश्चिमी जिलों के लिए प्रथम श्रेणी में पदार्पण किया। उन्होंने १६ अक्टूबर २0१६ को २0१६-१७ सीएसए प्रांतीय वन-डे चैलेंज में दक्षिण पश्चिमी जिलों के लिए अपनी लिस्ट ए की शुरुआत की। उन्होंने २5 अगस्त २0१७ को २0१७ अफ्रीका टी२0 कप में दक्षिण पश्चिमी जिलों के लिए अपना ट्वेंटी २0 पदार्पण किया। कमिंस ने २०१९ से आयरलैंड में घरेलू क्रिकेट खेला है। २०२१ सीज़न से पहले, कमिंस ने मुंस्टर रेड्स के साथ हस्ताक्षर किए। १९९७ में जन्मे लोग दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट खिलाड़ी
मइलवरम (मैलावरम) भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य के कृष्णा ज़िले में स्थित एक गाँव है। राष्ट्रीय राजमार्ग ३० यहाँ से गुज़रता है। कोंडपल्ली अपने लकड़ी के तराशे गए खिलौनों के लिए प्रसिद्ध है। यह विजयवाड़ा के समीप स्थित है और उसका उपनगर बनता जा रहा है। इन्हें भी देखें आन्ध्र प्रदेश के गाँव कृष्णा ज़िले के गाँव
कुमार अंबुज (१३ अप्रैल १९५७) हिन्दी के सुप्रसिद्ध, चर्चित कवि हैं। उनका पहला कविता संग्रह 'किवाड़' (१९९२), जिसकी शीर्षक कविता को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला। 'क्रूरता' (१९९६), दूसरा कविता संग्रह है। उसके बाद 'अनंतिम' (१९९८), 'अतिक्रमण' (२००२) और 'अमीरी रेखा' (२०११) कविता संग्रह विशेष रूप से चर्चित हुए हैं। अलग और प्रशंसित शिल्प-कथ्य की अनेक कहानियाँ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं, जो संग्रहाकार 'इच्छाएँ' (२००८) में आईं। कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान, माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार और वागीश्वरी पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित अनेक प्रतिनिधि संचयनों में कविताऍं/कहानियाँ शामिल। कुछ कविताऍं और कहानियाँ विभिन्न पाठयक्रमों में शरीक। इस तरह कुल पाँच कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह और दो डायरी एवं निबंध संग्रह प्रकाशित हैं। २०१२ में किताबघर प्रकाशन की बहुचर्चित सीरीज 'कवि ने कहा' अंतर्गत चयनित कविताओं का संकलन और राजकमल प्रकाशन की प्रतिष्ठ सीरीज'प्रतिनिधि कविताएँ' अंतर्गत २०१४ में संग्रह प्रकाशित है। 'मनुष्य का अवकाश' वैचारिक लेखों की पुस्तक है। डायरी और सर्जनात्मक टिप्पणियों की पुस्तक 'थलचर' २०१६ में आई है। एक कहानी संग्रह और एक कविता संग्रह अभी यंत्रस्थ हैं। कुछ चर्चित और अन्य भाषाओं में अनूदित शताधिक कविताऍं हैं। जैसे-'क्रूरता, चंदेरी, जंजीरें, भरी बस में लाल साफेवाला आदमी, चुंबक, तुम्हारी जाति क्या है, अक्तूबर का उतार, अकेला आदमी, नागरिक पराभव, किवाड़, चाय की गुमटी, साध्वियां, प्रधानमंत्री और शिल्पी, होम्योपैथी, कोई मांजता है मुझे, मेरा प्रिय कवि, भाषा से परे, खाना बनाती स्त्रियां, नयी सभ्यता की मुसीबत' आदि। इसी तरह 'माँ रसोई में रहती है', 'सनक', 'एक दिन मन्ना डे' जैसी अनेक कहानियाँ चर्चित, रंगमंच हेतु रूपांतरित और अन्य भाषाओं में अनूदित हुई हैं।
मिस्र की संस्कृति का हजारों वर्षों की लिखित इतिहास प्राप्त होता है। प्राचीन मिस्र विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक थी। एक सहस्राब्दी तक मिस्र की अत्यन्त जटिल और स्थिर संस्कृति बनी रही। इसने यूरोप, मध्य एशिया तथा अफ्रीका की परवर्ती संस्कृतियों को प्रभावित किया। फैरोकाल के उपरान्त मिस्र यूनानवाद (हेलेनिम) के प्रभाव में आया, उसके बाद लघु काल के लिये ईसाइयत के प्रभाव में तथा अन्त में इस्लामी संस्कृति के प्रभाव में आ गया। मिस्री शासन व्यवस्था पूर्णत: धर्मतांत्रिक थी। मिस्री नरेश सूर्यदेव रे के प्रतिनिधि होने के कारण स्वयं देवता माने जाते थे। मृत्यु के बाद उनकी पूजा उनके पिरेमिड के सामने बने मंदिर में होती थी। यह विश्वाास कालांतर में इतना दृढ़ हो गया कि चौथी शताब्दी ई० पू० में सिकंदर को भी अपने को एमन-रे का पुत्र घोषित करके मिस्री जनता को संतुष्ट करना पड़ा था। उनके प्रजाजन उनका नाम तक लेने से झिझकते थे, इसलिये इन्हें प्राय: 'अच्छा देवता' अथवा 'पेर ओ' (बाइबिल का फेरओ) कहा जाता था। राज्य की आय का एक बहुत बड़ा भाग उनके हरम और परिवार के भरण-पोषण पर व्यय किया जाता था। सिद्धांतत: वे राज्य के सर्वेसर्वा होते थे। वे न केवल राज्याध्यक्ष होते थे वरन् सर्वोच्च, सेनापति, सर्वोच्च पुजारी और सर्वोच्च न्यायाधीश भी होते थे। लेकिन व्यवहार में सामंतो, पुरोहितों, प्रभावशाली पदाधिकारियों और चहेती महारानियाँ की इच्छाएँ तथा राज्य की परंपराएँ उनकी निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। वे कानून के निर्माता न होकर उसके संरक्षक माने जाते थे। फेरओं के बाद राज्य का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति प्रधान मंत्री था। वह राज्य का प्रधान वास्तुकार, प्रधान न्यायाधीश और राजाभिलेख संग्रहालय का अध्यक्ष होता था। तीसरे वंश के तीन मंत्री इम्होतेप, केगेग्ने तथा टा:होतेप ने अपने ज्ञान के बल पर अतुल कीर्ति अर्जित की। मिस्री राज्य का एक अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारी 'प्रधान कोषाध्यक्ष' था। वह संपूर्ण देश की वित्त व्यवस्था को नियंत्रित रखता था। शासकीय सुविधा के लिये मिस्र लगभग ४० प्रांतों में विभाजित था। ये वास्तव में वे प्राचीन राज्य थे जिनको एकीकृत करके प्रथम वंश के पहले दो राज्य---उत्तरी और दक्षिणी--स्थापित किए गए थे। लेकिन अब इन पर स्वतंत्र राजाओं के स्थान पर फेरओ द्वारा नियुक्त गवर्नर राज्य करते थे। मध्य राज्य युग में प्रांतीय गवर्नरों तथा सामंतों की शक्ति विशेष रूप से बढ़ी और साम्राज्य युग में सम्राट की। मिस्री समाज पाँच वर्गो में विभाजित था : राजपरिवार, सामंत, पुजारी, मध्यमवर्ग तथा सर्फ और दास। भूमि सिद्धांतत: फेरओ के हाथ में थी। व्यवहार में उसने इसे अधिकांशत: पुजारियों, पुराने राजाओं के वंशजों और सामंतों में विभाजित कर दिया था। उनकी बड़ी-बड़ी जागीरों में दास और सर्फ काम करते थे। मध्यम वर्ग में लिपिक, व्यापारी, कारीगर और स्वतंत्र किसान सम्मिलित थे। प्राचीन राज्य युग में सबसे अधिक प्रतिष्ठा राजपरिवार, सामंतो और पुजारियों की थी। मध्य राज्य युग में सामंतों के साथ मध्यम वर्ग को महत्व मिला तथा साम्राज्य युग में सैनिक वर्ग को। वर्ग व्यवस्था आश्चर्यजनक रूप से लचीली थी। हर व्यक्ति कोई भी पेशा अपना सकता था। केवल राजपरिवार के सदस्य इस अधिकार से वंचित थे। सर्फ भी प्राय: उच्च पदों पर पहुंच जाते थे। लेकिन उच्च और निम्न वर्ग के लोगों के रहन सहन में भारी अंतर था। धनी लोग विशाल हवादार भवनों में रहते थे और निर्धन गंदे मोहल्ले की छोटी छोटी झोपड़ियों में। समाज की इकाई परिवार था। विध्यनुसार प्रत्येक व्यक्ति की केवल एक पत्नी हो सकती थी और उसी की संतान को परिवारिक संपत्ति उत्तराधिकार में मिलती थी। फेरओ भी इस नियम के अपवाद नहीं थे। लेकिन समृद्ध पुरुष अनेक उपपत्नियाँ रखते थे। मिस्री समाज के प्रत्येक वर्ग में भाई बहिन के विवाह की प्रथा थी, इसलिये पति पत्नी में बाल्यावस्था से ही स्नेह संबंध रहता था। समाज में स्त्रियों को अत्यंत प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। मैक्समूलर के अनुसार किसी अन्य जाति ने स्त्रियों को उतना उच्च वैधानिक सम्मान प्रदान नहीं किया जितना मिस्रियों ने। मिस्रियों के आर्थिक जीवन का आधार कृषिकर्म था। वे मुख्यत: गेहूँ, जौ, मटर, सरसों, अंजीर, खजूर, सन तथा अंगूर और अन्य अनेक फलों की खेती करते थे। मिस्र में कृषिकर्म, अपेक्षया आसान था। बिना हल चलाए भी मिस्री किसान कई फसलें पैदा कर सकते थे। सिंचाई व्यवस्था का आधार नील नदी थी। किसानों को उपज का १० से २० प्रतिशत भाग कर के रूप में देना होता था। कर, खाद्यान्न आदि के रूप में दिए जाते थे। दूसरा प्रमुख उद्यम पशु-पालन था। उनके प्रमुख पालतू पशु थे गाय, भेड़, बकरी और गधा। असीरिया और नूबिया से वे देवदारु, हाथीदाँत और आबनूस का आयात करते थे और इनसे अपने फेरओ और सामंतों के लिये बहुमूल्य फर्नीचर बनाते थे। वे कई प्रकार के जलपोत बनाने की कला में भी कुशल थे। चमड़े और खालों से वे भाँति भाँति के वस्त्र और ढाल इत्यादि तथा पेपाइरस पौधे से कागज, हलकी नावें, चप्पलें, चटाईयाँ और रस्सियाँ आदि बनाते थे। उत्तम कोटि के लिनन वस्त्रों की बहुत माँग थी। मिस्रियों के इन उद्योग धंधों को झाँकी उनके रिलीफ चित्रों में सुरक्षित है। मिस्र निवासी अति प्राचीन काल से बहुदेववादी थे। उन्होंने अपने देवताओं की कल्पना प्राय: मनुष्यों अथवा पशुपक्षियों अथवा मिलेजुले रूप में की। उनके अधिकांश देवता प्राकृतिक शक्तियों के दैवी रूप थे। सूर्य, चंद्र तथा नील नदी को ही नहीं वरन् झरनों, पर्वतों, पशुपक्षियों, लताकुंजों, वृक्षों और विविध वनस्पतियों तक को वे दैवी शक्ति से अभिहित मानते थे। आकाश की कल्पना उन्होंने नूत नाम की दैवी अथवा हथौर नाम की दैवी गौ के रूप में की थी। मेंफिस का प्रमुख देवता टा: किसी प्राकृतिक शक्ति का दैवीकरण न होकर कलाओं और कलाकारों का संरक्षक था। सूर्य की उपासना मिस्र में लगभग सभी जगह विभिन्न नामों और रूपों में होती थी। उत्तरी मिस्र में उसकी पूजा का मुख्य केन्द्र ओन (यूनानियों का हेलियोपोलिस) नाम का स्थान था। यहाँ उसे रे कहा जाता था और उसकी कल्पना पश्चिम की ओर गमन करते हुए वृद्ध पुरुष के रूप में की गई थी। थीबिज में उसका नाम एमन था। दक्षिणी मिस्र में उसका प्रमुख केन्द्र एडफू नामक स्थान था। वहाँ उसकी उपासना बाज पक्षी के रूप में होरुस नाम से होती थी। संयुक्त राज्य की स्थापना होने पर सूर्य के इन विभिन्न रूपों को अभिन्न माना जाने लगा और उसका संयुक्त नाम एमन-रे लोकप्रिय हो गया। उसका प्रतीक 'पक्षयुक्त सूर्चचक्र' मिस्र का राजचिह्न था। मिस्रियों के विश्वास के अनुसार सबसे पहले उसी ने फेरओं के रूप में शासन किया था। सूर्यदेव के आकाशगामी हो जाने पर पृथ्वी पर उसके प्रतिनिधि फेरओं राज्य करने लगे। इनमें सबसे पहला स्थान ओसिरिस को दिया गया है। यद्यपि कहीं-कहीं उसको सूर्य का पुत्र भी कहा गया है, तथापि वह मूलत: नील नदी, पृथ्वी की उर्वर शक्ति तथा हरीतिमा का दैवीकरण प्रतीत होता है। एक नरेश के रूप में वह अत्यंत परोपकारी और न्यायप्रिय सिद्ध हुआ। शासनकार्य में उसे अपनी बहिन और पत्नी आइसिस से बहुत सहायता मिली। उसके दुष्ट भ्राता सेत ने उसकी धोखे से हत्या कर दी। बाद में आइसिस ने होरुस नामक पुत्र को जन्म दिया। उसका पालन-पोषण उसने मुहाने वाले प्रदेश में गुप्त रूप से किया। युवावस्था प्राप्त करने के बाद होरुस ने घोर संघर्ष करके सेत को पराजित किया और अपने पिता के अपमान और वध का प्रतिशोध लिया। मध्य राज्य युग में ओसिरिस का महत्व बहुत बढ़ा और यह माना जाने लगा कि प्रत्येक मृतात्मा परलोक में ओसिरिस के न्यायालय में जाती है। वहाँ औसिरिस अपने ४२ अधीन न्यायाधीशों की सहायता से उसके कर्मो की जाँच करता है। जो मृतात्माएँ इस जाँच में खरी उतरती थीं उन्हें यारूलोक में स्वर्गीय सुखों का उपभोग करने के लिये भेज दिया जाता था और जिनका पार्थिव जीवन दुष्कर्मों से परिपूर्ण होता था उन्हें घोर यातनाएँ दी जाती थीं। साम्राज्य युग में पुजारी वर्ग अत्यंत धनी और सत्ताधारी हो गया। इससे मध्य राज्य युग में धर्म और सदाचार में जो घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुआ था वह टूट गया। अब स्वयं धर्म के संरक्षक भोग-विलास का जीवन व्यतीत करने लगे। 'देवताओं' के मनोरंजक के हेतु नियुक्त देवदासियाँ वस्तुत: उनका ही मनोरंजन करती थीं। अब उन्होंने मृतकों को परलोक का भय दिखाकर यह दावा करना शुरू किया कि अगर वे चाहें तो अपने जादू के जोर से पापिष्ठों को भी स्वर्ग दिला सकते हैं। इतना ही नहीं, वे खुले आम ऐसे पापमोचक प्रमाणपत्र बेचते थे। इन प्रमाणपत्रों की तुलना मध्यकालीन यूरोप में ईसाई पादरियों द्वारा बेचे जानेवाले पापमोचक प्रमाणपत्रों (इंडल्जेंसेज) से की जा सकती है। मिस्री धर्म की यह वह अवस्था थी जब १३७५ ई० पू० में अमेनहोतेप चतुर्थ मिस्र का अधीश्वर बना। उसने प्रारंभ से ही पुजारी वर्ग में फैले भ्रष्टाचार और राजनीति पर उनके अवांछनीय प्रभाव का विरोध किया और एटन नामक एक नये देवता की उपासना को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। उसकी प्रशंसा में उसने अपना नाम भी अख्नाटन रख लिया। एटन मूलत: सूर्यदेव रे का ही नाम था। लेकिन अख्नाटन ने उसे केवल मिस्र का ही नहीं, समस्त विश्व का एकमात्र देवता बताया। क्योंकि एटन निराकार था, इसलिये अख्नाटन ने उसकी मूर्तियाँ नहीं बनवाईं। लेकिन जनसाधारण उसकी महिमा को हृदयंगम कर सके, इसलिये उसने 'सूर्यचक्र' को उसका प्रतीक माना। एटन की उपासना में न बहुत अधिक चढ़ावे की आवश्यकता थी, न जटिल कर्मकांड, तंत्रमंत्र और पुजारियों की भीड़ की। केवल हृदय से एटन के आभार को मानना और उसकी स्तुति करते हुए श्रद्धा के प्रतीक रूप कुछ पत्र, पुष्प और फल चढ़ाना पर्याप्त था। उसके परलोकवाद में नरक की कल्पना नहीं मिलती क्योंकि वह यह सोच भी नहीं सकता था कि दयालु पिता एटन किसी को नारकीय पीड़ाएँ दे सकता है। अख्नाटन ने प्रारंभ में अन्य देवताओं के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार किया किंतु पुजारियों के उग्र विरोध पर उसने अन्य देवताओं के मंदिरों को बंद करवा दिया। उनके पुजारियों को निकाल दिया, अपनी प्रजा को केवल एटन की पूजा करने का आदेश दिया और सार्वजनिक स्मारकों पर लिखे हुए सब देवताओं के नाम मिटवा दिए। लेकिन अख्नाटन के विचार और कार्य उसके समय के अनुकूल नहीं थे। इसलिये उसकी मृत्यु के साथ उसका धर्म भी समाप्त हो गया। उसके बाद, उसके दामाद तूतेनखाटन ने पुराने धर्म को पुन: प्रतिष्ठित किया, पुजारियों के अधिकार लौटा दिए और अपना नाम बदलकर तूतेनखामेन रख लिया। मिस्र की प्राचीन लिपि चित्राक्षर लिपि (हाइरौग्लाइफिक) कही जाती है। 'हाइरोग्लाइफ' यूनानी शब्द है। इसका अर्थ है 'पवित्र चिह्न'। इस लिपि में कुल मिलाकर लगभग २००० चित्राक्षर थे। इनमें कुछ चित्रों में मनुष्य की विभिन्न आकृतियाँ आदि है। ये चिह्न तीन प्रकार के हैं: भावबोधक, ध्वनिबोधक तथा संकेतसूचक। चित्राक्षरों को बनाते समय वस्तुओं के यथार्थ रूप को अंकित करने का प्रयास किया जाता था, इसलिये इसे लिखने में बहुत समय लगता था। इस कठिनाई को दूर करने के लिये प्रथम वंश के शासनकाल में ही मिस्रियों ने एक प्रकार की द्रुत अथवा घसीट (हाइरेटिक) लिपि का विकास कर लिया था। मिस्रियों ने प्राचीन राज्य युग में २४ अक्षरों की एक वर्णमाला का आविष्कार करने में भी सफलता प्राप्त की थी। उन्होंने वर्णमाला को भावबोधक और घ्वनिबोधक चित्रोें से सहायक रूप में प्रयुक्त किया, स्वतंत्र माध्यम के रूप में नहीं। आठवीं श्ताब्दी ई० पू० के लगभग मिस्रियों ने 'हाइरेटिक लिपि' से भी शीघ्रतर लिखी जानेवाली लिपि का आविष्कार किया जिसे 'डिमाटिक' कहा जाता है। यह एक प्रकार की शार्टहैंड लिपि कही जा सकती है। मिस्र में प्राचीन राज्य काल से ही पेपाइरस (नरकुल के गूदे से बना कागज) लिखने का सामान्य साधन था। चर्मपत्रों को तथा मृद्भांडों के टुकड़ों को भी लिखने के लिये काम में लाया जाता था। उन पर चित्राक्षर नरकुल की लेखनी से भी बनाए जाते थे और ब्रुश से भी। मिस्री साहित्य प्रकृत्या व्यावहारिक था। उनकी अधिकांश कृतियाँ ऐसी हैं जो किसी न किसी व्यावहारिक उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये लिखी गई थीं। इसीलिये वे महाकाव्यों, नाटकों और यहाँ तक कि साहित्यक दृष्टि से आख्यानों की भी रचना कभी नहीं कर पाए। उनके जिन आख्यानों की चर्चा की गई है, वे सब साम्राज्य युग के अंत तक केवल जनकथाओं के रूप में प्रचलित थे। उनको कभी पृथक् साहित्यिक कृतियों के रूप में लिपिबद्ध नहीं किया गया। पिरेमिड युग की विशिष्ट धार्मिक रचनाएँ पिरेमिड टेक्सट्स हैं। इनमें मृतक संस्कार में काम आने वाले वे मंत्र, पूजागीत और प्रार्थनाएँ आदि सम्मिलित हैं जिन्हें मृत फेरओ के पारलौकिक जीवन को संकट रहित करने के लिये उसके पिरेमिडों की भित्तियों पर उत्कीर्ण कर दिया जाता था। इनसे ही कालांतर में 'कॉफिन टेक्सट्स' तथा 'बुक ऑव दि डेड' का विकास हुआ। शेष साहित्य भी प्रकृत्या व्यावहारिक है। उदाहरणार्थ इम्होतेप, केगेम्ने तथा टा:होतेप इत्यादि मंत्रियों ने अपने अनुभवजनित ज्ञान को लेखबद्ध किया। ये कृतियाँ 'नीतिग्रंथ' कहलाती हैं। मध्य राज्ययुगीन रचनाओं में 'मुखर कृषक का आवेदन', 'इपुवेर की भविष्यवाणी' 'एमेनम्हेत का उपदेश' तथा 'वीणावादक का गान' प्रमुख हैं तथा साम्राज्ययुगीन कृतियों में अख्नाटन के स्तोत्र। विज्ञान के केवल उन्हीं क्षेत्रों में मिस्रियों की रुचि थी जिनकी व्यावहारिक जीवन में आवश्यकता पड़ती थीं। जिज्ञासा के सीमित होने के बावजूद उन्होंने कुछ क्षेत्रों में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। उदाहरणार्थ उन्होंने ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति का काफी सही अंदाज करके आकाश का मानचित्र बना लिया था। सौर पंचांग का आविष्कार उनकी महत्वपूर्ण सफलता थी। गणित के मुख्य नियम जोड़, घटाना और भाग व्यापार और प्रशासन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये काफी पहले आविष्कृत हो चुके थे। लेकिन गुणा से वे अंत तक अपरिचित रहे। इसका काम वे जोड़ से चलाते थे। शून्य और दशमलव विधि से भी वे अपरिचित थे। बीजगणित और रेखागणित की प्राथमिक समस्याओं को हल करना उन्हें आ गया था, लेकिन विषम चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने में दिक्कत का अनुभव करते थे। वृत्त, अर्द्धगोलाक और सिलिंडर का क्षेत्रफल निकालने में काफी सफलता प्राप्त कर ली थी। भवनों की आधारयोजना बनाने में वे असाधारण रूप से कुशल थे। उनके कारीगर स्तंभों और मेहरातों के प्रयोग से परिचित थे। चिकित्साशास्त्र में भी उन्होंने पर्याप्त प्रगति कर ली थी। मिस्रियों के लिये कला उनके राष्ट्रीय जीवन को अभिव्यक्त करने का माध्यम थी। इसका सर्वोत्तम प्रमाण उनके पिरेमिड हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि मिस्री नरेशों ने इन्हें राज्य की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ने पर जनता को रोजगार देने के लिये बनवाया था। लेकिन यह असंभव लगता है। जिस समय ये पिरेमिड बनाए गए थे मिस्र समृद्ध देश था, इसलिये इनका निर्माण आर्थिक संगठन के दौर्बल्य का कारण माना जा सकता है, परिणाम नहीं। वास्तव में मिस्रियों ने पिरेमिडों की रचना अपने राज्य और उसके प्रतीक फेरओं की अनश्वरता और गौरव को अभिव्यक्त करने के लिये की थी। अगर फेरओं अमर थे तो उनकी मृत देह की सुरक्षा और उसके निवास के हेतु उनकी महत्ता के अनुरूप विशाल और स्थायी समाधियों का निर्माण आवश्यक था। हेरोडोटस के अनुसार गिजेह के 'विशाल पिरेमिड' को एक लाख व्यक्तियों ने बीस साल में बनाया था। यह तेरह एकड़ भूमि में बना है और ४८० फुट ऊँचा तथा ७५५ फुट लंबा हैं। इसमें ढाई ढाई टन भार के २३ पाषाणखंड लगे हैं। ये इतनी चतुरता से जोड़े गए हैं कि कहीं कहीं तो जोड़ की चौड़ाई एक इंच के हजारवें भाग से कम है। साम्राज्य युग में मिस्री वास्तुकला का प्रदर्शन मंदिरों का निर्माण में हुआ। पिरेमिडों के समान ये मंदिर भी प्राय: कठोरतम पाषाण से बनाए गए है और अत्यंत विशाल है। कानार्क का मंदिर संभवत: विश्व का विशालतम भवन है। यह १३०० फुट (लगभग चौथाई मील) लंबा है। इसका मध्यवर्ती कक्ष १७० फुट लंबा और ३३८ फुट चौड़ा है। इसकी छत छह पंक्तियों में बनाए गए १३६ स्तंभों पर टिकी है जिनमें मध्यवर्ती बारह स्तंभ ७९ फुट ऊँचे हैं और उनमें से प्रत्येक के शीर्षभाग पर सौ व्यक्ति खड़े हो सकते हैं। मिस्री नूबिया में निर्मित आबू सिंबेल का मंदिर वस्तुत: एक गुहामंदिर है। यह १७५ फुट लंबा और ९० फुट ऊँचा है। इसके मध्यवर्ती कक्ष की छत २० फुट ऊँचे ८ स्तंभों पर आधारित है जिनके साथ ओसिरिस की १७ फुट ऊँची मूर्तियाँ बनी है। लक्सोर का मंदिर अमेनहोतेप तृतीय ने बनवाया था। किंतु वह इसे पूरा नहीं कर पाया। वास्तुकला के समान विशालता, सुदृढ़ता और रूढ़िवादिता भी मिस्री मूर्तिकला की विशेषताएँ थीं। राजाओं की मूर्तियाँ अधिकांशत: कठोर पाषाण से विशाल आकार और भाव-विहीन मुद्रा में बनाई जाती थीं। उन्हें प्राय: कुर्सी पर पैर लटका कर मेरुदंड को सीधा किये और हाथों को जाँघों पर रखे बैठने की मुद्रा में अथवा हाथ लटकाए बायाँ पैर आगे बढ़ाकर चलने की मुद्रा में दिखाया गया है। थटमोस तृतीय और रेमेसिस द्वितीय की मूर्तियाँ तो आकाश को छूती लगती है। खेफे के पिरेमिड के सामने स्थित विशाल 'स्फिक्स्' नामक मूर्ति संभवत: विश्व की विशालतम मूर्ति है। इसका शरीर सिंह का है और सिर फेरओ खफ्रे का। इन सबसे भिन्न हैं अख्नाटन के काल में बनी कुछ मूर्तियाँ जिनमें स्वयं अख्नाटन और उसकी रानी नफ्रोेतीति की मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके निर्माता कलाकार पुरानी परंपराओं के बंधनों से मुक्त थे। ऐसी कुछ मूर्तियाँ सामान्य जनों की भी मिली हैं। इनमें काहिरा संग्रहालय में सुरक्षित प्राचीन राज्य के एक ओवरसियर की काष्ठ की प्रतिमा, जिसका केवल सिर अवशिष्ट है, बहुत प्रसिद्ध है। यह 'शेख की मूर्ति' नाम से विख्यात है। लूब्रे संग्रहालय की 'लिपिक की मूर्ति' भी अत्यंत प्राणवान् प्रतीत होती है। मिस्र में मंदिरों और मस्तबाओं (समाधियों) में रिलीफ चित्र बनाने वाले कलाकारों की भी बहुत माँग थी। ऐसी मूर्तियाँ बनाते समय अंकित वस्तु की लंबाई चौड़ाई तो आसानी से दिखा दी जाती थी, लेकिन मोटाई अथवा गोलाई दिखाने में दिक्कत होती थी। इसलिये उनके रिलीफ चित्रों में काफी अस्वाभाविकता आ गई है। लेकिन इस दोष के बावजूद मिस्री रिलीफ चित्र दर्शनीय हैं और प्राचीन मिस्री सभ्यता और रीति रिवाजों पर ज्ञानवर्द्धक प्रकाश डालते हैं। मिस्र की चित्रकला के अधिकांश नमूने नष्ट हो चुके है, लेकिन जो शेष हैं, धार्मिक और राजनीतिक रूढ़ियों से अप्रभावित लगते हैं। ऐसा लगता है, मिस्र में चित्रकला का जन्म पिरेमिड युग में हो जाने पर भी विकास काफी बाद में हुआ। इसलिये यह कला धर्म की परिधि से बाहर रह गई। मिस्री चित्रकला के उपलब्ध नमूनों में सर्वोत्तम अख्नाटन के समय के हैं। चित्रकला के अतिरिक्त साम्राज्ययुगीन मिस्री अन्य अनेक ललित कलाओें में भी दक्ष हो चुके थे। तूतेनखामेन की १९२२ ई० में उत्खनित समाधि से अब से लगभग ३३०० वर्ष पूर्व छोड़े गए बहुमूल्य काष्ठ, चर्म और स्वर्ण निर्मित फर्नीचर उपकरण, आबनूस और हस्तिदंत खचित बाक्स, स्वर्ण और बहुमूल्य पाषाणों से सज्जित रथ, स्वर्णपत्रमंडित सिंहासन, श्वेत पाषाण के सुंदर भांड तथा जरी के सुंदर शाही वस्त्र, उपलब्ध हुए हैं। इनसे साम्राज्ययुगीन मिस्र की कला की प्रगति और वैभव का पता चलता है।
८० के दशक में भारतीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अनेक आजाद निर्माताओं और निर्देशकों को टेलीविज़न धारावाहिक बनाने के आमंत्रण दिये। आर के नारायण की कृति पर आधारित मालगुडी डेज़ इन्हीं में से एक ऐसा धारावाहिक था जो खासा लोकप्रिय हुआ और जिसका इस दौर के बच्चों पर गहरा असर पड़ा। धारावाहिक में स्वामी एंड फ्रेंड्स तथा वेंडर ऑफ स्वीट्स जैसी लघु कथाएँ व उपन्यास शामिल थे। इस धारावाहिक को हिन्दी व अंग्रेज़ी में बनाया गया था। पद्मराग फिल्म्स के टी.एस.नरसिम्हन द्वारा १९८७ में निर्मित मालगुडी डेज़ का निर्देशन दिवंगत कन्नड़ अभिनेता व निर्देशक शंकर नाग ने किया था। इस धारावाहिक का फिल्मांकन कर्नाटक के शिमोगा जिले स्थित अगुम्बे में किया गया। धारावाहिक के संगीत निर्देशक थे जाने माने वायलिन वादक एल.वैद्यनाथन। "वेंडर ऑफ स्वीट्स" एक मिठाई विक्रेता जगन की कहानी थी जिसमें विदेश से लौटे अपने बेटे के साथ उसके पटरी बिठाने के प्रयास का वर्णन था। जगन की भूमिका में थे, शंकर के भाई और कन्नड़ और हिन्दी फिल्मों के जाने माने अभिनेता अनंत नाग। "स्वामी एंड फ्रेंड्स" दस बरस के स्वामीनाथन, जिसे उसके दोस्त स्वामी पुकारते हैं, के इर्दगिर्द घूमती है। स्वामी के किरदार को स्कूल जाना ज़रा भी पसंद न था, पसंद था तो अपने दोस्तों के साथ मालगुडी में मारे मारे फिरना। स्वामी के पिता, जिनका किरदार गिरीश कर्नाड ने निभाया था, सरकारी नौकर थे। स्वामी के दो करीबी दोस्त थे, मणि और चीफ पुलिस सुपरीटेंडेंट के पुत्र राजम। स्वामी के किरदार में मंजुनाथ तो जैसे घर घर में लोकप्रिय हो गये थे। इसी लोकप्रियता के बल पर वे अग्निपथ जैसी मुख्यधारा की फिल्म में अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता की बचपन की भूमिका पा सके। पर बड़े होने पर वे अभिनय की दुनिया से दूर ही रहे। धारावाहिक में दिखाये चित्रों को लेखक के भाई और टाईम्स ऑफ इंडिया के जानेमाने कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण ने तैयार किया था। दूरदर्शन पर मालगुडी डेज़ के कुल ३९ एपिसोड प्रसारित हुये। यह धारावाहिक मालगुडी डेज़ रिटर्न नाम से पुनर्प्रसारित भी हुआ। इन्हें भी देखें मालगुडी की कहानियाँ रेडिफ़.कॉम - रिटर्न ऑफ़ मालगुडी डेज़ भारतीय टेलीविजन धारावाहिक
जल्दा, इच्चोड मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। आंध्र प्रदेश सरकार का आधिकारिक वेबसाइट आंध्र प्रदेश सरकार का पर्यटन विभाग निक की वेबसाइट पर आंध्र प्रदेश पोर्टल आंध्र प्रदेश राज्य पुलिस की सरकारी वेबसाइट
कानाडुकातान (कनादुकतन) भारत के तमिल नाडु राज्य के शिवगंगा ज़िले की कारईकुड़ी तालुका में स्थित एक नगर है। यह चेट्टीनाड के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में स्थित है। इन्हें भी देखें तमिल नाडु के शहर शिवगंगा ज़िले के नगर
डबल जिनेवा एक स्विस डाक टिकट है जिसे जिनेवा शहर के द्वारा सन १८४३ में जारी किया गया था। जारी करने की तिथि के अनुसार यह यूरोपीय महाद्वीप की जारी होने वाली दूसरी डाक टिकट है, जबकि पहली ज्यूरिख ४ और ६ है।
रवीश कुमार (जन्म ५ दिसम्बर १९७४) एक भारतीय पत्रकार हैं। रवीश एनडीटीवी समाचार नेटवर्क के हिंदी समाचार चैनल 'एनडीटीवी इंडिया' में संपादक थे, और चैनल के प्रमुख कार्यक्रमों जैसे हम लोग और रवीश की रिपोर्ट के होस्ट रहे हैं। रवीश कुमार का प्राइम टाइम शो के साथ देश की बात भी वर्तमान में काफी लोकप्रिय है। २०१६ में "द इंडियन एक्सप्रेस" ने अपनी '१०० सबसे प्रभावशाली भारतीयों' की सूची में उन्हें भी शामिल किया था। बचपन और शिक्षा रवीश कुमार का जन्म ५ दिसंबर १९७४ को बिहार के पूर्व चंपारन जिले के अरेराज के पास जितवारपुर गांव में बलिराम पांडे और यशोदा पांडे के घर हुआ था। उन्होंने लोयोला हाई स्कूल, पटना, से अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की, और फिर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह दिल्ली आ गये। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने भारतीय जन संचार संस्थान (ईम्च) से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त किया। हिन्दी पत्रिका रंग में गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार २०१० के लिये राष्ट्रपति के हाथों (२०१४ में प्रदान किया गया). पत्रिका रंग में रामनाथ गोयंका पुरस्कार - २०१३ इंडियन टेलिविजन पुरस्कार - २०१४ - उत्तम हिन्दी एंकर कुलदीप नायर पुरस्कार - २०१७ - पत्रकारिता क्षेत्र में उनके योगदानों के लिए। रेमन मैगसेसे पुरस्कार - अगस्त २०१९ - पत्रकारिता क्षेत्र में यह कहकर उनको सम्मानित किया गया कि उन्होंने गरीबों की आवाज सार्वजनिक मंच पर उठाई रवीश ने कुल पांच पुस्तकें लिखी हैं: इश्क में शहर होना द फ्री वॉइस: ऑन डेमोक्रेसी, कल्चर एंड द नेशन बोलना ही है : लोकतंत्र, संस्कृति और राष्ट्र के बारे में बोलना ही है रवीश कुमार की यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन द्वारा सन २०१९ में प्रकाशित की गयी। द प्रिन्ट के अनुसार यह किताब पिछले कुछ सालों के भारत की यथार्थ गाथा है जिसे तथ्यों के सहारे बुना गया है और समाज में नागरिक के भीड़ बनने की प्रक्रिया को बताया गया है। यह किताब अंग्रेजी में द फ़्री वॉयस : ऑन द डेमोक्रेसी, कल्चर एन्ड द नेशन (थे फ़्री वोइस : ऑन डेमोक्रासी, कल्चर एंड थे नेशन) के नाम से छपी है। इसके अलावा कन्नड़, मराठी और नेेपाली भाषा में इस किताब का अनुवाद हो चुका है। अपनी मूल भाषा हिंदी में यह किताब दो नए लेखों के साथ अक्टूबर, २०१९ में छपी। इस किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है। भूमिका के अलावा इस पुस्तक में १२ लेख शामिल हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं :- रोबो-पब्लिक और नए लोकतंत्र का निर्माण डर का रोज़गार जहां भीड़, वहीं हिटलर का जर्मनी जनता होने का अधिकार बाबाओं के बाज़ार में आप और हम हम सबके जीवन में प्रेम निजता का अधिकार : संविधान की किताब में एक सुंदर-सी कविता डरपोक क़िस्म की नागरिकता गढ़ता मुख्यधारा मीडिया २०१९ में १९८४ पढ़ते हुए पंद्रह अगस्त को एक आइसक्रीम ज़रूर खाएँ नागरिक पत्रकारिता की ताक़त नौवां लेख २४ फ़रवरी, २०१९ को नई दिल्ली में आयोजित द वायर डायलॉग्स में दिए गए भाषण का संपादित पाठ है। बारहवां और आख़िरी लेख ६ सितंबर, २०१९ को मनीला में रैमॉन मैगसेसे सेंटर में दिए गए भाषण का संपादित पाठ है जहाँ रवीश कुमार को रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार से नवाज़ा गया था। इन्हें भी देखें १९७४ में जन्मे लोग मैगसेसे पुरस्कार विजेता मोतिहारी के लोग
भोजपुर () पूर्वी नेपाल का एक नगर है। १८ मई २०१४ को भैसीपनखा, बोखिम्, भोजपुर, तक्सर की ग्राम विकास समितियों को मिलाकर इस नगरपालिका का निर्माण किया गया था यह भोजपुर जिले का मुख्यालय है। १९९१ के नेपाल जनगणना के अनुसार भोजपुर की जनसंख्या ५८२३ और कुल घरों की संख्या ११९९ थी नेपाल के शहर
विधि संहिता (कोड ऑफ लॉ या लॉ कोड या लीगल कोड) का अर्थ है - किसी क्षेत्र में अधिनियमित और प्रवृत्त समस्त विधियों या किसी विशिष्ट विधि का संहिताबद्ध रूप। यद्यपि विभिन्न स्थानों में प्रवृत्त लोक-विधि (कॉमन लॉ) और सिविल विधि(सिविल लॉ) की प्रणालियों में विधि का संहिताकरण करने के कारण और उसकी प्रक्रिया समान हैं किन्तु उनके व्यावहारिक उपयोग में अन्तर है। सिविल विधि वाले देश में विधि संहिता सामान्यतः सम्पूर्ण विधिक प्रणाली( उदाहरणार्थ दीवानी या आपराधिक कानून) को पूर्णतया समाविष्ट करती है। इसके विपरीत, अंग्रेज़ी परंपरा की विधायी व्यवस्था से युक्त लोक विधि वाले देश में न्यायालय लोक विधि के किसी अभिव्यक्त या विवक्षित प्रावधान में तो सुधार करते रहते हैं परन्तु लोक विधि का मूल रूप बरकरार रहता है। जब किसी क्षेत्र में विधि को संहिताबद्ध किया जाता है तो लोक विधि का स्थान विधि संहिता ले लेती है। जब तक संहिताबद्ध विधि को निरस्त नहीं किया जाता तब तक लोक विधि निष्क्रिय रहती है। इस संबन्ध मे एक अन्य श्रेणी भी है। लोक विधि के समान विधायी व्यवस्था वाले संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य देशों में विधियों को संहिताबद्ध किया जाता है और इसके बाद इनमें विधायी अधिनियमों द्वारा संशोधन के माध्यम से ही कुछ जोड़ा या घटाया जा सकता है। विधि संहिता प्राचीन मध्य पूर्व की विधि व्यवस्था की एक सामान्य विशेषता रही है। उदाहरणार्थ सुमेर, मेसोपोटामिया(अब इराक) की विधि संहिता, उरुकएगिना(उरुक्गीना) विधि संहिता(२३८०-२३६० ई.पू.), उर-नम्मू(उर-नम्मू) का सुमेरियन कोड(लगभग २१००-२०५० ई.पू.), एशनुन्ना(एशनुनना) की विधि संहिता, लिपिट-ईशर की विधि संहिता (१९३४-१९२४ ईसा पूर्व) और हम्मुराबी की बेबीलोनियन संहिता (लगभग १७६० ईसा पूर्व) प्राचीनतम और सर्वोत्तम संरक्षित संहिताएं हैं। रोमन साम्राज्य में अनेक संहिताएं बनाई गईं जैसे - ४५० ईसा पूर्व में पहली बार संकलित रोमन विधि की बारह तालिकाएँ (त्वेल्वे टेबल्स) और जस्टिनियन की कॉर्पस ज्यूरिस सिविलिस (कोरपस जूरिस सिविलिस), जिसे जस्टिनियन कोड (४२९ - ५३४ ईस्वी) के रूप में भी जाना जाता है। परन्तु इन विधि संहिताओं में रोमन विधि व्यवस्था का संपूर्ण वर्णन नहीं किया गया। बारह तालिकाओं का विषय क्षेत्र सीमित था और अधिकांश विधिक सिद्धांतों को परमधर्मपीठों(पॉण्टिफिसेस) द्वारा विकसित किया गया था जिन्होंने ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए तालिकाओं की व्याख्या की, जिनका उल्लेख उनमें नहीं था। उस समय उपलब्ध विधिक विषयवस्तु को जस्टिनियन कोड में संकलित किया गया है । प्राचीन चीन के तांग राजवंश में ६२४ ईस्वी में पहला विशद आपराधिक कोड तांग कोड बनाया गया। तांग कोड और इसके बाद के अन्य शाही कोड चीन और इसके सांस्कृतिक प्रभाव के अंतर्गत आने वाले अन्य पूर्वी एशियाई राज्यों की दंड व्यवस्था के आधार बने। १६४४ में चिंग राजवंश(किंग डाइनेस्टी ) की स्थापना के बाद बनाया गया ग्रेट चिंग लीगल कोड अंतिम और सर्वोत्तम संरक्षित शाही कोड है। यह कोड १६४४ और १९१२ के मध्य चीन में प्रवृत्त विधि का विशिष्ट उदाहरण है। यद्यपि यह एक आपराधिक संहिता थी किन्तु इसका एक बड़ा भाग दीवानी कानून और दीवानी विवादों के निपटारे से संबंधित था। १९१२ में चिंग राजवंश के पतन के बाद यह संहिता अस्तित्व में नहीं रही परन्तु हांगकांग में इसके महत्वपूर्ण प्रावधान १९७० के दशक तक लागू रहे। रोमन विधि, विशेषरूपेण कॉर्पस ज्यूरिस सिविलिस, यूरोप के अनेक देशों की विधिक व्यवस्था का आधार बन गई। रोमन विधि को या तो विधायी व्यवस्था द्वारा अपनाया गया या न्यायविदों द्वारा विकसित किया गया। इस प्रकार अपनाई गई रोमन विधि को संहिताबद्ध करके मुख्य संहिता मे सम्मिलित कर लिया गया। वेस्टफेलिया की संधि के बाद राष्ट्र-राज्यों का उदय होने पर विधि के संहिताकरण की गति तीव्र हो गई। १८०४ का नेपोलियन कोड(कोड सिविल), १९०० का जर्मन नागरिक कोड(बर्गरलिचेस गेसेट्ज़बच) और स्विस कोड प्रमुख राष्ट्रीय सिविल कोड हैं। १८०० के दशक में यूरोपीय विधि के संहिताकरण ने कैथोलिक कैनन कानून के संहिताकरण को भी प्रभावित किया। इस बीच, अफ्रीकी सभ्यताओं ने भी कहीं-कहीं अपनी विधिक प्रथाओं को सिलसिलेवार मौखिक रूप से संहिताबद्ध करते हुए विकसित किया। हाल की शताब्दियों में यूरोपीय सांस्कृतिक और सैन्य प्रभुत्व के विस्तार के साथ-साथ दुनिया भर में महाद्वीपीय सिविल विधि की परंपरा विकसित हुई। मेइजी पुनर्स्थापन(मैजी रेस्टॉर्न) के दौरान, जापान ने मुख्यत: फ्रांसीसी सिविल संहिता पर आधारित और जर्मन संहिता से प्रभावित एक नई सिविल संहिता(१८९८) को अपना लिया। १९११ की शिन्हाई क्रांति के बाद चीन के गणराज्य की नई सरकार ने शाही कोड परंपरा को त्याग कर जर्मन बर्गर्लिच गेसेट्ज़बच(ब्र्गरलिच गेसेटज़्बूच) और जापानी कोड से प्रभावित एक नई सिविल संहिता को अपना लिया। १९४९ से चीन के जनवादी गणराज्य की विधिक व्यवस्था में इस नई परंपरा को बड़े पैमाने पर बनाए रखा गया है। इस दौरान, लोक विधि वाली व्यवस्थाओं में भी संहिताकरण की प्रवृत्ति देखी जा रही है। उदाहरणार्थ, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में लोक विधि के अनेक क्षेत्रों में आपराधिक संहिता बन गई है और इंग्लैंड में इस पर विमर्श हो रहा है। अमेरिका में महाद्वीपीय विधिक संहिताओं का प्रभाव दो प्रकार से परिलक्षित होता है। सिविल विधि के क्षेत्र में महाद्वीपीय परंपरा वाली विधिक संहिताएं सामान्य हैं। किन्तु लोक विधि के क्षेत्र में संहिताकरण की प्रवृत्ति रही है। ऐसे संहिताकरण की परिणति सदैव विधिक संहिता के रूप में उस प्रकार नहीं होती जैसा कि सिविल विधि के मामले में होता है। उदाहरणार्थ, कैलिफ़ोर्निया सिविल कोड में मुख्य रूप से लोक विधि के सिद्धांत को ही संहिताबद्ध किया गया है और इसका रूप और विषय वस्तु अन्य सभी सिविल संहिताओं से में बहुत अलग हैं। सामान्यत: सिविल विधि व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग सिविल संहिता है सामान्यत निजी कानून की पूरी प्रणाली: विधिक संहिता के अन्तर्गत आती है। सिविल संहिताएं संयुक्त राज्य अमेरिका में आम तौर पर पाई जाती हैं। ऐसी नागरिक संहिताएं प्रायः लोक विधि के नियमों और विभिन्न प्रकार की तदर्थ विधियों का संग्रह होती हैं। सामान्यत: अनेक विधि व्यवस्थाओं मे आपराधिक संहिता या दंड संहिता पाई जाती है। आपराधिक विधि के संहिताकरण से आपराधिक विधि का निर्माण और संशोधन अधिक लोकतांत्रिक तरीके से हो सकता है।
| कैप्शन = प्रतीक चिन्ह | क्रिएटर = गजेंद्र सिंह | डाइरेक्टर = रणजीत ठाकुर एवं टी.वी. विनोद | प्रिसेटर = ऐश्वर्या निगम | स्टेरिंग = सुरेश वाडकर और आदेश श्रीवास्तव | कंट्री = संयुक्त राज्य अमेरिका | लैंग्वेज = हिन्दीअंग्रेजी | कमरा = बहु कैमरा | रुन्तीम = ६० मिनट | नेटवर्क = जी टीवी | रिलेटेड = सा रे गा मा पा चैलेंज २००५सा रे गा मा पा चैलेंज २००७सा रे गा मा पा चैलेंज २००९ }}सा रे ग म प चैलेंज यूएसए २००८ एक भारतीय टेलीविजन गायन प्रतियोगिता शो है जिसका प्रीमियर २० जून २०08 को ज़ी टीवी चैनल पर हुआ था। यह अमेरिका में सा रे गा मा पा चैलेंज श्रृंखला की पहली किस्त है और सा रे गा मा पा श्रृंखला में छठी सार्वजनिक मतदान प्रतियोगिता है। कालानुक्रमिक रूप से, यह शो सा रे गा मा पा लिटिल चैंप्स इंटरनेशनल से पहले आता है, हालांकि व्यवस्थित रूप से इसके बाद सा रे ग म प चैलेंज २००९ आता है। अन्य गायन प्रतियोगिताओं की तरह, सा रे गा मा पा'' के इस सीज़न की अवधारणा अमेरिका से गायन प्रतिभा की खोज करना है। ऑडिशन न्यूयॉर्क, शिकागो, सैन फ्रांसिस्को, डलास/फोर्ट वर्थ में आयोजित किए जाएंगे और फाइनल डलास, टेक्सास में रिकॉर्ड किया जाएगा। शीर्ष २० फाइनलिस्ट जेफरी इकबाल - प्रथम उपविजेता (२७ जुलाई २००८) फरहान जैदी - द्वितीय उपविजेता (२७ जुलाई २००८) कृष्णु मजमुंदर - समाप्त (२७ जुलाई २००८) - सेमीफाइनलिस्ट राहुल लखनपाल - समाप्त (२६ जुलाई २००८) विशाल भल्ला - समाप्त (२५ जुलाई २००८) आनंद कन्नन - समाप्त (१९ जुलाई २००८) प्रभु शंकर - समाप्त (१८ जुलाई २००८) मुहिबुर रहमान - समाप्त (१२ जुलाई २००८) प्रवीण जालीगामा - समाप्त (४ जुलाई २००८) पूर्णाश दुर्गाप्रसाद - समाप्त (२७ जून २००८) दर्शना मेनन - विजेता (२७ जुलाई २००८) हरिनी वासुदेवन - समाप्त (२७ जुलाई २००८) - सेमीफाइनलिस्ट गंगा नारायणन - बाहर (२७ जुलाई २००८) - सेमीफाइनलिस्ट दीती मजमुंदर - समाप्त (२६ जुलाई २००८) सौजन्या मदाभुशी - समाप्त (२५ जुलाई २००८) सुप्रिया श्रीधरन - समाप्त (१९ जुलाई २००८) रसिका शेखर - समाप्त (१८ जुलाई २००८) इश्मीत कौर - समाप्त (११ जुलाई २००८) उज्वला चिन्नी - समाप्त (५ जुलाई २००८) डॉ. अदीबा अख्तर - बाहर हो गए (२८ जून २००८) ज़ी टीवी के कार्यक्रम भारतीय वास्तविकता टेलीविजन श्रृंखला
रामपूर्व के स्तंभशीर्ष एसीएल कार्लाइल द्वारा खोजे गए अशोक स्तंभों की दो स्तम्भशीर्ष हैं। पुरातात्विक स्थल को रामपुरवा कहा जाता है, और यह भारतीय राज्य बिहार के पश्चिम चंपारण जिले में स्थित है, जो नेपाल की सीमा के बहुत करीब स्थित है। लायन कैपिटल अब कोलकाता में भारतीय संग्रहालय में है, जबकि बुल कैपिटल भारतीय राष्ट्रपति महल, राष्ट्रपति भवन के बरामदे के केंद्र में स्थित है। १८९६ में लॉरेंस वडेल ने सुझाव दिया कि गौतम बुद्ध की मृत्यु या परिनिर्वाण रामपूर्व के क्षेत्र में था। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर आधुनिक विद्वानों का मानना है कि बुद्ध की मृत्यु कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में हुई थी। सिंह स्तंभ अशोक के शिलालेखों के प्रमुख स्तंभ शिलालेखों, स्तंभ शिलालेखों ई, ई, ई, इव, व, वि के साथ तराशा हुआ है। बैल का स्तम्भशीर्ष अशोक के स्तंभों से सात शेष पशु राजधानियों में से एक के रूप में विख्यात है। इसका बेस कमल है, और एक ज़ेबू बैल का यथार्थवादी चित्रण है। एबेकस विशेष रूप से ग्रीक कला का एक मजबूत प्रभाव प्रदर्शित करता है। संकस्सा हाथी शीर्ष के आधार पर इसी प्रकार की शीर्ष देखी जा सकती है। बोधगया में अशोक द्वारा बनवाए गए हीरे के सिंहासन पर भी इसी तरह की चित्रवल्लरी दिखाई देती है। ये डिज़ाइन संभवतः ग्रीक और निकट-पूर्वी कलाओं में उत्पन्न हुए थे। बैल शिलालेख के बिना है, संभवतः क्योंकि इसके जुड़वां स्तंभ, रामपूर्व सिंह स्तंभ में पहले से ही शिलालेख थे और इसलिए इसे दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं थी। ऐसा माना जाता है कि बैल का प्रतीक हिंदू धर्म के बैल नंदी से संबंधित नहीं है, क्योंकि अशोक वैसे भी अपने स्तंभों के लिए जानवरों की अपनी पसंद में काफी उदार था: शेर, हाथी, ऊंट, कलहंस और घोड़े जाने जाते हैं। इन्हें भी देखें अशोक के स्तंभ अशोक के फरमान प्रारंभिक भारतीय पुरालेख बिहार में पुरातत्व स्थल बिहार का इतिहास भारत में स्तम्भ स्थापत्य विकिडेटा पर उपलब्ध निर्देशांक
राष्ट्रीय राजमार्ग १३८ (नेशनल हाइवे १३८) भारत का एक राष्ट्रीय राजमार्ग है। यह पूरी तरह तमिल नाडु में है और पूर्व में तिरूनेलवेली शहर की पालयमकोट्टे बस्ती से पश्चिम में तूतुकुड़ी तक जाता है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग ३८ का एक शाखा मार्ग है। इन्हें भी देखें राष्ट्रीय राजमार्ग (भारत) राष्ट्रीय राजमार्ग ३८ (भारत)
अचोंड्रोप्लासिया बौनापन () एक प्रमुख अनुवांशिक विकार है जो बौनेपन का आम कारण है अचोंड्रोप्लास्टिक द्वार्फ का कद छोटा होता है, एक वयस्क की ऊंचाई १३१ सेमी होती है (४ फुट, ३-१/२ इंच) पुरुषों के लिए और १२३ सेमी (४ फुट, १ / २ इंच) महिलाओं के लिए। व्याप्ति लगभग १ में २5,००० है। बौनापन फाइब्रब्लस्त वृद्धि कारक के {४रिसेप्टर{/४} जीन ३ ([४]) में एक ऑटोसोमल प्रमुख उत्परिवर्तन का परिणाम है जो एक नरम हड्डी विषमता का कारण बनता है। सामान्य परिस्थितियों में, फ्गर३ विकास नियामक प्रभाव पर हड्डी नकारात्मक है एक. अचोंड्रोप्लासिया में रिसेप्टर की मुटेटेड फार्म कंस्टीतुटिवेली सक्रिय होती है और जिससे हड्डियाँ गंभीर रूप से छोटी रहती हैं। अचोंड्रोप्लासिया वाले लोगों में फाइब्रब्लस्त वृद्धि कारक रिसेप्टर ३ जीन की एक सामान्य प्रतिलिपी और एक उत्परिवर्ती प्रतिलिपि होती है। उत्परिवर्ती जीन की दो प्रतियां सदा जन्म से पहले या शीघ्र बाद में घातक होती हैं। जीन की केवल एक प्रतिलिपि का विकार उत्पन्न करने के लिए उपस्थित होना आवश्यक है। इसलिए, अचोंड्रोप्लासिया वाले एक व्यक्ति की अपने वंश को जीन देने की ५०% संभावना होती है, जिसका अर्थ है कि वहाँ ५०% संभावना है कि प्रत्येक बच्चे को अचोंड्रोप्लासिया होगा। चूंकि दो प्रतियां (होमोज़िग्स) का होना घातक है, अगर अचोंड्रोप्लासिया के साथ दो लोगों को एक बच्चा है, वहाँ बच्चे के जन्म के बाद शीघ्र ही मर जाने की २५%, बच्चे को अचोंड्रोप्लासिया होने की ५०% और बच्चे का एक औसत फेनोसायपी होने की २५% मौका एक २५% संभावना होती है। अचोंड्रोप्लासिया वाले लोगों के माता पिता में इस विकार का होना अनिवार्य नहीं है। यह एक नए उत्परिवर्तन का परिणाम है। नए जीन म्यूटेशन जो अचोंड्रोप्लासिया के कारक हैं बढ़ती पैतृक उम्र(३5 वर्ष के ऊपर) के साथ जुड़े रहे हैं। अध्ययनों से दिखा दिया है कि नए जीन म्यूटेशन जो अचोंड्रोप्लासिया के कारक हैं विशेष रूप से पिता से विरासत में मिलते हैं और स्परमाटोजेनेसिस के दौरान होते हैं, यह थ्योरिज़्ड है की उजेनेसिस में कुछ नियामक तंत्र है जो मूल रूप से महिलाओं में उस उत्परिवर्तन हिन्दर्स होने से रोकता है (हालांकि अभी भी महिलाओं अभी भी उस उत्परिवर्तित एलील को विरासत में लेने और देने में सक्षम हैं।) ९९% से अधिक अचोंड्रोप्लासिया फाइब्रब्लस्त वृद्धि कारक रिसेप्टर ३ (फ्गर३) के दो अलग अलग म्यूटेशनों के कारण होता है। लगभग ९८% मामलों में, फ्गर३ जीन के नूक्लियोमाइड ११३8 में ऐ से जी में एक बिंदु उत्परिवर्तन ग्लाइसिन को आर्जिनीन में परिवर्तित करता है (बेल्लूस एट अल. १९९5, शियांग एट अल. १९९४, रोसू एट अल. १९९6). लगभग १% मामले नूक्लियोमाइड ११३8 पर एक जी से सी बिंदु उत्परिवर्तन के कारण होते हैं। वहाँ दो अन्य विकार हैं जिनका आनुवंशिक आधार अचोंड्रोप्लासिया की तरह ही है: हाइपोगोड्रोप्लासिया और तनाटोफोरिक डिसप्लैसिया. रोग की पहचान अचोंड्रोप्लासिया जन्म के पूर्व अल्ट्रासाउंड का उपयोग करके पता लगाया जा सकता है। होमोज़िगोसिटी, का पता लगाने के लिए एक डीएनए परीक्षण के जन्म से पहले किया जा सकता है जिसमें उत्परिवर्ती जीन की दो प्रतियां विरासत में मिलती हैं, एक घातक स्थिति जो स्टिलबीर्थ का कारण बनती है। एक प्रारूपिक सर्वेक्षण अचोंड्रोप्लासिया के निदान की पुष्टि में उपयोगी है। खोपड़ी बड़ी, रंध्र मैग्नम संकीर्ण और खोपड़ी का आधार अपेक्षाकृत छोटा होता है। कशेरुका निकाय छोटे और चपटे अपेक्षाकृत अधिक ऊंची इन्टर्वर्टिब्राल डिस्क के साथ होते हैं और वहाँ कॉन्गेनीटाली संकुचित रीढ़ की हड्डी की नलिका होती है। श्रोणि पंख छोटा और बराबर होता है, साथ ही एक संकीर्ण सियाटिक निशान और क्षतिज एसेटाबुलर छत होती है। ट्यूबलर हड्डियों छोटी और मोटी होने के साथ मेटाफिसील कपिंग और जगमगाता हुआ और अनियमित विकास प्लेटों के साथ होता है। फिनुलर अतिवृद्धि मौजूद होती है। हाथ व्यापक, छोटे मेटाकार्पाल और फलंगा के साथ होते हैं और एक त्रिशूली विन्यास होता हैं। पसलियों छोटी और कुप्पेड पूर्वकाल छोर के साथ होती हैं। अगर रेडियोग्राफिक सुविधाएं क्लासिक नहीं हैं तो अन्य निदान खोजा जाना चाहिए। अत्यंत विकृत अस्थि संरचना के कारण, अचोंड्रोप्लासिया वाले लोग अक्सर डबल जाइंटेड हैं। भ्रूण अल्ट्रासाउंड के द्वारा उम्र के साथ जांध की हड्डी की लंबाई और बिपेराईटल व्यास के बीच प्रगतिशील विभिन्नता के द्वारा पहचान की जा सकता है। अगर उंगलियों को पूरी तरह से बढ़ा रखी हैं तो त्रिशूल हाथ विन्यास देखा जा सकता है।'''' सिंड्रोम के एक और विशेष लक्षण बचपन में गिब्बस थोराकोलम्बर का होना है। वर्तमान में, अचोंड्रोप्लासिया के लिए कोई इलाज ज्ञात नहीं है। हालांकि मानव विकास हार्मोन अचोंड्रोप्लासिया रहित लोगों के विकास में सहायक होता है परन्तु ये अचोंड्रोप्लासिया लोगों के विकास में मदद नहीं करता है। हालांकि, अगर वांछित हो तो, विवादास्पद अंग-लेंथेनिंग सर्जरी किसी अचोंड्रोप्लासिया वाले व्यक्ति के हाथों और पैरों को लम्बा कर सकती है। आमतौर पर, सबसे अच्छा परिणाम चिकित्सा के पहले और दूसरे वर्ष के भीतर प्रकट होता है घ चिकित्सा के दूसरे वर्ष के बाद लाभकारी हड्डी की वृद्धि कम हो जाती है . इसलिए, घ चिकित्सा एक लंबे समय से संतोषजनक उपचार नहीं है. महामारी विज्ञान या जानपदिकरोग विज्ञान अचोंड्रोप्लासिया और शर्त है एक जन्मजात के कई ऑस्टियोपेट्रोसिस, तारदा, अचोंड्रोजेनेसिस डिसप्लैसिया एपिफिसील के साथ ऑस्टियोजेनेसिस इम्पर्फेक्टा, इसी तरह की प्रस्तुतियों, जैसे एकाधिक और तनाटोफोरिक डिसप्लैसिया. इस बात से समय के साथ प्रसार का अनुमान मुश्किल, बदलते और व्यक्तिपरक निदान मानदंडों वाला हो जाता है। नीदरलैंड्स में एक विस्तृत और लंबे अध्ययन में पाया गया है कि जन्म के समय निर्धारित की व्यापकता केवल १.३ प्रति १00.००० जीवित जन्म था. हालांकि, उसी समय एक अन्य अध्ययन में यह प्रतिशत की दर १ प्रति १0,००० मिली. विकास के विकारों
ओरंगाबाद (आधिकारिक नाम: छत्रपति संभाजीनगर) भारत के महाराष्ट्र राज्य में स्थित एक ऐतिहासिक महानगर है। यह जिले का मुख्यालय भी है और मराठवाड़ा क्षेत्र का सबसे बड़ा नगर है। यह एक महत्वपूर्ण पर्यटक केंद्र है। नगर के बाह्यक्षेत्रों में अजंता गुफाएँ व एलोरा गुफाएँ हैं, जहाँ २०० ईसा पूर्व से लेकर ६५० ई. तक हिंदू-बौद्ध कलाकृतियाँ हैं। ये गुफाएँ 'वेरुल लेणी' नाम के स्थान पर स्थित हैं जिसे जैन मंदिर, कैलाश मंदिर, और बौद्ध विहार भी कहा जाता है। यह यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। इस क्षेत्र का इतिहास जिसमें औरंगाबाद स्थित है, उसे सातवाहन काल तक वापस खोजा जा सकता है। इस इलाके का उल्लेख राजा विक्रमादित्य के शासनकाल के दौरान भी मिलता है। सातवाहन काल में खाम नदी के किनारे अनेक छोटे-बड़े गाँव थे। उनमें से एक खड़की को आज का औरंगाबाद माना जाता है। ७वीं सदी में इस गाँव के उत्तर में बौद्ध गुफाओं और विहारों की खुदाई की गई थी। बाद की शताब्दी में इस गाँव का उल्लेख राजतलक या राजतड़ाग के रूप में भी मिलता है। १४ वीं शताब्दी तक, इस क्षेत्र पर देवगिरी के महान हिंदू साम्राज्य के सम्राट, राजा कृष्णदेव राय के वंशज यादवों का शासन था। उस दौरान यहाँ काफी समृद्धि थी। देवगिरी इस क्षेत्र का स्वर्ण युग था। मध्यकाल में औरंगाबाद भारत में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता था। मुगल शासक औरंगजेब ने अपने जीवन का उत्तरार्द्ध यहीं व्यतीत किया था और यहीं उसकी मौत भी हुई थी। औरंगजेब की पत्नी रबिया दुरानी का मकबरा भी यहीं हैं। इस मकबरे का निर्माण ताजमहल की प्रेरणा से किया गया था। इसीलिए इसे 'पश्चिम का ताजमहल' भी कहा जाता है। बीबी का मकबरा इस सुंदर इमारत को स्थानीय लोग ताजमहल का जुड़वा रूप मानते हैं। लेकिन बाहर के लोग इसे ताजमहल की फूहड़ नकल मानते हैं। इसे आजमशाह ने रबिया दुर्रानी की याद में बनवाया था। यह इमारत अभी भी पूर्णत: सुरक्षित अवस्था में है। इसी शहर में एक और भवन है जिसे सुनहरी महल कहा जाता है। प्रवेश शुल्क: भारतीयों के लिए १५ रु. तथा विदेशी पर्यटकों के लिए १०० रु., समय: सुबह ८ बजे से शाम ६ बजे तक। इस पनचक्की का निर्माण मलिक अंबर ने करवाया था। इस पनचक्की में पानी ६ किलोमीटर की दूरी से मिट्टी के पाइप से आता था। इसके चैंबर में लोहे का पंखा घूमता था जिससे ऊर्जा उत्पन्न होती थी। इस ऊर्जा का उपयोग आटा के मिल को चलाने में किया जाता था। इस मिल में तीर्थयात्रियों के लिए अनाज पीसा जाता था। इसी स्थान पर कुम नदी के बाएँ तट पर बाबा शाह मुसाफिर का मजार है। यह मकबरा लाल रंग के साधारण पत्थर का बना हुआ है। यह मकबरा सादगी का प्रतीक है। प्रवेश शुल्क: भारतीयों के लिए ५ रु. तथा विदेशियों के लिए १०० रु., समय: सूर्योदय से सूर्यास्त तक। ५२ दरवाजों का शहर:संभाजीनगर शहर में बहुत से दरवाजों का अवशेष भी हैं। इन ध्वंस अवशेषों में दिल्ली, जालना, पैठन तथा मक्का ,रोशन दरवाजा शामिल है। इसके अलावा बहुत से भवनों के अवशेष भी हैं। नकोंडा पैलेस, किला अर्क तथा दामरी महल आदि का अवशेष यहाँ है। भद्रा मारुती (लेटे हुए हनुमान) यह धार्मिक स्थान खुलदाबाद (मूल नाम भद्रावती) में स्थित है।भक्तो में यह देवस्थान जाग्रत होने की भावना है। हनुमान जयंती के अवसर पर हर साल यहा पर महाप्रसाद का आयोजन किया जाता है। पुराने शहर में मस्जिद और दरगाह फैले हैं। जामा मस्जिद के अलावा शाह गंज मस्जिद, चौकी की मस्जिद आदि इमारतें भी देखने के योग्य है। शहर के उत्तर में पीर इस्लाम की दरगाह है। बनी बेगम बाग यह सुंदर बाग शहर से २४ किलोमीटर दूर खुलदाबाद में स्थित है। इसी बाग में बानी बेगम की समाधि बनी हुई है। बानी बेगम औरंगजेब की पत्नी थीं। इस मकबरे में भव्य गुंबद, पिलर तथा फव्बारे हैं। यह मकबरा दक्कन प्रभावित मुगल वास्तुशैली का सुंदर नमूना है। औरंगाबाद की गुफाएँ ये गुफाएँ शहर से कई किलोमीटर दूर उत्तर में स्थित हैं। इन गुफाओं में बौद्ध धर्म से संबंधित चित्रकारी की गई है। यहाँ कुल दस गुफाएँ हैं जो कि पूर्व और पश्चिमी भाग में बटा हुआ है। इन गुफाओं में चौथी गुफा सबसे पुरानी है। इस गुफा की बनावट बौद्ध धर्म के हीनयान संप्रदाय से संबंधित वास्तुशैली में की गई है। इन गुफाओं में जातक कथाओं से संबंधित चित्रकारी की गई है। पाँचवी गुफा में बुद्ध को एक जैन तीर्थंकर के रूप में दर्शाया गया है। प्रवेश शुल्क: भारतीयों के लिए १० रु. तथा विदेशियों के लिए १०0 रु., समय: सुबह ९ बजे से शाम ५ बजे तक। दौलताबाद का किला हमेशा शक्ततिशाली बादशाहों के लिए आकर्षण का केंद्र साबित हुआ है। वास्तव में दौलताबाद की सामरिक स्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण थी। यह उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य में पड़ता था। यहाँ से पूरे भारत पर शासन किया जा सकता था। इसी कारण वश मुहम्मद बिन तुगलक ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। उसने दिल्ली की समस्त जनता को दौलताबाद चलने का आदेश दिया था। लेकिन वहाँ की खराब स्थिति तथा आम लोगों की तकलीफों के कारण उसे कुछ वर्षों बाद राजधानी पुन: दिल्ली लाना पड़ा। इसी कारण कुछ जानकार मुहम्मद बिन तुगलक को पागल सम्राट भी कहते है। दौलताबाद में बहुत सी ऐतिहासिक इमारतें हैं जिन्हें जरुर देखना चाहिए। इन इमारतों में जामा मस्जिद, चाँद मीनार तथा चीनी महल शामिल है। औरंगाबाद से दौलताबाद जाने के लिए प्राइवेट तथा सरकारी बसें मिल जाती हैं। प्रवेश शुल्क: भारतीयों के लिए ५ रु. तथा विदेशियों के लिए ५ डॉलर, समय: सुबह ९ बजे से शाम ६ बजे तक। मुगल शासक औरंगजेब ने खुलदाबाद के बाहरी छोर में स्थित राउजा में खुद को गाड़ने की इच्छा व्यक्त की थी। यहाँ स्थित औरंगजेब का मूल मकबरा बहुत सादगी के साथ बनाया गया था। इस मकबरे का निर्माण औरंगजेब के खुद के कमाए पैसे से हुआ था। औरंगजेब ने टोपी बनाकर तथा कुरान की हस्तलिपि तैयार कर पैसे कमाए थे। मकबरे के बाहर स्थित दुकानों से इस मकबरे की छोटी अनुकृति प्राप्त की जा सकती है। पैठण जोकि पहले प्रतिष्ठान के नाम से जाना जाता था, मराठवाड़ा का सबसे प्राचीन शहर है। ईसा मसीह के जन्म के पूर्व ही एक बार ग्रीक व्यापारी यहाँ आए थे। पुराने पैठण शहर की कुछ ऐतिहासिक भवनें अभी भी शेष है। इन भवनों में संत एकनाथ मंदिर तथा मुक्तेश्वर मंदिर शामिल हैं। संत एकनाथ मंदिर का गोदावरी नदी के तट पर है। यहाँ आने पर उस कुंड को जरुर देखना चाहिए जहाँ संत एकनाथ ने १५९८ ई. में जल समाधि ली थी। पैठण शहर महाराष्ट्रियन साड़ी के लिए भी प्रसिद्ध है। इस साड़ी को बनाने की प्रेरणा अजंता गुफा में की गई चित्रकारी से मिली थी। इस साड़ी के संबंध में एक अनुश्रुति भी है। इस अनुश्रुति के अनुसार एक बार पार्वती को एक अप्सरा की शादी में पहनने के लिए नई साड़ी नहीं थी। इस बात को जानकर शिव ने अपने बुनकर को पार्वती के लिए एक नए प्रकार की साड़ी बनाने का आदेश दिया। तभी से इस साड़ी का प्रचलन माना जाता है। अगर आप महाराष्ट्रियन साड़ी खरीदना चाहते हैं तो 'पैठण डिजायन सह प्रदर्शनी केंद्र' जाएं। यहाँ रेडीमेड साड़ियाँ मिलती है और ऑर्डर पर भी साड़ी बनाई जाती है। अजंता तथा एलोरा गुफाएँ अजंता (अजिंठा) गुफा की खोज जॉन स्मिथ ने १९वीं शताब्दी में की थी। ये गुफाएँ चारकोलिथ पत्थरों की बनी हुई हैं। इन गुफाओं में बौद्ध धर्म से संबंधित चित्रकारी की गई है। ये चित्र अभी सुरक्षित अवस्था में हैं। एक चित्र में मरणाशन राजकुमारी को चित्रित किया गया है। एक अन्य चित्र में लोगों को बुद्ध से दीक्षा लेते हुए दिखाया गया है। कुछ चित्रों में आम लोगों को भी दिखाया गया है। इन चित्रों को देखने से उस समय के समाज को समझने में भी मदद मिलती है। अजंता के समान एलोरा (वेरुल) की गुफाएँ भी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन इन गुफाओं में बौद्ध धर्म से संबंधित चित्रकारी नहीं मिलती है। इन गुफाओं में मुख्यत: हिंदू धर्म से संबंधित चित्रकारी की गई है। यहाँ रामायण और महाभारत से संबंधित चित्र मिलते हैं। एलोरा का संबंध छत्रपती शिवाजी महाराज से भी है। यह छत्रपती शिवाजी महाराज का पैतृक स्थान है। छत्रपती शिवाजी महाराज के दादाजी मालोजी भोंसले वेरुल गाँव (जोकि अब एलोरो के नाम से जाना जाता है) में रहते थे। महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम प्रति वर्ष मार्च महीने के तीसरे सप्ताह में नृत्य और संगीत से संबंधित एक उत्सव का आयोजन यहाँ करता है। माना जाता है कि ५०,००० वर्ष पहले आकाश से २० लाख टन का एक उल्कापिंड गिरने से एक विशाल गड्ढा का निर्माण हुआ था। आज यह जगह एक झील का रूप ले चुका है। इस क्षेत्र को स्थानीय लोग लोनार देवी का क्षेत्र मानते हैं। स्थानीय लोग लोनार देवी की उपासना करते हैं। यहाँ पर कई अन्य मंदिर भी है। इनमें गणपति, नरसिम्हा तथा रेणुकादेवी मंदिर शामिल है। गायमुख तथा दैत्यासुदाना मंदिर लगभग नष्ट ही हो गया है। लेकिन इन मंदिरों में अभी भी पूजा की जाती है। अगर आप यहाँ आए तो इन मंदिरों को जरुर देखें। इस झील के कई रहस्यमय सवालों का उत्तर खोजा जाना अभी बाकी है। उदाहरणस्वरुप, कोई नहीं जानता कि बुलढाना के सुखाग्रस्त होने के बावजूद इस झील में कैसे सालोंभर पानी रहता है? माना जाता है किसी स्रोत से इस झील में पानी आता है लेकिन उस स्रोत का अभी तक पता नहीं लगाया जा सका है। इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि इस झील के पानी का पीएच मान एक समान नहीं, बल्कि भिन्न-भिन्न है। अगर आपको विश्वास नहीं हो तो आप इसे लिटमस पेपर के माध्यम से चेक कर सकते हैं। इस झील के बारें में एक अनुश्रुति भी प्रचलित है। इस अनुश्रुति के अनुसार इस झील की प्रसिद्धि को सुनकर अकबर ने इस झील के हरे पानी से साबुन बनाने का निर्देश दिया था जिससे वह स्नान करता था। इन्हें भी देखें औरंगाबाद जिले का शासकीय जाल-स्थल औरंगाबाद नगर निगम डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय सरकारी यांत्रिकी एवं तंत्रशास्त्र संस्थान मराठवाड़ा प्रौद्योगिकी संस्थान, औरंगाबाद औरंगाबाद की खबरे (मराठी में) छत्रपति संभाजीनगर जिला महाराष्ट्र के शहर छत्रपति संभाजीनगर जिले के नगर औरंगाबाद ज़िला, महाराष्ट्र महाराष्ट्र के शहर औरंगाबाद ज़िले, महाराष्ट्र के नगर
तदुबी भारत के मणिपुर राज्य के सेनापति ज़िले में स्थित एक गाँव है। यहाँ राष्ट्रीय राजमार्ग १०२ए का उत्तरी अंत स्थित है। इन्हें भी देखें मणिपुर के गाँव सेनापति ज़िले के गाँव
नारानाथ ब्रंथन ( नारनम का पागल आदमी) मलयालम लोककथाओं का एक पात्र है। उन्हें एक दिव्य व्यक्ति माना जाता था, एक मुक्ता जो पागल होने का नातकबकर्ता था। उनका मुख्य गतिविधि में एक बड़े पत्थर को एक पहाड़ी पर लुढकाना और फिर उसे वापस नीचे गिरने देना शामिल था। केरल के पलक्कड़ जिले के पट्टांबी में नारानाथ की एक बड़ी मूर्ति है, जहां माना जाता था की वे रहते थे। नारानाथ का जन्म परसिद्ध ज्योतिषी वररुचि के पुत्र के रूप में हुआ था, जिन्होंने विक्रम के दरबार को सुभोभित किया था। नारनाथ बारह संतानों में से एक थे या वररुचि के पराई पेट्टा पंथिरु कुलम थे और पलक्कड़ के चैथल्लुर में स्थित नारनाथ मंगलम मन में उनका पालन - पोषण हुआ था। नारनाथ वेद में महारत हासिल करने के लिए तिरुवेगपुरा आए। तिरुवेगपुरा और पास के रायरनेल्लूर पर्वत, जिसे ब्रंथचलम के नाम से जाना जाता है, उनका वहां सामान्य निवास स्थान बन गया। उनके अजीबोगरीब व्यवहार और अजीबोगरीब हरकत के वजह से उन्हें लोग पागल समझने लगे थे। रायरनेलॉर पर्वत पर उन्हें देवी के दर्शन हुए, और बाद में लोगों की भलाई के लिए उन्हें देवी को पर्वत में विराजित किया और वहां उनकी पूजा शुरू की। नारानाथ के अंतिम दिनों का अभी तक कोई स्पष्ट विवरण प्राप्त नहीं हुआ है। नारानाथ के जीवन का सबसे प्रसिद्ध पहलू पहाड़ी पर बड़े पत्थरों को लुढ़काने और उन्हें वापस नीचे लुढ़काने देने की उनकी स्पष्ट रूप से सनकी आदत है और इस नजारे को देखकर जोर से हंसते थे । हालांकि, इस अधिनियम को अक्सर अलंकारिक माना गया है और असंख्य संदर्भ के लिए सामाजिक समालोचना के लिए लागू किया गया था। नारनाथ भ्रांतन की कहानियां नारानाथ में त्रिप्रायर एक दिन नारानाथ त्रिप्रायार के मंदिर में पूजा करने आए। वे वेदी के पत्थर की गति को देखकर आश्चर्यचकित थे, फिर भी उन्होंने अपनी योगिक शक्तियों के माध्यम से कारण की थाह ली। उन्होंने मंदिर को तंत्री कहा और मंत्रोच्चारण करते हुए पत्थर पर किल ठोंक दी। केरल की संस्कृति
घनश्याम दास अरोड़ा ( जन्म १३ अगस्त १९५२) पिता का नाम श्री अर्जुन दास ) अरोड़ा भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं और वर्तमान में यमुनानगर निर्वाचन क्षेत्र से हरियाणा की १३ वीं विधानसभा के विधायक है। २०१४ में उन्होंने २८२४५ वोटों के अंतर के साथ विधानसभा चुनाव जीता। वह १९६७ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में शामिल हुए और संघ के सक्रिय सदस्य बने। हरियाणा के राजनीतिज्ञ १९५२ में जन्मे लोग
सजल बरुई ( ) एक सजायाफ्ता अपराधी है जो अपने पिता, सौतेली माँ और सौतेले भाई की हत्या के लिए जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है। उसने २२ नवंबर १९९३ को कोलकाता, भारत में सोलह वर्ष की आयु में हत्याएं कीं। हत्याओं ने अपराधों की भीषण प्रकृति के कारण कोलकाता प्रेस में सुर्खियां बटोरीं और क्योंकि उस समय बरूई और उसके साथी नाबालिग थे। सजल बरुई के पिता, सुबल बरुई ने अपनी पहली पत्नी, नियोती बरुई को छोड़ दिया, जिससे उन्हें एक बेटा हुआ, और दूसरी महिला मिनाती के साथ उनका रिश्ता था। इसी चक्कर से सजल पैदा हुई थी। कुछ वर्षों के बाद, उनके पिता अपनी पहली पत्नी के पास लौट आए और सजल को अपने साथ ले गए। सजल ने आठ साल की उम्र के बाद अपनी प्राकृतिक मां को नहीं देखा। अपनी गिरफ्तारी के बाद, उसने बताया कि कैसे बचपन में उसकी सौतेली माँ और बड़े सौतेले भाई द्वारा उसे अक्सर जलती सिगरेट और गर्म लोहे से जलाया जाता था २२ नवंबर १९९३ की रात, सजल और उसके पांच दोस्त, सभी किशोर (१६-१७ वर्ष की आयु के बीच) उत्तरी कोलकाता में उसके आवास पर पहुंचे। अपनी सौतेली माँ को अकेला पाकर, समूह ने उसका गला घोंट दिया और उसे एक कुर्सी से बाँध दिया। इसी तरह का भाग्य उसके सौतेले भाई के साथ हुआ जब वह घर आया, और उसके पिता, आधी रात से पहले। सजल और उसके एक साथी रंजीत ने शुरू में तीनों पीड़ितों की गला दबाकर हत्या करने की कोशिश की, लेकिन केवल सौतेली माँ ने दम तोड़ दिया। अपने पिता और सौतेले भाई को मारने में असमर्थ, सजल और रंजीत ने उन्हें चाकू मार कर मार डाला । पूरी कवायद में करीब तीन घंटे लगे। वारदात को अंजाम देने के बाद सजल के कहने पर उसके दोस्तों ने अपने हथियारों को सरसों के तेल से साफ किया और बड़े करीने से मेज पर सजा दिया. परिश्रम से थके हुए, उन्होंने रेफ्रिजरेटर से कुछ बंगाली मिठाइयाँ खाईं, और भोजन के लिए "भुगतान" के रूप में मेज पर कुछ सिक्के छोड़ दिए, एक विचार जो सजल को एक टेलीविजन कार्यक्रम देखने से आया था। सजल के दोस्तों के जाने से पहले, उन्होंने उसे एक कुर्सी से बांध दिया और यह दिखाने के लिए कि वह भी एक शिकार था, उसका मुंह बंद कर दिया। प्रारंभ में, वह संदेह को दूर करने में सक्षम था। हालाँकि, कोलकाता पुलिस को शक हो गया, क्योंकि उसने संघर्ष या किसी अन्य चोट के कोई निशान नहीं दिखाए। पूछताछ करने पर उसने हत्या करना कबूल किया और अपराधों के बारे में विस्तार से बताया। बाद में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने सजा को घटाकर आजीवन कारावास कर दिया। शुरू में सजल बरुई दम दम छावनी में अपनी सजा काट रहे थे, लेकिन "प्रशासनिक समस्याओं" के कारण उन्हें जुलाई २००० में मिदनापुर सेंट्रल जेल में स्थानांतरित कर दिया गया था। २००१ में, अपनी जेल की सजा काटने के दौरान, सजल बरुई ने एक कथित गुर्दे की बीमारी के लक्षण दिखाए और उन्हें कलकत्ता नेशनल मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में जांच के लिए स्थानांतरित कर दिया गया। १५ सितंबर २००१ को वह अस्पताल से फरार हो गया और २००३ की शुरुआत तक फरार रहा अपने भागने की रात, सजल बरुई ने एक बीयर पार्टी की मेजबानी की, जिसमें उन्होंने उन दो पुलिस कांस्टेबलों को आमंत्रित किया, जिन्हें उनकी निगरानी के लिए रखा गया था। अपनी प्रेमिका द्वारा तस्करी किए जाने के बाद वह अक्सर कांस्टेबलों को बीयर की पेशकश करता था, इसलिए उन्हें उसके इरादों पर शक नहीं हुआ। हालांकि, उस रात, उसने बीयर की दो बोतलों में नींद की गोलियां मिला दीं और उन्हें सोते देखा। इसके बाद वह बिना किसी बाधा के अस्पताल से बाहर चले गए। भगोड़े के रूप में पुलिस से बचने के बाद सजल बरुई ने मुंबई में एक दोस्त को ईमेल किया और वहां से फरार हो गया। उन्होंने वहीं शादी की और अपनी पत्नी को आसनसोल में छोड़कर कोलकाता लौट आए। उसने विभिन्न उपनामों के तहत कई अपराध किए। कलकत्ता के फूलबगान और मानिकतला पुलिस स्टेशनों के पुलिस अधिकारी २००३ की शुरुआत में सजल बरूई को फिर से पकड़ने में लगभग सफल रहे, जब वे उसकी प्रेमिका का पता लगाने और उसे फिर से पकड़ने के लिए एक स्टिंग ऑपरेशन स्थापित करने में सक्षम थे। हालांकि, सजल बरुई व्यवस्थित मुलाकात के लिए नहीं दिखे। इसके बाद सजल बरुई ने कोलकाता के लेक टाउन में हथकटा बिशु (एक हाथ वाले बिशु के लिए बंगाली) के नाम से जाने जाने वाले एक स्थानीय अपराधी की मांद में शरण ली। वह बिशु उर्फ कमल के साथ काम करता था और कोलकाता के उल्टाडांगा इलाके में एक डकैती के लिए जिम्मेदार था। जैसे ही कमल की तलाश तेज हुई, सजल बरुई एक स्थानीय अपराधी राजीव मेती के लिए काम करने के लिए पश्चिमी मिदनापुर जिले के जंबोनी चला गया। फरवरी २००३ के अंत में, शेख राजू के नाम से जाने वाले एक अपराधी को पश्चिमी मिदनापुर जिले के जम्बोनी इलाके में छोटी-मोटी चोरी के आरोप में गिरफ्तार किया गया और उसे मिदनापुर सेंट्रल जेल लाया गया। १६ मई २००३ को, लगभग तीन महीने तक शेख राजू के रूप में रहने के बाद, इस अपराधी की निश्चित रूप से सजल बरुई के रूप में एक जेलर द्वारा पहचान की गई थी, जो उससे पहले मिले थे जब वह कोलकाता में अलीपुर सेंट्रल जेल में अपनी उम्रकैद की सजा काट रहा था। पुनः कब्जा करने पर, सजल बरुई को कोलकाता में प्रेसीडेंसी जेल भेज दिया गया। यहां, उसने कोलकाता में अमेरिकन सेंटर पर २००२ के आतंकवादी हमले के मुख्य आरोपी आतंकवादी आफताब अंसारी और अपनी प्रेमिका की हत्या करने और अपनी मां को मारने का प्रयास करने वाले अपराधी देवाशीष चक्रवर्ती के साथ एक नेटवर्क बनाया। इस आपराधिक गठजोड़ का पता चलने के तुरंत बाद, सजल बरुई को अलीपुर सेंट्रल जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। देबाशीष चक्रवर्ती को मिदनापुर सेंट्रल जेल ले जाया गया था, जहां से वह २८ मई २००५ को भाग निकले, केवल दो दिन बाद पुनः कब्जा कर लिया गया। कुछ समय जेल में रहने के बाद सजल बरुई को अगस्त २०१० में रिहा कर दिया गया। जून २०११ में उसे डकैती के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। जन्म वर्ष अज्ञात (जीवित लोग)
मेलपाड़ी (मेल्पडी) भारत के तमिल नाडु राज्य के वेल्लूर ज़िले में स्थित एक गाँव है। यह एक प्राचीन नगर हुआ करता था और मेलपाड़ी राज्य चोल साम्राज्य और चालुक्य साम्राज्य के बीच स्थित एक राज्य था। राजाराज चोल १ के दादा का यहाँ देहांत हुआ था। इन्हें भी देखें तमिल नाडु के गाँव वेल्लूर ज़िले के गाँव
समुद्री लहरों में निहित ऊर्जा में ह्रास के लिये, तट से लगी हुई जो रुकावटें बनाई जाती हैं, उन्हें 'पन-ऊर्जा-तोड़' कहा जा सकता है। सरलता के लिये उन्हें तरंगरोध या पनतोड़ (ब्रेक-वाटर) कहते हैं। खुले हुए समुद्रतट पर स्थित बंदरगाहों की सुरक्षा पनतोड़ों द्वारा प्राप्त की जाती है। समुद्री लहरों में ऊर्जा बहुत बड़ी मात्रा में होती है ओर तूफानों में भारी से भारी तथा बड़े से बड़े पुश्ते भी विस्थापित हो जाते हैं, इसलिये बंदरगाहों की सुरक्षा के लिये पनतोड़ों के निर्माण पर बहुत व्यय किया जाता है। निर्माणविधि व निर्माणसामग्री के आधार पर पनतोड़ों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है: १. टीला रूपी अथवा ढालवाँ पनतोड़ (माउंड और स्लोप्ड ब्रेक-वाटर्स) पत्थरों या कंक्रीट के ब्लाकों से बनते हैं। २. खड़े, ऊर्ध्व अग्रभागवाले पनतोड़ (वर्टिकल फेमड ब्रेक-वाटर्स) लकड़ी के क्रेटों में पत्थर भरकर, ईटं चूने, पत्थर चूने तथा कंक्रीट इत्यादि से बनते हैं। ३. तीसरी श्रेणी में वे पनतोड़ आते हैं जो दोनों श्रेणियों के मेल से बनते हैं। निर्माण सामग्री की उपलब्धता, पानी की गहराई, समुद्र की तली का उतार चढ़ाव एवं प्राकृतिक दशा तथा उपलब्ध साधनों आदि पर इनका निर्माण आकल्प आधारित है। इस प्रकार का पनतोड़ बनाने के लिये प्राकृतिक रूप में पाए गए बड़े बड़े पत्थर तथा कंक्रीट के ब्लॉक प्रयोग में लाए जाते हैं। पनतोड़ को ज्वार भाटे की अधिकतम ऊँचाई तथा तूफानी लहर की ऊँचाई के बराबर ऊँचा बनाया जाता है। ऊपर की चौडाई भी तूफानी लहर की ऊँचाई के बराबर और क्रेन, अथवा ट्रक, के चल सकने योग्य बनाई जाती है। पनतोड़ के अभिकल्प में उसकी स्थिरता और स्थायित्व को ध्यान में रखते हुए, ढाल तथा किस स्थान पर किस माप का पत्थर रखना है, आदि बातें तय करनी होती हैं। नए पनतोड़ों पर प्रारंभिक तूफानों में कुछ न कुछ टूट फूट हो जाना साधारण सी बात है और शीघ्र से शीघ्र मरम्मत हो जाना आवश्यक है। इस प्रकार धीरे धीरे ये पनतोड़ अधिक स्थायी होते जाते हैं और मरम्मत का व्यय भी कम हो जाता है। ढालवाँ पनतोड़ के तीन या तीन से अधिक भाग होते हैं : हलका, बीच की श्रेणी का तथा भारी। हलका भाग सबसे नीचे तथा बीच में रखा जाता है। इसमें खदानों से खारिज हुआ मलवा भरा जाता है। बीच की श्रेणी का भाग हलके भाग की ढालों को सुरक्षित करने के लिय होता है और इसमें कुछ किलाग्राम से लेकर ४-५ टन तक के भार के पत्थर डाले जाते हैं। भारी भाग सबसे ऊपर होता है ओर इसमें १ टन से १0 टन तक भार के पत्थर डाले जाते हैं। इस प्रकार के पनतोड़ों का अभिकल्प समुद्री लहरों के द्वारा उत्पादित दबाव के विचार से किया जाता है। ढालवाँ पनतोड़ के स्थान पर खड़े पनतोड़ बना देने के कारण अत्यधिक क्षति होती हुई देखी गई है। पनतोड़ों की असफलताओं तथा सिद्धांतों के अध्ययन से, खड़े पनतोड़ के प्रयोग के लिये निम्नलिखित सावधानियाँ निर्धारित की जा सकती हैं : १. इस प्रकार के पनतोड़ का कार्य तूफान की लहरों को पलटना है, ताकि वह दीवार के दूसरी ओर न जा सके। २. यदि लहर की दिशा तथा पनतोड़ के संरेखण में ४५ डिग्री से अधिक का कोण हो तो लहर पलट जाती है। यदि कोण ४५ डिग्री से कम हो तो वह पनतोड़ को क्षति पहुँचा सकती है। ३. ढालवाँ पनतोड़ हर प्रकार की समुद्रतली पर बनाया जा सकता है, परंतु खड़ा पनतोड़ केवल पक्की नींव पर, जिसके तल रदन का अंदेशा न हो, बनाया जा सकता है। ४. पनतोड़ के लिये नींव ठीक करने, मुलायम चट्टान की खुदाई करने आदि में गोताखोरों की आवश्यकता पड़ती है और इस कारण यदि पानी की गहराई अधिक हो तो पनतोड़ आर्थिक दृष्टि से अमान्य हो जाते हैं। इसके विपरीत खड़े पनतोड़ के कुछ लाभ भी हैं। निर्माण सामग्री की कम मात्रा में आवश्यकता पड़ती है। यदि समुद्रतट पर पत्थर का मूल्य अधिक हो तब भी खड़ा पनतोड़ सस्ता रहता है। इस श्रेणी के पनतोड़ों की देखरेख और मरम्मत का व्यय भी कम होता है। मिश्रित डिजाइन के पनतोड़ मिश्रित आकल्प के पनतोड़ वहाँ बनाए जाते हैं जहाँ प्राकृतिक स्थिति ऐसी होती है कि मिश्रित आकल्प से व्यय में भी बचत होती है तथा निर्माण सुविधा भी मिल जाती है। इस विषय में समुद्रतटीय इंजीनियरी के अंतर्गत बहुत खोजबीन भी करनी होती है तथा गवेषणाकेंद्रों में छोटी रूपरेखा के माँडेलों पर प्रयेग करके, यह मालूम किया जाता है कि किस प्रकार के आकल्प से संतोषप्रद परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। पनतोड़ का विषय कुछ पेचीदा है, क्योंकि समुद्र की स्थिति तथा व्यवहार बड़ा परिवर्तनशील होता है। नए निर्माण करने से समुद्र के स्थलीय व्यवहार में क्या प्रतिक्रिया होगी इसका ठीक ठीक अनुमान करना बहुत कठिन कार्य है, फिर भी संसार में अनेक बंदरगाहों पर तथा अन्य तटीय स्थानों पर सहस्त्रों पनतोड़ बने हुए हैं, बनाए जाते हैं तथा टूटते और बनते रहते हैं।
कार्बनिक रसायन में, ऐल्कीन (एल्कने), एक असंतृप्त रासायनिक यौगिक होता है जिसमे कम से कम एक कार्बन-से-कार्बन का द्वि-बन्ध होता है। इन्हें ओलेफिन, या ओलेफाइन भी कहते हैं। सरलतम अचक्रीय ऐल्कीन वह होते हैं जिसमे सिर्फ एक द्वि-बन्ध होता है तथा अन्य कोई प्रकार्यात्मक समूह नहीं होता। यह मिलकर एक समरूप हाइड्रोकार्बन शृंखला की रचना करते हैं जिसका साधारण सूत्र (फार्मूला) आँह२न होता है। एथिलीन (च२ह४) सबसे सरल ऐल्कीन है। एल्कीनों को "ओलेफिन" भी कहा जाता है, (यह इसका एक पुराना पर्याय जो पैट्रोरसायन उद्योग में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है)। एरोमैटिक (सुरभित) यौगिकों को अक्सर "चक्रीय ऐल्कीन" का रूप माना जाता है, लेकिन उनकी संरचना और गुण इससे भिन्न होते हैं और वे ऐल्कीन नहीं होते।
जैनेंद्र कुमार का पाँचवा उपन्यास 'सुखदा' (१९५३ई.) है, जो प्रारंभ में धारावाहिक रूप से धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था। इसका कथानक घटनाओं के वैविध्य बोझ से आक्रांत है। जैसा कि इस उपन्यास के शीर्षक से स्पष्ट है इसकी प्रधान पात्री सुखदा है। उसका जीवन उसके लिए भार बन चुका है। वह एक धनी घराने की कन्या और विवाहिता है। वैचारिक असमानताओं के कारण उसके संबंध अपने पति से संतोषप्रद नहीं हैं। उपन्यास की यह परिस्थिति तो स्पष्ट है, परंतु इसको आधार बनाकर कथा का जो ताना-बाना बुना गया है, वह पाठक को विचित्र लगता है। कथा का उद्देश्य अंत तक अप्रकट ही रहता है। सुखदा के लाल की ओर आकर्षित होने पर भी कथानक का तनाव नहीं खत्म होता। अनेक स्वभावविरोधी प्रतिक्रियाओं तथा नाटकीय मोड़ों के बाद सुखदा पति को त्यागकर अस्पताल में भरती हो जाती है। अनेक अनावश्यक, अप्रासंगिक विवरणों तथा चमत्कारिक तत्वों से कथा अशक्त हो गई है।
डेनमार्क ७ से २३ फरवरी २०१४ तक सोचि, रूस में २०१४ शीतकालीन ओलंपिक में भाग लिया। ३ स्पोर्ट्स के १२ एथलीटों की एक टीम के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही है। उनकी सबसे अच्छी नियुक्ति पुरुषों और महिलाओं के कर्लिंग में अब तक छठी है। देश अनुसार शीतकालीन ओलंपिक २०१४
पीलीभीत भारतीय के उत्तर प्रदेश प्रांत का एक जिला है, जिसका मुख्यालय पीलीभीत है। इस जिले की साक्षरता - ६१% है, समुद्र तल से ऊँचाई -१७१ मीटर और औसत वर्षा - १४०० मि.मी. है। इसका क्षेत्रफल ३,५०४ वर्ग किलोमीटर है जिसमें से ७८४७८ हेक्टेयर भूमि पर सघन वन हैं। हिमालय के बिलकुल समीप स्थित होने के बावजूद इसकी भूमि समतल है। पीलीभीत की अर्थ व्यवस्था कृषि पर आधारित है। यहां के उद्योगों में चीनी, काग़ज़, चावल और आटा मिलों की प्रमुखता है। कुटीर उद्योग में बांस और ज़रदोज़ी का काम प्रसिद्ध है। पीलीभीत मेनका गांधी का चुनाव क्षेत्र भी है। यह नगर ज्ञान एवं साहित्य की अनेक विभूतियों का कर्मस्थल रहा है। नारायणानंद स्वामी 'अख्तर' संगीतज्ञ, कवि, साहियकार ता इतिहासकार के ूें प्रसिद्ध रहे हैं। चंडी प्रसाद 'हृदयेश' कहानीार, एांकीकार, उपन्यासकार, ीतकार एवं कवि थे। कविवर राधेश्याम पाठक 'श्याम' ने गद्य एवं पद्य दोनों साहित्य का सृजन किया और प्रसिद्ध फिल्मी गीतकार अंजुम पीलीभीती ने 'रतन', 'अनमोल घड़ी', 'ज़ीनत', 'छोटी बहन' एवं 'अनोखी अदा' आदि फिल्मों के प्रसिद्ध गीत लिखकर पीलीभीत नगर का नाम रोशन किया। "धार्मिक इतिहास में " राजा मोरोध्वज की कहानी सवने सुनी होगी जिन्होने अपने वेटे को आरे से काट कर कृष्ण भगवान को आधा तथा आधा उनके साथ आये सिंह के रूप में अर्जुन को खिलाने के लिये दे दिया था। उस राजा का किला दियूरिया के जंगल में आज भी है। "इकहोत्तरनाथ मन्दिर":-पीलीभीत जिले की पूरनपुर तहसील की ग्राम पंचायत सिरसा के निकट रमणीक वन क्षेत्र में गोमती नदी के तट पर स्थित पौराणिक मन्दिर है। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र ने गौतम ऋषि द्वारा दिए गये श्राप से मुक्ति पाने के लिए एक ही रात्रि में एक सौ शिव लिंग गोमती तट पर स्थापित करने का निश्चय किया,जिसमें यह इकहत्तरवाँ शिव लिंग है।पीलीभीत में न्योरिया हुसैनपुर नाम का सुंदर नगर है पीलीभीत मे कुतुब शौकत मियां हुज़ूर का जहानाबाद के नाम से एक बड़ा खुशहाल नगर है यह हिन्दू मुस्लिम बहुत भाईचारे भाइचारे के साथ रहते है मनकामेश्वर महादेव मंदिर,ब्रह्मचारी घाट। खकरा ओर देवह नदियों के संगम स्थल ब्रह्मचारी घाट पर स्थित मनकामेश्वर महादेव का यह चार सौ वर्ष प्राचीन मंदिर दूर दूर तक प्रसिद्ध है । यंहा हनुमान जी एवं धनेश्वर महादेव के भी सुंदर और सिद्ध मंदिर हैं। यंहा का प्राकृतिक सौन्दर्य देखते ही बनता है संगम में स्नान करके मनकामेश्वर महादेव के दर्शनों से समस्त मनोकामनाएं पूरी होती है ऐसा भक्तो का मत है । यंहा आकर आपको एक असीम शांति का अनुभव होगा। मनकामेश्वर महादेव की उपस्थिति यंहा की शांति और सौन्दर्य में दिव्यता का संचार सा कर देती है जिसे आप यँहा से अपने साथ ले जाएंगे। ऐतिहासिक गुरुद्वारा - पीलीभीत के पकड़िया मोहल्ले में सिखों का प्रसिद्ध गुरुद्वारा है। धार्मिक रूप से यह लगभग चार सौ वर्षों पुराना स्थान है। लेकिन इसका जीर्णोद्धार हाल ही में किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि सिक्खों के गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने अमृतसर से नानकमता जाते समय में यहीं रुक कर विश्राम किया था। सन् १९८३ ई. में सुविख्यात बाबा फौजसिंह ने कार सेवा द्वारा पाँच मंज़िल वाले विशाल गुरुद्वारे का निर्माण करवाया। इस प्रकार गुरु गोविंद सिंह की स्मृति में इस ऐतिहासिक गुरुद्वारे का निर्माण हुआ। गौरी शंकर मंदिर - गौरी शंकर मंदिर खकरा मुहल्ले में देवहा तथा खकरा नदी के पास स्थित है। यहाँ गौरीशंकर जी के अतिरिक्त हनुमान, भैरों, दुर्गा और गणेश जी की मूर्तियाँ भी हैं। लगभग ढाई सौ साल पुराना यह मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। इसका द्वार अत्यंत भव्य एवं अवलोकनीय है। ऐसा माना जाता है कि यह द्वार नामक एक मुसलमान ने बनवाया था। जामा मस्जिद - जामा मस्जिद पीलीभीत का एक और गौरवशाली धर्मस्थल है। इसका निर्माण हाफिज रहमत खाँ ने ११८१- ८२ हिजरी में करवाया। यह मस्जिद दिल्ली की प्रसिद्ध जामा मस्जिद की बहुत शानदार प्रतिकृति है। मस्जिद के प्रवेश द्वार से पहले दरवेश इमाम हाफिज नूरुउद्दीन गजनबी का मजार बना हुआ है। वे इस मस्जिद के पहले इमाम भी थे। शाहजी मियां का मजार - शाहजी मियां पीलीभीत में जन्मे एक संत थे। मानव कल्याण के कार्यों के कारण उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई। वो १२५ वर्ष तक जीवित रहे। आज भी उनके मजार पर सभी धर्मों के लोग मन्नत माँगने आते हैं और चादर चढ़ाते हैं। इनका उर्स हर वर्ष एक सप्ताह के लिए होता है, जिसमें हजारों लोग सम्मिलित होते हैं। यशवंतरी देवी यशवंतरी देवी मंदिर का इतिहास वहुत पुराना है लगभग कई सौ वर्ष पुराना, यशवंतरी देवी मंदिर के पास नकटादाना नाम की जगहा है कई सौ साल पहले वहां पर नकटा नाम का एक दानव रहा करता था जिसने वहां के लोगो का जीना मुशकिल कर दिया था तव शक्ती ने मां यशवंतरी देवी के रूप में आकर उसका वध किया था। शिवधाम मंदिर -महादेव का यह मंदिर यशवंतरी देवी मंदिर से निकट ही है तथा इसका भी अपना वहुत महत्व है इस मंदिर में एक पीपल का पेड है जिसके बिषय में यह मान्यता है कि जो व्यक्ति यहां शिव जी पर रोज जल चढाता है पेड पर जितनी पत्तियां है उतनी शक्तियां उसकी रक्षा में लग जाती है। हाल में ही इसका जीर्णोद्र कराया गया है। पीलीभीत के प्राकृतिक पर्यटन स्थल पीलीभीत वन प्रभाग द्वारा ७४ वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में शारदा नदी एवं मुख्य शारदा कैनाल के बीच, शारदा सागर के किनारे, एक पर्यटन केंद्र का विकास किया गया है। शारदा सागर जलाशय की लंबाई २२ किलो मीटर और चौड़ाई ३ से ५ किलो मीटर है। इतने बड़े जलक्षेत्र के किनारे स्थित होने के कारण यह 'बीच' जैसा दिखाई पड़ता है अतः इसे 'चूका बीच' कहते है। जलाशय में अनेक प्रकार की मछलियां पाई जाती हैं। वन क्षेत्र में साल वृक्ष तो हैं ही, अर्जुन, कचनार, कदंब, हर्र, बहेड़ा, कुसुम, जामुन, बरगद, बेल, सेमल आदि अनेक प्रकार के बड़े वृक्ष पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार की जड़ी बूटियां और घासें भी यहां देखी जा सकती हैं। प्राकृतिक संपदा भरपूर होने के कारण यहां वन्यपशुओं, पक्षियों और सरीसृप जाति के प्राणियों की भी बहुतायत है। प्राकृतिक संपदा भरपूर होने के कारण यहां वन्यपशुओं, पक्षियों और सरीसृप जाति के प्राणियों की भी बहुतायत है। यह स्थान पीलीभीत से लगभग ५० किलो मीटर की दूरी पर स्थित है। लग्गा भग्गा वन क्षेत्र - बराही क्षेत्र के अंतरगत इस वन प्रभाग की सीमा नेपाल से मिलती है। इसके एक ओर शारदा नदी है, दूसरी ओर नेपाल की 'शुक्ला फाटा सेंचुरी' तीसरी ओर किशनपुर का वन्य जीव विहार। यहां पर एक ओर बड़े-बड़े पेड़ हैं तो दूसरी ओर ऊंची घास और दलदल। यह अनेक प्रकार के पशुओं के निवास की आदर्श परिस्थतियां पैदा करता है। यहां सियार, हिरन और लोमड़ी जैसे मध्य आकार के पशु तो है ही शेर, हाथी और गैंडे भी आराम से विहार करते हुए देखे जा सकते हैं। यह वन क्षेत्र पीलीभीत से ७० किलो मीटर की दूरी पर स्थित है। विविध प्रकार के रंग बिरंगे पक्षी जैसे धनेश, कठफोड़ा, नीलकंठ, जंगली मुर्गा, मोर, सारस भी यहां देखे जा सकते हैं। यहाँ दुर्लभ प्रजाति का एक खरगोश भी पाया जाता है जिसे 'स्पिड हेअर' कहते हैं। "गोमती उदगम स्थल " उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की शान गोमती नदी का उदगम पीलीभीत से हुआ है यहां एक सरोवर है जिस्से गोमती नदी निकलती हैा पीलीभीत शहर से १० कि॰मी॰ की दूरी पर जहानावाद के निकट यह स्थान है यहां का सरोवर चक्र की तरह गोल है दोनों वन प्रदेशों में जाने व ठहरने की समुचित व्यवस्था है। पूरनपुर तहसील पूरनपुर में धर्मपुर नाम का एक गांव है वहां पर सत भैया बाबा के नाम से एक प्राचीन मंदिर है जहां भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती है इन्हें भी देखें पीलीभीत का कार्यकारी जालघर पीलीभीत का मानचित्र पीलीभीत यात्रा मार्गदर्शक उत्तर प्रदेश के जिले
पद्मनाभन कृष्णगोपाल अयंगार (२९ जून १९३१ २१ दिसम्बर २०११) भारत के गणमान्य परमाणु वैज्ञानिक थे। वे भारत के प्रथम परमाणु बम परीक्षण के सूत्रधार थे। वे भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (बार्च) के निदेशक और उसके बाद परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष रहे। वे भारत-अमेरिका असैनिक नाभिकीय सहयोग के विरुद्ध बोलने वालों में अग्रणी थे। उनका मत था कि यह समझौता अमेरिका का अधिक हित साधता है। १९३१ में जन्मे लोग २०११ में निधन
साध्वी कनकप्रभा का जन्म भारत की पुरानी राजधानी कलकता में २२ जुलाई १९४१ को हुआ। वो श्वेताम्बर तेरापंथ की साध्वी प्रमुखा हैं। १९४१ में जन्मे लोग
गुंटूर कारमत्रिविक्रम श्रीनिवास द्वारा लिखित और निर्देशित एक आगामी भारतीयतेलुगु-भाषाएक्शन ड्रामा फ़िल्महै, और एस. राधा कृष्णद्वारा उनके बैनरहारिका एंड हसीन क्रिएशन्स के तहत निर्मित है। फिल्म में महेश बाबू, पूजा हेगड़े, श्रीलीला, जॉन अब्राहम और जगपति बाबू हैं। फिल्म को आधिकारिक तौर पर मई २०२१ में अस्थायी शीर्षक स्सब२८ के तहत घोषित किया गया था, क्योंकि यह मुख्य अभिनेता के रूप में बाबू की २८वीं फिल्म है। फिल्म का आधिकारिक शीर्षक ३१ मई २०२३ को गुंटूर करम के रूप में सामने आया था। प्रमुख फोटोग्राफी १२ सितंबर २०२२ को अन्नपूर्णा स्टूडियो, हैदराबाद में शुरू हुई थी। फिल्म का स्कोर और साउंडट्रैक थमन एस द्वारा रचित है, छायांकन पीएस विनोद द्वारा संभाला गया है और संपादन नवीन नूली द्वारा किया गया है। गुंटूर कारम संक्रांति के मौके पर १३ जनवरी २०२४ को दुनिया भर के सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली है। भारतीय एक्शन ड्रामा फ़िल्में आगामी भारतीय फिल्में आने वाली तेलुगु भाषा की फिल्में
एस्वातीनी, बीआईएस २०१८ स्वाज़ीलैण्ड, आधिकारिक नाम एस्वातीनी साम्राज्य (अंग्रेज़ी: किंगडम ऑफ एस्वातीनी), दक्षिणी अफ्रीका में स्थित एक सम्प्रभु देश है। पूर्व की ओर मोजाम्बिक, व उत्तर, पश्चिम तथा दक्षिण की ओर दक्षिण अफ्रीका इस स्थल-रुद्ध देश के पड़ोसी हैं। एस्वातीनी अफ्रीका के सबसे छोटे देशों में से एक है इसकी अधिकतम लम्बाई (उत्तर से दक्षिण) २०० कि॰मी॰ व अधिकतम चौड़ाई (पूर्व से पश्चिम) १३० कि॰मी॰ है। छोटे आकार के बावजूद इस देश की जलवायु व स्थलाकृति विविध है कहीं शीतल व पर्वतमय पठार, तो कहीं उष्ण व शुष्क मैदान | जनसंख्या मुख्यतः नृजातीय स्वाज़ियों की है, जिनकी मातृभाषा स्वाज़ी है। उन्होंने इस साम्राज्य की स्थापना ग्वाने तृतीय के नेतृत्व में अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य में की; वर्तमान सीमाओं का निर्धारण वर्ष १८८१ में किया गया। १९०३ से १९६७ तक स्वाज़ीलैण्ड एक ब्रितानी संरक्षित राज्य था। ६ सितम्बर 19६8 को इस देश ने पुनः स्वतंत्रता प्राप्त की। एस्वातीनी एक पूर्ण राज-तंत्र है, जिसके वर्तमान शासक राजा म्स्वाति तृतीय हैं। वे राष्ट्राध्यक्ष भी हैं, तथा देश के प्रधानमन्त्री सहित संसद के दोनों सदनों के कई प्रतिनिधियों की नियुक्ति भी करते हैं। संसद के निचले सदन में बहुमत निर्धारित करने के लिए हर ५ वर्षों में चुनाव आयोजित होते हैं। देश का वर्तमान संविधान 200५ में अपनाया गया। एस्वातीनी एक लघु अर्थव्यवस्था का विकासशील देश है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद ७९१७ डॉलर होने के कारण, एस्वातीनी को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निम्नतर-मध्यम आय वाले देश के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इस देश का मुख्य स्थानीय व्यापारिक साझेदार दक्षिण अफ्रीका है। एस्वातीनी की मुद्रा, लीलांगिनी, दक्षिण अफ्रीका की मुद्रा रैंड के अनुसार आंकी जाती है। इसके प्रमुख ग़ैर-अफ़्रीकी व्यापारिक साझेदार संयुक्त राज्य अमेरिका एवं यूरोपीय संघ हैं। देश के रोज़गार का अधिकांश भाग कृषि एवं विनिर्माण के क्षेत्रों से आता है। एस्वातीनी दक्षिण अफ्रीकी विकास समुदाय, अफ्रीकी संघ तथा राष्ट्रमण्डल देशों का सदस्य है। स्वाज़ी आबादी घोर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही है एड्स और तपेदिक जैसी बीमारियाँ गंभीर चुनौतियाँ हैं। वर्ष २०१३ के प्राक्कलन अनुसार एस्वातीनी में अनुमानित जीवन प्रत्याशा ५० साल है। एस्वातीनी की जनता काफी युवा है; आबादी की मध्यिका आयु २०.५ वर्ष है तथा जनसंख्या का ३७.४ प्रतिशत 1४ वर्ष या उससे काम आयु का है। एस्वातीनी अपनी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। अगस्त/सितम्बर में आयोजित उम्हलांगा समारोह, और दिसंबर/जनवरी में आयोजित इंक्वाला राजकीय संस्कार, राष्ट्र के सबसे महत्त्वपूर्ण समारोह हैं।
फुमी जाति चीन की बहुत कम जन संख्या वाली जातियों में से एक है, अब उस की कुल जन संख्या मात्र तीस हजार है, जो दक्षिण पश्चिम चीन के युन्नान प्रांत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में स्थित पाई व फुमी जातीय स्वायत्त काऊंटी में रहती है। फुमी जाति के पूर्वज चीन के उत्तर पश्चिम भाग में घास मैदान में रहते थे और घुमंतू पशुपालन का जीवन बिताते थे। करीब १३ वीं शताब्दी में वे स्थानांतरित हो कर आज के आबाद स्थल आ कर बस गए। बीते सात सौ सालों में फुमी जाति के लोग युन्नान प्रांत के नानपिंग क्षेत्र की फुमी काऊंटी में रहते हुए अपनी जाति की अलग पहचान बनाए रखे हुए हैं, उन के जातीय संगीत, भाषा, संस्कृति व रीति रिवाज में स्पष्ट विशेषता पायी जाती है। फुमी जाति के विशेष ढंग के वाद्ययंत्र बांसुरी से बजायी गई धुन बहुलॉत सुरीली है, फुमी जाति के युवा येन ल्येनचुन को अपना जातीय वाद्य बजाना बहुत पसंद है। येन ल्येनचुन का जन्म युन्नान प्रांत के फुमी जाति बहुल स्थान में हुआ था, पर विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद वह पेइचिंग में बस गए, उस के दिल में अपने गांव तथा अपनी जाति की संस्कृति के प्रति गाढ़ा लगाव है और उसे फुमी का संगीत बहुत पसंद भी है। उस की बांसुरी धुन से घने पहाड़ी जंगल में आबाद फुमी गांव की याद आती है। फुमी जाति के लोग अपनी जाति से बहुत प्यार करते हैं, उन के जीवन में ढेर सारी प्राचीन मान्यताएं और प्रथाएं सुरक्षित हैं। युवा लोग बुजुर्ग पीढ़ी से एतिहासिक कहानी सुनने के उत्सुक हैं, जब कि बुजुर्ग लोग भी वाचन गायन के रूप में फुमी जाति के उत्तर से दक्षिण में स्थानांतरित होने का इतिहास बताना पसंद करते हैं। इन कहानियों से फुमी जाति के पूर्वजों की मेहनत तथा बुद्धिमता जाहिर होती है। अपने पूर्वजों के लम्बे रास्ते के स्थानांतरण की याद में फुमी महिलाओं के बहु तहों वाले स्कर्ट के बीचोंबीच लाल रंग की धागे से एक घूमादार रेखा कसीदा की जाती है, यह घूमादार रेखा फुमी के पूर्वजों के स्थानांतरण का प्रतीक है। फुमी लोगों की मान्यता के अनुसार उन की मृत्यु के बाद वे इसी रास्ते से अपना अंतिम पड़ाव पहुंच जाते हैं। फुमी जाति के लोग मानते हैं कि मृत्यु के बाद उन की आत्मा अपनी जन्म भूमि वापस लौटती है, इसलिए वे अंतिम संस्कार के आयोजन में भी पूर्वजों की समृत्ति में रस्म जोड़ देते हैं। फुमी जाति के लोगों के अंतिम संस्कार में बकरी का मार्ग दर्शन नामक रस्म होता है, इस के अनुसार पुजारी मृतक को उस के पूर्वजों के नाम और उत्तरी भाग में लौटने का रास्ता बताता है, मृतक को रास्ता दिखाने के लिए एक बकरी भी लाता है। रस्म के दौरान पुजारी यह मंत्र जपाता रहता है कि तुरंत तैयार हो, यह सफेद बालों वाला बकरी तुझे रास्ता दिखाएगा, तुम हमारे पूर्वजों की जन्म भूमि --उत्तरी भाग लौट जाओ। फुमी जाति में अपनी जाति की विशेषता बनाए रखने के लिए अनेक रीति रिवाज प्रचलित होते हैं। मसलन् घुमंतू जाति की संतान होने के नाते फुमी जाति के बच्चे १३ साल की उम्र में ही व्यस्क माने जाते हैं, इस के लिए व्यस्क रस्म आयोजित होता है। श्री येन ल्येनचुन ने अपने व्यस्क रस्म की याद करते हुए कहाः व्यस्क रस्म फुमी जाति के बच्चों का एक अहम उत्सव है, यह इस का प्रतीक है कि बच्चे अब परवान चढ़ गए हैं। व्यस्क रस्म के आयोजन के समय परिवार के सभी लोग अग्नि कुंड के सामने इक्ट्ठे हो जाते हैं, अग्नि कुंड के आगे देव स्तंभ खड़ा किया गया है, व्यस्क रस्म लेने वाले बच्चे का पांव अनाज से भरी बौरे पर दबा हुआ है, इस का अर्थ है कि उस का भावी जीवन खुशहाल होगा। रस्म के दौरान बच्चा हाथों में चौकू और चांदी की सिक्का पकड़ता है और बच्ची कंगन, रेशम और टाट के कपड़े हाथ में लेती है। यह उन की मेहनत और कार्यकुशलता का परिचायक होता है। व्यस्क रस्म के बाद फुमी जाति के युवक युवती सामुहित उत्पादन श्रम तथा विभिन्न सामाजिक कार्यवाहियों में भाग लेने लगते हैं और उन्हें प्यार मुहब्बत करने तथा शादी ब्याह करने की हैसियत भी प्राप्त हुई है। फुमी जाति में स्वतंत्र प्रेम विवाह की प्रथा चलती है। जाति में दुल्हन छीनने की प्रथा अब भी फुमी लोग बहुल क्षेत्रों में चलती है।
१९४६ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। २७ जून - कनाडाई संसद ने कनाडाई नागरिकता अधिनियम में कनाडाई नागरिकता को परिभाषित किया। २४ अक्टूबर- रॉकेट द्वारा पहली बार धरती का अंतरिक्ष से चित्र लिया गया। ६ दिसंबर- भारत में होमगार्ड संगठन की स्थापना हुई। डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद भारत की संविधान सभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। संयुक्त राष्ट्र द्वारा युनिसेफ की स्थापना की गई। अज्ञात तारीख़ की घटनाएँ १५ जुलाई - शत्रुघन सिन्हा १९ अगस्त- अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का जन्म ६ अक्टूबर - विनोद खन्ना ८ दिसंबर - शर्मिला टैगोर
यह विश्व की एक प्रमुख जलसन्धि हैं | विश्व की प्रमुख जलसन्धियाँ
यह भारतीय राज्य सिक्किम के राज्यपालों की सूची है सिक्किम के मुख्यमन्त्रियों की सूची सिक्किम *पूर्वोत्तर भारत सिक्किम से सम्बन्धित सूचियाँ
बाछम, कपकोट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के बागेश्वर जिले का एक गाँव है। इन्हें भी देखें उत्तराखण्ड के जिले उत्तराखण्ड के नगर उत्तराखण्ड - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर उत्तराखण्ड सरकार का आधिकारिक जालपृष्ठ उत्तराखण्ड (उत्तराखण्ड के बारे में विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी) उत्तरा कृषि प्रभा बाछम, कपकोट तहसील बाछम, कपकोट तहसील
एक ईसाई वीडियो गेम या बाइबिल गेम ईसाई धर्म द्वारा दी गई शिक्षाओं पर आधारित एक वीडियो गेम की श्रेणी है; यह ईसाई मीडिया की विशाल शैली और मीडिया प्रारूप का हिस्सा है। ईसाई वीडियो गेम ईसाई विषयों के साथ किसी भी गेम को कहते हैं। वैसे तो यह अपने आप में एक वीडियो गेम की शैली है, परंतु अधिकांश ईसाई खेल कई अलग-अलग शैलियों के गेमप्ले का अनुसरण करते हैं। ये गिटार प्रेज़, एक ईसाई-थीम वाले रिदम गेम से लेकर कैटेचुमेन जैसे शूटर गेम तक कुछ भी हो सकते हैं। कुछ ईसाई गेम एक इंजीलवादी उद्देश्य के साथ गंभीर गेम के रूप में भी बनाए जा सकते हैं लेकिन अधिकांश ईसाई खेल केवल उन खिलाड़ियों के लिए मनोरंजन हैं जो पहले से ही ईसाई हैं या ऐतिहासिक रूप से ईसाई धर्म में रुचि रखते हैं। १९८२ में टीआरएस-८० कलर कंप्यूटर के लिए बाइबिलबाइट्स द्वारा प्रकाशित "बाइबल कंप्यूटर गेम्स" श्रृंखला पहले ईसाई वीडियो गेम में से एक थी। "बाइबल कंप्यूटर गेम्स" को १९८३ में टाइमेक्स सिनक्लेयर और टेक्सस इन्स्ट्रूमेंट्स टीआई-९९/४ए कंप्यूटर प्लेटफॉर्म पर जारी किया गया था। बाइबिल कंप्यूटर गेम्स सीरीज़ को १९८४ में ऐपल टू-ई, कमोडोर ६४, कमोडोर वीआईसी-२०, और केप्रो सीपी/एम कंप्यूटर प्लेटफॉर्म पर जारी किया गया था। पीसी एंटरप्राइजेज द्वारा १९८६ में बाइबिल कंप्यूटर गेम्स का एक डॉस संस्करण जारी किया गया था। मूल बाइबिलबाइट्स "बाइबल कंप्यूटर गेम्स" स्रोत कोड पर आधारित कई ईसाई थीम वाली कंप्यूटर प्रोग्रामिंग पुस्तकें भी कॉनरोड्स द्वारा लिखी गई थीं। जॉन और जॉयस कॉनरोड पहली दो पुस्तकों के प्राथमिक लेखक थे, जबकि उनका बेटा, फिल कॉनरोड, मूल गेम डेवलपर्स में से एक था और तकनीकी संपादक के रूप में कार्य करता था। पहली बेसिक प्रोग्रामिंग पुस्तक, "कंप्यूटर बाइबिल गेम्स", में टाइमेक्स/सिंक्लेयर के लिए बेसिक सोर्स कोड, रेडियो शेक टीआरएस-८० कलर कंप्यूटर, और टेक्सास इंस्ट्रूमेंट्स टीआई-९९ कंप्यूटर सिस्टम शामिल थे। पहली प्रोग्रामिंग पुस्तक १९८३ के पतन में लिखी गई थी और १ जनवरी १९८४ को एक्सेंट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई थी। इन शुरुआती कंप्यूटर प्रोग्रामिंग पुस्तकों को छात्रों को यह सिखाने के लिए डिज़ाइन किया गया था कि अपने निजी कंप्यूटर पर बेसिक बाइबल कंप्यूटर गेम कैसे लिखें। तब से पीसी एंटरप्राइजेज और बाइबिलबाइट बुक्स ने माइक्रोसॉफ्ट स्मॉल बेसिक, विजुअल बेसिक, विजुअल सी# और जावा के लिए कई "कंप्यूटर बाइबिल गेम" प्रोग्रामिंग किताबें प्रकाशित की हैं। ये सभी बाइबिल थीम वाली प्रोग्रामिंग किताबें होमस्कूल कंप्यूटर साइंस के छात्रों के अलावा ईसाई मध्य विद्यालय और उच्च विद्यालय के छात्रों के लिए अभिकल्पित की गई थीं। एक अन्य ईसाई वीडियो गेम अग्रणी बर्नार्ड के. बैंगले थे, जिन्होंने अपने बेटे डेविड बैंगली के साथ "बाइबल बेसिक: बाइबिल गेम्स फॉर पर्सनल कंप्यूटर" लिखी थी। बाइबिल बेसिक दिसंबर १९८३ में हार्पर & रो द्वारा प्रकाशित की गई थी। उनकी पुस्तक में बाइबिल गेम बनाने के लिए टाइप-इन बेसिक प्रोग्राम शामिल थे। इन प्रोग्राम को बेसिक के किसी भी संस्करण में काम करने का इरादा था, लेकिन पुस्तक में ऐपल टू, अटारी ४००/८००, कमोडोर वीआईसी -२०, कमोडोर ६४ और टीआरएस -८० के साथ-साथ उन्हें और अधिक रोचक बनाने के लिए विस्तार और अनुकूलित करने के लिए कार्यक्रमों को अनुकूलित करने के लिए सुझाव शामिल थे। निन्टेंडो एंटरटेनमेंट सिस्टम में कई ईसाई वीडियो गेम शामिल थे, हालांकि उस समय निन्टेंडो का कॉर्पोरेट रुख यह था कि धार्मिक प्रतीकवाद को मना किया गया था। फिर भी आधिकारिक तौर पर विकसित निन्टेंडो उत्पादों में भी कभी-कभी ईसाई प्रतीकों को चित्रित किया जाता है; उदाहरण के लिए द लीजेंड ऑफ ज़ेल्डा ने लिंक की ढाल पर एक ईसाई क्रॉस को बुराई के खिलाफ सुरक्षा के रूप में दिखाया। स्पष्ट ईसाई प्रतीकों का उपयोग करने वाले पहले निन्टेंडो एंटरटेनमेंट सिस्टम के गेमों में से एक कैसलवानिया था जिसे कभी-कभी विभिन्न क्षेत्रों में सेंसर किया जाता था, खेल साइमन बेलमोंट नामक एक ईसाई पिशाच शिकारी का अनुसरण करते थे, जो पवित्र जल जैसे हथियार ले जाते थे, उस कार्य को बुमेरांग के रूप में पार करते थे, और एक नीली माला जिसने सभी ऑन-स्क्रीन दुश्मनों को साफ कर दिया। कोनामी ने जापान और यूरोप में नूह की नाँव पर आधारित एक गेम जारी किया, लेकिन उस समय के कड़े मानकों और प्रतिक्रियाओं के कारण इसे संयुक्त राज्य में कभी जारी नहीं किया गया। १९८० के दशक के उत्तरार्ध में बिना लाइसेंस वाले गेम डेवलपर कलर ड्रीम्स ने विस्डम ट्री के नाम का इस्तेमाल करते हुए सिस्टम के लिए विशेष रूप से ईसाई वीडियो गेम विकास किए। २००० में कैटेचुमेन जारी किया गया था, जिसे एन'लाइटनिंग सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट द्वारा बनाया गया था। कैटेचुमेन एक रोमन-थीम वाला प्रथम-व्यक्ति शूटर वीडियो गेम है। यह सबसे महंगे ईसाई वीडियो गेम में से एक होने के लिए जाना जाता है। एन'लाइटनिंग ने विकास प्रक्रिया के दौरान लगभग $८,३०,००० खर्च किए। खेल की बिक्री निराशाजनक रही। कैटेचुमेन के पास २००१ में जारी एक आध्यात्मिक उत्तराधिकारी था जिसे ओमिनस होराइजन्स: ए पलाडिन्स कॉलिंग कहा जाता था, जो अंततः कंपनी के विघटन का कारण बना। २००२ में संडे सॉफ्टवेयर ने विंडोज एक्सपी से १० के लिए बाइबिल वीडियो गेम और इंटरेक्टिव बाइबिल कहानी पाठों का विकास और वितरण शुरू किया, मुख्य रूप से संडे स्कूल में उपयोग के लिए अभिकल्पित किए गए थे। ३डीगेमस्टूडियो का उपयोग करके उन्होंने बोंगो लव्स द बाइबिल, गलिली फ्लाइयर, जोसेफ्स स्टोरी, एक्सडस एडवेंचर्स, अटैक ऑफ द संडे स्कूल जॉम्बीज और फेथ थ्रू द रूफ का निर्माण किया। पाठ के रूप में डिज़ाइन किए गए इन गेमों में वर्णित ग्रंथ और स्क्रीन पर प्रस्तुत किए गए प्रश्न या ३डी वर्णों द्वारा बोले गए प्रश्न शामिल थे। मैक्रोमीडिया डायरेक्टर का उपयोग करते हुए संडे सॉफ्टवेयर ने विंडोज के लिए कई इंटरैक्टिव बाइबिल स्टोरीबुक प्रोग्राम भी जारी किए, जिनमें गुड सैम द सेमैरिटन, ऑसम बाइबिल स्टोरीस, एलिजा एंड जोनाह और द टेन कमांडमेंट्स (जिसमें माउंट सिनाई पर ऑन-लोकेशन शूट किए गए आईपिक्स फोटोबबल्स शामिल हैं)। इनमें से अधिकांश कार्यक्रम बाद में वॉ.रोटेशन.ऑर्ग, एक संडे स्कूल पाठ मंत्रालय जहाँ उन्हें मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है, के सदस्यों को दान कर दिए गए। २००६ में लेफ्ट बिहाइंड: इटरनल फोर्सेस को इंस्पायर्ड मीडिया एंटरटेनमेंट द्वारा इंजील ईसाई लेफ्ट बिहाइंड श्रृंखला के उपन्यासों पर आधारित जारी किया गया था। लेफ्ट बिहाइंड: इटरनल फोर्सेस एक वास्तविक समय की रणनीति का खेल था। अपनी रिहाई पर, अनन्त बलों को विभिन्न निगरानी समूहों से बहुत आलोचना और विवाद के अधीन किया गया था, जिसमें दावा किया गया था कि यह धार्मिक युद्ध और कट्टरता को बढ़ावा देता है। इंस्पायर्ड मीडिया एंटरटेनमेंट ने लेफ्ट बिहाइंड: इटरनल फोर्सेस के चार सीक्वल बनाए। २०१० में इंस्पायर्ड मीडिया एंटरटेनमेंट का डिजिटल प्रेज़ (डांस प्रेज़ के निर्माता और कई अन्य ईसाई वीडियो गेम) के साथ विलय हो गया। हालांकि, अगले साल तक इंस्पायर्ड मीडिया एंटरटेनमेंट बंद हो गया, और २०१३ में यूनाइटेड स्टेट्स सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन ने लेफ्ट बिहाइंड गेमों के खिलाफ अपने लंबित मुकदमे को सार्वजनिक कर दिया, इस आरोप के तहत कि सीईओ ट्रॉय लिंडन ने लगभग दो बिलियन अपंजीकृत शेयर जारी किए। वार्षिक ईसाई गेम डेवलपर्स सम्मेलन २००१ में छोटे स्वतंत्र स्टूडियो ग्रेसवर्क्स इंटरएक्टिव के संस्थापक टिम एमेरिच द्वारा शुरू किया गया था। सम्मेलन को ईसाई गेम डेवलपर्स को इकट्ठा करने, अन्य ईसाई डेवलपर्स के साथ सौदे करने और साझा विश्वास के साथ डेवलपर्स से प्रोत्साहन प्राप्त करने के लिए एक जगह के रूप में वर्णित किया गया है। २००० के दशक में ईसाई वीडियो गेम को उनके संदेश को प्राप्त करने पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण नवाचार और गेमप्ले यांत्रिकी में कमी होने के कारण बहुत आलोचना मिल रही थी। कुछ ईसाई खेलों की आलोचना अन्य के "क्लोन" होने के लिए की गई थी, बाइबिल से संबंधित विषयों और पात्रों के साथ अधिक लोकप्रिय खेलों को शीर्ष पर फिर से ऊपरी परत में बदल दिया गया था। ईसाई खेल प्रोग्रामिंग संसाधन ईसाई खेल डेवलपर्स सम्मेलन ईसाई खेल डिजाइन संसाधन वीडियो गेम रीमेक वीडियो गेम के फ़्रैन्चाइज़ ईसाई धर्म में रूपांतरण वीडियो गेम शैली
गीपीएल्ड सौफ्टवेर या कॉपीलेफ्टेड सौफ्टवेर या फ्री सॉफ्टवेर पर्यायवाची शब्द हैं। इसे फ्री सॉफ्टवेर में देखें। बौद्धिक सम्पदा अधिकार
मोती नगर, दिल्ली दिल्ली शहर का एक क्षेत्र है। यह दिल्ली मेट्रो रेल की ब्लू लाइन शाखा का एक स्टेशन भी है। दिल्ली मेट्रो ब्लूलाइन दिल्ली के क्षेत्र
भखरी सनहौला, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है। भागलपुर जिला के गाँव
आशा अग्रवाल एक पूर्व भारतीय महिला मैराथन चैंपियन और अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित खिलाड़ी हैं। आशा अग्रवाल ने २७ जनवरी, १९८५ को हांगकांग मैराथन जीता था। सितंबर १९८५ में उन्होंने जकार्ता में एशियाई ट्रैक और फील्ड मीटिंग में स्वर्ण पदक जीता, जिसमें २ घंटे ४८ मिनट और ५१ सेकंड का रिकॉर्ड बनाया था, जो अभी भी कायम है। उन्होंने १९८९ में दिल्ली में फ्रीडम रेस भी जीती, १९८६ में त्रिनिदाद मैराथन और २ घंटे ५० मिनट में २६ में से आठ रन प्राप्त किये थे। अर्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
उच्चायुक्त आयोग द्वारा नियुक्त विभिन्न विशेष उच्च कार्यकारी पदों का नाम होता है। इस नाम का उपयोग सामान्यतः अंतरराष्ट्रीय राजनयिक पदों के लिए किया जाता है। तथा, ऐतिहासिक तौरपर, ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेशों में विभिन्न उच्च प्रशासनिक पदों के लिए किया जाता था। वर्त्तमान समय में भी विभिन्न राष्ट्रमंडल देशों में राजनयिक पदों को उच्चायुक्त कह कर संबोधित किया जाता है। साथ ही कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों के उच्च पदों को भी उच्चायुक्त कहा जाता है। "उच्चायुक्त" शब्द मूलतः अंग्रेजी शब्द हाई कमिशनर (हाई कॉमिशनर) का हिंदी अनुवाद है। "हाई कमिशनर" नामक पद विभिन्न अंतरराष्ट्रीय राजनयिक पदों के लिए उपयोग किया जाता है। राष्ट्रमंडल देशों में, "उच्चायुक्त" किसी दूसरे राष्ट्रमंडल देश की सरकार के राजनयिक मिशन का वरिष्ठ राजनयिक प्रभारी होता है। राष्ट्रमंडल देशों के बीच के राजनयिक मिशनों को दूतावास के बजाय, आमतौर पर उच्चायोग कहा जाता है। हालांकि किसी उच्चायुक्त की भूमिका किसी राजदूत के समान ही होती है। संयुक्त राष्ट्र तथा अन्य बहुराष्ट्रीय संगठनों के भी प्रतिनिधि आयोगों के उच्चाधिकारियों को उच्चायुक्त या हाई कमिशनर कहा जाहिर है, उदाहरण के लिए अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार उच्चायुक्त। तथा ऐतिहासिय कूट पर संयुक्त सरहटर ने भी कई युद्ध पीड़ित देशों में उच्चायुक्त भेजे हैं। इसके अलावा ऐतिहासिक तौरपर, राष्ट्र आयुक्तों और संयुक्त राष्ट्र न्यास शासित प्रदेशों के गैर-संप्रभु राष्ट्रों के राष्ट्र संघ के अधिकार के तहत स्थापित संक्रमणकालीन शासन के तहत उच्चायुक्त का पद विशेष रूप से प्रशासकों के 'औपनिवेशिक शासन से मुक्ति' के दौरान इस्तेमाल किया गया था। या यूएन, क्रमशः, उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता के लिए तैयार करने के लिए। इन्हें भी देखें
हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल का नामकरण विद्वानों ने इस प्रकार किया है- वीरगाथा काल: (आचार्य रामचंद्र शुक्ल) चारणकाल: (डॉ॰ ग्रियर्सन, रामकुमार वर्मा) वीरकाल: (विश्वनाथ प्रसाद मिश्र) सिद्ध सामंत युग: (राहुल संकृत्यायन) बीजवपन काल: (महावीर प्रसाद द्विवेदी) आरम्भिक काल: (मिश्रबंधु) आदिकाल: (हजारी प्रसाद द्विवेदी) अंकुरण काल: (गोलेन्द्र पटेल) ये सभी नाम वस्तुत: एक ही सत्य को कई रूपों में परखने की विविध चेष्टाये हैं। जिन्होंने काव्य के प्रमुख गुणों को ध्यान में रखा। उन्होंने वीरगाथा; जिन्होंने कवि को प्रधान समझा, उन्होंने चारण; जिन्होंने काव्य-विषय आश्रयदाता को प्रधान माना, उन्होंने सामन्त तथा जिन्होंने साहित्य की प्राचीनता को ध्यान में रखा, उन्होंने पुर्व प्रारम्भ तथा आदिकाल नाम रखे । वीरगाथा काल (आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत) आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है। इस नामकरण का आधार स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं- ...आदिकाल की इस दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता-धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरांत जब से मुसलमानों की चढाइयों का आरम्भ होता है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बँधती हुई पाते हैं। राजाश्रित कवि अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन करते थे। यही प्रबन्ध परम्परा रासो के नाम से पायी जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने वीरगाथा काल कहा है। इसके सन्दर्भ में वे तीन कारण बताते हैं- इस काल की प्रधान प्रवृत्ति वीरता की थी अर्थात् इस काल में वीरगाथात्मक ग्रन्थों की प्रधानता रही है। अन्य जो ग्रन्थ प्राप्त होते हैं वे जैन धर्म से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए नाम मात्र हैं और इस काल के फुटकर दोहे प्राप्त होते हैं, जो साहित्यिक हैं तथा विभिन्न विषयों से सम्बन्धित हैं, किन्तु उसके आधार पर भी इस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं होती है। शुक्ल जी ने इस काल की बारह रचनाओं का उल्लेख किया है- विजयपाल रासो (नल्लसिंह कृत-सं.१३५५), हम्मीर रासो (शांगधर कृत-सं.१३५७), खुमाण रासो (दलपतिविजय-सं.११८०), बीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह-सं.१२१२), पृथ्वीराज रासो (चंद बरदाई-सं.१२२५-१२४९), जयचंद्र प्रकाश (भट्ट केदार-सं. १२२५), जयमयंक जस चंद्रिका (मधुकर कवि-सं.१२४०), परमाल रासो (जगनिक कवि-सं.१२३०), खुसरो की पहेलियाँ (अमीर खुसरो-सं.१३५०), विद्यापति की पदावली (विद्यापति-सं.१४६०) शुक्ल जी द्वारा किये गये वीरगाथाकाल नामकरण के सम्बन्ध में कई विद्वानों ने अपना विरोध व्यक्त किया है। इनमें श्री मोतीलाल मैनारिया, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि मुख्य हैं। आचार्य द्विवेदी का कहना है कि वीरगाथा काल की महत्वपूर्ण रचना पृथ्वीराज रासो की रचना उस काल में नहीं हुई थी और यह एक अर्ध-प्रामाणिक रचना है। यही नहीं शुक्ल ने जिन ग्रन्थों के आधार पर इस काल का नामकरण किया है, उनमें से कई रचनाओं का वीरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। बीसलदेव रासो गीति रचना है। जयचंद्र प्रकाश तथा जयमयंक जस चंद्रिका -इन दोनों का वीरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये ग्रन्थ केवल सूचना मात्र हैं। अमीर खुसरो की पहेलियों का भी वीरत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है। विजयपाल रासो का समय मिश्रबन्धुओं ने सं.१३५५ माना है अतः इसका भी वीरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। परमाल रासो पृथ्वीराज रासो की तरह अर्ध प्रामाणिक रचना है तथा इस ग्रन्थ का मूल रूप प्राप्य नहीं है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका- इन दोनों ग्रन्थों की रचना विद्यापति ने अपने आश्रयदाता राजा कीर्तिसिंह की कीर्ति के गुणगान के लिए लिखे थे। उनका वीररस से कोई सम्बन्ध नहीं है। विद्यापति की पदावली का विषय राधा तथा अन्य गोपियों से कृष्ण की प्रेम-लीला है। इस प्रकार शुक्ल जी ने जिन आधार पर इस काल का नामकरण वीरगाथा काल किया है, वह योग्य नहीं है। डॉ॰ ग्रियर्सन का मत डॉ० ग्रियर्सनने हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल का नाम 'चारण काल' (७००-१३०० ई०) रखा है। इस काल के नामकरण के मूल में राजपूताने के चारणों द्वारा रचित वीरगाथाएँ रही हैं। उनका इस संबंध में कथन है कि"हिन्दुस्तान का प्राचीनतम भाषा साहित्य राजपूताने के चारणों द्वारा प्रस्तुत ऐतिहासिक वृत्तान्त है । प्रथम चारण जिसके सम्बन्ध में कुछ निश्चित सूचनाएँ प्राप्त हैं, सुप्रसिद्ध चन्दवरदाई है, जिसने १२ वीं शती के अन्तिम भाग में दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान के वैभव और गुणों का वर्णन अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'पृथ्वीराज रासो' में किया है। उसका समसामयिक चारण जगनिक था जो पृथ्वीराज के महान् प्रतिद्वन्द्वी महोबा के परमर्दि का दरबारी था और सम्भवतः आल्हा खण्ड का रचयिता था जो पृथ्वीराज रासो की भांति हिन्दुस्तान में समान रूप से प्रख्यात है , दुर्भाग्य से हस्तलिखित रूप में सुरक्षित न रहकर मौखिक परम्परा में ही शेष रह सका है । डॉ॰ रामकुमार वर्मा का मत इतिहास की घटनाओं का वर्णन भी साहित्य के अन्तर्गत आ गया था, क्योंकि साहित्य इस समय वीर-पूजा अथवा धर्म और राजनीति के नेता के गौरव का गीत था। सत्य और धर्म के किसी भी अग्रणी का जीवन-चरित उस समय साहित्य था। राजनीति और साहित्य का इतने समीप आ जाना हिन्दी साहित्य के इतिहास में चारणकाल की विशेषता है। हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ॰ रामकुमार वर्माडॉ॰ रामकुमार वर्मा- इन्होंने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को चारणकाल नाम दिया है। रामकुमार वर्मा ने अपने पूर्ववर्ती इतिहासकारों की अपेक्षा अधिक विस्तृत और अधिक वेज्ञानिक रूप से विवेचत करते हुए इस काल के कवियों की विशिष्ट मनोदशा और प्रवृति को देखकर इसका नाम चारणकाल रखा । चारणों की इस विविष्टता की ओर शुक्लजी ने भी संकेत किया था। पर वे इस शब्द को प्रमुखता देने के पक्षपात्ती न थे। वे वीरगाथा को चारणों की पारिवारिक सम्पत्ति मानते थे। डा० वर्मा उस काल के शत-प्रतिशत कवियों को जाति, परम्परा और प्रवृति से चारण मानते है। राजनीति ओर साहित्य की समीपता को वे इस काल की प्रमुख विशेषता मानते है। इस काल के कवियों ने केवल आश्रयदाताओं को ही नही, सामान्य जनता को भी उत्साहित और प्रेरित किया। इसलिए इस काल का साहित्य केवल राजदरबारों में सुरक्षित न रहकर जनता के बीच भी लोकप्रिय हुआ । सिद्ध सामंत युग (राहुल संकृत्यायन का मत) सामन्त काल में सामन्त शब्द से उस युग की राजनीतिक स्थिति का पता चलता हे ओर अधिकांश चारण जाति के कवियों की राजस्तुतिपरक रचनाओं के प्रेरणा-स्रोतो का भी पता चलता है । -हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ० २३ ।राहुल संकृत्यायन- उन्होंने ८वीं से १३ वीं शताब्दी तक के काल को सिद्ध-सांमत युग की रचनाएँ माना है। उनके मतानुसार उस समय के काव्य में दो प्रवृत्तियों की प्रमुखता मिलती है- १.सिद्धों की वाणी- इसके अंतर्गत बौद्ध तथा नाथ-सिद्धों की तथा जैनमुनियों की उपदेशमुलक तथा हठयोग की क्रिया का विस्तार से प्रचार करनेवाली रहस्यमूलक रचनाएँ आती हैं। २.सामंतों की स्तृति- इसके अंतर्गत चारण कवियों के चरित काव्य (रासो ग्रंथ) आते हैं, जिनमें कवियों ने अपने आश्रय दाता राजा एवं सामंतों की स्तृति के लिए युद्ध, विवाह आदि के प्रसंगों का वर्णन किया है। इन ग्रंथों में वीरत्व का नवीन स्वर मुखरित हुआ है। राहुल जी का यह मत भी विद्वानों द्वारा मान्य नहीं है। क्योंकि इस नामकरण से लौकिक रस का उल्लेख करनेवाली किसी विशेष रचना का प्रमाण नहीं मिलता। नाथपंथी तथा हठयोगी कवियों तथा खुसरो आदि की काव्य-प्रवृत्तियों का इस नाम में समावेश नहीं होता है। प्रारंभिक काल (मिश्रबंधुओं का मत) मिश्रबंधुओं ने ई.स. ६४३ से १३८७ तक के काल को प्रारंभिक काल कहा है। यह एक सामान्य नाम है और इसमें किसी प्रवृत्ति को आधार नहीं बनाया गया है। यह नाम भी विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है। बीजवपन काल (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का मत) आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी- उन्होंने हिंदी साहित्य के प्रथम काल का नाम बीज-बपन काल रखा। उनका यह नाम योग्य नहीं है क्योंकि साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से यह काल आदिकाल नहीं है। यह काल तो पूर्ववर्ती परिनिष्ठित अपभ्रंश की साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास है। आदिकाल (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- इन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल को आदिकाल नाम दिया है। विद्वान भी इस नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है- वस्तुतः हिंदी का आदि काल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम, मनोभावापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य-रूढि़यों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परंपरा-प्रेमी, रूढि़ग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है। आदिकाल नाम ही अधिक योग्य है क्योंकि साहित्य की दृष्टि से यह काल अपभ्रंश काल का विकास ही है, पर भाषा की दृष्टि से यह परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा की सूचना देता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के आदिकाल के लक्षण-निरूपण के लिए निम्नलिखित पुस्तकें आधारभूत बतायी हैं- १.पृथ्वीराज रासो, २.परमाल रासो, ३. विद्यापति की पदावली, ४.कीर्तिलता, ५.कीर्तिपताका, ६.संदेशरासक (अब्दुल रेहमान), ७.पउमचरिउ (स्वयंभू कृत रामायण), ८.भविषयत्कहा (धनपाल), ९.परमात्म-प्रकाश (जोइन्दु), १0.बौद्ध गान और दोहा (संपादक पं.हरप्रसाद शास्त्री), ११.स्वयंभू छंद और १२.प्राकृत पैंगलम्। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि इस काल का काव्य हिन्दी के लिए आदिकालीन और मुख्य: चारणों द्वारा रचित वीरगाथात्मक आख्यानों से पूर्ण है। यो आदिकाल कहकर हम अपने दृष्टिकोण का विस्तार कर लेते है और वीरगाथाओं के अतिरिक्त जैनों-बौद्धों के काव्य को भी इसके अन्तर्गत स्वीकार कर लेते हैं ।इस प्रकार हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल के नामकरण के रूप में आदिकाल नाम ही योग्य व सार्थक है, क्योंकि इस नाम से उस व्यापक पुष्ठभूमि का बोध होता है, जिस पर परवर्ती साहित्य खड़ा है। भाषा की दृष्टि से इस काल के साहित्य में हिंदी के प्रारंभिक रूप का पता चलता है तो भाव की दृष्टि से भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के आदिम बीज इसमें खोजे जा सकते हैं। इस काल की रचना-शैलियों के मुख्य रूप इसके बाद के कालों में मिलते हैं। आदिकाल की आध्यात्मिक, श्रृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य में मिलता है। इस कारण आदिकाल नाम ही अधिक उपयुक्त तथा व्यापक नाम है। आदिकालीन हिंदी साहित्य
आषाढ शुक्ल त्रयोदशी भारतीय पंचांग के अनुसार चतुर्थ माह की तेरहवी तिथि है, वर्षान्त में अभी २५७ तिथियाँ अवशिष्ट हैं। पर्व एवं उत्सव इन्हें भी देखें हिन्दू काल गणना हिन्दू पंचांग १००० वर्षों के लिए (सन १५८३ से २५८२ तक) विश्व के सभी नगरों के लिये मायपंचांग डोट कोम विष्णु पुराण भाग एक, अध्याय तॄतीय का काल-गणना अनुभाग सॄष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक ब्रह्माण्डीय दिवस
मेहरगाँव, गैरसैण तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। उत्तराखण्ड - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर उत्तराखण्ड सरकार का आधिकारिक जालपृष्ठ उत्तराखण्ड (उत्तराखण्ड के बारे में विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी) मेहरगाँव, गैरसैण तहसील मेहरगाँव, गैरसैण तहसील
सरस्वती महल पुस्तकालय तंजौर में स्थित है। यहां पांडुलिपियों का महत्वपूर्ण संग्रह है। इसकी स्थापना १७०० ईसवी के आस-पास की गई थी। इस संग्रहालय में भारतीय और यूरोपीयन भाषाओं में लिखी हुई ४४००० से ज्यादा ताम्रपत्र और कागज की पांडुलिपियां देखने को मिलती हैं। इनमें से ८० प्रतिशत से अधिक पांडुलिपियां संस्कृत में लिखी हुई हैं। कुछ पांडुलिपियां तो बहुत ही दुर्लभ हैं। इनमें तमिल में लिखी औषधि विज्ञान की पांडुलिपियां भी शामिल हैं।
कोशिका विज्ञान और अनुवांशिकी में जीन उत्पाद (जीन प्रोडक्ट) ऐसा प्रोटीन या आर॰ऍन॰ए॰ होता है जो जीन व्यवहार द्वारा निर्मित हो। कोई जीन कितना सक्रीय है इसका अनुमान अक्सर उसके द्वारा उत्पन्न जीन उत्पाद की मात्रा के मापन से किया जाता है। असाधारण मात्रा में निर्मित जीन उत्पाद अक्सर रोग उत्पन्न करने वाली स्थितियों में देखा जाता है, मसलन किसी ओंकोजीन में असाधारण सक्रीयता से कर्करोग (कैंसर) आरम्भ हो सकता है। इन्हें भी देखें
सैंज, कर्णप्रयाग तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। उत्तराखण्ड - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर उत्तराखण्ड सरकार का आधिकारिक जालपृष्ठ उत्तराखण्ड (उत्तराखण्ड के बारे में विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी) सैंज, कर्णप्रयाग तहसील सैंज, कर्णप्रयाग तहसील
सुनोला तल्ला, अल्मोडा तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। इन्हें भी देखें उत्तराखण्ड के जिले उत्तराखण्ड के नगर उत्तराखण्ड - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर उत्तराखण्ड सरकार का आधिकारिक जालपृष्ठ उत्तराखण्ड (उत्तराखण्ड के बारे में विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी) उत्तरा कृषि प्रभा तल्ला, सुनोला, अल्मोडा तहसील तल्ला, सुनोला, अल्मोडा तहसील
अलमियां काण्डे, रानीखेत तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। इन्हें भी देखें उत्तराखण्ड के जिले उत्तराखण्ड के नगर उत्तराखण्ड - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर उत्तराखण्ड सरकार का आधिकारिक जालपृष्ठ उत्तराखण्ड (उत्तराखण्ड के बारे में विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी) उत्तरा कृषि प्रभा काण्डे, अलमियां, रानीखेत तहसील काण्डे, अलमियां, रानीखेत तहसील काण्डे, अलमियां, रानीखेत तहसील
त्रुटि संसूचन और सुधार किसी भी प्रकार के द्विआधारी अंक के द्वारा भेजे गए किसी संदेश में त्रुटि को पहचान कर सुधारने का कार्य करता है। किसी भी त्रुटि को पहचान करने के लिए कई पद्धति विकसित की गई है। हमारे कर्मचारी हमारे सबसे मूल्यवान संसाधन हैं और इसलिए, उनका स्वास्थ्य और सुरक्षा हमारी मुख्य चिंता है। सभी का योग चक्रीय अतिरेक जाँच इस पद्धति या विधि में किसी त्रुटि को पहचान करने के लिए दूसरा संकेत जिसे त्रुटि-संशोधन संकेत कहते हैं, का उपयोग किया जाता है। लेकिन इसके द्वारा कुछ ही त्रुटि का पता लगाया जा सकता है।
दिल्ली के चाणक्यपुरी क्षेत्र का एक सड़क मार्ग है। दिल्ली में सड़कें
सूला-अस०ई, पौडी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है। इन्हें भी देखें उत्तराखण्ड के जिले उत्तराखण्ड के नगर उत्तराखण्ड - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर उत्तराखण्ड सरकार का आधिकारिक जालपृष्ठ उत्तराखण्ड (उत्तराखण्ड के बारे में विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी) उत्तरा कृषि प्रभा सूला-अस०ई, पौडी तहसील सूला-अस०ई, पौडी तहसील
जापान की एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी (पस्ज) का प्रकाशन एक सहकर्मी द्वारा समीक्षा की हुई खगोल विज्ञान की वैज्ञानिक पत्रिका है जिसका प्रकाशन जापान की एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी द्विमासिक आधार पर करती है। पत्रिका की स्थापना १९४९ में हुई थी। वर्तमान प्रधान संपादक टी. शिगेयामा हैं । यह भी देखें खगोल विज्ञान पत्रिकाओं की सूची अमेरिकी खगोल समाज की विज्ञप्ति प्रशांत के खगोलीय समाज के प्रकाशन जापान की एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी की वेबसाइट का प्रकाशन पूरे वर्षों में पस्ज संपादकों की सूची विकिपरियोजना खगोलशास्त्र लेख वैज्ञानिक और तकनीकी पत्रिकाएँ
मानसा विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र, मध्य भारत में मध्य प्रदेश राज्य के २३० विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में से एक है। यह निर्वाचन क्षेत्र १९५१ में अस्तित्व में आया, जो तत्कालीन मध्य भारत राज्य के ७९ विधानसभा क्षेत्रों में से एक था। मानसा (निर्वाचन क्षेत्र संख्या २२८) नीमच जिले में स्थित ३ विधानसभा क्षेत्रों में से एक है। इस निर्वाचन क्षेत्र में जिले की पूरी मनासा तहसील शामिल है। मनसा मंदसौर लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है, इस क्षेत्र के सात अन्य विधानसभा क्षेत्रों में नीमच, जवाद, जावरा, मंदसौर, मल्हारगढ़, सुवासरा और गरोठ आते हैं। विधानसभा के सदस्य मध्य भारत राज्य के निर्वाचन क्षेत्र के रूप में: १९५१: राम लाल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस मध्य प्रदेश राज्य के निर्वाचन क्षेत्र के रूप में: १९५७: सुंदरलाल पटवा, भारतीय जनसंघ १९६२: सुंदरलाल पटवा, भारतीय जनसंघ १९६७: नंदराम दास (बालकवि बैरागी), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस १९७२: सूरजभाई तुगनावत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस १९७७: रामचंद्र बसर, जनता पार्टी १९८०: नंद राम दास (बाल कवि बैरागी), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई) १९८५: नरेंद्र भंवरलाल नाहटा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस। १९९०: राधे श्याम लाधा, भारतीय जनता पार्टी १९९३: नरेंद्र भंवरलाल नाहटा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस १९९८: नरेंद्र भंवरलाल नाहटा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस २००३: कैलाश चावला, भारतीय जनता पार्टी २००८: विजेंद्र सिंह मालाहेड़ा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस २०१३: कैलाश चावला, भारतीय जनता पार्टी २०१८: अनिरुद्ध मारू, भारतीय जनता पार्टी सुंदरलाल (बीजेएस) : १२,४३७ मत रामलाल (कांग्रेस) : ९,७३३ कैलाश चावला (भाजपा) : ६७,१९३ मत नरेंद्र नाहटा (कांग्रेस) : ४१,८३६ विजेन्द्रसिंह मालाहेड़ा (विजु बन्ना) (कांग्रेस) : ३८,६३२ मत अनिरुद्ध रामेश्वर (माधव मारू) (बीजीसएच / संभवतः बीजेपी विद्रोही या सहयोगी) : ३३,१९७ अनिरुद्ध मारू (भारतीय जनता पार्टी) : ८७,००४ मत यूएमआरओ सिंह शिवलाल (कांग्रेस) : ६१,०५० मध्य प्रदेश के विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र
एन एक्शन हीरो २०२२ की भारतीय हिंदी-भाषा ,एक्शन कॉमेडी, थ्रिलर फिल्म है, जिसका निर्देशन अनिरुद्ध अय्यर ने किया है, इसे नीरज यादव ने लिखा है, जो अय्यर की मूल कहानी पर आधारित है। और भूषण कुमार और कृष्ण कुमार (अभिनेता)|कृष्ण कुमार द्वारा टी-सीरीज और आनंद एल राय के तहत कलर येलो प्रोडक्शंस । फ़िल्म में आयुष्मान खुराना]] और जयदीप अहलावत ने अभिनय किया है। फिल्म कुछ र.आ.व दिखाना शुरू करती है। अधिकारी एक जांच कक्ष में प्रवेश करते हैं, जहां वे हथकड़ी पहने मानव को व्यायाम करते हुए पाते हैं। जैसे ही पूछताछ शुरू होती है कि मानव कैसे कटकर तक जाता है, वह बताता है कि काटकर का रास्ता विक्की और बूरा सोलंकी से होकर जाता है और फिर हम फिल्म की शुरुआत फ्लैशबैक में देखते हैं, जहां सुपरस्टार मानव एक लोकप्रिय अभिनेता है, जिसे फिल्म में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। एक्शन फिल्म। अपनी आगामी फिल्म के लिए, वह हरियाणा के मंदोठी में जाते हैं। विक्की सोलंकी, एक महत्वाकांक्षी राजनेता, जो वर्तमान में स्थानीय चुनाव लड़ रहे हैं, अपने दोस्तों के साथ मानव से मिलना और उनका अभिवादन करना चाहते थे, हालांकि, मानव अपने व्यस्त शूटिंग शेड्यूल के कारण ध्यान नहीं देता है कि जब विक्की से मिलने वाला होता है, तो वह डिलीवरी से विचलित हो जाता है। अपनी नई फोर्ड मस्टैंग की और एक लंबी ड्राइव पर जाती है। हालाँकि, विक्की गुस्से में है और मानव का पीछा करता है। मानव क्रोधित हो जाता है, और विक्की को धक्का देता है, जो एक पत्थर पर गिर जाता है और सिर और गर्दन में चोट लग जाती है। उसकी मौके पर ही मौत हो जाती है। भयभीत मानव गांव से भाग जाता है और यूके भाग जाता है। उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि विक्की का भाई, मांडोठी का एक नगरपालिका पार्षद, भूरा सोलंकी भी उसका शिकार करने के लिए ब्रिटेन पहुंच गया है। उसकी मस्टैंग का साइड मिरर हरियाणा में अपराध स्थल में पाया जाता है, और पुलिस जल्द ही विक्की की हत्या में मानव की भूमिका का निष्कर्ष निकालती है। मानव की प्रतिष्ठा खराब होती है और उसकी फिल्मों का बहिष्कार किया जाता है। यह खबर यूके में पहले ही पहुंच चुकी है, और मानव यूके पुलिस से खुद को छिपाने के लिए मजबूर है। बाजार से लौटते समय, मानव भूरा को अपने घर पर पाता है जिसने दो ब्रिटिश अधिकारियों को मार डाला है, लेकिन वह भागने में सफल हो जाता है और अपने वकील से मदद लेने की कोशिश करता है, लेकिन वह कोई जवाब नहीं देता। भूरा मानव का सामना करता है, जो अपनी बेगुनाही साबित करने की कोशिश करता है, लेकिन भूरा नहीं सुनता और उसे मारने की कोशिश करता है। मानव तब न केवल उस पर हावी होने का प्रबंधन करता है, बल्कि भूरा को कार के डेकलिड में बंद करके भाग जाता है। मानव की मदद के लिए अपने प्रबंधक पर दबाव डालने पर, वह एक वकील और फिक्सर से मिलने के लिए लोहार के पास पहुँचता है। भूरा आता है और उसे भी मार डालता है। जब वह मानव को मारने की कोशिश करता है, तो कादिर मानव का अपहरण करने आता है। वह फिर से भूरा की मदद से भाग जाता है। लेकिन उसे फिर से पीछे छोड़ देता है। भूरा यह जानने में कामयाब हो जाता है कि मानव को कहाँ ले जाया जाएगा, और वह कादिर को बंधक बना लेता है। इस बीच, मानव छुप-छुप कर थक जाता है, और अपने घर में दो ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों की हत्या करने वाले भूरा के सबूत के साथ खुद को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देता है। मसूद अब्राहम काटकर, भारत का नंबर एक डॉन जिसे मानव ने अप्रासंगिक कहकर ताना मारा था, उसका अपहरण कर लेता है। मानव को मसूद की मेजबानी वाले एक समारोह में ले जाया जाता है जहां उसे आजादी के बदले में प्रदर्शन करना होता है। उसी इमारत की पार्किंग में कादिर को मारने के बाद भूरा आता है और समारोह को बाधित करता है। वह फिर मसूद के आदमियों द्वारा पकड़ा जाता है। भूरा और मानव से पूछताछ करने पर, मसूद अप्रत्यक्ष रूप से भूरा को मानव को मारने की सलाह देता है। काटकर के साथ उनकी तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है, ठीक वैसे ही जैसे भूरा मानव को शूट करने वाला होता है। काटकर बुलेट को डिफ्लेक्ट करने में कामयाब हो जाता है और इसके बजाय वह मारा जाता है। अब मानव इस गलती के लिए भूरा का सामना कर रहा है और उसे अपनी ही दवा का स्वाद दे रहा है। इसके तुरंत बाद, काटकर के आदमी उन दोनों को मारने के लिए पहुंचते हैं और बंदूक की लड़ाई शुरू हो जाती है। मानव और भूरा काटकर के आदमियों को हराने में कामयाब होते हैं। मानव ने भारतीय दूतावास के साथ एक सौदा करने की योजना बनाई ताकि उन्हें यह बताया जा सके कि सरकार ने मानव की स्थिति का इस्तेमाल किया और उसे कड़कर को ट्रैक करने और मारने के मिशन के लिए सौंपा, इस प्रकार उसे जेल की सजा से बचाया। हालाँकि, एक अन्य मेमोरी लेन फ्लैशबैक में, यह दिखाया गया है कि भूरा जिसने पहले दिन महसूस किया कि मानव निर्दोष था और फिर भी अपने अहंकार और मौखिक के लिए उसे मारना चाहता था। भूरा उसे छोड़ने से इंकार कर देता है और मानव को मारना चाहता है। कोई विकल्प न होने पर, मानव भूरा को मार देता है और उसकी योजना सफल हो जाती है। मानव अपनी प्रतिष्ठा वापस प्राप्त करता है और भारत लौटता है, जहां वह ऑटोग्राफ सत्र के लिए अपने प्रशंसकों से घिरा रहता है। मानव वास्तव में "रियल एक्शन हीरो" बन जाता है. फिल्म की घोषणा अक्टूबर २०२१ में की गई थी. फिल्मांकन जनवरी २०२२ में लंदन में शुरू हुआ कऔर मार्च २०२२ में समाप्त हुआ। एंड कनकलुडेड इन मार्च २०२२. फिल्म का ट्रेलर टी-सीरीज के यूट्यूब चैनल पर रिलीज किया गया। फिल्म को नाटकीय रूप से २ दिसंबर २0२२ को रिलीज़ किया गया था। आयुष्मान खुरानामानव खुराना के रूप में। जयदीप अहलावत भूरा सोलंकी के रूप में। जितेंद्र हुड्डा - दरोगा रूप कुमार (इंस्पेक्टर) के रूप में। हितेन पटेल - कादिर के रूप में. नीरज माधव - साईं के रूप में. एलन बाजिल मोनटैरो मलाइका अरोड़ा " आप जैसा कोई " गाने में मानव की नायिका के रूप में. नोरा फतेही जेहदा नशा" गाने में मानव की नायिका के रूप में। डीजे वायरस किलर के रूप में मिगुल एंड्रयू फिश - चर्च में पुजारी के रूप में अक्षय कुमार एक कैमियो उपस्थिति में. कार्तिक श्रीवास्तव कांस्टेबल टीपू के रूप में।
रेक इट रैल्फ एक २०१२ में बनी अमेरिकी एनिमेटेड फिल्म है। इसका निर्माण वॉल्ट डिज्नी एनिमेशन स्टूडियो द्वारा किया गया था। २०१२ की फ़िल्में
ख़ुदत (अन्य नाम, ज़ुदात और ख़ुदाफ़) अज़रबैजान के उत्तरी भाग में स्थित कैस्पियन तराई में स्थित एक शहर है। यह खम्माज रेयॉन का एक हिस्सा है। इसकी आबादी १४,४४२ है। खुदात का ऐतिहासिक महत्व १८ वीं शताब्दी में हुआ, क्योंकि क़ुर्आन के शासन के तहत क़ुबा ख़ानते की प्रांतीय राजधानी थी। इस समय के दौरान, क्षेत्र के एक निवासी, हुसैन-खान ने फारस में समय बिताया था और शिया इस्लाम को अपनाया था, जिससे शाह की आँखों में एहसान पैदा हो गया, जिसने उन्हें क़ुबा और सलियान खाँते दोनों पर शासन करने दिया। हुसैन-खान ने इस क्षेत्र में लौट आए और खुदात में अपनी राजधानी स्थापित की। यह अवधि १७४७ तक चली, जब फारसी शासक नादिर शाह की हत्या कर दी गई। हुसैन-अली, हुसैन-खान के महान-पोते, ने कुबात को एक स्वतंत्र देश में बदलने की कोशिश करने का फैसला किया और ख़ुद को पेश किए गए बेहतर प्राकृतिक सुरक्षा के कारण अपनी राजधानी क़ुबा स्थानांतरित कर दी। शहर बाद में अजरबैजान में महत्व से बाहर हो गया और लोकप्रिय समुद्र तटों और नबरन क्षेत्र के रिसॉर्ट्स में भ्रमण शुरू करने के लिए एक स्थान बन गया है। अज़रबैजान का भूगोल
चौडियार, गंगोलीहाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के पिथोरागढ जिले का एक गाँव है। इन्हें भी देखें उत्तराखण्ड के जिले उत्तराखण्ड के नगर उत्तराखण्ड - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर उत्तराखण्ड सरकार का आधिकारिक जालपृष्ठ उत्तराखण्ड (उत्तराखण्ड के बारे में विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी) उत्तरा कृषि प्रभा चौडियार, गंगोलीहाट तहसील चौडियार, गंगोलीहाट तहसील
रामपुर ठोक्सिला नेपालके पुर्वांचल विकास क्षेत्रके सगरमाथा अंचलके उदयपुर जिलाकी एक गाँव विकास समिति है। इन्हें भी देखें
एंटो एंटनी भारत की सोलहवीं लोकसभा में सांसद हैं। २०१४ के चुनावों में इन्होंने केरल की पथनमथीट्टा सीट से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से भाग लिया। भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर सांसदों के बारे में संक्षिप्त जानकारी १६वीं लोक सभा के सदस्य केरल के सांसद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सांसद १७वीं लोक सभा के सदस्य १९५७ में जन्मे लोग
अजित बरुवा (; १९ अगस्त १९२६ से ३ अप्रैल २०१५) एक कवि-सहित्यिक, अनुवादक और प्रशाशनिक विषया थे। ब्रह्मपुत्र इत्यादि कविता ग्रन्थ के लिए उन्हे सन १९८९ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (असमिया) मिला। १९६३ के जेंराइ कविता के लिए वे जनप्रिय हुए। इलियत की शैली असमीया कविताओ में लाकर वे एक प्रकार से असमीया कविता की बौद्धिकता वापस लाए। ३ अप्रैल २०१५ को ८९ साल की उम्र में वे परलोक सिधारे। १९२६ में जन्मे लोग २०१५ में निधन साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत असमिया भाषा के साहित्यकार
जीना सिर्फ मेरे लिये २००२ में बनी हिन्दी भाषा की रूमानी फिल्म है। प्रमुख भूमिकाओं में तुषार कपूर और करीना कपूर हैं। यह तलत जानी द्वारा निर्देशित है और वाशु भगनानी द्वारा निर्मित है। यह फिल्म एक तेलुगू हिट फिल्म की आधिकारिक रीमेक थी। जीना सिर्फ मेर लिये बचपन के दोस्तों करण (तुषार कपूर) और पिंकी (पूजा) (करीना कपूर) के बारे में है। पिंकी और उसके पिता पिंकी के स्कूल ब्रेक के दौरान हर साल एक पहाड़ी स्टेशन पर आते हैं। पिंकी यहाँ एक कारण के लिए आने के लिए उत्सुक रहती है: करण। पूजा के पिता (विजयेन्द्र घटगे) एक व्यापारी है और उनके शहर वापस चले जाने के बाद वे अलग हो जाते हैं। करण को शहर से भी एक आदमी द्वारा अपनाया जाता है। पूजा के पिता उसे देश के बाहर अपने भाई के घर भेजते हैं। समय बीतता है और दोनों एक-दूसरे की यादों के साथ रहते हैं। वे एक दूसरे को खोजने की कोशिश करते हैं लेकिन असमर्थ रहते हैं। वह करण को खोजने के लिए अपनी बचपन की कहानी लिखती है और सीमा (मल्लिका शेरावत) से मिलती है। सीमा करण से मिलती है और उसे अपना प्रेमी समझ लेती है। उसने करण को एक पार्टी में आमंत्रित किया। पूजा और करण एक दूसरे से मिलवाए जाते हैं। बाद में, सीमा ने करण को मंच पर गाने को कहा। करण ने गीत "जीना सिर्फ मेरे लिये" गाया, जब पूजा महसूस करती है कि वह उसका बचपन का प्यार है। इस बीच, पूजा की कहानी बहुत लोकप्रिय हो गई कि सीमा के मालिक इस पर फिल्म बनाना चाहते थे। सीमा ने कहानी पढ़ी और महसूस किया कि करण और पूजा एक-दूसरे की खोज कर रहे थे। सीमा करण को बताने के लिए जाती है। जैसे ही वह पूजा ढूंढने जा रहा होता है, उसे अपने पिता से फोन आया कि उसकी बहन की शादी रद्द कर दी गई है। करण पूजा के पिता थे; उन्होंने पूजा और करण को मंजूरी नहीं दी। उन्होंने करण को केवल दो विकल्प दिए, उसके प्यार को भूलने के लिए जिससे उसकी बहन की शादी जारी रहेगी या वह पूजा के साथ एकजुट हो जाए और उसकी बहन को स्वीकार नहीं किया जाएगा और उसकी पारिवारिक प्रतिष्ठा बर्बाद होगी। उसने तुरंत पूजा को फोन लगाया और कहा कि वह उससे मिलने आ रहा है। पूजा, यह सब नहीं जानती और इस पल के आने का इंतजार कर रही थी। जब वे मिले, पूजा ने उससे अपनी भावनाओं को स्वीकार किया। करण ने कहा कि पार्टी में मिलने के बाद से वह उससे प्यार करने लगा है। पूजा एक ही समय में दुखी और गुस्सा हुई। वह रोती हुई भाग गई। सीमा कहानी की समाप्ति लिखने के लिये पूजा से कहती है लेकिन पूजा ने मना कर दिया और सीमा से किसी और से अंत को लिखने के लिए कहा। सीमा को महसूस हुआ कि कुछ गलत है। वह करण के सबसे अच्छे दोस्त से मिलती है और उससे कोई रहस्य को प्रकट करने के लिए कहती है जो वो छुपा रहे हैं। सीमा सच जान जाती है और पूजा को बताती है। पूजा सच को समझती है और करण से अपने पिता के सामने शादी करती है। वह करण को गोली मारते हैं लेकिन वो जीवित रहता है। अंत में वे खुशी से रहते हैं। करीना कपूर - पूजा (पिंकी) तुषार कपूर - करण मल्होत्रा कादर ख़ान - महेन्द्र मल्होत्रा विजयेन्द्र घटगे - पूजा के पिता आलोक नाथ - श्री खन्ना सतीश शाह - संपादक मल्लिका शेरावत - सोनिया हिमानी शिवपुरी - श्रीमती मल्होत्रा २००२ में बनी हिन्दी फ़िल्म नदीमश्रवण द्वारा संगीतबद्ध फिल्में
मधुबंती बागची ( बंगाली : )एक भारतीय गायिका और संगीतकार संगीतकार हैं। आगरा घराने की शिष्या, उनके प्रदर्शनों की सूची में भारतीय शास्त्रीय, पॉप और पार्श्व गायन की शैलियाँ शामिल हैं।मधुबंती बॉलीवुड फिल्मों और अन्य भारतीय फिल्म उद्योगों के लिए पार्श्व गायिका के रूप में काम करती हैं। उन्होंने अमित त्रिवेदी , सचिन-जिगर , प्रीतम , देबज्योति मिश्रा , शांतनु मोइत्रा जैसे प्रमुख संगीतकारों के साथ सहयोग किया है और उंचाई (२०२२), डॉक्टर जी (२०२२), गुड लक जेरी (२०२२), हम जैसी हिंदी फिल्मों में अपनी आवाज दी है। दो हमारे दो (२०२१), लक्ष्मी (२०२०) और लव आज कल (२०२०)। उन्होंने कुलेर अचार (२०२२), बौडी कैंटीन (२०२२), शाहजहाँ रीजेंसी (२०१९), अहारे मोन (२०१८), शोब भूतुरे (२०१७), गैंगस्टर जैसी फिल्मों में गानों के साथ बंगाली फिल्म उद्योग में अपनी कला की छाप छोड़ी है। (२०१६), शुधु तोमारी जोन्यो (२०१५) और अमी आर अमर गर्लफ्रेंड्स (२०१३)। मधुबंती ने २०२२ में चबुत्रो (फिल्म) के साथ गुजराती फिल्म उद्योग में कदम रखा । इस वर्ष प्रसिद्ध फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल की आगामी शेख मुजीबुर रहमान की बायोपिक, मुजीब: द मेकिंग ऑफ ए नेशन .. के लिए उनका रिकॉर्ड भी देखा गया २०२२ में, उन्होंने कोक स्टूडियो बांग्ला के पहले सीज़न में भी अभिनय किया । दोखिनो हवा गाने को यूट्यूब पर १० मिलियन से ज्यादा बार देखा गया है । उन्होंने फिल्म योर्स ट्रूली (२०१८ फिल्म) के लिए भी रचना की है । भारतीय फिल्म पार्श्वगायक भारतीय शास्त्रीय गायिका
नाट्य-शास्त्र की भारतीय परम्परा में दस रूपकों (अभिनेय काव्यों) का विधान है, जिन्हें दशरूप या दशरूपक कहते हैं। ये दस रूपक ये हैं - नाटक, प्रकरण, अङ्क (उत्सृष्टिकाङ्क), व्यायोग, भाण, समवकार, वीथी, प्रहसन, डिम और ईशामृग। एक ग्यारहवें रूपक 'नाटिका' की चर्चा भी भरत के नाट्य-शास्त्र और दशरूपक में आई है, परन्तु उसे स्वतन्त्र रूपक नहीं माना गया है। धनञ्जय ने भरत का अनुसरण करते हुए नाटिका का उल्लेख तो कर दिया है पर उसे स्वतन्त्र रूपक नहीं माना। अभिनेय काव्य को रूप अथवा रूपक कहते हैं। "रूप्यते नाट्यते इति रूपम् ; रूपामेव रूपकम्" - इस व्युत्पत्ति के अनुसार दृश्य काव्यों की सामान्य संज्ञा "रूप" या "रूपक" है। रूपक दो प्रकार के होते हैं : (१) प्रकृति, और सर्वलक्षण से सर्वांग से परिपुष्ट दृश्य को प्रकृतिरूपक कहा गया है जैसे नाटक ; और प्रकृतिरूपक के ढाँचे में ढले हुए परन्तु अपनी अपनी कुछ विशेषता लिए हुए दृश्य काव्य विकृतिरूपक कहे गए हैं। सामान्य नियम है- "प्रकृतिवद् विकृतिः कर्त्तव्या"। उभय प्रकार के रूपकों में भरत द्वारा सविशेष महत्त्व के दस रूप माने गए हैं जो दशरूप के नाम से संस्कृत नाट्यपरम्परा में प्रसिद्ध हैं। उनकी पगिणना करते हुए भरतमुनि ने कहा है- नाटकं सप्रकरणमङ्को व्यायोग एव च। भाणः समवकारश्च वीथी प्रहसनं डिमः॥ (नाट्यशास्त्र १८-२) ईहामृगश्च विज्ञेयो दशमो नाट्यलक्षणे। एतेषां लक्षणमहं व्याख्यास्याम्यनुपूर्वशः ॥ (नाट्यशास्त्र १८-३) दस रूप ये हैं- ( १. नाटक, २. प्रकरण, ३. अंक अर्थात् उत्सृष्टांक, ४. व्यायोग, ५. भाण, ६. समवकार ७. वीथी, ८. प्रहसन ९. डिम और १०. ईहामृग ) इन दस रूपों में कुछ विस्तृत रूप हैं और कुछ लघुकाय। इनके कलेवर का आयाम एक अंक की सीमा से लगाकर दस अंक तक का हो सकता है। इनमें मुख्य रस शृंगार या वीर रस होता है। इनकी कथावस्तु पाँच संधियों में विभक्त हाती है। पूर्ण रूप से परिपुष्ट रूपों में पाँचों संधियाँ पाई जाती हैं; अन्य लघुकाय रूपों में अपने अपने आयाम के मात्रानुसार बीच की संधियाँ छाँट दी जाती हैं। प्रत्येक रूप की कथावस्तु आधिकारिक एव प्रासंगिक रूप से विभाजित होती है। प्रधान पुरुष को नायक कहते हैं, जिसका मुख्य लक्ष्य रूप का कार्य समझा जाता है। कार्य की पाँच अवस्थाएँ होती हैं। आरम्भ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम। कार्य का अपर नाम 'अर्थ' है जिसकी पाँच प्रकृतियाँ मानी गई हैं : बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कर्य। कार्यावस्था और अर्थप्रकृति के समानांतर संयोग से क्रमश: पाँच संधियाँ घटित होती हैं : मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण। रूपकों में अभिनीत वस्तु दृश्य एवं श्रव्य होती है; श्रव्य भी दो प्रकार की कहीं गई हैं : नियत श्रव्य और सर्वश्रव्य। कथावस्तु के उस भाग को जो सामाजिक नीति के विरुद्ध हो, अश्लील या शास्त्रनिषद्ध हो, अथवा मुख्य कार्य का अनुपकारक हो, रंगमंच पर प्रदर्शित न करने का विधान हैं; परन्तु पूर्वापर संदर्भ से अवगत कराने के हेतु पूर्वोक्त प्रकार के जिस कथाभाग से प्रेक्षकवर्ग का परिचय होना अनिवार्य हो वह अंश कतिपय अमुख्य पात्रों के संवाद द्वारा उपस्थित किया जाता है। ऐसे संवाद को अर्थोपक्षेपक कहते हैं जिसके पाँच प्रकार हैं : विष्कम्भ, प्रवेशक, चूलिका, अंकमुख और अंकावतार। रूपकों के पात्र विविध श्रेणी के होते हैं : दिव्य, अदिव्य एवं दिव्यादिव्य। प्रत्येक पात्र अपनी प्रकृति के अनुसार उत्तम, मध्यम अथवा अधम माना गया है। पात्रों के द्वारा प्रयुक्त बोली एवं परस्पर संभाषण के भी नियम हैं। उत्तम पात्र संस्कृत का प्रयोग करते हैं, शेष पात्र प्रायेण विविध प्राकृत अथवा देशी भाषाओं का। प्रत्येक पात्र को विशेषत: प्रधान पात्रों के व्यवहार को वृत्ति कहते हैं जो अंतरंग भावों की विभिन्न चेष्टाओं की सहचरी है। कैशिकी, सात्वती, आरभटी और भारती नामक चार वृत्तियाँ प्रमुख मानी गई हैं। दशरूपों के अभिनय में देश और काल के अनुरूप वेशभूषा, आमोद प्रमोद एवं अन्य नाटकीय उपकरणों के संबंध में प्रायोगिक नियम भी विविध पात्रों के सामाजिक स्तर के अनुरूप निर्दिष्ट हैं जिनका समावेश नाट्यशास्त्र में "प्रवृत्ति" के अंतर्गत किया गया है। साथ ही नृत्य, वाद्य एवं संगीत का सहयोग, प्राकृतिक पृष्ठभूमि, पशु पक्षी का साहचर्य रूपक के प्रसाधन माने गए हैं। रूपकों की रचना में गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग किया जाता है अतएव दशरूपों की गणना काव्यभेद की दृष्टि से मिश्र काव्य में की जाती है। दशरूप का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन होते हुए भी ये तात्कालिक सामाजिक स्थिति को प्रतिबिंवित करते हैं; साथ ही साथ मानव जीवन के सदादर्शों की ओर कांतासंमत संकेत भी करते हैं। नाटक में निम्न विशेषताएं होनी चाहिए १-नाटक में कम से कम पांच अंक होंने चाहिए २-कथावस्तु इतिहास प्रसिद्ध होनी चाहिए ३-श्रृंगार अथवा वीर रस प्रधान होना चाहिए ४-पांचो संधियां(मुख, प्रतिमुख,गर्भ विमर्श निर्वहण) आदि होनी चाहिए दृश्य काव्य के अंतर्गत रुपक के दस भेदों में से एक । साहित्यदर्पण के अनुसार इसमें सामाजिक और प्रेम सम्बन्धी कल्पित घटनाएँ होनी चाहिए और प्रधानतः शृंगार रस ही रहना चाहिए । जिस प्रकरण की नायिका वेश्या हो वह 'शुद्ध' प्रकरण और जिसकी नायिका कुलवधू हो वह 'संकीर्ण प्रकरण' कहलाता है । नाटक की भाँति इसका नायक बहुत उच्च कोटि का पुरुष नहीं होता; और न इसका आख्यान कोई प्रसिद्ध ऐतिहासिक या पौराणिक वृत्त होता है । संस्कृत के मृच्छकटिक, मालतीमाधव आदि 'प्रकरण' के ही अंतर्गत आते हैं। नाट्य के दशरूपों के लक्षण और उनकी विशेषताओं का प्रतिपादन करनेवाला यह एक ग्रंथ है। अनुष्टुप श्लोकों द्वारा रचित "दशरूपकम्" नामक ग्रंथ धनञ्जय की कृति है। विस्तृत जानकारी के लिये दशरूपकम् देखें।
शहडोल ज़िला भारत के मध्य प्रदेश राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय शहडोल है। भूगोल व इतिहास ज़िले का गठन १९५९ मे किया गया था। यह पूर्व में कोरिया दक्षिण में अनूपपुर और बिलासपुर, उत्तर में सतना एवं सीधी तथा पश्चिम में उमरिया जिले से घिरा हुआ है। जिला पूर्व से पश्चिम में ११० किमी तथा उत्तर से दक्षिण में १७० किमी तक फैला हुआ है। जिला २२ डिग्री ३८ डिग्री उत्तरी अक्षांश से २४डिग्री २० उत्तरी अक्षांश और ३० डिग्री २८ पूर्व देशांतर से ८२ डिग्री १२ पूर्वी देशांतर में स्थित हैं। जिला डक्कन पठार के उत्तर-पूर्वी भाग में आता है। शहडोल जिले के निकट डिंडौरी, जबलपुर, सतना, सीधी, उमरिया, अनुपपूर और रीवा जिले हैं। उमरिया और अनूपपुर पहले शहडोल जिले का हिस्सा थे। सन १९९८ में उमरिया और २०03 में अनूपपुर नए जिले के रूप में सामने आए. पंडित शंभू नाथ शुक्ल विश्वविद्यलय, शहडोल शासकीय पोलीटेक्निक महाविद्यालय शहडोल शासकीय इंदिरा गांधी गृह विज्ञान महाविद्यालय शहडोल शासकीय नेहरू स्नात्कोत्तर महाविद्यालय बुढार शासकीय रामकिशोर शुक्ल, वाणिज्य महाविद्यालय ब्यौहारी शासकीय महाविद्यालय जैतपुर शासकीय महाविद्यालय जयसिंहनगर शासकीय अभयानंद संस्कृत महाविद्यालय कल्याणपुर शहडोल शासकीय इंजीनियरिंग यूआईटी आरजीपीवी महाविद्यालय, छत्तवाई शहडोल स्वामी विवेकानंद महाविद्यालय, कल्याणपुर शहडोल शासकीय चिकित्सा महाविद्यालय, शहडोल शासकीय महाविद्यालय गोहपारू प्राईवेट जनता विधि महाविद्यालय गोहपारू, शहडोल मप्र हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम। कंकाली देवी मंदिर सोन नदी एवं जुहिला नदी का संगम सरफा डैम शहडोल पंचमठा मंदिर सिंगपुर मरखी माता मंदिर केशवाही लखबरिया गुफा और मंदिर जिला पुरातत्व संग्रहालय माता सिंगवाहिनी भाटिया वाली जैतपुर इन्हें भी देखें मध्य प्रदेश के जिले मध्य प्रदेश के जिले
कुंटनहल, कौतालं मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कर्नूलु जिले का एक गाँव है। आंध्र प्रदेश सरकार का आधिकारिक वेबसाइट आंध्र प्रदेश सरकार का पर्यटन विभाग निक की वेबसाइट पर आंध्र प्रदेश पोर्टल आंध्र प्रदेश राज्य पुलिस की सरकारी वेबसाइट
सराज्म एक प्राचीन शहर और उत्तर-पश्चिमी ताजिकिस्तान में एक जमैत भी है। यह चौथी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व से है और आज यह यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है। यह सुग़्द प्रान्त में पंजाकेंत जिले में स्थित है। प्राचीन शहर सराज्म का पुरातात्विक स्थल दुरमन के पास स्थित है, जो उत्तर-पश्चिम ताजिकिस्तान की ज़रफ़शान घाटी में स्थित एक एक कस्बा है, जोकि उज्बेकिस्तान के साथ लगती सीमा के पास सुग़्द प्रान्त के अन्तर्गत आता है। पंजाकेंत शहर से १५ किलोमीटर पश्चिम में स्थित, यह स्थल लगभग १.५ किमी लंबाई और ४०० से ९०० मीटर की चौड़ाई में फैला हुआ है। अपने चरम पर, यह स्थल में ९० हेक्टेयर तक के क्षेत्र में रहा होगा, जिनमें से 3५ उत्खनित नहीं हैं। यह स्थल पुरातत्वविदों के लिए बहुत रुचि का विषय है क्योंकि यह मध्य एशिया के इस क्षेत्र में पहला प्रोटो-ऐतिहासिक कृषि समाज है। इसके अलावा, यह उन प्रोटो-ऐतिहासिक कृषि स्थायी बस्तियों का सबसे उत्तर-पूर्वी है। सरज्म मध्य एशिया का पहला शहर था जो तुर्कमेनिस्तान की स्टेपी और अरल समुद्र (उत्तर-पश्चिम में) से ईरानी पठार और सिंधु (दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में) तक एक विशाल क्षेत्र को कवर करने वाली बस्तियों के संजाल के साथ आर्थिक संबंधों को बनाए रखने के लिए था। विश्व धरोहर स्थल का दर्जा जुलाई २०१० में विश्व धरोहर स्थल सूची में सरज्म के प्रोटो-शहरी स्थल को "४वीं सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व से तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के अंत तक मध्य एशिया में मानव बस्तियों के विकास की गवाही देने वाली एक पुरातात्विक स्थल" के रूप में अंकित किया गया था। यह ताजिकिस्तान का पहला विश्व धरोहर स्थल है। पुरातात्विक स्थल की रक्षा के लिए, कुछ क्षेत्रों को धातु की छत से ढक दिया गया है जबकि अन्य को मिट्टी के नीचे पुन: दबा दिया गया है। स्थानीय लोगों और क्र्टरे अनुसंधान संस्थान की मदद से, चावल की भूसी और स्थिर पृथ्वी की रक्षा करने वाली कोटिंग के द्वारा पहले से उत्खनित किए गए नाजुक क्षेत्रों को बचाने का प्रयास किया गया है। ताजिकिस्तान में विश्व धरोहर स्थल ताजिकिस्तान के शहर
निमंत्रण का अर्थ किसी विशेष अवसर के लिये बुलावा।जयकुमार शादी का निमंत्रण पाणिनीय सूत्र की टीका में निमन्त्रण शब्द का जो अर्थ बताया गया है वो इस प्रकार है: = नियतरूपेण आह्वानं, नियोगकरणम्। अर्थात् निमन्त्रण का प्रयोग तब किया जाता है जब निमन्त्रित व्यक्ति का आना आवश्यक या कर्तव्य समझा जाता है। अन्य भारतीय भाषाओं में निकटतम शब्द
वेतन किसी नियोक्ता से किसी कर्मचारी को मिलने वाले आवधिक भुगतान का एक स्वरूप है जो एक नियोजन संबंधी अनुबंध में निर्देशित किया गया हो सकता है। यह टुकड़ों में मिलने वाली मजदूरी के विपरीत है जहाँ आवधिक आधार पर भुगतान किये जाने की बजाय प्रत्येक काम, घंटे या अन्य इकाई का अलग-अलग भुगतान किया जाता है। एक कारोबार के दृष्टिकोण से वेतन को अपनी गतिविधियाँ संचालित करने के लिए मानव संसाधनों की प्राप्ति की लागत के रूप में भी देखा जा सकता है और उसके बाद इसे कार्मिक खर्च या वेतन खर्च का नाम दिया जा सकता है। लेखांकन में वेतनों को भुगतान संबंधी (पेरोल) खातों में दर्ज किया जाता है। पहले वेतन का भुगतान चूंकि पहले कार्य-संबंधी-भुगतान विनिमय के लिए कोई पहला भुगतान का अंश (पे स्टब) मौजूद नहीं है, पहले वेतनभोगी कार्य में मानव समाज को इतना अधिक विकसित होने की जरूरत रही होगी कि उसके पास वस्तुओं या अन्य कार्य के बदले वस्तु के विनिमय को संभव बनाने के लिए वस्तु-विनिमय प्रणाली मौजूद हो। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यह संगठित नियोक्ताओं - संभवतः एक सरकार या धार्मिक निकाय - की मौजूदगी को पहले से मानकर चलता है जो इस हद तक नियमित आधार पर कार्य के बदले मजदूरी के आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करते हैं कि यह एक वेतनभोगी कार्य बन जाता है। इससे ज्यादातर लोग यह अनुमान लगाते हैं कि पहले वेतन का भुगतान नियोलिथिक क्रांति के दौरान, १०,००० बीसीई (ब्स) और ६.००० बीसीई (ब्स) के बीच किसी समय एक गाँव या शहर में किया गया होगा। लगभग ३१०० बीसीई (ब्स) की तारीख में एक कीलाक्षर से खुदी हुई मिट्टी का टेबलेट मेसोपोटामिया के श्रमिकों के लिए दैनिक बियर राशनों का एक रिकॉर्ड प्रदान करता है। बियर का मतलब नुकीले आधार वाला एक सीधा खड़ा मटका होता है। एक कटोरे में से खाता हुआ एक मानव सिर राशनों के लिए प्रतीक स्वरूप है। गोल और अर्द्ध-वृत्ताकार छापे माप का प्रतिनिधित्व करते हैं। एजरा की हिब्रू पुस्तक (५५०-४५० ईसा पूर्व (बीसीई)) के समय तक किसी व्यक्ति से नमक स्वीकार करने का मतलब जीविका प्राप्त करने, भुगतान लेने या उस व्यक्ति की सेवा में होने के सामान था। उस समय नमक के उत्पादन को सम्राट या शासक जमींदार द्वारा कड़ाई से नियंत्रित किया जाता था। एजरा ०४:१४ के अनुवाद की आधार पर फारस (पर्सिया) के राजा अर्ताक्सरेक्सेस प्रथम के सेवकों ने अपनी वफादारी इस प्रकार अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते थे "क्योंकि हम महल के नमक के कर्जदार हैं" या "क्योंकि हमें राजा से रख-रखाव का खर्च मिलता है" या "क्योंकि हम राजा के प्रति जिम्मेदार हैं।"'''' रोमन शब्द सैलरियम इसी तरह रोमन शब्द सैलरियम रोजगार, नमक और सैनिकों से जुड़ा है, लेकिन सटीक संबंध स्पष्ट नहीं है। कम से कम सामान्य सिद्धांत यह है कि स्वयं सोल्जर शब्द ही लैटिन के साल डेयर (नमक देना) से निकला है। वैकल्पिक रूप से, रोमन इतिहासकार प्लिनी द एल्डर ने समुद्री जल की अपनी प्राकृतिक इतिहास की चर्चा में परोक्ष रूप से कहा था, कि "रोम में... सैनिकों का भुगतान मूल रूप से नमक (साल्ट) था और वेतन (सैलरी) शब्द इसी से निकला है।.." प्लिनियस नेचुरेलिस हिस्टोरिया ज़्क्सी (प्लिनियस नेचुरेली हिस्टोरिया ज़्क्सी) . अन्य लोगों की टिपण्णी यह है कि सोल्जर (सैनिक) के गोल्ड सोलिडस से उत्पन्न होने की कहीं अधिक संभावना है, जिसके जरिये सैनिकों को भुगतान किये जाने की जानकारी है और इसके बदले उनका यह कहना है कि सैलरियम या तो नमक की खरीद के लिए एक भत्ता था या फिर नमक की आपूर्तियों का सामना करने और रोम को जाने वाले नमक मार्गों की सुरक्षा (सैलरियम से होकर) के लिए सैनिकों को रखने की कीमत थी। रोमन साम्राज्य और मध्ययुगीन एवं पूर्व-औद्योगिक यूरोप में भुगतान सटीक संबंध पर ध्यान दिए बगैर, रोमन सैनिकों को भुगतान किये गए सैलरियम को तब से पश्चिमी देशों में कार्य के बदले मजदूरी के रूप में परिभाषित किया गया है और इसने "किसी के नमक का हक़ अदा करने" के रूप में उन अभिव्यक्तियों को बढ़ावा दिया है। अभी तक रोमन साम्राज्य के भीतर या (बाद में) मध्ययुगीन और पूर्व-औद्योगिक यूरोप और उसके व्यापारिक कालोनियों में ऐसा प्रतीत होता है कि वेतनभोगी रोजगार अपेक्षाकृत दुर्लभ और विशेषकर सेवकों और उच्च-स्तरीय भूमिकाओं, ख़ास तौर पर सरकारी सेवा तक सीमित रहा है। इस तरह की भूमिकाओं का वैतनिक भुगतान काफी हद तक आवास और भोजन की व्यवस्था और वर्दी संबंधी कपड़ों के जरिये किया जाता था लेकिन नगदी का भी भुगतान किया जाता था। कई दरबारियों, जैसे कि मध्ययुगीन दरबारों में वैलेट्स डी चेंबर को वार्षिक राशि का भुगतान किया जाता था, कभी-कभी पूरक के रूप में उन्हें अप्रत्याशित अतिरिक्त बड़ी राशियाँ दी जाती थीं। सामाजिक स्तर के दूसरे छोर पर रोजगार के कई स्वरूपों में लोगों को या तो कोई भुगतान नहीं किया जाता था, जैसे कि गुलामी (हालांकि कई गुलामों को कम से कम कुछ राशि का भुगतान किया जाता था), दासत्व और करारनामे वाली ताबेदारी के मामले में होता था, या साझेदारी में फसल उगाने के मामले में उन्हें उपज का सिर्फ थोड़ा सा हिस्सा प्राप्त होता था। कार्य के अन्य सामान्य वैकल्पिक मॉडलों में स्वयं या सहभागिता आधारित रोजगार शामिल था जैसे कि कारीगरों की श्रेणी में विशेषज्ञों को मिलता था जो अक्सर अपने साथ वेतनभोगी सहायक रखते थे या कार्य और स्वामित्व का साझा करते थे, जैसा कि मध्यकालीन विश्वविद्यालयों और मठों में होता था। वाणिज्यिक क्रांति के दौरान भुगतान यहाँ तक कि १५२० से १६५० के बीच के वर्षों में वाणिज्यिक क्रांति द्वारा शुरुआत में कई सृजित रोजगारों और बाद में १८वीं और १९वीं सदियों में औद्योगीकरण के दौरान कोई वेतन नहीं दिया जाता था, लेकिन एक हद तक उन्हें कर्मचारियों के रूप में भुगतान किया जाता था, संभवतः घंटे या दैनिक आधार पर मजदूरी दी जाती थी या प्रति इकाई उत्पादन के आधार (जिसे पीस वर्क भी कहा जाता था) पर भुगतान किया जाता था। भुगतान के रूप में आमदनी का साझा इस समय के निगमों जैसे कि कई ईस्ट इंडिया कंपनियों में कई प्रबंधकों को मालिक-शेयरधारक के रूप में वेतन दिया जाता था। इस तरह के पारिश्रमिक की स्कीम लेखांकन, निवेश और कानूनी फर्म की साझेदारियों में अभी भी सामान्य है जहाँ प्रमुख पेशेवर व्यक्ति शेयर (इक्विटी) के भागीदार होते हैं और तकनीकी रूप से वेतन नहीं लेते हैं लेकिन इसकी बजाय अपनी वार्षिक आमदनी के हिस्से के आधार पर एक नियतकालिक "निकासी" प्राप्त कर लेते हैं। दूसरी औद्योगिक क्रांति और वेतनभोगी भुगतान १८७० से १९३० तक दूसरी औद्योगिक क्रांति ने रेलमार्गों, बिजली और टेलीग्राफ एवं टेलीफोन की सुविधाओं के जरिये आधुनिक व्यावसायिक निगमों को उभरने का मौक़ा दिया। इस युग में वेतनभोगी अधिकारियों और प्रशासकों के एक वर्ग को बड़े पैमाने पर उभरते देखा गया जिन्होंने नए, व्यापक-स्तर पर बनाए जा रहे उद्यमों में कार्य किया। नई प्रबंधकीय नौकरियों ने कुछ हद तक इस कारण से स्वयं को वेतनभोगी रोजगार के रूप में व्यवस्थित किया कि "कार्यालय संबंधी कार्य" के प्रयास और प्रतिफल को घंटों या टुकड़ों के आधार पर मापना बहुत मुश्किल था और कुछ हद तक इसलिए कि उन्हें शेयर के स्वामित्व से अनिवार्य रूप से कोई पारिश्रमिक नहीं प्राप्त होता था। जिस तरह २०वीं सदी में जापान का तेजी से औद्योगीकरण हुआ, कार्यालय संबंधी कार्य का विचार इतना आदर्श था कि इस भूमिका में काम करने वाले लोगों और उनके पारिश्रमिक का वर्णन करने के लिए एक नया जापानी शब्द (सैलरीमैन) गढ़ लिया गया। २०वीं सदी में वेतनभोगी रोजगार २०वीं सदी में सेवा अर्थव्यवस्था के उद्भव ने विकसित देशों में वेतनभोगी रोजगार को कहीं अधिक सामान्य बना दिया, जहाँ औद्योगिक उत्पादन संबंधी नौकरियों के संबंधित हिस्से में गिरावट आयी और आधिकारिक, प्रशासनिक, कम्प्युटर, मार्केटिंग और रचनात्मक नौकरियों - जिनमें से सभी वेतनभोगी होते थे - की हिस्सेदारी बढ़ गयी। आज के वेतन और भुगतान के अन्य स्वरुप आज, एक वेतन का विचार नियोक्ताओं द्वारा कर्मचारियों को दिए जाने वाले सभी तरह के संयुक्त पुरस्कारों की एक प्रणाली के हिस्से के रूप में निरंतर विकसित हो रहा है। वेतन (जिसे अब एक निश्चित भुगतान (फिक्स्ड पे) रूप में भी जाना जाता है) को एक "कुल जमा पुरस्कारों" की प्रणाली के एक हिस्से के रूप में देखा जाने लगा है (जिसमें बोनस, प्रोत्साहन भुगतान और कमीशन, लाभ और अनुलाभ (या भत्ते) और कई अन्य उपकरण शामिल होते हैं जो एक कर्मचारी की मापी गयी कार्यकुशलता से साथ पुरस्कारों का संबंध जोड़ने में नियोक्ता की मदद करता है। अमेरिका में वेतन संयुक्त राज्य अमेरिका में, नियतकालिक वेतन (जिनका भुगतान आम तौर पर कार्य के घंटों पर ध्यान दिए बगैर किया जाता है) और घंटों के पारिश्रमिक (एक न्यूनतम पारिश्रमिक जाँच में सफल होना और अतिरिक्त समय तक कार्य करना) के अंतर को पहली बार १९३८ के फेयर लेबर स्टैण्डर्ड्स एक्ट द्वारा संहिताबद्ध किया गया था। उस समय, पाँच श्रेणियों की पहचान न्यूनतम पारिश्रमिक और ओवरटाइम सुरक्षा से "मुक्त" होने के रूप में की गई थी और इसीलिये वेतन के योग्य थी। १९९१ में, कुछ कंप्यूटर कर्मियों को छठी श्रेणी के रूप में शामिल किया गया था लेकिन २३ अगस्त २००४ के प्रभावी इन श्रेणियों को संशोधित किया गया और वापस नीचे पाँच (आधिकारिक, प्रशासनिक, पेशेवर, कंप्यूटर और बाहर के बिक्री कर्मचारी) तक कम कर दिया गया था। वेतन आम तौर पर एक वार्षिक आधार पर निर्धारित किया जाता है। "एफएलएसए (फ्ल्सा) की अनिवार्यता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में ज्यादातर कर्मचारियों को काम के सभी घंटों और अतिरिक्त समय के भुगतान के लिए एक समय में कम से कम संघीय न्यूनतम वेतन का और एक कार्य-सप्ताह में ४० घंटे से अधिक काम किये गए सभी घंटों के लिए नियमित दर के वेतन के आधे का भुगतान किया जाए. हालांकि, एफएलएसए (फ्ल्सा) का सेक्शन १३(ए) प्रामाणिक अधिकारियों, प्रशासनिक, पेशेवर और बाहरी बिक्री संबंधी कर्मचारियों के रूप में नियुक्त कर्मचारियों के लिए न्यूनतम पारिश्रमिक और अतिरिक्त समय के भुगतान दोनों से छूट प्रदान करता है। सेक्शन १३(ए)(१) और सेक्शन १३(ए)(१7) भी कुछ ख़ास कंप्यूटर कर्मचारियों को भी छूट देता है। छूट की अर्हता प्राप्त करने के लिए कर्मचारियों को आम तौर पर अपनी नौकरी के दायित्व (ड्यूटी) के संदर्भ में एक जाँच परीक्षा में अनिवार्य रूप से सफल होना पड़ता है और'' उन्हें वेतन के आधार पर कम से कम ४४५ डॉलर प्रति सप्ताह का भुगतान किया जाता है। नौकरी का पदनाम छूट की स्थिति को निर्धारित नहीं करता है। एक छूट के लिए आवेदन करने के क्रम में कर्मचारी के विशिष्ट कार्य संबंधी दायित्वों और वेतन के मामले में विभाग के नियमों की सभी अर्हताओं को अनिवार्य रूप से पूरा करना होगा." इन पाँच श्रेणियों में से केवल कंप्यूटर संबंधी कर्मचारियों को घंटे के पारिश्रमिक के आधार पर छूट (२३.६३ डॉलर प्रति घंटा) मिलती है जबकि बाहरी बिक्री संबंधी कर्मचारी एकमात्र प्रमुख श्रेणी में आते हैं जिसे न्यूनतम वेतन (४५५ डॉलर प्रति सप्ताह) की जाँच परीक्षा नहीं देनी होती है हालांकि पेशेवरों (जैसे कि क़ानून या चिकित्सा के शिक्षकों और प्रैक्टिशनरों को) के अधीन कुछ उप-श्रेणियों में भी न्यूनतम वेतन संबंधी जाँच परीक्षा नहीं ली जाती है। नियतकालिक वेतनों की तुलना घंटों के पारिश्रमिक से करने का एक सामान्य नियम ४० घंटा प्रति सप्ताह और वर्ष में ५० हफ्ते (छुट्टी के लिए दो हफ़्तों को छोड़कर) के मानक कार्य पर आधारित है। (उदाहरण: ४०,००० डॉलर/वर्ष के नियतकालिक वेतन को ५० हफ़्तों से विभाजित करने पर ८०० डॉलर/सप्ताह के वेतन के बराबर होता है। ८०० डॉलर/सप्ताह को ४० मानक घंटों से विभाजित करने पर मान २० डॉलर/घंटा होता है। अमेरिकी जनगणना ब्यूरो द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका में वास्तविक औसत घरेलू आय २०06 और २०07 के बीच १.३ प्रतिशत चढ़ कर ५०,2३३ डॉलर पर पहुँच गयी थी। यह वास्तविक औसत घरेलू आय में तीसरी वार्षिक वृद्धि है। जापान में वेतन जापान में मालिक अपने कर्मचारियों को वेतन वृद्धि की सूचना "जिरी" के माध्यम से देते थे। यह अवधारणा अब भी मौजूद है और बड़ी कंपनियों में इसकी जगह एक इलेक्ट्रॉनिक स्वरुप या ई-मेल का इस्तेमाल किया जाने लगा है। भारत में वेतन भारत में वेतन का भुगतान आम तौर पर हर महीने की ७वीं तारीख को किया जाता है। भारत में न्यूनतम पारिश्रमिक का निर्धारण न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, १९४८ द्वारा किया जाता है। इसके बारे में विस्तृत विवरण को हप्स://वेब.आर्चिव.ऑर्ग/वेब/२०११०२२४२२५२५२/हप://लबोर्ब्यूरो.निक.इन/वेगताब.हत्म पर देखा जा सकता है। भारत में कर्मचारियों को उनकी वेतन वृद्धि के बारे में उनको एक हार्ड कॉपी लेटर देकर सूचित किया जाता है। इन्हें भी देखें प्रत्येक देश के आधार पर औसत पारिश्रमिक की सूची एकल अंक में वेतन अर्जित करने वालों की सूची सबसे बड़े खेल अनुबंधों की सूची सर्वाधिक आय वाले साल मानव संसाधन प्रबंधन
पास्ता (पास्ता) इटली का व्यंजन है। यह यूरोप व अमेरिका के रेस्तराओं में खूब चलती है। पास्ता के अनेकों प्रकार उपलब्ध हैं। पास्ता की खूबी है कि इसे आप मिनटों में घर पर तैयार कर सकते हैं। यह काफी हद तक चीनी नूड्ल्स से मिलता है, क्योंकि यह आटे से तैयार किया जाता है। कई लोग तो पास्ता को सलाद या अल्पाहार (स्नैक्स) के तौर पर लेना पसंद करते हैं। यह स्वादिष्ट होने के साथ-साथ स्वास्थ्यकर भी होता है और यह कई विटामिनों का स्रोत भी हए। पास्ता को अमूमन जैतून के तेल में पकाया जाता है और इसमें गोभी, मटर व गाजर डाल कर भी तैयार कर सकते हैं। इसके अलावा कई लोग रसेदार पास्ता भी बनाते हैं, ताकि वह सर्दी में पास्ता को सूप के रूप में खा सकें। बाजार में पास्ता कई आकारों में उपलब्ध है, जिसमें नलिकाकार, गोलाकार व भरवां खास हैं। बच्चों को मसाला पास्ता व चीज पास्ता सबसे ज्यादा पसंद आते हैं। इन्हें भी देखें
यू॰ थांट (; २२ जनवरी १९०९-२५ नवम्बर १९७४) एक बर्मी राजनयिक थे और इन्होने १९६१ से १९७१ तक संयुक्त राष्ट्र के तीसरे महासचिव के रूप में सेवा की। सितंबर १९६१ में जब संयुक्त राष्ट्र के दूसरे महासचिव डैग हैमरस्क्जोंल्ड का निधन हुआ तब वे इस पद के लिए चुने गए। संयुक्त राष्ट्र महासचिव के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उनकी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धियों में से एक रही क्यूबाई मिसाइल संकट के दौरान जॉन एफ कैनेडी और निकिता क्रुश्चेव के बीच वार्ता कराना, जिससे एक प्रमुख वैश्विक तबाही की संभावना से पूरा विश्व बच गया। "यू" बर्मीस में सम्मान सूचक शब्द है, जिसका अर्थ "श्रीमान" की तरह माना जा सकता है। "थांट" उनका वास्तविक नाम है। बर्मीस में वे "पंतानाव यू थान्ट" के नाम से जाने जाते हैं। "पंतानाव" शब्द उनके गृह नगर से लिया गया है। थांट का जन्म निचली वर्मा के पंटानव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पंटानव के नेशनल हाई स्कूल से हुयी। तत्पश्चात उन्होने रंगून विश्वविद्यालय से इतिहास विषय के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त की। चावल व्यापारी के परिवार में पैदा हुये थांट अपने चार भाइयों में सबसे बड़े थे। ब्रिटिश शासन काल के दौरान उनके पिता पो हानित ने कोलकाता से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद "दि सन रंगून" नामक अखबार को एक मानक के रूप में स्थापित किया। वे बर्मा रिसर्च सोसायटी के संस्थापक सदस्य भी थे। जब थांट १४ वर्ष के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गयी। विरासत के विवादों के कारण कठिन और विपरीत आर्थिक संकटों में उनकी माँ "नान थोंग" ने उनकी और अन्य तीन बच्चों की परवरिश की। उनके साथ-साथ उनके तीनों भाई यू खंट, यू थौंग और टिन मौंग भी आगे चलकर राजनेता और प्रखर विद्वान बने। विश्वविद्यालयी शिक्षा प्राप्त करने के बाद थांट पंटानव लौट आए और नेशनल हाई स्कूल में पढ़ाने लगे। पच्चीस साल की उम्र में ये उसी विद्यालय के प्रधानाध्यापक बने। इसी दौरान वे भावी प्रधान मंत्री "यू नु" के संपर्क में आए और उनके करीबी दोस्त बन गए। थांट ने "थाइलवा" के नाम से कई बड़े पत्र व पत्रिकाओं में नियमित रूप से आलेख और स्तंभ लिखे। कई पुस्तकें लिखी, जिसमें से एक पुस्तक "लीग ऑफ नेशंस" का उन्होने अनुवाद भी किया। थांट बौद्ध धर्म के अनुयाई थे। यू थांट के तीन भाई थे : पंटानव खांट यू॰, यू॰ थोंग और यू टिन मोंग। उनकी शादी डॉ थिन टिन से हुयी थी। उनके दो बेटे थे, लेकिन उन्होने दोनों को अपने जीवन में ही खो दिया। मोंग वो की प्रारंभिक अवस्था में ही मृत्यु हो गयी और टीन मोंग थोट की यांगून के लिए एक यात्रा के दौरान बस से गिर जाने के कारण मृत्यु हो गयी। यू थांट की एक बेटी, एक दत्तक पुत्र और पाँच पोते (तीन लड़कियां और दो लड़कें) बच गए थे। उनका एक पोता "मिंट यू थोंट" संयुक्त राष्ट्र के राजनीतिक मामलों के विभाग में पूर्व वरिष्ठ अधिकारी और इतिहासकार के साथ-साथ यू थांट के जीवनी लेखक हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात जब "यू नु" वर्मा के प्रधान मंत्री बने तब उन्होने १९४८ में यू॰ थांट को रंगून आने का निमंत्रण दिया और एक महत्वपूर्ण दायित्व देते हुये प्रसारण निदेशक का उत्तरदायित्व सौंपा। अगले वर्ष में वे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (बर्मा) में सचिव के पद पर नियुक्त हुये। १९५१ से १९५७ तक थांट प्रधानमंत्री के सचिव रहे। इस दौरान वे "यू नु" के लिए भाषण लिखने, उनकी विदेश यात्रा की व्यवस्था करने और विदेशी पर्यटकों के साथ बैठक आदि की व्यवस्था संभालते रहे। इस पूरी अवधि के दौरान, वे यू नु के करीबी विश्वासपात्र और सलाहकार थे। उन्होने कई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लिया और १९५५ में वे पहले एशियाई - अफ्रीकी शिखर सम्मेलन के सचिव भी रहे। १९५७ से १९६१ तक वे संयुक्त राष्ट्र के म्यांमार के स्थायी प्रतिनिधि रहे। इस दौरान संयुक्त राष्ट्र में म्यांमार के स्थायी प्रतिनिधि रहते हुये वे सक्रिय रूप से राष्ट्रवाद और प्रतिरोध पर अल्जीरियाई स्वतंत्रता वार्ता में शामिल हुये। १९६१ में बर्मा सरकार ने उन्हें एक कमांडर के रूप में ऑर्डर ऑफ प्यिडौंग्सु सिथु (ऑर्डर ऑफ पिडौंगसू सीतुं) से सम्मानित किया। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव थांट ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव का पद ३ नवम्बर १९६१ को ग्रहण किया, जब वे सर्वसम्मति से संयुक्त राष्ट्र महासभा और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सिफारिश पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव १६८, संकल्प १६८ के अंतर्गत डैग हैमरस्क्जोंल्ड के स्थान पर महासचिव नियुक्त किए गए। ३0 नवम्बर १९६२ को उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा प्रस्ताव पारित करके पुन: ३0 नवम्बर १९६६ को समाप्त होने वाली अवधि के बाद हेतु महासचिव नियुक्त किया गया। इस पद पर वे ३1 दिसम्बर १९७१ तक रहे। १९६५ में उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव के लिए जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार प्रदान किया गया। २५ नवम्बर १९७४ को न्यूयॉर्क में फेफड़ों के कैंसर से यू थांट की मृत्यु हो गयी। उस समय वर्मा में सैन्य शासन था, जो मृत्योपरांत उनके लिए किसी भी प्रकार के सम्मान से इंकार कर दिया। उल्लेखनीय है कि २ मार्च 196२ को "यू नु" की सरकार के तख्तापलट के बाद "नि बिन" ने वर्मा की शासन का बागडोर थामा था, यही कारण था कि तात्कालिक राष्ट्रपति "नि बिन" थांट से ईर्ष्या करते थे। उन्होने थांट की मृत्यु के बाद यह फरमान जारी किया था कि यू थांट को किसी भी सरकारी भागीदारी या समारोह के बिना ही दफन किया जाये। यही कारण था कि जब न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय से उनके मृत शरीर को रंगून ले जाया गया तब रंगून हवाई अड्डे पर तात्कालिन उप शिक्षा मंत्री के अलावा अन्य कोई सरकारी अधिकारी या वर्मा सरकार के उच्च पदस्थ व्यक्ति मौजूद नहीं थे। बाद में उस उप शिक्षा मंत्री को तात्कालिक वर्मा सरकार ने बर्खास्त कर दिया था। कहा जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय कद देकर वर्मी जनता ने उन्हें जो सर्वोच्च सम्मान दिया वह किसी भी बड़े सम्मान से कहीं ज्यादा बड़ा है। वे आज भी वर्मी जनता के दिलों में बसे हुये हैं। यू थांट शांति पुरस्कार विश्व शांति की प्राप्ति की ओर विशिष्ट उपलब्धियों के लिए यह सम्मान व्यक्तियों या संगठनों को दिया जाता है। संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के पीछे बहने वाली ईस्ट नदी पर "यू थांट द्वीप" उनके नाम पर है। मलेशिया के जालान कुआलालंपुर में उनके सम्मान में "यू थांट रोड" है। संयुक्त राष्ट्र से संबंधित यू थांट के छाया चित्र संयुक्त राष्ट्र के वेबसाईट से यू एन एस जी कार्यकर्ताओं की बायोग्राफी संयुक्त राष्ट्र के वेबसाईट से संयुक्त राष्ट्र महासचिव १९७४ में निधन १९०९ में जन्मे लोग
पाट (स्त्री० पाटी) अर्थात् बैठने के लिए प्रयुक्त पीढ़ा। प्रायः यह काठ का होता है किन्तु चाँदी आदि धातुओं के पात भी प्रयुक्त होते हैं। विवाह में कन्यादान के उपरांत वर के पीढ़े पर कन्या और कन्या के पीढ़े पर वर को बैठाया जाता है। बीकानेर के पाटे राजस्थान में करीब पाँच सौ वर्षों से अधिक प्राचीन एवं दीर्घ कालावधि तक परकोटे में सिमटे रहे ऐतिहासिक एवं पारम्परिक शहर बीकानेर की अपनी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान है। जातीय आधार पर विभिन्न चौकों/गुवाडों (मौहल्लों) में आबाद इस परकोटायुक्त शहर में आकर्षण का केन्द्र है विभिन्न चौकों/गुवाडों में अथवा घरों के बाहर पाय जाने वाले पाटे (तख्त)। पाटियों (लकडी की पट्टियों) से निर्मित पाटे सामान्यतः घरों के भीतर १ बाई १ या २ बाई २ वर्गफुट से लेकर मौहल्लों में १० बाई ८ वर्गफुट के होते हैं। घरों के भीतर पाटों की बनावट एवं सुन्दरता की भिन्नता उनमें व्यक्त प्रतिष्ठा एवं सम्मान की भिन्नता के अर्थ लिये हुए होती है। अतिथियों के भोजन या आनुष्ठानिक सामग्री की थाली रखने, विवाह में दूल्हा-दुल्हन को बिठाने आदि के लिए इन पाटों का प्रयोग होता है। लकड़ी के साधारण पाटों की अपेक्षा चाँदी के कलात्मक पाटे उच्च स्तर, प्रतिष्ठा एवं सम्मान के द्योतक होते हैं। मोहल्लों में स्थित विशाल पाटे तीन प्रकार के हैं- पहला: अतीत में बीकानेर नरेश के कृपा-पात्र व्यक्तियों द्वारा निर्मित एवं स्थापित पाटे, जो उनके राजनीतिक व प्रशासनिक प्रभुत्व, सामाजिक प्रतिष्ठा, आर्थिक सम्पन्नता एवं सांस्कृतिक योगदानों के द्योतक रहे हैं। दूसरा: कतिपय जातियों द्वारा स्थापित पाटे, जो जाति विशेष की उच्च स्थिति को इंगित करने के साथ-साथ अन्तरजातीय संबंधों, जातीय सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों, सार्वजनिक क्रियाकलापों, अथवा गतिविधियां, दान-पुण्य की क्रियाओं आदि के केन्द्र रहे हैं। तीसरा: किसी जाति अथवा मौहल्ले में किसी प्रकार-विशेष द्वारा स्थापित पाटे जो जाति-विशेष के परिवार की प्रतिष्ठा/सम्पन्नता को दर्शाते हैं। ये पाटे पारिवारिक, वैवाहिक, जातीय, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, आनुष्ठानिक, साहित्यिक, जनसंचार आदि विभिन्न क्रियाकलापों के जटिल संकुल हैं जो आज भी अस्तित्व में हैं। परकोटायुक्त शहर बीकानेर में पाटा संस्कृति का भाग है। सामान्य जन द्वारा इस शहर के जीवन को पाटा संस्कृति कहा जाता है। पाटा संस्कृति एवं पाटों के सांस्कृतिक सन्दर्भ की व्याख्या करने से पहले संस्कृति के अर्थ एवं संस्कृति की संरचना की विवेचना करनी होगी। परकोटायुक्त शहर बीकानेर में पाटों का अभिप्राय पाटा ऐतिहासिक एवं परम्परावादी शहर बीकानेर की मौलिक विशेषता है जिसे दृश्य रूप में परकोटायुक्त शहर में जातीय आधार पर बसे विभिन्न चौकों, गुवाडों, मौहल्लों में सार्वजनिक रूप से देखा जा सकता है। सामान्य तौर पर पाटा लकड़ी या लोहे से निर्मित बैठक या चौपाल है जिस पर मौहल्ले के निवासी बैठकर अपना सुख-दुःख बाँटते हैं। लेकिन सामाजिक एवं सास्कृतिक दृष्टि से पाटा परकोटायुक्त शहर की नियामक इकाई है, जिस पर अनेक परम्पराएँ एवं रीति-रिवाज सम्पन्न होते हैं। अतः पाटों के अर्थ को दो अर्थों में स्पष्ट किया जा सकता है। पाटों का शाब्दिक अर्थ पाटा संस्कृत भाषा के शब्द से बना है जिसका अर्थ दो किनारों के बीच की दूरी अर्थात् नदियों के दो तटों के बीच में जो दूरीयाँ होती है वह पाट कहलाती है। उसी तरह दो व्यक्तियों या दो जातीयों के बीच सामाजिक समागम की सीमा निर्धारित करने वाली इकाई पाटा कहलाता है अर्थात सामान्य व विशिष्ट व्यक्तियों या उच्च व निम्न जातीयों के बीच दूरियाँ मर्यादित करने वाला स्थान पाटा कहलाता है। जो प्रारम्भ में वैचारिक था, कालान्तर में स्थानिक हो गया और भौतिक प्रतिमान के रूप में उभर कर सामने आया। लेकिन वर्तमान में यह अर्थ कमजोर होता जा रहा है। पाटों का सांस्कृतिक अर्थ पाटा संस्कृति का एक भाग है लेकिन परकोटायुक्त शहर में यह अपने-आप में संस्कृति है। साधारण बोलचाल में इस शहर की संस्कृति को पाटा संस्कृति कहा जाता है। वास्तव में पाटा भौतिक दृश्यमान वस्तु है जो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है तथा मूक दर्शक के रूप में गतिहीन मगर चेतन है। लेकिन पाटों का एक सांस्कृतिक क्षेत्र है। इनसे सम्बन्धित अनेक प्रतिमान है। यह अनेक सांस्कृतिक तत्त्वों का संकुल है। इस पर जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक के संस्कार सम्पन्न होते हैं। धार्मिक एवं सामाजिक उत्सवों में पाटों की उपस्थिति आवश्यक है। पाटा पूर्वजों की कर्मस्थली है। तभी तो इस परकोटायुक्त शहर में ८० वर्ष की स्त्री पाटों के आगे से निकलते समय घूंघट अवश्य करती है। जबकि पाटों पर उनकी सन्तान के बराबर के व्यक्ति बैठे होते हैं। जब उस स्त्री से पूछा गया कि आपने घूंघट क्यों किया ? पाटों पर बैठे सभी व्यक्ति आपकी सन्तान तुल्य हैं तो उस औरत का उत्तर था कि पाटा हमारे दादा-ससुर व ससुर की पहचान व बैठने की जगह है। उनकी आत्मा तो पाटों पर ही रहती हैं क्योंकि उन्होंने पूरा जीवन इन्हीं पाटों पर बिताया है। इस दृष्टि से मानवशास्त्रीय अर्थ में पाटा टोटम है जो एक पवित्र वस्तु होने के साथ-साथ सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करता है। पाटा-परम्परा का उदय/पाटों की उत्पत्ति परम्परा अमूर्त एवं अलिखित होती है। कालान्तर में लिखित साहित्य के साक्ष्य पर आधारित हो जाती है। अतः परम्परा तो शाश्वत है, जो स्वतः विकसित होती हैं और धीरे-धीरे सामाजिक विरासत व सामाजिक प्रतिमान बन जाती है। पाटा और पाटों की परम्परा की उत्पत्ति का पता लगाना एक कठिन कार्य है। ५०० वर्षों के परकोटायुक्त शहर बीकानेर के इतिहास में पाटों की उत्पत्ति के बारे में ऐतिहासिक प्रमाण खोजने के दोरान कुछ ऐतिहासिक प्रमाण मिले जिनके आधार पर पाटों की उत्पत्ति के बारे में निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं- १. कवि श्री उदयचन्द खरतरगच्छ मथेन की बीकानेर गजल १७०९ नामक रचना में नगर व बाजार वर्णन काव्य में चौक का सन्दर्भ शामिल है, जिसमें लिखा गया है कि - चौहटे बिच सुन्दर चौक, गुदरी जुरत है बहु लोक, सुन्दर सेठ बैसे आय, वागे खूब अंग बणाय।। अर्थात् बाजार के बीचोंबीच चौक (पाटे) लगे हुए हैं जिन पर सेठ-साहुकार आकर बैठते हैं और व्यापार, परिवार तथा पूरे संसार की बातें करते हैं। उसी प्रकार गोदा चौकी का भी उल्लेख इस रचना में होता है। गोदा वास्तुशास्त्री था जिसने भांडासर जैन मन्दिर का निर्माण किया और उसी की याद में परकोटायुक्त शहर के रांगडी चौक में पत्थर की सुन्दर चौकी बनाई गई है। यह चौकी सुन्दर नक्काशी के लिए उस समय प्रसिद्ध थी। यह चौकी पाटे के आकार की बनी हुई थी, शोधवेत्ता कृष्णकुमार शर्मा के अनुसार इसी चौकी पर पगौडी शैली में सात पाटे रखे जाते थे। प्रसिद्ध भांडासर जैन मन्दिर का निर्माण पगौडी शैली में ही बनाया गया है। कुद लोगों का कहना है मन्दिर का निर्माण पाटों की इस शैली को देखने के बाद किया गया तो अन्य लोगों का मत है कि वास्तुकार गोदा की याद में यह पगौडा शैली के पाटों की परम्परा प्रारम्भ की गई। पिछले १० वर्षों से एक पाटे पर सात पाटे रखने की पगौडा शैली परम्परा समाप्त हो गई है। २. बीकानेर जैन संघ का विज्ञप्ति पत्र सन् १८३८ में अजीमगंज में विराजित खतरगच्छ नामक श्री सौभाग्य सूरिजी को आमन्त्रणार्थ भेजा गया जिसमें चित्रमय बीकानेर नगर का वर्णन किया गया है। राजा के सिंहासन की जगह पाटा दर्शाया गया है। इसी प्रकार उसमें गोदैरी चौकी, बोथरा चौकी, मालुवां री चौकी का चित्रण किया गया है। रास्ते में लोगों की भीड में पाटों का चित्रण दर्शाया गया है। ३. बीकानेर के शासक जोरावरसिंह (१७४०) के शासन में मोहता दीवान बख्तावरसिंह के मकान के आगे पाटा रखा हुआ है। इसका उल्लेख हरसुदास मोहता की बही (१९०६) में मिलता है। दीवान साहब की हवेली व शान-शौकत से तत्कालीन सरदार अमरसिंह व राजा जोरावरसिंह के चचेरे भाई उनके विरोधी बन गये। बाद में दीवान बख्तावरसिंह ने अमरसिंह की जगह, उनके भाई गजसिंहजी को सन्तानहीन शासक की मृत्यु के बाद बीकानेर का शासक बनाया। इन ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर बीकानेर शहर में १७०८ से पाटों की परम्परा चलती आ रही है लेकिन लोक-मान्यताओं के आधार पर राव बीका के समय से ही पाटों की परम्परा चलती आ रही है क्योंकि शासक स्वयं पाटों पर बैठकर ही शासन चलाते थे। स्थानीय भाषा में सिंहासनासीब होने को पाट बैठना कहा जाता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि प्रारम्भ में पाटे सरदारों के डेरों में लगते थे। जब राव बीका ने अपने पिता राव जोधा से राज चिह्न माँगे तो उन्होंने अपनी मृत्यु के बाद देने का वादा किया। जब उनकी मृत्यु हो गई तब उन्होंने अपने सौतेले भाई राव सूजाजी से ये चिह्न माँगे तो उन्होंने देने से मना कर दिया। तब राव बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया और मजबूर होकर जोधपुर नरेश को वे राज चिह्न देने पडे। यह राव बीका की प्रथम राजनीतिक जीत थी। इन राजचिह्नों में छत्र, चंवर, ढाल, तलवार, कटार, नागणेचीजी देवी की अठारहभुजी मूर्ति, तख्त, करण्ड, भवरढोल, बैरीसाल नगाडा, दलसिगार घोडा और भूजाई है। जिनमें तख्त राजदरबार का पवित्र सिंहासन है। इसका आकार पाटे के समान है। जब राव बीका इस तख्त पर बैठे तब उन्होंने अपने सरदारों से कहा था कि हम बैठे अपने दरबार पाट, तुम सब बैठो अपने डेरे पाट अर्थात् आज से हम दरबार में सिंहासन पर बैठ गये हैं और तुम सब भी अपने डेरे (मकान) में सिंहासन पर बैठो। उसी दिन से पाटे डेरों के आगे लगने लगे। इसके अलावा जातीय पंचायतों की बहियों में भी पाटों की स्थापना का उल्लेख मिलता है। जैसे सूरदासाणी पंचायत की बही में सन् १८०९ में पाटों के निर्माण का उल्लेख मिलता है। लखोटियों के चौक में लखोटियों की पंचायत बही में भी पंचायत का पाटा भी १८वीं शताब्दी में मौजूद था। इस प्रकार परकोटायुक्त शहर बीकानेर में १८वीं शताब्दी से पाटों की परम्परा लोक-जीवन में चलती आ रही है। जबकि लोक-मान्यताओं के आधार पर यह ५०० वर्षों से बीकानेर में राव बीका के समय से प्रचलित है। प्रारम्भ में लकड़ी के पाटों की जगह पत्थर की चौकियाँ प्रत्येक मौहल्ले में स्थापित थी। पाटों की संख्यात्मक स्थिति परकोटायुक्त शहर बीकानेर में पाटों के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए विभिन्न मौहल्ले, चौक, गुवाड में स्थित पाटों के बारे में प्राथमिक तथ्यों के संकलन हेतु पाटों पर बैठने वाले वृद्ध एवं प्रौढ उत्तरदाताओं तथा मौहल्ले के घरों में से चुने गये उत्तरदाताओं से व्यक्तिगत साक्षात्कार के दौरान निम्नलिखित जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं- १. परकोटायुक्त शहर में वर्तमान में विभिन्न मौहल्लों में ९३ पाटे स्थित हैं। २. १९५० से पहले बीकानेर शहर में लगभग १२० पाटे स्थित थे। इस तरह वर्तमान में २७ पाटे लुप्त हो गये। ३. वर्तमान में स्थित पाटों में १४ पाटों का पुराने पाटों की जगह नवनिर्माण कराया गया है। ४. वर्तमान में ७० प्रतिशत पाटों की देखरेख जातीय पंचायत के द्वारा की जाती है। २० प्रतिशत पाटे परिवार-विशेष द्वारा तथा १० प्रतिशत पाटों की देखरेख सामूहिक रूप से की जाती है। ५. परकोटायुक्त शहर के पाटों में ९० प्रतिशत पाटे पूर्ण रूप से लकड़ी के निर्मित हैं। १० प्रतिशत पाटे लोहे के बने हैं। लेकिन पट्टियाँ लकड़ी की हैं। इनके अलावा २२ प्रतिशत पाटे कलात्मक एवं अधिक पैर (पागे) वाले हैं शेष साधारण हैं। ६. पाटों के निरीक्षण के दौरान पाया गया कि ३० प्रतिशत पाटे अत्यन्त पुराने हो गये हैं। उनकी स्थिति अत्यन्त खराब है। लम्बे समय से देखरेख के अभाव के कारण ये जर्जर अवस्था में पहुँच गये हैं। ७. परकोटायुक्त शहर के प्रत्येक हिन्दू व जैन परिवार में पाटों का उपयोग किया जाता है। ८. घरों में पाटे विभिन्न प्रकार के, जैसे चाँदी की पात वाले, कलात्मक पाटे, लकड़ी की नक्काशी वाले पाटे, सुन्दर चित्रकारी के पाटे तथा साधारण परिवार में साधारण लकड़ी के पाटे देखे गये हैं। पाटों के सांस्कृतिक एवं सामाजिक प्रकार्य परकोटायुक्त शहर के सर्वेक्षण व निरीक्षण के दौरान प्राप्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पाटा एक जटिल सांस्कृतिक स्कूल है, जिसके अनेक स्वरूप, प्रकार्य एवं आयाम हैं। शहर बीकानेर के जीवन में पाटों की उपादेयता अपने आप में एक प्रतिमानकता हे। जिसे निम्नलिखित तथ्यगत विवरण के आधार पर स्पष्ट किया जा रहा है ः- धार्मिक कर्मकाण्ड एवं पाटे बीकानेर शहर, जिसे स्थानीय लोग धर्मनगर कहते हैं, आजादी से पहले इसी शहर को छोटा काशी भी कहते थे क्योंकि यहाँ प्रतिरोज कोई-ना-कोई धार्मिक आयोजन, जैसे यज्ञ, अनुष्ठान, कथावाचन होते रहते हैं। यहाँ जितने भी धार्मिक कर्मकाण्ड आयोजित किये जाते हैं उनकी खास पहचान पाटों की धार्मिक मान्यता एवं उनका उपयोग है। जीवन में पाटों का उपयोग हर जगह किया जाता है। चाहे मन्दिर हो या मकान या धार्मिक संस्कार, सभी जगह पाटों को पवित्र माना जाता है। क्योंकि शास्त्रों में लकडी, हवा, फल, बहता पानी व अग्नि को पवित्र माना जाता है। पाटे लकड़ी के बने होते हैं इसलिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में पवित्र माने जाते हैं।
श्री प्रबोधानन्द सरस्वती वास्तव मै सरस्वती के ही अवतार थे बुद्धि मै। ये बगाल के रहने वाले थे। श्री वृंदावन आकर ये श्री हित महाप्रभु के शिस्य हुये।
रविवार ३० नवंबर मुंबई में हुए चरमपंथी हमलों के लिए नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए भारत के केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने अपने पद से त्यागपत्र दिया। शनिवार २९ नवंबर भारत के मुंबई नगर में बुद्धवार, २६ नवंबर से जारी आतंकवादी आक्रमण को आज पुलिस, सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा बल ने मिलकर समाप्त कर दिया है। इन्हें भी देखें प्रवेशद्वार:हाल की घटनाएँ हाल की घटनाएँ
कोराकर मूल रूप से एक तमिल सिद्धार हैं, और तमिलनाडु के १८ प्रसिद्ध सिद्धों में से एक हैं। वह कोई और नहीं बल्कि गोरखनाथ हैं, सिद्ध हैं क्योंकि उन्हें पूरे भारत में पूजा जाता है। वह सिद्धार अगथियार और बोगार के छात्र थे, और बोगार के कार्यों में कई बार उल्लेख किया गया है। उनका जीव समाधि मंदिर तमिलनाडु के नागपट्टिनम जिले के वडुकुपोइगैनलुर में है। उन्होंने अपने बढ़ते हुए वर्षों को कोयंबटूर के वेल्लियांगिरी पहाड़ों में बिताया। उन्होंने भविष्य की भविष्यवाणी की। कोराक्कर से संबंधित अन्य अभयारण्य पेरूर, थिरुचेंदूर और त्रिकोनमल्ली हैं। कोराकर गुफाएं चतुरगिरि और कोल्ली पहाड़ियों में पाई जाती हैं। अन्य सिद्धों की तरह, कोराकर ने चिकित्सा, दर्शन और कीमिया पर गीत लिखे हैं। उनके कार्यों में कोराकर मलाई वागटम ( कोरक्कर की माउंटेन मेडिसिन ), मलाई वाकाडम, कोराकर वैप्पु, कालमेगम, मराली वरधम, निलैयोदुकम, चंदिरा रेगै नूल और कई अन्य शामिल हैं। कोराकर ने भविष्य की घटनाओं की भविष्यवाणी की है और चंदिरा रेगई नूल में लिखा है। उनके द्वारा भविष्यवाणी की गई ऐसी ही एक घटना यह थी कि बोगर दुनिया में फिर से पैदा होगा जब लोग भगवान में अपना विश्वास खो देंगे। कोराकर की गुफा जहां वे लंबे समय तक रहे, तमिलनाडु के एक गांव सथुरागिरी में स्थित है।
मुरादपुर अतरौली, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। अलीगढ़ जिला के गाँव
हॉलिडे इन गोवा, एक पांच सितारा होटल है जो हॉलिडे इन् समूह का हैं। यह होटल दक्षिण गोवा के सुरम्य मोबोर समुद्र तट पर स्थित है एवं यहाँ से बीच (समुद्र तट) काफी नजदीक हैं। हॉलिडे इन् गोवा, पारंपरिक गोवा और समकालीन वास्तुकला का एक अनूठा मिश्रण है। यह होटल डाबोलिम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से ४५ मिनट की दूरी पर स्थित है और मडगांव रेलवे स्टेशन से १७ किलोमीटर की दूरी पर हैं। इसलिए यह होटल आदर्श रूप से गोवा में आराम और छुट्टी बिताने लिए सर्वश्रेस्ठ जगह है। यहाँ पर कई देशी और विदेशी पर्यटक छुट्टी मनाने के लिए आते है। इस होटल का प्लस पॉइंट यहाँ से समुद्र तट का काफी नजदीक होना है। इसलिए इस होटल में मेहमानों का ताँता लगा रहता हैं। रचनात्मक सेटिंग्स, पेशेवर सेवा और शानदार व्यंजनों के साथ दावत आपके ठहरने के अनुभव को अविस्मरणीय बनाते हैं। यहा पर थाई चिकित्सा और आयुर्वेदिक उपचार में लिप्त हो कर आप मन शरीर में नई ऊर्जा का संचार कर सकते हैं। इस होटल में २०३ कमरे हैं जो बेहतरीन आंतरिक साज साज का उद्धरण पेश करते है। इन कमरों में सारे आधुनिक सुविधाएं मौजूद हैं। जो मेहमानो को ध्यान में रखते हुए बनाये गए हैं। इन कमरों के बालकनी से आप समुद्र/पूल/गार्डन का नजारा ले सकते हैं। यहाँ निम्नलिखित प्रकार के कमरे उपलब्ध हैं। जो बेहद ही सुरुचि पूर्ण ढंग से डिज़ाइन किये गए है। इन वातानुकूलित कमरों से पूल /गार्डन/समुद्र (आंशिक) नजारा ले सकते हैं। इन कमरों में डबल बेड, वार्डरोब एवं बैठने की व्यवस्था हैं। अटैच्ड बाथरूम में बाथ टब भी लगे हुए हैं। यहाँ पर रेफ्रेश्मेंट्स के लिए मिनी बार , चाय /कॉफ़ी मेकर भी है। अन्य सुविधाओं में टी वी , फ़ोन एवं इलेक्ट्रॉनिक सेफ हैं। यहाँ के डीलक्स कमरों से पूल/गार्डन/समुद्र का पूर्ण नजारा ले सकते है। इन वातानुकूलित कमरों में बड़ी डबल बेड, काम करने के लिए डेस्क, कॉफी टेबल, बैठने की व्यवस्था है। इन कमरों में चाय/कॉफी मेकर और एक मिनी बार की भी व्यवस्था हैं। अन्य सुविधाओं में टीवी, फ़ोन एवं इलेक्ट्रॉनिक सेफ हैं। प्लाजा पूल व्यू यहाँ के पूल व्यू कमरों से पूल /गार्डन/समुद्र (आंशिक) नजारा ले सकते हैं। इन वातानुकूलित कमरों में बड़ी डबल बेड, काम करने के लिए डेस्क, कॉफी टेबल, बैठने की व्यवस्था है। इन कमरों में चाय/कॉफी मेकर और एक मिनी बार की भी व्यवस्था हैं। अन्य सुविधाओं में टीवी, फ़ोन एवं इलेक्ट्रॉनिक सेफ हैं। फ़ूड एवं रेस्टोरेंट्स यहाँ पर खान पान की बहुत ही उचस्तरीय व्यवस्था हैं। यहाँ के रेस्टोरेंट्स में मन को तृप्त कर देने वाले व्यंजन परोसे जाते हैं यहाँ पर निम्न लिखित रेस्त्रां हैं। मार्डी ग्रास - २४ घंटे की कॉफी शॉप, यह बेहद लजीज गोवा, महाद्वीपीय और भारतीय भोजन उपलब्ध कराता हैं। व्हिसपरस ऑफ़ दा ओरिएंट - सुदूर पूर्व की प्रामाणिक व्यंजनों की सेवा। फिग & ओलिव: भूमध्यसागरीय व्यंजनों के लिए प्रसिद्ध एवं समुद्र को देखता हुआ रेस्तरां। ग्रिल- समुद्र तट रेस्तरां, समुद्री भोजन एवं गोवा और यूरोपीय व्यंजन के लिए प्रसिद्ध। सनडाउनर बार: कॉकटेल और शराब के लिए प्रसिद्ध।
अकेसिया प्यकनंथा सामान्यतः गोल्डन बाली के रूप में जाना बबूल पिक्नानता, साउथ ऑस्ट्रेलिया के लिए परिवार फैबसीए देशी का एक पेड़ है। यह ८ मीटर (२५ फुट) की ऊंचाई तक बढ़ता है और बजाय सच पत्तियों का फिलोडेस (चपटा पत्ती के डंठल) है। सिकल के आकार का, इन ९ और १५ के बीच सेमी (३.५-९ में) लंबे समय है, और १-३.५ सेमी चौड़ा (१/२-१ १/२ में) कर रहे हैं। विपुल सुगंधित, गोल्डन फूल लंबे समय से बीज फली, जिसके बाद देर से सर्दियों और वसंत ऋतु में दिखाई देते हैं। पौधों उन दोनों के बीच पराग स्थानांतरित फूलों के खिलाफ ब्रश पर अमृत जाएँ जो कई शहद खाने वाला की प्रजातियों और काँटा, ने पार परागण कर रहे हैं। नीलगिरी के जंगल में एक अंडरस्टोरी संयंत्र, यह विक्टोरिया के माध्यम से दक्षिणी न्यू साउथ वेल्स और ऑस्ट्रेलियाई राजधानी क्षेत्र, से और दक्षिण साउथ ऑस्ट्रेलिया में पाया जाता है। एक्सप्लोरर थॉमस मिशेल जॉर्ज बेन्थम कोई उप प्रजातियों में मान्यता प्राप्त कर रहे हैं १८४२ में प्रजातियों विवरण लिखा था जिसमें से प्रकार नमूना एकत्र। बबूल पिक्नानता की छाल इस परिसर के उत्पादन के लिए अपने व्यावसायिक खेती जिसके परिणामस्वरूप में किसी भी अन्य बाली प्रजातियों की तुलना में अधिक टैनिन पैदा करता है। यह व्यापक रूप से एक सजावटी बगीचे के पौधे के रूप में और कटौती फूल उत्पादन के लिए विकसित किया गया है, लेकिन दक्षिण अफ्रीका, तंजानिया, इटली, पुर्तगाल, सार्डिनिया, भारत, इंडोनेशिया,न्यूजीलैंड, साथ ही पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, तस्मानिया और न्यू साउथ में एक घास बन गया है वेल्स। बबूल पिक्नानता १९८८ में ऑस्ट्रेलिया के सरकारी पुष्प प्रतीक बनाया गया था, और देश के डाक टिकटों पर चित्रित किया गया है। बबूल पिक्नानता आम तौर पर ऊंचाई में मीटर के बीच ३ और ८ (१०-२५ फुट) के लिए एक छोटे से पेड़, ऊपर एम १२ के पेड़ (४० फुट) उच्च मोरक्को में सूचित किया गया है के रूप में हालांकि बढ़ती है। यह झुर्रीदार और पुराने पौधों में किसी न किसी तरह किया जा सकता है, हालांकि छाल युवा पौधों में चिकनी ग्रे करने के लिए भूरे रंग आम तौर पर अंधेरा है। टहनियों नंगे और चिकनी या एक सफेद फूल के साथ कवर किया जा सकता है। परिपक्व पेड़ों सच पत्ते है, लेकिन फीलोड्स-सपाट है और पत्ती उपजा है कि नीचे की शाखाओं से लटका चौड़ी नहीं है। चमकदार और गहरे हरे रंग की, इन हालत में तिरछा करने के लिए लंबे समय से ९ के बीच और १५ सेमी (३.५-९ में), १-३.५ सेमी (में १/२-१ १/२) चौड़ा और हंसुए की तरह घूमा हुआ (दरांती के आकार का) कर रहे हैं। नए विकास एक कांस्य रंगाई है। हेल संरक्षण पार्क में फील्ड टिप्पणियों नए विकास के थोक अक्टूबर से जनवरी तक वसंत और गर्मियों में जगह लेने के लिए दिखा। पुष्प कलियों नए विकास के सुझावों पर साल के दौर का उत्पादन कर रहे हैं, लेकिन केवल उन नवंबर के बीच शुरू की और कई महीने बाद फूल पर जा सकते हैं। फूल आमतौर पर गोल्डन बाली 'देशी रेंज में नवंबर (गर्मियों की शुरुआत करने के लिए देर से सर्दियों) जुलाई से जगह लेता है; बाद में कलियों, तेजी से जुलाई और अगस्त के ऊपर फूल चोटियों का विकास है। चमकीले पीले पुष्पक्रम २.५-९ सेमी (में १-३ १/२) कक्षा कलियों से उठता है कि -लंबी दौड़ पर ४०-८० के समूहों में होते हैं। प्रत्येक पुष्पक्रम फूल दे एक शराबी उपस्थिति सिर जो पाँच छोटे पंखुड़ियों (पेंटामेरस) और लंबी सीधा पुंकेसर, है कि ४० से १00 छोटे फूलों से कवर किया जाता है कि एक गेंद की तरह संरचना है। फूल समाप्त करने के बाद विकास, बीज फली, ५-१४ सेमी (में २-५ १/२) लंबी और ५-८ मिमी चौड़ा, सपाट सीधे या थोड़ा घुमावदार हैं। वे शुरू में चमकीले हरे हैं गहरे भूरे रंग के लिए परिपक्व और फली में एक पंक्ति में व्यवस्थित कर रहे हैं, जो बीज, के बीच मामूली संकोचनों है। आयताकार बीज खुद को एक मुदगरनुमा (क्लब के आकार का) बीजचोल साथ, लंबे काले और चमकदार ५.५-६ मिमी, कर रहे हैं। फली पूरी तरह से पका रहे हैं वे, दिसंबर और जनवरी में जारी किया जाता है। दिखने में इसी तरह की प्रजातियों पहाड़ हिकॉरी बाली (ए ओब्लिक्विनर्विया), तट गोल्डन बाली (ए लेइयोफिला) और स्वर्ण माला बाली (ए सालिग्ना) शामिल हैं। बबूल ओब्लिक्विनर्विया ग्रे, हरे फीलोड्स , इसके फूल सिर में कम फूल, और व्यापक (१.२५-२.५ सेमी (१/२-१ में) चौड़ा) बीज फली है। ए लेइयोफिला पीला फीलोड्स है। ए सालिग्ना अब, संकरा फीलोड्स है ऑस्ट्रेलिया के वृक्ष ऑस्ट्रेलिया के वनस्पति
निकेरी सूरीनाम का जिला है, यह देश के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसकी उत्तरी सीमा अटलांटिक महासागर, पूर्वी सीमा कोर्निये, दक्षिणी सीमा सिपेलिविनी तथा पश्चिमी सीमा गयाना के साथ लगती है। जिले की राजधानी नियूव-निकेरी है जो देश का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। सूरीनाम और पड़ोसी राष्ट्र गयाना के सम्बंध हमेशा से ही तनावपूर्ण रहें हैं। निकेरी से गयाना की लगती सीमा पर दोनों देशो के बीच कभी-कभी छिटपुट लड़ाईयां भी हो जाती हैं। निकेरी की आबादी में हिंदुस्तानी, जावा, क्रियोल, चीनी और पुर्तगाली मूल के लोग शामिल हैं। २००४ में जनगणना के अनुसार जिले की आबादी ३६,६११ है। इसका कुल क्षेत्रफल ५,3५3 वर्ग किलोमीटर तथा घनत्व ६.८ प्रति वर्ग किलोमीटर है। आबादी के मामले में यह देश का तीसरा सबसे बड़ा तथा क्षेत्रफल अनुसार चौथा सबसे बड़ा जिला है। निकेरी में पाँच रिसॉर्ट हैं। सूरीनाम के जिले
अनिल चौधरी (अंग्रेज़ी: अनिल चौधरी, जन्म- ७ सितम्बर, १९५०, धौलपुर, राजस्थान) लेखक, नाट्य निर्माता तथा निर्देशकों में से एक हैं। इन्होंने दूरदर्शन, ज़ी टी.वी. और सोनी टी.वी. के लिए कई नाटकों और धारावाहिकों का सफल निर्माण तथा निर्देशन किया है। मुम्बई के प्रसिद्ध पृथ्वी थिएटर का उद्घाटन अनिल चौधरी के ही नाटक 'उद्ध्वस्त धर्मशाला' से हुआ था, जिसमें मुख्य भूमिका प्रसिद्ध अभिनेता ओम पुरी ने निभाई थी। इन्होंने कई प्रसिद्ध नाटकों का निर्माण तथा निर्देशन किया, जिनमें 'नेहरू ने कहा था', 'फटीचर', 'माटी के रंग', 'काल कोठरी', 'कबीर', 'हैलो डॉक्टर' आदि प्रमुख हैं। 'करमचंद', 'रजनी', 'नुक्कड़' तथा 'ये जो है जिंदगी' आदि धारावाहिक इन्होंने ही लिखे थे। आप तीन वर्ष तक 'नेशनल फ़िल्म डवलपमेंट कॉरपोरेशन' की 'स्क्रिप्ट सलेक्शन कमिटी' के सदस्य भी रहे थे। अनिल चौधरी का जन्म ७ सितम्बर, १९५० को धौलपुर, राजस्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम 'विश्वनाथ सिंह' और माता का नाम 'प्रेम' था। जब ये मात्र १३ महीने के थे, तभी इनकी माता का देहावसान हो गया। बाद में इनके नाना चौधरी दिगम्बर सिंह इन्हें अपने साथ मथुरा ले आये। अनिल चौधरी की ज़्यादातर परवरिश नाना-नानी ने ही की, जिन्हें वे 'पिताजी' और 'माताजी' कहा करते थे। अनिल चौधरी की प्रारम्भिक शिक्षा अधिकतर मथुरा और कुरसंडा गाँव में हुई। तब तक इनके पिता विश्वनाथ सिंह ने दूसरा विवाह कर लिया और उन्होंने अनिल को पढ़ने के लिए अपने पास बुला लिया। जयपुर, पिलानी, कोटा और आगरा में पढ़ने के बाद ये वापस मथुरा आ गये और 'किशोरी रमण डिग्री कॉलेज' में दाखिला ले लिया। तब तक इनकी छोटी नानी ने भी एक पुत्र (आदित्य चौधरी) को जन्म दिया, जो आगे चलकर इनके घनिष्टतम मित्र बने। मार्क्सवादी गुरु 'सव्यसाची' का शिष्य बनने के बाद अनिल के कुछ बहुत अच्छे मित्र बने, उनमें से मुख्य हैं- अशोक चक्रधर और पीस व इंसाफ़ नामक एन.जी.ओ. चलाने वाले इन्हीं के नामराशि अनिल चौधरी। एस.एफ़.आई. की मथुरा शाखा बनी, जन सांस्कृतिक मंच बना और कुछ नए दोस्त भी बने- दिनेश अग्रवाल, इशारत अली आदि। एन.एस.डी. में द्वितीय वर्ष का विद्यार्थी नाटक का निर्देशन नहीं कर सकता, लेकिन अनिल चौधरी से एक नाटक निर्देशित करने को कहा गया। उन्होंने अशोक चक्रधर की मदद से मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में पर आधारित एक नाटक लिखा और उसका ऐसा मंचन हुआ कि उसकी समीक्षा अमेरिका की टाइम्स मैगज़ीन में छपी। यहीं पर इनके पंकज कपूर, रॉबिन दास और रंजीत कपूर जैसे मित्र बने और अतिया बख़्त से भी दोस्ती हुई। वर्ष १९७६ में कोर्स ख़तम हुआ और उसके बाद अनिल चौधरी का नाट्य निर्देशन का सिलसिला शुरू हुआ। अनिल चौधरी ने कई विदेशी नाटकों का रूपांतरण किया, जैसे- 'कैप्टेन ऑफ़ क्योपैनिक', 'बुर्जुआ जेंटलमैन', 'लक्स इन टेनेब्रिस', 'मिस्टर पुंटिला ऐंड हिज़ मैन मैटी'। उन्होंने देश भर में बहुत-से नाटक निर्देशित किए, जिनमें 'अंधेरे में', 'निशाचर', 'नौटंकी लैला मजनूं', 'उद्ध्वस्त धर्मशाला', 'बकरी', 'कौआ चला हंस की चाल', 'इन्ना की आवाज़' और 'रुस्तम सोहराब' प्रमुख हैं। बहुत-से थिएटर वर्कशॉप भी इन्होंने किए, जिनमें मथुरा स्थित वर्कशॉप इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें सभी ऐसे लोगों ने हिस्सा लिया था, जिन्होंने नाटक करना तो दूर, कभी नाटक देखा भी नहीं था। इनके साथ अनिल ने बकरी नाटक निर्देशित किया था, जिसे एन.एस.डी. में जर्मन निर्देशक फ्रिट्ज़ बेनेविट्स ने देखा तो उन्हें इतना अच्छा लगा कि उन्होंने इन्हें साथ में नाटक करने का न्योता दे डाला। इस तरह उनके लिए अनिल चौधरी ने 'मिस्टर पुंटिला ऐंड हिज़ मैन मैटी' का 'चोपड़ा कमाल नौकर जमाल' नाम से रूपांतरण किया और सह निर्देशन भी किया। एक पत्र कथा सारिका में और नाटक अंधेरे में नटरंग में प्रकाशित हुए। इसी दौरान अनिल के तीन नाटक- नौटंकी लैला मजनूं, रुस्तम - सोहराब और इन्ना की आवाज़ आकाशवाणी से प्रसारित हुए। दूरदर्शन के लिए धारावाहिक नेहरू ने कहा था का निर्माण, निर्देशन व लेखन किया। दूरदर्शन के लिए धारावाहिक फटीचर का लेखन व निर्देशन किया। दूरदर्शन के लिए धारावाहिक माटी के रंग का लेखन व निर्देशन किया। ज़ी टीवी के लिए धारावाहिक सब चलता है - टेक इट ईज़ी का निर्माण, निर्देशन व लेखन किया। दूरदर्शन के लिए धारावाहिक काल कोठरी का निर्माण, निर्देशन व लेखन किया। दूरदर्शन के लिए धारावाहिक हैलो डॉक्टर का निर्माण, निर्देशन व लेखन किया। ज़ी टीवी के लिए धारावाहिक फ़िलिप्स टॉप टेन लिखा। धारावाहिक महायज्ञ का निर्माण, निर्देशन व लेखन किया। ये धारावाहिक सोनी पर दो साल चला। दूरदर्शन के लिए धारावाहिक अभय चरन का निर्माण, निर्देशन व लेखन किया। ज़ी टीवी के लिए मनी गेम शो सवाल दस करोड़ का का लेखन किया। ज़ी टीवी के लिए आवाज़ - दिल से दिल तक का लेखन व निर्देशन किया। दूरदर्शन के लिए एक मराठी धारावाहिक चला बनुया रोडपति का निर्माण किया सब टीवी के लिए धारावाहिक गनवाले दुल्हनियां ले जाऐंगे का लेखन व निर्देशन किया। अनिल चौधरी (भारतकोश पर)
उस्मानपुर अतरौली, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। अलीगढ़ जिला के गाँव
चमौला, लोहाघाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के चम्पावत जिले का एक गाँव है। इन्हें भी देखें उत्तराखण्ड के जिले उत्तराखण्ड के नगर उत्तराखण्ड - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर उत्तराखण्ड सरकार का आधिकारिक जालपृष्ठ उत्तराखण्ड (उत्तराखण्ड के बारे में विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी) उत्तरा कृषि प्रभा चमौला, लोहाघाट तहसील चमौला, लोहाघाट तहसील
कनफ़ूशीवाद या कुन्फ़्यूशियसी धर्म ईसा पूर्व ५वीं शताब्दी में शुरू हुआ चीन का एक प्राचीन दर्शन और विचारधारा है। इसके प्रवर्तक थे चीनी दार्शनिक कुन्फ़्यूशियस, जिनका जन्म ५५१ ई.पू. माना जाता है। ये धार्मिक प्रणाली कभी चीनी साम्राज्य का राजधर्म हुआ करती थी। ये धर्म मुख्यतः सदाचार और दर्शन की बातें करता है, देवताओं और ईश्वर के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कहता। इसलिये इसे धर्म कहना ग़लत प्रतीत होता है, इसे जीवनशैली कहना अधिक उचित है। कनफ़ूशस् के दार्शनिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों पर आधारित मत को कनफ़ूशीवाद या कुंगफुत्सीवाद नाम दिया जाता है। कनफ़ूशस् के मतानुसार भलाई मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। मनुष्य को यह स्वाभाविक गुण ईश्वर से प्राप्त हुआ है। अत: इस स्वभाव के अनुसार कार्य करना ईश्वर की इच्छा का आदर करना है और उसके अनुसार कार्य न करना ईश्वर की अवज्ञा करना है। कनफ़ूशीवाद के अनुसार समाज का संगठन पाँच प्रकार के संबंधों पर आधारित है: (१) शासक और शासित, (२) पिता और पुत्र, (३) ज्येष्ठ भ्राता और कनिष्ठ भ्राता, (४) पति और पत्नी, तथा (५) इष्ट मित्र इन पाँच में से पहले चार संबंधों में एक ओर आदेश देना और दूसरी ओर उसका पालन करना निहित है। शासक का धर्म आज्ञा देना और शासित का कर्तव्य उस आज्ञा का पालन करना है। इसी प्रकार पिता, पति और बड़े भाई का धर्म आदेश देना है और पुत्र, पत्नी एवं छोटे भाई का कर्तव्य आदेशों का पालन करना है। परंतु साथ ही यह आवश्यक है कि आदेश देनेवाले का शासन औचित्य, नीति और न्याय पर आधारित हो। तभी शासित गण से भी यह आशा की जा सकती है कि वे विश्वास तथा ईमानदारी से आज्ञाओं का पालन कर सकेंगे। पाँचवें, अर्थात् मित्रों के संबंध में पारस्परिक गुणों का विकास ही मूल निर्धारक सिद्धांत होना चाहिए। जब इन संबंधों के अंतर्गत व्यक्तियों के रागद्वेष के कारण कर्तव्यों की अवहेलना होती है तभी एक प्रकार की सामाजिक अराजकता की अवस्था उत्पन्न हो जाती है। मनुष्य में अपने श्रेष्ठ व्यक्तियों का अनुकरण करने का स्वाभाविक गुण है। यदि किसी समाज में आदर्श शासक प्रतिष्ठित हो जाए तो वहाँ की जनता भी आदर्श जनता बन सकती है। कुशल शासक अपने चरित्र का उदाहरण प्रस्तुत करके अपने राज्य की जनता का सर्वतोमुखी सुधार कर सकता है। कनफ़ूशीवाद की शिक्षा में धर्मनिरपेक्षता का सर्वांगपूर्ण उदाहरण मिलता है। कनफ़ूशीवाद का मूल सिद्धांत इस स्वर्णिम नियम पर आधारित है कि 'दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम उनके द्वारा अपने प्रति किए जाने की इच्छा करते हो'।
आगरा शहर को सिकंदर लोदी ने सन् १५०४ ई. में बसाया था। आगरा मुल साम्राजय की चहेती जगह थी। आगरा १५२६ से १६५८ तक मुग़ल साम्राज्य की राजधानी रहा। आज भी आगरा मुग़लकालीन इमारतों जैसे - ताज महल, किला, फ़तेहपुर सीकरी आदि की वजह से एक विख्यात पर्यटन-स्थल है। ये तीनों इमारतें यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल हैं। बाबर (मुग़ल साम्राज्य का जनक) ने यहाँ चौकोर (आयताकार एवं वर्गाकार) बाग़ों का निर्माण कराया। मुगल काल के समय आगरा में नील की फसल उगाई जाती थी*
पाकिस्तानी राजनेता और पाकिस्तान के प्रांत, बलोचिस्तान के पूर्व राज्यपाल। बलूचिस्तान के राज्यपाल पाकिस्तान की राजनीति बलूचिस्तान, पाकिस्तान के राज्यपाल पाकिस्तान के लोग
अलंकार चन्द्रोदय के अनुसार हिन्दी कविता में प्रयुक्त एक अलंकार
पद्म भूषण सम्मान भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान है, जो देश के लिये बहुमूल्य योगदान के लिये दिया जाता है। भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों में भारत रत्न, पद्म विभूषण और पद्मश्री का नाम लिया जा सकता है। पुरस्कृत व्यक्तियों की सूची २६-जनवरी-२००९, तक १०३७ व्यक्तियों को यह अलंकरण प्रदान किया जा चुका है। पद्म भूषण सम्मानित व्यक्ति। [ २००८ में पद्म भूषण प्राप्त करने वालों की सूची]
उत्तरेगाँवघरघोडा मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है। छत्तीसगढ़ की विभूतियाँ रायगढ़ जिला, छत्तीसगढ़
बे ओवल (जिन्हें ब्लेक पार्क के नाम से भी जाना जाता है) एक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैदान है जो न्यूज़ीलैंड के बे ऑफ़ प्लेन्टी क्षेत्र के माउंट मॉन्गनुई में स्थित है। इस मैदान पर पहला एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच कनाडा क्रिकेट टीम और नीदरलैंड क्रिकेट टीम के बीच २८ जनवरी २०१४ को खेला गया था। जबकि पहला टी-२० अंतर्राष्ट्रीय मैच न्यूज़ीलैंड क्रिकेट टीम और श्रीलंकाई टीम के बीच ७ जनवरी २०१६ को खेला गया था।
स्वराज (पुस्तक) सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल द्वारा लिखी गयी एक पुस्तक है। इस पुस्तक में भारतीय लोकतान्त्रिक ढाँचे में बदलाव लाने एवं वास्तविक स्वराज के लाने का रास्ता दिखाया गया है। पुस्तक के बारे में इस पुस्तक का अनावरण २९ जुलाई २०१२ को नई दिल्ली स्थित जंतर मंतर पर किया गया था। उस समय में अरविंद केजरीवाल ने कहा था - "ये पुस्तक वर्तमान केन्द्रीयकृत प्रशासन व्यवस्था की कमियों को उजागर करती है और बताती है कि वास्तविक जनतंत्र कैसे लाया जा सकता है।" उन्होंने यह भी कहा कि वे इस पुस्तक से कोई रॉयल्टी नहीं कमाएंगे तथआ उनकी इच्छा है कि यह पुस्तक अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे।प्रख्यात गाँधीवादी समाजसेवी श्री अन्ना हजारे ने इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है।
विधि निदानशाला या लीगल क्लीनिक उन विधिक सहायकों को या विधि विद्यालयों को कहते हैं जो विभिन्न ग्राहकों को कानूनी सेवा देते हैं या कानून का व्यावहारिक अनुभाव प्रदान करते हैं।